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Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


जीवन साधना के चार चरण—

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जीवन साधना के कार्यक्रम की तुलना कृषक द्वारा किये जाने वाले कृषि कर्म से की जा सकती है। किसान अपने खेत में आरम्भ में जुताई करता है और पिछली फसल के पौधों की सूखी हुई जड़ों को उखाड़ता है, कंकड़ पत्थर बीनता है और नई फसल उगाने के लिए जो भी अवरोध हो सकते थे उन्हें उखाड़ता है। इसके बाद खेत की उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद पानी का प्रबन्ध करता है। फिर बीज बोता है और अच्छी फसल हो इसके लिए रखवाली से लेकर सिंचाई तक विभिन्न प्रयास करता है और फसल आ जाने पर बाजार में विक्रय कर उसका सुपरिणाम अर्जित करता है। इस प्रकार जुताई, बुआई, सिंचाई और विक्रय की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करने के बाद किसान को अपने परिश्रम का लाभ मिलता है। जीवन साधक को भी इसी प्रकार जीवन साधना की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करनी पड़ती है। (1) जीवन विकास में बाधक अवांछनीयताओं को ढूंढ़ निकालना (2) कुसंस्कारों को परास्त करना (3) जो सत्प्रवृत्तियां अभी अपने स्वभाव में नहीं हैं उनका विकास करना तथा (4) उपलब्धियों को प्रकाश दीप की तरह सुविस्तृत क्षेत्र में वितरित कर देना। इन चार चरणों को आत्म चिन्तन, आत्मसुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास के नाम से पुकारा जाता है। इन चतुर्विधि साधनों को एक एक करके नहीं समन्वित रूप से ही अपनाया जाना चाहिए। रोटी, साग, दाल और चावल का आहार मिला-जुला कर ही किया जाता है। यह नहीं कि कुछ समय तक रोटी खाते रहें, कुछ दिनों साग लेते रहें। फिर कुछ दिन दाल ही पी जाती रहे और कुछ दिन चावल पर ही बितायें। स्कूली शिक्षा में भाषा, गणित, भूगोल और इतिहास की पढ़ाई एक साथ ही चलती है। चारों विषय एक एक कर चार वर्ष में में नहीं पढ़ाये जाते हैं वरन् चारों का शिक्षण एक साथ ही चलता है। धोती कुर्ता, बनियान और जूता चारों पहन कर ही घर से निकला जाता है ऐसा नहीं होता कि एक बार धोती पहन कर निकल गये और कुर्ता बनियान जूता छोड़ ही दिया या केवल कुर्ता पहन लिया तथा धोती बनियान जूते नहीं पहने। लिखने में भी कागज, कलम, स्याही और उंगलियां चारों का प्रयोग एक साथ ही करना पड़ता है। केवल कागज, केवल कलम स्याही या केवल उंगलियों से लेखन कार्य सम्भव नहीं होता। भोजनालय में रसोई पकाने के लिए आग, पानी, खाद्य पदार्थ और बर्तन उपकरण चारों ही आवश्यक होते हैं। उसी प्रकार आत्मोत्कर्ष की जीवन साधना के लिए आत्म चिन्तन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास की समन्वित प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। इन चारों चरणों को दो भागों में बांटने पर दो-दो के युग्म बनते हैं। एक को मनन कहा जा सकता है और दूसरे को चिन्तन। मनन में आत्मसमीक्षा और अवांछनीयताओं का शोधन आता है तथा चिन्तन में आत्म विकास और आत्म निर्माण की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। मनन और चिन्तन को—आत्मचिन्तन आत्मसुधार को और आत्म निर्माण—आत्म विकास को जीवन साधना का अविच्छिन्न अंग माना गया है। प्रातः काल उठते समय—रात्रि को सोते समय अथवा अन्य किसी शान्त निश्चिन्त और एकान्त स्थिति में न्यूनतम आधा घण्टे का समय इसके लिए निकाला जा सकता है। मनन प्रथम और चिन्तन को द्वितीय चरण मानना चाहिए। इस प्रक्रिया के लिए पूजा उपचार की तरह कोई विशेष शारीरिक स्थिति बनाने की या कोई साधन सामग्री एकत्रित करने की आवश्यकता नहीं है। चित्त का शान्त और स्थान का कोलाहल रहित भर होना पर्याप्त है। इस प्रकार अपने आपको समीक्षा के लिए सुविधा का कोई भी समय निकालना चाहिए और नियमित आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। आत्मचिन्तन का अर्थ अपनी समीक्षा करना है। इसमें अपने आपके गुणों एवं दोषों को ढूंढ़ निकालने एवं वर्गीकृत करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। प्रयोगशालाओं में पदार्थों का विश्लेषण वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन कौन से तत्व मिले हुए हैं। शवच्छेद की प्रक्रिया में देखा जाता है कि भीतर के किस अवयव की क्या स्थिति थी उनमें कहीं चोट या विषाक्तता के लक्षण तो नहीं थे। रोगों की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त धड़कन आदि की जांच पड़ताल की जाती है और निदान करने के बाद ही सही उपचार बन पड़ता है। आत्म चिन्तन आत्म समीक्षा का भी यही क्रम है। इसके लिए अपने आप से प्रश्न पूछने और उनके सही उत्तर ढूंढ़ने की चेष्टा की जानी चाहिए। हम जिन दुष्प्रवृत्तियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में तो सम्मिलित नहीं हैं। जिन बातों के कारण हम दूसरों से घृणा करते हैं वे बातें अपने में तो नहीं हैं? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते वैसा व्यवहार हम ही दूसरों के साथ तो नहीं करते? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते हैं उनके अनुरूप हमारा आचरण है भी अथवा नहीं? जैसी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हम चाहते हैं वैसी विशेषतायें हममें हैं या नहीं? इस तरह का सूक्ष्म आत्म निरीक्षण स्वयं व्यक्ति को करना चाहिए और अपनी कमियों को ढूंढ़ना चाहिए। यद्यपि यह कार्य अत्यन्त कठिन है। सभी व्यक्तियों में अपने प्रति पक्ष पात की दुर्बलता पायी जाती हैं। आंखें बाहर की कमियां देखती हैं, कान दूसरों के शब्द सुनते हैं और उनमें कटुता खोजते हैं। दूसरों के गुण अवगुण देखने में ही हर किसी की रुचि होती है और प्रत्येक व्यक्ति उसमें प्रवीण भी रहता है। ऐसा अवसर कदाचित ही आता है कि अपने दोषों को निष्पक्ष रूप से देखा और स्वीकार किया जा सके। कोई दूसरा हमारे दोष बताता है तो वह शत्रु जैसा प्रतीत होता है। जिस कार्य को कभी किया ही न हो वह सरलता से अभ्यास में नहीं आता अतः अपने दोषों को ढूंढ़ने में कठोरता बरतने और दृढ़ता अपनाने की क्षमता उत्पन्न करनी चाहिए। अपने स्वभाव में सम्मिलित दुष्प्रवृत्तियां अभ्यास होने के कारण कुसंस्कार बन जाती हैं और व्यवहार में उभर उभर कर आने लगती हैं। दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने के लिए, कुसंस्कारों को नष्ट करने के लिए आत्मसुधार का काम अपनाना चाहिए। इसके लिए अभ्यास और विचार संघर्ष के दो मोर्चे तैयार करना चाहिए। अभ्यस्त कुसंस्कारों की आदत तोड़ने के लिए बाह्य क्रिया कलापों पर नियन्त्रण और उनकी जड़ें उखाड़ने के लिए विचार संघर्ष की पृष्ठ भूमि बनानी चाहिए। अभ्यास अभ्यास बना कर तोड़ा जाय और कुसंस्कार निर्माण द्वारा नष्ट किये जायें। थल सेना से थल सेना लड़ती है और नभ सेना का मुकाबला करने के लिए नभ सेना भेजी जाती है। कैदियों को जेल में रखने पर भी उनकी निगरानी करने के लिए चौकीदार छोड़े जाते हैं ताकि वे कोई और नई बदमाशी खड़ी न कर दें। यही नीति कुसंस्कारों के लिए भी अपनानी पड़ती है। जो भी जब उभरे उसी से संघर्ष किया जाय। बुरी आदतें जब उभरने के लिए मचल रही हों तो उसके स्थान पर उचित सत्कर्म ही करने का आग्रह खड़ा किया जाय और मनोबल पूर्वक अनुचित को दबाने तथा उचित को अपनाने का साहस किया जाय। मनोबल यदि दुर्बल होगा तो ही हारना पड़ेगा अन्यथा सत्साहस जुटा लेने पर तो श्रेष्ठ की स्थापना में सफलता ही मिलती है। इसके लिए छोटी बुरी आदतों से लड़ाई आरम्भ करनी चाहिए। उन्हें जब हरा दिया जायगा तो अधिक पुरानी और अधिक बड़ी दुष्प्रवृत्तियों को परास्त करने योग्य मनोबल भी जुटने लगेगा। जीवन साधना का तीसरा चरण आत्म निर्माण है। इसका अर्थ है अपने व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और सुसंस्कृत बनाने के लिए योजना बद्ध प्रयत्न। दुर्गुणों को निरस्त करने के बाद सद्गुणों की प्रतिष्ठापना भी तो होनी चाहिए। खेत में से कटीली झाड़ियां, पुरानी फसल की सूखी जड़ उखाड़ दी गयीं पर इसी से तो खेती का उद्देश्य पूरा नहीं हो गया। कटीली झाड़ियां और घास फूंस उखाड़ने का कार्य अधूरा हैं। शेष आधी बात जब बनेगी जब उस भूमि पर सुरम्य उद्यान लगाया जाय और उसे पाल पोसकर बड़ा किया जाय। बीमारी का चला जाना, रोग को मिटा देना आधा काम है। उसके बाद दुर्बल स्वास्थ्य को बलिष्ठ बनाने के लिए उचित आहार विहार जुटाना भी आवश्यक है। दुर्गुणों को निरस्त कर दिया गया उचित ही है पर व्यक्तित्व को उज्ज्वल बनाने के लिए—आत्म विकास की अगली सीढ़ी चढ़ने के लिए सद्गुणों की संपत्ति एकत्रित करना भी अत्यन्त आवश्यक है। अपने व्यक्तित्व का विकास जीवन साधना की सफलता, उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाये रहने पर ही निर्भर है। उस साधना में चंचल मन और अस्थिर बुद्धि से काम नहीं चलता इसमें तो संकल्प निष्ठ धैर्यवान और सतत प्रयत्नशील रहने वाले व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं। सद्विचार और सत्कर्म की समग्र जीवन पद्धति अपनाने से ही व्यक्तित्व का सुसंस्कृत बनाना सम्भव होता है। अपना लक्ष्य यदि आदर्श मनुष्य बनना है तो इसके लिए व्यक्तित्व में आदर्श गुणों और उत्कृष्ट विशेषताओं का अभिवर्धन करना ही पड़ेगा। जीवन साधना की अन्तिम सीढ़ी आत्म विकास है। आत्मविकास अर्थात् अपने आत्म भाव की परिधि को अधिकाधिक विस्तृत क्षेत्र में विकसित करते रहना। सामान्यतः लोग अपना स्वार्थ अपने शरीर और मन की सुविधा तक ही सीमित रखते हैं। इसके लिए घर बसाते हैं, परिवार बनाते हैं और दूसरों से सम्बन्ध जोड़ते हैं। अधिक हुआ तो परिवार तक अपना आत्मभाव विकसित कर लेते हैं। आमतौर पर लोगों का चिन्तन और क्रियाकलाप यहीं तक सीमित रहता है। जीवन साधना के सिद्धि इच्छुकों को अपनी परिधि बढ़ाते रहना चाहिए और जीवन सम्पदा को कोल्हू के बैल की तरह इसी परिधि में नष्ट नहीं करना चाहिए। स्मरण रखा जाना चाहिए कि मानवीय व्यक्तित्व ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है। इसके पीछे सृष्टी का जो श्रम लगा है उसके पीछे सृष्टी का यह उद्देश्य है कि मनुष्य उसके सहयोगी की तरह सृष्टि की सुव्यवस्था में संलग्न रहकर उसका हाथ बटाये। यदि इस तथ्य को भुला दिया गया तो समझना चाहिए कि उस सृष्टा के श्रम को व्यर्थ करने का दुष्कर्म हम किये जा रहे हैं और मानवी जीवन के रूप में हमें जो अमूल्य अवसर मिला था उसे मूर्खों की भांति व्यर्थ जाने दे रहे हैं। यदि हम अपनी स्थिति को देखें तो प्रतीत होगा कि शरीर और परिवार का उचित निर्वाह करते हुए भी हमारे पास पर्याप्त समय और श्रम बचा रहता है कि उससे परमार्थ प्रयोजनों की भूमिका निबाही जाती रह सके, आत्मीयता का विस्तार किया जा सके तो सभी कोई अपने शरीर और कुटुम्बियों की तरह अपनेपन की भाव शृंखला में बन्ध जाते हैं और सबका दुख अपना दुख तथा सबका सुख अपना सुख लगने लगता है। जो व्यवहार सहयोग हम दूसरों से अपने लिए पाने की आकांक्षा करते हैं फिर उसे दूसरों के लिए देने की भावना भी उमगने लगती है—लोक मंगल और जन कल्याण की सेवा साधना की इच्छायें जगती है तथा उसकी योजनायें बनने लगती हैं। इस स्थिति में पहुंचा व्यक्ति सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका कार्य भी व्यापक परिधि में सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन बन जाता है। ऐसे व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को घटाते और निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकतायें रखकर शेष क्षमता और सम्पदा को सत्प्रयोजनों में लगाये रहते हैं। सामाजिक जीवन में जिन व्यक्तियों को उच्च सम्मान मिला है, संसार के इतिहास में जिन महामानवों का उज्ज्वल चरित्र जगमगा रहा है वे आत्म विकास के इसी मार्ग का अवलम्बन लेते हुए महानता के उच्च शिखर तक पहुंच सके हैं। जीवन साधना के इन चार चरणों का सम्मिलित प्रयोग व्यक्ति को उत्कृष्ट व्यक्तित्व तथा उज्ज्वल चरित्र प्रदान करता है। आवश्यकता निष्ठा सूझ बूझ और दृढ़ता पूर्वक उन्हें अपनाने की है। आत्मिक प्रगति का भवन इन्हीं चार दीवारों से मिलकर बना है। इस तख्त में चार पाये हैं। चार दिशाओं की तरह आत्मिक उत्कर्ष के चार आधार यही हैं। उत्कर्ष के उच्च शिखर पर चढ़ने के लिए इस रीति नीति को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। 
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