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Books - बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

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वैभव नहीं महानता कमायें

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प्रकृति ने अपने भण्डार में वे सभी वस्तुएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कर रखी हैं जिनकी जीवन निर्वाह के लिए आवश्यकता है। जो वस्तु जितनी अधिक आवश्यक है, वह उतनी ही सरलता से सुलभ है। उदाहरण के लिए मनुष्य और अन्य जीवधारियों को जीने के लिए सांस लेना सबसे अधिक आवश्यक है। सांस लेने के लिए प्रकृति द्वारा वायु का सबसे बड़ा भण्डार उपलब्ध है। इसके बाद संभवतः पानी की आवश्यकता सबसे ज्यादा पड़ती है तो वायु के बाद पानी सर्वाधिक सरलता पूर्वक उपलब्ध है। उसे थोड़े बहुत प्रयत्नों द्वारा हर कहीं सरलता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। वायु तथा जल के बाद अन्न सबसे अधिक आवश्यक है उसे भी मनुष्य परिश्रम पूर्वक आवश्यक ही नहीं पर्याप्त मात्रा में उगा सकता है। धरती माता में इतनी पोषण और उर्वरा शक्ति विद्यमान है कि वह एक दाने के हजार दाने बनाकर मनुष्य को वापस लौटा देती है। इसी प्रकार वह पहनने के लिए वस्त्र, भोजन बनाने के लिए ईंधन आदि भी प्रकृति से ही प्राप्त करता है। औषधियां, लोहा, इमारती लकड़ी, मकान के लिए मिट्टी से बनी ईंटें, पत्थर, धातु, लोहा, तांबा, सोना आदि वस्तुएं भी धरती माता की कृपा से ही प्राप्त हो जाती हैं। इनमें जो वस्तुएं जितनी कम मात्रा में आवश्यक होती हैं वे उतनी ही दुर्लभता से मिलती हैं।

जीवन की सामान्य आवश्यकताएं साधारण प्रयत्नों से पूरी हो जाती हैं। प्रकृति ने ये सारी वस्तुएं इतनी आसानी से इसलिए उपलब्ध करा रखी हैं कि उसकी संतानों को जीवन निर्वाह में कोई कष्ट या असुविधा न हो और वह सरलता पूर्वक अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अपना विकास कर सके। वात्सल्य और ममत्व से परिपूर्ण हृदय वाले माता पिता जिस प्रकार अपने बच्चों की निर्वाह सम्बन्धी आवश्यकताएं जुटाते हैं उन्हें इस ओर से निश्चिन्त रखते हुए पढ़ने लिखने योग्य बनने और क्षमताओं को विकसित होने देने की व्यवस्था बनाते हैं प्रकृति भी बहुत कुछ ऐसी ही व्यवस्था अपनी संतान के लिए करती है। यह बात और है कि मनुष्य और अन्य प्राणियों को निर्वाह के लिए परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने का स्वरूप भले ही दूसरा रहता हो पर माता पिता के सान्निध्य में रहते हुए भी बच्चों को खाने पीने तथा पहनने ओढ़ने के लिए थोड़ा बहुत प्रयास तो करना ही पड़ता है।

प्रकृति ने जिस उद्देश्य से मनुष्य के लिए आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध करने की व्यवस्था जुटाई है, वह है मनुष्य का नैतिक, बौद्धिक और आत्मिक स्तर का विकास, उन्नयन तथा उच्च स्थिति में आरोहण। लेकिन आज कल आमतौर पर यही समझा जाता है कि अत्यन्तिक समृद्धि ही सर्वतो मुखी उन्नति और शांति का मूल आधार है। उस आधार पर ही व्यक्ति और समाज की आंतरिक स्थिति तथा बाह्य व्यवस्था स्थिर प्रगतिशील और उन्नति बनाती है।

समृद्धि बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना कोई बुरी बात नहीं है। एक प्रकार से वह मनुष्य की श्रमशीलता का पुरस्कार है लेकिन समृद्धि के प्रति आत्यंतिक आग्रह मनुष्य को अपने स्वभाव से ही विचलित कर देता है। इस दृष्टि से समृद्धि के प्रति एकांगी आग्रह मनुष्य को व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से पतन की ओर धकेलता है इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध विचारक ई.एफ. शूमाकर ने लिखा है आत्यन्तिक समृद्धि से सर्वतोमुखी की धारणा मनुष्य को दो प्रकार से क्षति पहुंचाती है। पहला तो यह कि इस धारणा ने शांति को और प्रगति के लिए त्याग अथवा शान्ति को अनावश्यक घोषित कर दिया है। और दूसरा यह कि जिस विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास हमने आज कर लिया है उस के कारण असमानता और शोषण की परम्परा बलवती होती जा रही है।

तथ्यों के संदर्भ में शूमाकर के इस प्रतिपादन को देखते हैं तो इसमें रत्ती भर भी अतिरंजना नहीं दिखाई देती है। एक बार किसी वस्तु विषय या लक्ष्य की उपयोगिता समझ ली जाय, भले ही वह अनुचित हो तो भी मनुष्य पूरी लगन और निष्ठा के साथ उसे प्राप्त करने में लग जाता है समृद्धि को सबसे मूल्यवान समझ लेने पर भी यही होता है। उनके लिये ललक उत्पन्न होने पर नैतिक मूल्य समृद्धि के मार्ग में रुकावट लगने लगती है। उदाहरण के लिए ईमानदारी से मेहनत करने पर लग सकता है कि उसके सत्परिणाम विलम्ब से मिलेंगे। जल्दी लाभ उठाने या अधिक मुनाफा कमाने के लिए मनुष्य बेईमानी से लेकर अन्य तरह के अनैतिक उपाय अपनाता है।

उपार्जन में अनीति का उपयोग किया जाता है तो स्वाभाविक है कि अर्जित धन भी इसी तरह की अमंगलकारी दुष्प्रवृत्तियां बढ़ाता है। परिश्रम, ईमानदारी और नीति पूर्वक कमाई गई सम्पत्ति को अनुचित ढंग से अपव्यय करने का साहस नहीं होता लेकिन जिस सम्पत्ति को कमाने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ी, या जो मेहनत से अधिक प्राप्त हो गई है उसका सदुपयोग हो सकेगा इसकी कम ही सम्भावना रहती है। उससे दूसरे लोगों को अपने लाभ के लिए खरीदना या उनके नैतिक मूल्यों का सौदा करना व्यभिचार, नशेबाजी, महंगे शौक दुर्व्यसन, विलासिता आदि कई प्रकार की अनय प्रवृत्तियां अपनाई जाने लगती हैं। जिनके पास इस तरह से साधन होते हैं वे तो बड़े मजे से यह भले बुरे काम कर लेते हैं, लेकिन जिनके पास इस तरह की साधन सुविधाएं नहीं होतीं वे भी सम्पन्न व्यक्तियों की देखा देखी उनकी तरह नकल करना चाहते हैं। इस योग्य स्थिति तो होती नहीं परन्तु अपने से ऊंची आर्थिक स्थिति के लोगों जैसे रहने की ललक उन्हें और भी जोर से अनीति के मार्ग पर धकेलती है। इस प्रकार समृद्धि को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य या जीवन दर्शन बना लेना व्यक्ति में गिरावट तथा समाज में अव्यवस्था ही पनपाता है।

इस तथ्य की ओर इंगित करते हुए शूमा करने अपनी पुस्तक ‘स्माल’ इजव्यूर्रा में लिखा है, आधुनिक व्यवस्था लोभ की प्रबल वासना से वंचित है तथा ईर्ष्या से ओत प्रोत है। स्वाभाविक ही समृद्धि और केवल समृद्धि को ही एक मात्र जीवन लक्ष्य मान लेना तो लोभ की प्रवृत्ति को ही पनपाता है। अब यह तो सम्भव नहीं है कि सभी लोग समान रूप से साधन सम्पन्न हो जायं या समृद्ध हों। विज्ञान की कृपा से अनेकानेक यन्त्र निर्मित हुए हैं जो थोड़े समय में प्रचुर उत्पादन करते हैं। सौ आदमियों का काम सम्हालने वाली एक मशीन बाकी निन्यानवे व्यक्तियों को बेकार बनाती और उन निन्यानवे व्यक्तियों द्वारा सम्भावित उपार्जन भी एक मालिक के पास चला जाता है।

मशीनों और यन्त्रों से थोड़े समय में अधिक उत्पादन होता है यह ठीक है पर यह भी सही है कि अधिक व्यक्तियों द्वारा हो सकने वाला उपार्जन थोड़े व्यक्तियों के पास चला जाता है। परिणाम यह होता है कि कुछ लोग जो मालदार और धन सम्पन्न होते हैं, मशीनें लगा सकते हैं उद्योग धन्धे और कल कारखाने खोल सकते हैं दिनों दिन और अधिक सम्पन्न होते जाते हैं तथा जिनके पास थोड़े साधन होते हैं, वे और साधन हीन, निर्धन होते जाते हैं। यह व्यवस्था विषमता की खाई को ही बढ़ाती है।

यह भी स्वाभाविक ही होगा कि जो लोग निर्धन और साधनहीन होते जाते हैं, उन्हें धनवानों और साधन सम्पन्नों से ईर्ष्या होगी। परिणाम स्वरूप समाज में कलह का वातावरण बनता है। समृद्धि को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मान लेना अनन्तः अनीति, अमंगल, अव्यवस्था और कलह को ही जन्म देना है। इसलिए आवश्यक है कि साधन वृद्धि की आवश्यकता को एक निश्चित स्तर तक ही सीमित रखा जाय। महात्मा गांधी ने भी औद्योगीकरण और यन्त्रीकरण को उतना ही आवश्यक माना था जितने से कि मनुष्य का जीवन और सरल बने। यन्त्रीकरण बुरा भी नहीं है, बुरा उस स्थिति में है जब समृद्धि ही जीवन दर्शन बन जाय। साधन सुविधायें भले ही बढ़ाई जाय पर उन का उपयोग वैभव विलास, बड़प्पन की धाक जमाने और दूसरों को छोटा सिद्ध करने के लिए नहीं किया जाय। इस तथ्य और सत्य को पूरी तरह स्वीकार तथा अंगीकार किया जाना चाहिए कि जीवन साधनों के लिए नहीं है बल्कि साधन सुविधाएं जीवन के लिए हैं। जीवन सर्वोच्च और सर्वाधिक मूल्यवान है तथा उसकी सार्थकता आत्मिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास एवं ऊपर उठाने में ही है। अन्य किसी भी रूप में जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। इसलिए आदर्शों और नैतिक मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए ही किसी क्षेत्र विशेष में प्रवेश और प्रगति के प्रयास करने चाहिए।

धन, वैभव, पद, बड़प्पन को देखकर दूसरे लोग यह अनुमान लगाते हैं कि जिनके पास यह संपदाएं हैं वे बहुत सुखी होते हैं, पर असल में बात ऐसी है नहीं। कोल्हू में बैल को चलते देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह तेल पीता होगा खली खाता होगा और तेल के व्यापार से लाभ कमाता होगा तो यह मान्यता सही नहीं है। दूर से देखने पर अक्सर ऐसे ही भ्रम हो जाते हैं। अंधेरी रात में जंगली झाड़ हाथी जैसा लगता है, पर पास जाने पर असलियत खुल जाती है। सम्पदाएं चन्द्रमा की तरह दूर से चमकती तो खूब हैं, पर कोई वहां चला जाय तो वायु, जल, जीवन रहित एक निष्प्राण नीरव और अण्ड-खण्ड पिण्ड ही दृष्टिगोचर होगा।

वैभव संग्रह कर सकना सहृदय व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं, संसार में इतना दुःख भरा पड़ा है कि उसे दूर करने के लिए सम्भव तो क्या सहृदय व्यक्ति अपना प्राण भी देना चाहता है। जो सब ओर से आंख बन्द किये रहे—अपने और अपने बेटे की अमीरी ही सोचता रहे, केवल उसी कठोर हृदय कंजूस के लिए अमीर बन सकना संभव है। न्यायोपार्जित आजीविका स्वल्प होती है, उससे गुजारा भर हो सकता है—संग्रह नहीं। संग्रहित सम्पदा—समीपवर्तियों में ईर्ष्या, द्वेष उत्पन्न करती है। ठग पीछे पड़ते हैं और उनकी धाक न लगे तो शत्रु बनते हैं। संग्रह की सुरक्षा और भी कठिन है। मधुमक्खी के छत्ते पर न जाने कितनों का दांव रहता है, फिर वह सम्पदा मदोन्मत्त बनाती है, अहंकार बढ़ाती है और व्यसनी, विलासी बनाकर पतन के गर्त में धकेल देती है। जब तक वह संग्रह रहता है उत्तराधिकारी भी यह दण्ड दुष्परिणाम भोगते हैं।

विभूतियां आन्तरिक सद्गुणों को कहते हैं। असली सम्पदाएं यही हैं। वे जहां भी होंगी व्यक्तित्व में श्रेष्ठता का समावेश करेंगी। सम्मान और सहयोग का क्षेत्र बढ़ायेंगी। मित्रों का क्षेत्र विस्तृत होता चला जायेगा प्रशंसकों की कमी न रहेगी।

सद्गुणों के आधार पर ही ठोस, चिरस्थायी, उच्चकोटि की सफलतायें मिलती हैं।  श्रमशीलता, साहस, धैर्य लगन, संयम और अध्यवसाय के आधार पर ही इस संसार में विविधविधि, उपलब्धियां प्राप्त होती हैं और प्रगति का पथ प्रशस्त होता है। सच्चरित्रता और प्रामाणिकता के आधार पर ही विश्वास प्राप्त किया जाता है और विश्वासी को ही समाज में अपनाया जाता है, उसे ही महत्वपूर्ण काम सौंपे जाते हैं और सहयोगी दिये जाते हैं और उस कमी के कारण उसे कहीं भी सच्चा सहयोगी नहीं मिलता। फलस्वरूप महत्वपूर्ण प्रगति से उसे आजीवन वंचित ही रहना पड़ता है।

सद्भावना सम्पन्न—सद्गुणी व्यक्तित्व अपने आपमें एक वरदान है। ऐसा व्यक्ति अपने भीतर सन्तोष, उल्लास और हलकापन अनुभव करता है। उसे न किसी से डर होता है न दुराव। जिसमें न भीरुता है न दुष्टता वह किसी से क्यों डरेगा? जिसके मन में पाप दुराव नहीं है उसे किसी के आगे झेंपने, झिझकने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी? सदाचारी व्यक्ति निर्भय रहता है और निर्द्वन्द्व। अपनी न्यायोपार्जित आजीविका से गरीबों जैसा गुजारा करते हुए भी उसे इतना सन्तोष रहता है जितना अनीति उपार्जित विपुल सम्पदा के स्वामी को कभी स्वप्न में भी नहीं मिल सकता। हमें सम्पदाओं के लिए लालायित नहीं होना चाहिए। विभूतियों का महत्व समझना चाहिए। जहां विभूतियां होगी वहां सम्पदाएं भी रहेंगी। पर आंख मूंद कर सम्पदा के पीछे भागने से खाली हाथ रहना पड़ता है। न सुख मिलता है न सन्तोष।  

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