
शिखा- सूत्र और गायत्री मंत्र सभी के लिए
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शिखा और सूत्र हिन्दू धर्म के दो प्रतीक चिह्न हैं, ईसाइयों के क्रूस और मुसलमानों के चाँद- तारे की तरह । सृष्टि के आरम्भ में ॐकार, ॐकार से तीन व्याहृतियों के रूप में तीन तत्व या तीन गुण, तीन प्राण । इसके बाद अनेकानेक तत्त्वदर्शन और साधना विज्ञान के पक्षों का विस्तरण । सृष्टि के साथ जुड़े हुए अनेक भौतिक रहस्य भी उसी क्रम- उपक्रम के साथ जुड़े हुए समझे जा सकते हैं । अन्त में भी जो एक शेष रह जायेगा, वह गायत्री का बीज मंत्र ॐकार ही है ।
समझदारी का उदय होते ही हिन्दू बालक को द्विजत्व की दीक्षा दी जाती है । उसके सिर पर गायत्री का ध्वजारोहण शिखा के रूप में किया जाता है । सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत । उसका धारण नर- पशु से नर- देव के जीवन में प्रवेश करना है । द्विजत्व अर्थात् जीवनचर्या को आदेशों के अनुशासन में बाँधना । यह स्मरण प्रतीक रूप में हृदय, कंधे, पीठ आदि शरीर के प्रमुख अंगों पर हर घड़ी सवार रहे, इसलिए नौ महान सद्गुणों का प्रतीक- उपनयन हर वयस्क को पहनाया जाता है ।
मध्यकाल के सामन्तवादी अन्धकार युग में विकृतियाँ हर क्षेत्र में घुस पड़ीं। उन्होंने संस्कृतिपरक भाव- संवेदनाओं और प्रतीकों को भी अछूता नहीं छोड़ा । कहा जाने लगा - गायत्री मात्र ब्राह्मण वंश के लिए है , अन्य जातियाँ उसे धारण न करें । स्त्रियाँ भी गायत्री से सम्बन्ध न रखें । उसे सामूहिक रूप से इस प्रकार न दिया जाये, ताकि कोई दूसरे लोग उसे सुन या सीख न सकें । ऐसे मनगढ़ंत क्यों लगाये गये होंगे, इसका कारण ढूँढ़ने पर एक ही बात समझ में आती है कि मध्यकाल में अनेकानेक मत- सम्प्रदाय जब
बरसाती उद्भिजों की तरह उबल पड़े, तो उन्होंने अपनी- अपनी अलग- अलग विधि- व्यवस्था, प्रथा- परम्परा, भक्ति- साधना आदि के भी अपने- अपने ढंग के प्रसंग गढ़े होंगे । उनके मार्ग में मान्यता गायत्री से बाधा पड़ती होगी, दाल न गलती होंगी । ऐसी दशा में उन सबने सोचा होगा कि इस अनादि मान्यता के प्रति अनेक संदेह पैदा किये जायें, जिससे भले लोगों का ध्यान शाश्वत प्रतिष्ठापना की ओर से विरत किया जा सके ।
कलियुग में गायत्री फलित नहीं होती, यह कथन भी ऐसे ही लोगों का है । इन लोगों को बतलाया जा सकता है, कि युगनिर्माण योजना ने जिस प्रकार गायत्री महामंत्र के माध्यम से समस्त संसार के नर- नारियों को इस दिशा- धारा के साथ जोड़ा है और उनमें से उन सभी को उल्लास भरे प्रतिफल किस प्रकार मिले हैं, जिन्होंने गायत्री उपासना के साथ जीवन- साधना को भी जोड़ रखा है । यदि उनके प्रतिपादन सही होते, तो गायत्री की अनुपयोगिता के पक्ष में लोकमत हो गया होता, जबकि विवेचना से प्रतीत होता है कि इन्हीं दिनों उसका विश्वव्यापी विस्तार हुआ है और अनुभव के आधार पर सभी ने यह पाया है कि ‘सद्बुद्धि’ की उपासना ही समय की पुकार और श्रेष्ठतम उपासना है ।
इस संदर्भ में नर और नारी का भी कोई अंतर नहीं स्वीकारा जा सकता है । गायत्री स्वयं मातृरूपा है । माता की गोद में उनकी पुत्रियों को बैठने न दिया जाये, यह कहाँ का न्याय है ? भगवान के साथ रिश्ते जोड़ते हुए उसे ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ जैसे श्लोकों में परमात्मा को सर्वप्रथम माता, बात में पिता, मित्र- सखा गुरू आदि के रूप में बताया गया है । गायत्री को नारी रूप में मान्यता देने के पीछे एक प्रयोजन यह भी है कि मातृशक्ति के प्रति इन दिनों जो अवहेलना, अवज्ञा का भाव अपनाया जा रहा है, उसे निरस्त किया जा सके। अगली शताब्दी नारी- शताब्दी है । अब तक हर प्रयोजन के लिए नर को प्रमुख और नारी को गौण ही नहीं, हेय भी माना जाता रहा है । उसे पहरेदारी में, मानवाधिकारों से वंचित रखे जाने योग्य माना जाता रहा है । अगले दिनों यह मान्यता सर्वथा उलट दी जाने वाली है । नारी- वर्चस्व को प्राथमिकता मिलने जा रही है । ऐसी दशा में यदि भगवान को नारी रूप में प्रमुखतापूर्वक मान्यता मिले, तो उसमें न तो कुछ नया है और न अमान्य ठहराने योग्य । यह तो शाश्वत परम्परा का पुनर्जीवन मात्र है । स्रष्टा ने सर्वप्रथम प्रकृति क नारी रूप में ही सृजा है । उसी की उदरदरी से प्राणिमात्र का उद्भव -उत्पादन बन पड़े है। फिर नारी को गायत्री साधना से , उपनयन धारण से वंचित रखा जाये, यह किस प्रकार बुद्धिसंगत हो सकता है । शान्तिकुञ्ज के गायत्री आन्दोलन ने रूढ़िवादी प्रतिबंधों को इस संदर्भ में कितनी तत्परता सफलतापूर्वक निरस्त करके रख दिया है, इसे कोई भी कहीं भी देख सकता है ।। गायत्री उपासना और यज्ञोपवीत धारण को बिना किसी भेद- भाव के सर्वसाधारण के लिए अपनी योग्य स्थिति में ला दिया गया है। उसके सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष मिलते देखे जा रहे हैं । अगले दिनों समस्त संसार एक केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा है । ऐसी दशा में गायत्री को सार्वभौम मान्यता मिले और उसे सार्वजनीन ठहराया जाये, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
समझदारी का उदय होते ही हिन्दू बालक को द्विजत्व की दीक्षा दी जाती है । उसके सिर पर गायत्री का ध्वजारोहण शिखा के रूप में किया जाता है । सूत्र अर्थात् यज्ञोपवीत । उसका धारण नर- पशु से नर- देव के जीवन में प्रवेश करना है । द्विजत्व अर्थात् जीवनचर्या को आदेशों के अनुशासन में बाँधना । यह स्मरण प्रतीक रूप में हृदय, कंधे, पीठ आदि शरीर के प्रमुख अंगों पर हर घड़ी सवार रहे, इसलिए नौ महान सद्गुणों का प्रतीक- उपनयन हर वयस्क को पहनाया जाता है ।
मध्यकाल के सामन्तवादी अन्धकार युग में विकृतियाँ हर क्षेत्र में घुस पड़ीं। उन्होंने संस्कृतिपरक भाव- संवेदनाओं और प्रतीकों को भी अछूता नहीं छोड़ा । कहा जाने लगा - गायत्री मात्र ब्राह्मण वंश के लिए है , अन्य जातियाँ उसे धारण न करें । स्त्रियाँ भी गायत्री से सम्बन्ध न रखें । उसे सामूहिक रूप से इस प्रकार न दिया जाये, ताकि कोई दूसरे लोग उसे सुन या सीख न सकें । ऐसे मनगढ़ंत क्यों लगाये गये होंगे, इसका कारण ढूँढ़ने पर एक ही बात समझ में आती है कि मध्यकाल में अनेकानेक मत- सम्प्रदाय जब
बरसाती उद्भिजों की तरह उबल पड़े, तो उन्होंने अपनी- अपनी अलग- अलग विधि- व्यवस्था, प्रथा- परम्परा, भक्ति- साधना आदि के भी अपने- अपने ढंग के प्रसंग गढ़े होंगे । उनके मार्ग में मान्यता गायत्री से बाधा पड़ती होगी, दाल न गलती होंगी । ऐसी दशा में उन सबने सोचा होगा कि इस अनादि मान्यता के प्रति अनेक संदेह पैदा किये जायें, जिससे भले लोगों का ध्यान शाश्वत प्रतिष्ठापना की ओर से विरत किया जा सके ।
कलियुग में गायत्री फलित नहीं होती, यह कथन भी ऐसे ही लोगों का है । इन लोगों को बतलाया जा सकता है, कि युगनिर्माण योजना ने जिस प्रकार गायत्री महामंत्र के माध्यम से समस्त संसार के नर- नारियों को इस दिशा- धारा के साथ जोड़ा है और उनमें से उन सभी को उल्लास भरे प्रतिफल किस प्रकार मिले हैं, जिन्होंने गायत्री उपासना के साथ जीवन- साधना को भी जोड़ रखा है । यदि उनके प्रतिपादन सही होते, तो गायत्री की अनुपयोगिता के पक्ष में लोकमत हो गया होता, जबकि विवेचना से प्रतीत होता है कि इन्हीं दिनों उसका विश्वव्यापी विस्तार हुआ है और अनुभव के आधार पर सभी ने यह पाया है कि ‘सद्बुद्धि’ की उपासना ही समय की पुकार और श्रेष्ठतम उपासना है ।
इस संदर्भ में नर और नारी का भी कोई अंतर नहीं स्वीकारा जा सकता है । गायत्री स्वयं मातृरूपा है । माता की गोद में उनकी पुत्रियों को बैठने न दिया जाये, यह कहाँ का न्याय है ? भगवान के साथ रिश्ते जोड़ते हुए उसे ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ जैसे श्लोकों में परमात्मा को सर्वप्रथम माता, बात में पिता, मित्र- सखा गुरू आदि के रूप में बताया गया है । गायत्री को नारी रूप में मान्यता देने के पीछे एक प्रयोजन यह भी है कि मातृशक्ति के प्रति इन दिनों जो अवहेलना, अवज्ञा का भाव अपनाया जा रहा है, उसे निरस्त किया जा सके। अगली शताब्दी नारी- शताब्दी है । अब तक हर प्रयोजन के लिए नर को प्रमुख और नारी को गौण ही नहीं, हेय भी माना जाता रहा है । उसे पहरेदारी में, मानवाधिकारों से वंचित रखे जाने योग्य माना जाता रहा है । अगले दिनों यह मान्यता सर्वथा उलट दी जाने वाली है । नारी- वर्चस्व को प्राथमिकता मिलने जा रही है । ऐसी दशा में यदि भगवान को नारी रूप में प्रमुखतापूर्वक मान्यता मिले, तो उसमें न तो कुछ नया है और न अमान्य ठहराने योग्य । यह तो शाश्वत परम्परा का पुनर्जीवन मात्र है । स्रष्टा ने सर्वप्रथम प्रकृति क नारी रूप में ही सृजा है । उसी की उदरदरी से प्राणिमात्र का उद्भव -उत्पादन बन पड़े है। फिर नारी को गायत्री साधना से , उपनयन धारण से वंचित रखा जाये, यह किस प्रकार बुद्धिसंगत हो सकता है । शान्तिकुञ्ज के गायत्री आन्दोलन ने रूढ़िवादी प्रतिबंधों को इस संदर्भ में कितनी तत्परता सफलतापूर्वक निरस्त करके रख दिया है, इसे कोई भी कहीं भी देख सकता है ।। गायत्री उपासना और यज्ञोपवीत धारण को बिना किसी भेद- भाव के सर्वसाधारण के लिए अपनी योग्य स्थिति में ला दिया गया है। उसके सत्परिणाम भी प्रत्यक्ष मिलते देखे जा रहे हैं । अगले दिनों समस्त संसार एक केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा है । ऐसी दशा में गायत्री को सार्वभौम मान्यता मिले और उसे सार्वजनीन ठहराया जाये, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?