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Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


शिष्ट और शालीन बनें

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शिक्षित, सम्पन्न,और सम्मानित होने के बावजूद भी कई बार व्यक्ति के सम्बन्ध में गलत धारणायें उत्पन्न हो जाती हैं और यह समझा जाने लगता है कि योग्य होते हुए भी अमुक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कमियां हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षित, सम्पन्न और सम्मान्य होते हुए भी व्यक्ति के आचरण से उसके व्यवहार से कहीं न कहीं ऐसी फूहड़ता टपकती है जो उसे सर्व गुणसम्पन्न होते हुए भी अशिष्ट कहलवाने लगती है। विश्व स्तर पर एक बड़ी संख्या में लोग सम्पन्न और शिक्षित भले ही हों किन्तु उनके व्यवहार में यदि शिष्टता और शालीनता नहीं है तो उनका लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी विभूतियों की चर्चा सुनकर लोग भले ही प्रभावित हो जायें परन्तु उनके सम्पर्क में आने पर अशिष्ट आचरण की छाप उस प्रभाव को धूमिल कर देती है। इसलिए शिक्षा, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा की दृष्टि से कोई व्यक्ति ऊंचा हो और उसे हर्ष के अवसर पर हर्ष, शोक के अवसर पर शोक की बातें करना न आये तो लोग उसका मुंह देखा सम्मान भले ही करें, परन्तु मन में उसके प्रति कोई अच्छी धारणायें नहीं रख सकेंगे शिष्टाचार और लोक व्यवहार का यही अर्थ है कि हमें समयानुकूल आचरण तथा बड़े छोटों से उचित बर्ताव करना आये। यह गुण किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए सम्पर्क और पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन तथा क्रियात्मक अभ्यास ही किया जाना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसर पर, कैसे व्यक्ति से कैसा व्यवहार करना चाहिए? कहां किस प्रकार उठना बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना रुकना चाहिए। यदि खुशी के अवसर पर शोक और शोक के समय हर्ष की बातें की जाय, या बच्चों के सामने दर्शन और वैराग्य तथा वृद्धजनों की उपस्थिति में बालोचित या युवजनोचित शरारतें, हास्य विनोद भरी बातें की जायें अथवा गर्मी में चुस्त, गर्म, भड़कीले वस्त्र और शीत ऋतु में हल्के कपड़े पहने जायें तो देखने सुनने वालों के मन में आदर नहीं उपेक्षा और तिरस्कार की भावनायें ही आयेंगी। कोई भी क्षेत्र क्यों न हो; हम घर में हों या बाहर, आफिस में हों अथवा दुकान पर और मित्रों परिचितों के बीच हों अथवा अजनबियों में, हर क्षण व्यवहार करते समय शिष्टाचार बरतना आवश्यक है। कहा गया है कि शिष्टाचार जीवन का वह दर्पण है जिसमें हमारे व्यक्तित्व का स्वरूप दिखाई देता है। इसी के द्वारा मनुष्य का समाज से प्रथम परिचय होता है। यह न हो तो व्यक्ति समाज में रहते हुए भी समाज से कटा-कटा सा रहेगा। और किसी प्रकार आधा-अधूरा जीवन जीने के लिए बाध्य होगा। जीवन साधना के साधक को यह शोभा नहीं देता। उसे जीवन में पूर्णता लानी ही चाहिए। अस्तु शिष्टाचार को भी जीवन में समुचित स्थान देना ही चाहिए। शिष्टता मनुष्य के मानसिक विकास का परिचायक है। कहा जा चुका है कोई व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो किन्तु उसे शिष्ट और शालीन व्यवहार न करना आये तो उसे अप्रतिष्ठा ही मिलेगी। क्योंकि पुस्तकीय ज्ञान अर्जित कर लेने से तो ही बौद्धिक विकास नहीं हो जाता। अलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी होती हैं और पुस्तकों में ज्ञान राशि संचित रहती है, इससे अलमारी ज्ञानी और विद्वान तो नहीं कही जाती। वह पुस्तकीय ज्ञान ही केवल मस्तिष्क में आया हो तो मस्तिष्क की तुलना अलमारी से ही की जायगी। उस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से विकसित है। मानसिक विकास अनिवार्य रूप से आचरण में भी प्रतिफलित होता है। व्यवहार की शिष्टता और आचरण में शालीनता इसीलिए मानसिक विकास की परिचायक है। शिष्टता मानवता का लक्षण है—यदि गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो निःसंकोच कहा जा सकता है कि शिष्टता ही मानवता का प्रमुख लक्षण है। पशु-पक्षियों को तो इस विषय का किंचित भी ज्ञान नहीं होता। उनका जीवन पूर्ण रूप से नैसर्गिक होता है, इसलिये वे अपने निश्चित रहन सहन से जरा भी नहीं हट सकते। पशुओं की क्या बात, बुद्धि से शून्य असभ्य जातियों के व्यक्ति भी इस प्रकार का शिष्टाचार और सद्व्यवहार नहीं जानते जिससे अन्य व्यक्तियों को प्रसन्नता प्राप्त हो सके। अफ्रीका के घोर अरण्य में रहने वाले हब्शियों के सम्बन्ध में ‘मन्टेरो’ नामक योरोपियन लेखक ने कहा है। ‘‘हब्शी लोग प्रेम, अनुराग अथवा ईर्ष्या का नाम भी नहीं जानते। उनकी भाषा में अनुराग, प्रेम का सूचक कोई शब्द ही नहीं है। सर जानबलक ने अफ्रीका के ही ‘‘हटेनटट’’ जाति वालों का वर्णन करते हुए बतलाया कि लोग एक दूसरे से इतने अधिक उदासीन और निर्मम रहते हैं कि उन्हें देखकर आप यही समझेंगे कि उनमें प्रेम और शिष्टता जैसी कोई चीज नहीं है।’’ यदि हम अपनी संस्कृति की विशेषताओं पर विचार करें तो सबसे पहली बात हमको वह दिखलाई पड़ती है कि जहां अन्य देशों की सभ्यता और शिष्टाचार में बाह्य नियमों और कार्यों पर अधिक जोर दिया है, हमारे यहां उसकी असलियत को बढ़ाने का ध्यान रखा गया है। अगर हम किसी मनुष्य का प्रकट में बड़ा आदर-सत्कार करें, किन्तु पीठ पीछे उसकी चारों तरफ निन्दा करें, उसकी जड़ खोदते रहें तो उस दिखावटी शिष्टाचार का कुछ मूल्य नहीं समझा जा सकता। भारतीय संस्कृति शिक्षा देती है कि हम अपने परिचितों के प्रति शिष्टाचार के बाहरी नियमों का पालन करते हुए उसके प्रति हृदय में सद्भावना और सहृदयता भी रखें। इन आन्तरिक भावनाओं से ही हमारे व्यवहार में वह वास्तविकता उत्पन्न होती है जिसकी तरफ सच्चे व्यक्ति आकर्षित होते हैं। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी स्वागत को त्यागकर विदुर के अत्यन्त साधारण आतिथ्य को स्वीकार किया तो उसका कारण यही था कि जहां दुर्योधन का स्वागत दिखावटी था वहां विदुरजी की भावनायें पूर्ण रूप से आन्तरिक थीं। इसीलिए हमारे मनीषियों ने सम्माननीय व्यक्तियों के साथ पूर्ण आदर सत्कार का व्यवहार करते हुये उनके प्रति मन से श्रद्धा और सहायता के भाव रखने पर जोर दिया। यही कारण है कि संसार की अन्य सभ्यता और संस्कृतियां उतनी स्थिर नहीं रह पायीं जितनी कि हमारी संस्कृति। बाह्य आचरण और आन्तरिक भावनाओं में एक रूपता उसकी जीवन शक्ति को अब भी सींचते और सुदृढ़ बनाये हुए है। भारतीय शिष्टाचार की यही विशेषता है कि वह लोक व्यवहार में तो व्यक्ति का प्रभाव बढ़ाता ही है आन्तरिक दृष्टि से भी उसे गुण सम्पन्न बनाते हैं। इसी कारण भारतीय संस्कृति ने अगणित महान व्यक्तित्वों को जन्म दिया और उसमें आज भी वह शक्ति विद्यमान है। हमारी संस्कृति के अनुसार सद्गुण और सभ्यता का समन्वय ही वास्तविक शिष्टाचार है। जब कि सामान्यतः शिष्टाचार केवल औपचारिकता को ही समझा जाता है। ऊपरी आवभगत की जाय और हृदय में प्रेम भाव न हो यह भारतीय आदर्श के अनुकूल नहीं है। प्राचीन स्मृति-ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रमों का वर्णन करते हुए शिष्टाचार का भी वर्णन आया है। और उससे सिद्ध होता है कि उस समय भारतवर्ष में सच्चे शिष्टाचार का सर्वत्र प्रचलन था। उस समय बालकों को आरम्भ से ही गुरुजनों के प्रति पूर्ण आदर और श्रद्धा रखने की शिक्षा दी जाती थी और गृहस्थों के लिये किसी भी अतिथि—नवागन्तुक का हार्दिक श्रद्धा और भक्ति से सत्कार करने का विधान बनाया गया था—‘‘दक्षस्मृति’’ में कहा गया है— सुधावस्तूनि वक्ष्यामि विशिष्टे गृहमागते । मनश्चक्षुर्मुखंवाच सौम्य दत्वा चतुष्टयम् ।। अभ्युन्थानततोगतगच्छेत पृच्छालाप प्रियान्वितः । उपासना मनुब्रज्या कर्याण्येतानि नित्यशः ।। अर्थात् ‘‘गृहस्थों का कल्याणकारी नियम यह है कि वे किसी सज्जन के अपने घर आने पर मन, नेत्र, मुख, वाणी—इन चारों को सौम्य रखें। उनको देखते ही खड़े होकर आने का प्रयोजन पूछें, प्यार से बोलें, यथोचित सेवा करें और चलते समय कुछ दूर उनके पीछे जायें। इस प्रकार का आचरण प्रतिदिन करना कर्तव्य धर्म है।’’ शिष्टाचार के इन नियमों में पहले यही शिक्षा दी गई है कि अपने यहां जो आवे उसका आदर केवल ऊपर से नहीं वरन् मन, मुख और वाणी सब तरह से करें। सबसे पहली बात यह है कि हम हृदय में निश्चय रखें कि किसी आगन्तुक का सत्कार, सेवा करना हमारा मानवीय कर्तव्य है। यदि हम उसका पालन नहीं करते तो मनुष्यता से गिरे हुये सामान्य पशु की तरह ही माने जायेंगे। मनुष्य को परमात्मा ने जो ज्ञान दिया है उसका उद्देश्य यही है कि वह संसार में बिखरे हुए आत्म तत्व को जानकर समस्त प्राणियों के साथ सहानुभूति का व्यवहार कर सके। पशु और मनुष्य में मुख्य अन्तर यही है कि पशु इस आत्मतत्व को समझ सकने में असमर्थ होता है, इसलिये उसका व्यवहार अपनी शारीरिक आवश्यकताओं तक ही सीमित रहता है। पर मनुष्य अपने विवेक द्वारा यह अनुभव कर सकता है कि शरीरों की पृथकता होने पर आत्मतत्व की दृष्टि से सब प्राणी एक ही हैं, इसलिए संसार में सबसे बड़ा पुण्य या शुभ कार्य दूसरों का सम्मान भी बनाये रखना है। यदि हम ऐसा करते हैं जिससे दूसरों की आत्मा को क्लेश होवे या कष्ट पहुंचे तो वही पाप है। यही भारतीय शिष्टाचार का मूल है जिसके आधार पर यहां अतिथि सत्कार गृहस्थ का सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया था। उस समय मनुष्य केवल मीठी बातों से ही किसी आगन्तुक को प्रसन्न करने की चेष्टा नहीं करते थे, वरन् मन, वचन, कर्म एवं श्रद्धा से उसकी सेवा, उसकी आवश्यकता की पूर्ति करने का प्रयत्न करते थे। यह इस देश का क्रियात्मक शिष्टाचार था जिससे प्रकट होता था कि हम वास्तव में दूसरे व्यक्ति को एक आत्मीय की तरह मानते है और उसके लिए वास्तव में कुछ कष्ट सहन, त्याग, परिश्रम करने को तैयार हैं। इस प्रकार के स्वागत, शिष्टाचार का प्रभाव ही चिरस्थाई रह सकता है। 
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