
यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारण
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मंत्र- दीक्षा के रूप में गायत्री का अवधारण करते समय, उपनयन संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है । इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की, मानवी जीवन के गरिमा के अनुरूप जीवन परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं । जनेऊ पहनना, उसे कंधे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को, काय- कलेवर को देव मंदिर- गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है। यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं। इन्हें नौ मानवी विशिष्टताओं को उभारने वाला सद्गुण भी कहा जा सकता है । एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारणा के साथ- साथ उन नौ गुणों को समुन्नत बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाये, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसम्पन्न करते हैं ।
बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुंजायश नहीं है । अधिक खर्चीले व्यक्ति प्रायः बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं । उनमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता- अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है ।
(४) सुव्यवस्था हर वस्तु को सुव्यवस्थित ,सुसज्जित स्थिति में रखना । फूहड़पन और अस्त- व्यस्तता ,अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन में झलकने न देना । समय का निर्धारण करते हुए , कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक पालन करना । चुस्त- दुरुस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं । वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा कचरा हो जाती हैं । इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं ।
(५) उदार सहकारिता मिल- जुलकर काम करने में रस लेना । पारस्परिक आदान- प्रदान का स्वभाव बनाना । मिल बाँटकर खाने और हँसते- हँसते समय गुजारने की आदत डालना । इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है । अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति- नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा । अकेलेपन की प्रवृत्ति तो , मनुष्य को कुत्सा और कुण्ठाग्रस्त ही रखती है ।
उपर्युक्त पाँच गुण पंचशील कहलाते हैं , व्यवहार में लाये जाते हैं, स्पष्ट दीख पड़ते हैं । इसीलिए इन्हें अनुशासन वर्ग में गिना जाता है । धर्म- धारणा भी इन्हीं को कहते हैं । इनके अतिरिक्त भाव- श्रद्धा से सम्बन्धित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्धा विश्वास स्तर पर अन्तःकरण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है। इन्हें आध्यात्मिक देव- संपदा भी कह सकते हैं । आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है । चार वेदों का सार निष्कर्ष यही है । चार दिशा धाराएँ तथा वर्णाश्रम धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं ।
(६) समझदारी -दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर- क्षीर विवेक, औचित्य का ही चयन । परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास । जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक- एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग । दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता का अवगाहन ।
(७) ईमानदारी आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुंजायश न रहे । भीतर और बाहर को एक समझे । छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना ।
(८) जिम्मेदारी- मनुष्य यों स्वतंत्र समझा जाता है ,पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है ,, कि अपने- परायों किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजायश नहीं रह जाती । ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरुपयोग न होने पाये । परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म ,, समाज ,, संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह । इनमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना ।
(९) बहादुरी - साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा। अनीति के सामने सिर न झुकाना । अनाचार के साथ कोई समझौता न करना । संकट देखकर घबड़ाहट उत्पन्न न होने देना । अपने , गुण , कर्म ,स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयताओं से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना । लोभ, मोह , अहंकार , कुसंग , दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिये कटिबद्ध रहना ।
बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुंजायश नहीं है । अधिक खर्चीले व्यक्ति प्रायः बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं । उनमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता- अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है ।
(४) सुव्यवस्था हर वस्तु को सुव्यवस्थित ,सुसज्जित स्थिति में रखना । फूहड़पन और अस्त- व्यस्तता ,अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन में झलकने न देना । समय का निर्धारण करते हुए , कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक पालन करना । चुस्त- दुरुस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं । वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा कचरा हो जाती हैं । इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं ।
(५) उदार सहकारिता मिल- जुलकर काम करने में रस लेना । पारस्परिक आदान- प्रदान का स्वभाव बनाना । मिल बाँटकर खाने और हँसते- हँसते समय गुजारने की आदत डालना । इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है । अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति- नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा । अकेलेपन की प्रवृत्ति तो , मनुष्य को कुत्सा और कुण्ठाग्रस्त ही रखती है ।
उपर्युक्त पाँच गुण पंचशील कहलाते हैं , व्यवहार में लाये जाते हैं, स्पष्ट दीख पड़ते हैं । इसीलिए इन्हें अनुशासन वर्ग में गिना जाता है । धर्म- धारणा भी इन्हीं को कहते हैं । इनके अतिरिक्त भाव- श्रद्धा से सम्बन्धित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्धा विश्वास स्तर पर अन्तःकरण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है। इन्हें आध्यात्मिक देव- संपदा भी कह सकते हैं । आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है । चार वेदों का सार निष्कर्ष यही है । चार दिशा धाराएँ तथा वर्णाश्रम धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं ।
(६) समझदारी -दूरदर्शी विवेकशीलता, नीर- क्षीर विवेक, औचित्य का ही चयन । परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास । जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक- एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग । दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता का अवगाहन ।
(७) ईमानदारी आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुंजायश न रहे । भीतर और बाहर को एक समझे । छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना ।
(८) जिम्मेदारी- मनुष्य यों स्वतंत्र समझा जाता है ,पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है ,, कि अपने- परायों किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजायश नहीं रह जाती । ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरुपयोग न होने पाये । परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म ,, समाज ,, संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह । इनमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना ।
(९) बहादुरी - साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा। अनीति के सामने सिर न झुकाना । अनाचार के साथ कोई समझौता न करना । संकट देखकर घबड़ाहट उत्पन्न न होने देना । अपने , गुण , कर्म ,स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयताओं से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना । लोभ, मोह , अहंकार , कुसंग , दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिये कटिबद्ध रहना ।