
सम्पदाएं सत्कार्यों में नियोजित हों
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प्रतिभाओं के अनेक क्षेत्र हैं—दर्शन, अध्यात्म, साहित्य, राजनीति, सिनेमा, रंगमंच, नृत्य, गीत-संगीत, समेत समस्त ललित कलाएं आदि। इन सभी मानवीय विभूतियों को सत्पथगामी होना चाहिए, अन्यथा के समाज में अनर्थ फैलाती है। एक प्रतिभा और है उसने उपरोक्त सभी अन्य विभूतियों से अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बना लिया है। उसका नाम है—धन। इन दिनों धन का वर्चस्व अत्यधिक है। सारी कलाएं उससे हेटी पड़ गई हैं और लगभग सभी ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। धन का प्रलोभन देकर गायक, वादक, चित्रकार, अभिनेता, कवि, साहित्यकार, पत्रकार, धर्मगुरु, राजनेता सभी अपने वश में किये जा सकते हैं और उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जा सकता है। अथवा यों कहना चाहिए कि सभी कलाएं धन का कृपा कटाक्ष प्राप्त करने के लिए अपना शील सतीत्व बेचने के लिए लालायित फिर रही हैं। प्रतिभाएं धन के द्वारा खरीदी जा रही हैं और वे खुशी-खुशी अपना आत्म–समर्पण करके उसकी इच्छानुसार नाचने के लिए बाजारू वैश्या की तरह अपना साज-श्रृंगार सजाये बैठी हैं। इस प्रकार आज धन, प्रतिभा शेष सभी प्रतिभाओं की निर्देशक बन बैठी है। धन की प्रतिभा को लोभ, परिग्रह और कृपणता के बन्धनों से छुड़ाना होगा। धनी भी एक कलाकार है। भले ही वह कलाकारिता उचित हो या अनुचित, पर उसे स्वीकार तो करना ही पड़ेगा। जिन दिनों 90 प्रतिशत लोग जीवन निर्वाह की मूलभूत आवश्यकता जुटाने के लिए दैनिक आवश्यकताएं भर पूरी नहीं कर पाते, उन दिनों किसी का धनी, अमीर, मालदार बन जाना सचमुच किसी विलक्षण व्यक्ति का ही काम है। अधिक उपार्जन की क्षमता समझ में आती है पर जिन दिनों दशों दिशाएं अज्ञान, अभाव और अशक्ति की पीड़ा से बुरी तरह कराह रही हों उन दिनों लोकमंगल की आवश्यकताओं से आंखें मींचकर जो अर्थ संग्रह कर सकता है, अमीरी और अय्याशी जुटा सकता है, उसे पत्थर के कलेजे वाला आदमी ही कहा जायगा। घोर अनुदार परम कृपण और स्वार्थान्ध के लिए ही यह स्थिति प्राप्त कर सकना है। सो इन विशेषताओं से सम्पन्न धनी व्यक्ति को महापुरुष तो नहीं, विलक्षण जरूर कहा जायगा। यह विलक्षणता ‘कला’ नहीं तो और क्या है। धनी भी कलाकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा है उसे पीछे कौन धकेले? इस अग्रिम पंक्ति में खड़ी प्रतिभा को कुमार्गगामी नहीं होने दिया जाना चाहिए। उसे अति नम्रता पूर्वक समझाया जाना चाहिए कि अन्य कलाओं की तरह सम्पन्नता भी एक परम पवित्र विभूति हैं और इसका उपयोग लोक-मंगल के लिये ही होना चाहिये। कमाये कोई कितना ही, पर अपने और अपने परिवार के लिए खर्च भारतीय जनता के औसत स्तर ध्यान रखकर ही करे। बचत को उदारतापूर्वक उन कार्यों के लिए देता रहे, जिनके अभाव में मानवीय प्रगति रुकी पड़ी है। समय-समय पर सर्वमेध करके अपना सारा कोष लोक-मंगल के लिए दे डालने वाले प्राचीन काल के श्रीमन्तों का उदाहरण उन्हें बताया जाना चाहिए और भामाशाह का आदर्श अपनाकर अपनी कला को सार्थक सिद्ध करने का अनुरोध करना चाहिए। अमीरी और विलासिता का ठाठ-बाट वाला जीवन अब अगले दिनों प्रशंसा या प्रतिष्ठा का आधार नहीं रहेगा वरन् जनता का रोष ही उभरेगा। बिना बेईमानी कमाया हुआ ही सही—पर जो पीड़ित मानवता की कराह को अनसुनी कर निष्ठुरता और कृपणता के साथ जो जमा कर रखा है वह अवांछनीय ही कहा जायगा। अगले दिनों ऐसे संग्रही जनता की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किये जाने वाले हैं, आध्यात्मिकता और धार्मिकता तो अनादि काल से परिग्रह को—संग्रह को—पांच प्रधान पातकों में गिनती रही है। अब समाज की भावनाएं भी उस सम्बन्ध में अधिक उग्र हो चली हैं। उसने धनी को सम्पन्न मानने की अपेक्षा अधिक दुष्ट दुराचारी मानना आरम्भ किया है और अगले ही दिनों समाजवाद, साम्यवाद की उंगलियां गले तक डालकर जो खाया है उसे उगलवा लेने की तैयारी हो रही है। इस वस्तुस्थिति को समझना चाहिये और उस प्रतिक्रिया से डरना चाहिए। रूस, चीन एवं अनय समाजवादी देशों में धनियों का बड़ा उत्पीड़न और तिरस्कार हुआ है। देर सवेर सारे संसार में वही होने वाला है। शंकर जी को बेलपत्र, गंगाजी को दूध और हनुमान जी को प्रसाद, महन्त जी को मालपुए खिलाकर अब किसी को ईश्वरीय सहायता की आशा नहीं करनी चाहिए और लम्बी माला सटकने वाले और रोज गंगाजल पीने वाले को अपनी धार्मिकता की दुहाई अब नहीं देनी चाहिए क्योंकि इसे घड़ियाल के आंसू भर माना जायगा। अधिक उपार्जन कर सकने वाले कलाकार की सदाशयता केवल इस कसौटी पर कसी जायगी कि उसने व्यक्तिगत उपयोग के लिए न्यूनतम अंश लेकर शेष को लोक-मंगल के लिए उदारता पूर्वक दिया या नहीं। राजाओं के राज, जमींदारों की जमींदारी जा चुकीं अब अमीरों की अमीरी जाने को तैयार बैठी है। सरकारी टैक्सों की दर दिन-दिन बढ़ रही है। इनकम टैक्स, सुपर टैक्स, सम्पत्ति टैक्स, मृत्यु टैक्स आदि की कैंची तेजी से चल रही है। कुछ दिन बाद इन झंझटों में व्यर्थ सिर फोड़ी से बचने के लिये समाज सीधे, व्यक्ति की निजी सम्पदा पर कब्जा कर लेगा। यह एक कड़ुई किन्तु सुनिश्चित सचाई है। इसलिये हर धनवन्त कलाकार को पूर्व चेतावनी, नेक सलाह दी जानी चाहिए कि वह बेटे, पोतों के लिये दौलत जमा न करे। अमीरी का ठाठ-बाठ न जुटाये। सोने-चांदी की सलाखें जमीन में न गाढ़ें और तिजोरियां भरने के फेर में न रहें। इस व्यर्थ प्रयास में उसे सुख नहीं दुःख ही मिलेगा। इस फेर में वह प्रशंसा का नहीं भर्त्सना का पात्र ही रहेगा। बेटे पोतों के लिये—सात पीढ़ी को बैठे-बैठे खाने के लिये दौलत जमा करते जाना उनके साथ अत्यन्त दुष्टता बरतना है। हराम की कमाई किसी को दुर्गुणी और पतनोन्मुख ही बना सकती है। अपनी सन्तान को हराम खाऊ के घृणित स्तर पर पटकने की कुचेष्टा किसी को नहीं करनी चाहिये। उन्हें पढ़ा-लिखाकर स्वावलम्बी बना देने भर की बात तो समझ में आती है पर इस प्रक्रिया का औचित्य समझ में नहीं आता कि कमाऊ सन्तान के लिये बाप अपनी कमाई मुफ्त के माल पर गुलछर्रे उड़ाने के लिये छोड़ जाय। पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे करने के बाद बचा हुआ हर पैसा विशुद्ध रूप से इस अभाव ग्रस्त समाज को मिलाना चाहिए और ईमानदारी के साथ वही असली हकदार है। बेटे को बाप की कमाई मिलनी ही चाहिए, यह सामन्तवादी अर्थ भ्रष्टता संसार में से जितनी जल्दी मिट जाये उतना ही अच्छा है। यों, वर्तमान धनवानों ने जिस ढंग से कमाया है और जिस मनोवृत्ति से संग्रह किया है, उसे देखते हुए यही सोचा जा सकता है कि वे वह पैसा (1) बेटे, पोतों को विलासी हरामखोर बनाने के लिये छोड़ेंगे। (2) चोरों, डाक्टरों, शराब घरों एवं वेश्याओं के यहां फेंकेंगे। (3) राजनैतिक दांव-पेचों में खर्च करेंगे। (4) विवाह शादियों में होली फूंकेंगे। (5) अमीरी का ठाठ-बाट और शान-शौकत का ढोंग खड़ा करेंगे। (6) मरने के बाद मुकदमेबाजी और सरकारी टैक्सों में उसे बह जाने देंगे। (7) सस्ती स्वर्ग की टिकट खरीदने के लिये छुट-पुट कर्म-काण्डों के बहाने धर्म वंचकों से जेब कटायेंगे। (8) कोई तुरन्त नामवरी का या प्रतिष्ठा का लालच दिखा दे तो उसमें थोड़ा बहुत लगा देंगे। धर्म शाला सदावर्त का विज्ञापन बोर्ड भी उन्हें रुचिकर लग सकता है। (9) कोई ठग उन्हें लम्बे-चौड़े सब्जबाग दिखाकर ठग ले जा सकता है। ऐसे ही किसी औंधे-सीधे मार्ग में उनकी कमाई जा सकती है, पर मानवीय उत्कर्ष के सच्चे आधार—लोकमानस के परिवर्तन में शायद ही इस वर्ग में से किसी की रुचि पैदा की जा सके। दीखती निराशा ही है, पर कोशिश करनी चाहिए कि कोई विवेकशील धनी प्रतिभा दूर-दर्शिता का परिचय दे और मनुष्य को भावनात्मक परतन्त्रता के कारागार से छुड़ाने में अपनी कमाई का कुछ अंश लगा सके। असम्भव कुछ भी नहीं। एक भामाशाह उस युग में भी निकला था, जिसने राणाप्रताप की नसों में नया रक्त भरा था और पर्दे के पीछे भारतीय स्वतन्त्रता का एक गौरव पूर्ण अध्याय खोला था। हो सकता है उसकी परम्परा का कोई बीज कहीं पड़ा अंकुरित हो रहा हो और प्रोत्साहन का अभिसिंचन पाकर हरे-भरे पत्र-पल्लवों से लदकर फलने-फूलने तक बढ़ चले। प्रयत्न इसके लिये भी करना चाहिए। धनियों को कहना चाहिये—भावनात्मक नव-निर्माण के पुण्य प्रयोजन में सहयोग देने से बढ़कर और कोई दान-पुण्य हो नहीं सकता। समझ और सदाशयता जीवित हो, तो वे वस्तु-स्थिति पर विचार करें और उदारता की एक बूंद उस प्रयोजन के लिये भी खर्च कर दें, जिस पर मानव जाति एवं समस्त संसार के भाग्य-भविष्य बनने बिगड़ने की सम्भावना बहुत कुछ निर्भर है। राणा प्रताप को धन के बिना भारतीय स्वाधीनता की रक्षा करना असम्भव देखा तो भामाशाह आगे बढ़कर आये। आज मानव जाति की बौद्धिक, समाजिक, नैतिक स्वतन्त्रता की रक्षा और प्रतिष्ठा करने के लिये फिर पैसे की जरूरत है। विचार क्रान्ति का रथ साधनों के अभाव में रुका खड़ा है। ज्ञान-यज्ञ की ज्वाला समिधाओं के अभाव में प्रज्वलित होने का अवसर प्राप्त नहीं कर रही है। सामाजिक कुरीतियों को फांसी घर के कैदी की तरह समाज जकड़े पड़ा है। इन कुत्साओं और कुण्ठाओं के विरुद्ध धर्म युद्ध की भेरी तो बज गई पर कारतूस खरीदने को पैसा नहीं। सो हर जिन्दा दिल धनी का हर फालतू पैसा इसी प्रयोजन के लिये लगना चाहिए, युग ने—भगवान् ने धनवन्त कलाकारों को इसके लिए पुकारा है। ये अनसुनी कर भी रहे हैं और करेंगे भी, पर गांठ यह भी बांध रखा जाय कि इन प्रकार ‘बचाये रखने’ की चतुरता उन्हें आज की उदारता की तुलना में अत्यधिक महंगी और अत्यधिक कष्टकारक सिद्ध होगी। कैसे? इस प्रश्न का उत्तर निकटवर्ती समय ऐसी अच्छी तरह देगा जिसका कभी विस्मरण न किया जा सके। नये युग में प्रत्येक प्रतिभा को समाज और परमेश्वर की धरोहर ही समझा जायगा तथा यह देखा जायगा कि जिसे वह अमानत सौंपी गई है, वह उसका दुरुपयोग न करने पाए। दुरुपयोग करने वाले भर्त्सना से लेकर दण्ड तक के पात्र बनेंगे। प्रत्येक प्रतिभा को धर्मनिष्ठ, सत्कर्म निरत, सन्मार्गगामी होना ही चाहिए। कला जीवन के लिये है और जीवन की विकासमान गति में योगदान देने में ही उसकी सार्थकता है, न कि उसे विकृतियों में फंसाने, सड़ाने और संकीर्ण बनाने में। धनोपार्जन की कला को भी धर्मनिष्ठ बनना चाहिए।