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Books - जीवन साधना प्रयोग और सिद्धियां-

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


आकांक्षाओं का परिष्कार कीजिए

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आकांक्षायें—मनुष्य को अन्य प्राणियों से विलग करने वाली चेतना का लक्षण है। अन्य प्राणियों की गतिविधियां भोजन, नींद और वंश परम्परा कायम रखने तक ही सीमित रहती हैं। मनुष्य भी प्रकृति की प्रेरणा से इन आवश्यकताओं को पूरा करता है लेकिन उसके विकास की जो सम्भावनायें दृष्टिगोचर होती हैं, प्रगति के जो चिन्ह दिखाई पड़ते हैं वे आकांक्षाओं तथा उनकी पूर्ति के लिए किये गये प्रयासों के ही परिणाम हैं। किसी भी कार्य का आरम्भ सर्वप्रथम आकांक्षा के रूप में ही होता है। आकांक्षा उठते ही उसकी पूर्ति के लिए मस्तिष्क विचार करने और योजना बनाने लगता है। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति धनवान और साधन सम्पन्न बनने की आकांक्षा रखता है। तो उसके विचार, उसकी बुद्धि और उसका मस्तिष्क आकांक्षा के साथ ही सक्रिय हो उठेंगे। यदि उपलब्ध साधन ही पर्याप्त जंचते हैं, और अधिक धन संग्रह की इच्छा नहीं उठती तो बुद्धि और विचार उधर जायेंगे भी नहीं। मनुष्य का स्तर और उसकी जीवन पद्धति बहुत कुछ आकांक्षाओं पर निर्भर करती है। धनवान बनने की प्रबल इच्छा हुई और साथ ही इतनी आतुरता भी कि अभी ही धनसम्पन्न हुआ जाय तो व्यक्ति अनीति की ओर भी आकृष्ट हो सकता है तथा अनैतिक साधनों से अपनी इच्छा पूरी करने लगता है। व्यक्तित्व का स्तर उठाने के लिए अपनी आकांक्षाओं का परिष्कार, इच्छाओं का परिमार्जन और पूर्ति के लिए आतुरता को कम करना चाहिए। आकांक्षाओं की प्रबलता और आतुरता ही वह कारण है, जिससे कि हम अपने को हर घड़ी व्यग्र, परेशान तथा कष्ट पीड़ित अभाव ग्रस्त अनुभव करते रहते हैं। आकांक्षाओं के असन्तुलन और विस्तार से ही एक व्यक्ति उन्हीं साधनों परिस्थितियों में स्वयं को सुखी सन्तुष्ट अनुभव कर लेता है तो दूसरा व्यक्ति उनको लेकर ही अभाव का रोना रोता रहता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आकांक्षायें रखना ही नहीं चाहिए। वस्तुतः आकांक्षायें ही प्रगति की प्रेरणा देती हैं और व्यक्ति को सक्रिय रखती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति ही जीवन में महत्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त करते हैं। लेकिन उस तरह की आकांक्षायें परिष्कृत और परिमार्जित ही हो सकती हैं। अन्यथा आकांक्षाओं का अनियन्त्रित विस्तार व्यक्ति को खिन्न, क्षुब्ध और कुण्ठित बनाने लगता है। इसलिए महापुरुषों ने उपलब्ध परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। सन्तोष का अर्थ यह नहीं होता कि जिस स्थिति में हैं उसी में रहने के लिए अपने को तैयार करें और प्रगति के प्रयास ही छोड़ दें वरन संतोष का वास्तविक अर्थ वर्तमान परिस्थितियों का रोना न रोते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करना है। यदि वर्तमान परिस्थितियों से असन्तुष्ट और खिन्न रहा जायगा तो प्रगति की दिशा में कदम उठा ही न सकेंगे। क्योंकि असन्तोष व्याकुलता और अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करता है। असन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति वर्तमान परिस्थितियों का निवारण खोजने में नहीं लगता वरन् उसके विचार उन्हीं दिशाओं में बहकते रहते हैं जो परिस्थितियों का और भी भयावह स्वरूप प्रस्तुत करती है। जैसे एक व्यक्ति अभावग्रस्त है। खाने पीने की सामान्य सुविधायें भी वह बड़ी कठिनाई से जुटा पाता है। स्पष्ट है कि वह स्थिति सुखद और सन्तोषप्रद नहीं ही होगी। वह इन परिस्थितियों में चिन्ताग्रस्त, खिन्न, उदास और निरुत्साही ही बना रहेगा तथा इन मनोविकारों के परिणाम स्वरूप अपनी स्थिति में कोई सुधार करने की अपेक्षा उनसे ही भयभीत रहा करेगा। दुख और पीड़ा की अनुभूति व्यक्ति को असंदिग्ध रूप से पंगु बना देती है। दुख और पीड़ा की संवेदना से तो क्रियाशील होने की ही प्रेरणा मिलती है। लेकिन उस संवेदना अनुभूति का यदि निषेध पक्ष ही देखा जाता रहे, एकांगी रूप से असन्तुष्ट ही रहा जाये तो कुछ करने की सूझ-बूझ या प्रेरणा ही नहीं उठती। प्रगतिशीलता का तकाजा है कि वर्तमान कष्ट कठिनाइयों का निवारण करने के लिए सृजनात्मक ढंग से विचार किया जाय और परिस्थितियों के कारण जानने—उन्हें दूर करने के लिए शांत व सन्तुलित ढंग से विचार किया जाय। यह स्थिति वर्तमान परिस्थितियों का बोझ मस्तिष्क पर से हटाये बिना प्राप्त नहीं की जा सकती। महत्वाकांक्षायें घुटती रहती हैं और चिन्ता—असंतोष व उद्विग्नता की जंजीर—बेड़ियां आगे नहीं बढ़ने देतीं। असंतोष का एक कारण यह भी है कि हम अपनी तुलना अपने से अधिक अच्छी स्थिति वालों से करने लगते हैं। उपलब्धियों को लेकर किया गया यह असन्तोष निश्चित रूप से मानसिक शांति को नष्ट ही करता है। यदि यह विचार किया जाय कि जिन्होंने उन्नति की है उन्होंने हमसे अधिक प्रयत्न किये तथा अधिक पुरुषार्थ किया। प्रायः उस दिशा में विचार ही नहीं जाते, मन में कोई बात उठती भी है तो यह कि सामने वाला हमसे कितनी अच्छी स्थिति में है और हम अभागे, अभाव के मारे इसी दीन दयनीय दुर्दशा में ही पड़े रहते हैं। इस तरह असन्तोष व्यक्ति में ईर्ष्या द्वेष की विकृतियों को भी बढ़ाता है और उसकी सुख-शान्ति को नष्ट करता रहता है। इस आधार पर हर व्यक्ति अपने को दूसरों की तुलना में गिरा हुआ तथा अधिक दुर्दशा ग्रस्त पाता है। आकांक्षा तो होती है कि हम अपने से अच्छी स्थिति वालों की तरह सुखी और समुन्नत बनें। किन्तु उस स्तर के प्रयास और पुरुषार्थ नहीं हो पाते। फलतः व्यक्ति उसी स्थिति में पड़ा रहता है। आकांक्षा का केन्द्र उपलब्धियां नहीं उस स्तर के प्रयास रहें तो आशातीत प्रगति की जा सकती है। इसी तथ्य को भगवान श्रीकृष्ण ने—’कर्मण्येवाधिकारस्ते’ के उपदेश द्वारा समझाया है। महत्वाकांक्षा या वर्तमान स्थिति में असन्तोष कर्म को केन्द्र बनाकर रखा न जाय कि उससे मिलने वाला उपलब्धियों को ले कर। जीवन का समग्र विकास आकांक्षाओं के स्वरूप और स्तर पर ही निर्भर है। असन्तोष और विक्षोभ जैसे मनोविकारों पर यदि विजय पाई जा सके तो प्रसन्नता, सन्तोष और अन्य सतोगुणी सम्पदायें अर्जित की जा सकती हैं और जीवन साधना के पथ पर सफलता पूर्वक आगे बढ़ते रहा जा सकता है। असन्तोष के विभिन्न कारण हैं। उपलब्ध परिस्थितियों को अपर्याप्त या कष्टप्रद समझना अथवा दूसरों से अपनी तुलना कर अपने दुर्भाग्य का रोना रोते रहना तो है ही। यथार्थ से आंखें मूंद कर कल्पना लोक में विचरण करने तथा जीवन का अस्वाभाविक मार्ग अपनाने, तृष्णा ग्रस्त रहने जैसे ढेरों कारण हैं जिनसे अशान्ति और असन्तोष उत्पन्न होते रहते हैं। आन्तरिक और बाह्य जीवन में एकरूपता—क्षमता न होने के कारण भी ऊलजलूल आकांक्षायें तथा असन्तोष की भावनायें उठा करती हैं। कई व्यक्ति आन्तरिक दृष्टि से बड़े आदर्शवादी होते हैं किन्तु संस्कारों से प्रेरित होकर कई ऐसे कार्य भी कर बैठते हैं जिससे कि आदर्शों को अपने जीवन में न उतार पाने का असन्तोष और विक्षोभ होता है। ऐसी दशा में विक्षुब्ध होने के स्थान पर वह नैतिक साहस जुटाया जाना चाहिए जिससे कि विक्षोभ का शिकार न होना पड़े। इस तरह की भूलें तब भी होती हैं जबकि आदर्शवादी बनने की लालसा रखते हुए भी अपनी आकांक्षाओं को परिष्कृत या संतुलित नहीं रखा जाता। उदाहरण के लिए ईमानदार और लोकसेवी बनने की लगन है। किन्तु आकांक्षा इस तरह की है कि खूब शान शौकत और ठाठ बाट से रहना जरूरी लगे। वैसी स्थिति में अपनी ईमानदारी व निष्ठा को प्रामाणिक सिद्ध करने और सेवा कार्यों का अपेक्षित प्रभाव न होने पर विक्षोभ तो उत्पन्न होगा ही। क्योंकि लोकसेवी के व्यक्तित्व में सादगी हो तो ही लोगों पर उसका प्रभाव पड़ता है। अतः अपनी आकांक्षाओं को अपने आदर्शों के अनुरूप ही ढालना चाहिए। असन्तोष का एक कारण अपनी यथार्थ स्थिति को भूल कर अपने सम्बन्ध में मिथ्या धारणायें बनाना तथा जीवन का अस्वाभाविक मार्ग अपनाना भी है। ऐसी दशा में अपनी क्षमता से अधिक आकांक्षायें उत्पन्न होने लगती और उनके पूरा न होने पर असन्तोष उत्पन्न होने लगता है। स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति के नियमानुसार क्रमिक विकास द्वारा ही उच्च स्थिति पर पहुंचा जा सकता है। बचपन से ही कोई अचानक वृद्धावस्था में नहीं पहुंच जाता। उगते हुए पेड़ में तत्काल फल नहीं लग जाता लेकिन जब किये गये कार्यों का परिणाम तत्काल प्राप्त होने की अपेक्षा की जाती है तब असन्तोष ही पैदा होता है। कई लोगों की बड़ी उच्च आकांक्षायें होती हैं। वे जीवन के महान स्वप्न देखते हैं। कल्पना क्षेत्र में उड़ते हुए क्या से क्या बन जाते हैं। कई महापुरुषों की जीवनी पढ़कर उनके बारे में सुनकर लोग वैसा ही बन जाना चाहते हैं। महत्वाकांक्षायें रखना बुरी बात नहीं हैं। इन्हीं के सहारे मनुष्य आगे बढ़ता है, उच्च सफलतायें अर्जित करता है। लेकिन महत्वाकांक्षाओं के पीछे भी मनुष्य की अपनी स्थिति, योग्यता, परिस्थितियां क्षमता आदि का भी कम महत्व नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी महत्वकांक्षाओं और अपनी परिस्थितियों में तालमेल बैठाकर प्रयत्नरत रहता है वह सफल भी हो जाता है, लेकिन अपनी स्थिति को भूल कर मनुष्य जब अपरिचित महत्वाकांक्षाओं के पीछे अन्धा हो जाता है, तब उसे असन्तोष और अशान्ति का ही सामना करना पड़ता है। हम क्या हैं हमारी परिस्थिति कैसी है और हम किस धरातल पर खड़े है, हमारी कितनी क्षमतायें हैं? इन्हें जाने समझे बिना महत्वाकांक्षाओं के पीछे नहीं ही दौड़ा जाना चाहिए। अपने सम्बन्ध में न कोई काल्पनिक धारणायें रखें और न ऐसी ही कोई आकांक्षा रखें जो कि अपनी प्रकृति के अनुकूल न हो। निरुद्देश्य जीवन भी आकांक्षाओं की उच्छृंखलता और असंतोष का एक बड़ा कारण है। प्रत्येक व्यक्ति जब जीवन में पदार्पण करता है तो उसके साथ उसकी जीवन यात्रा का भी एक लक्ष्य रहता है। उस लक्ष्य को भुलाकर विविध विधि प्रलोभनों और आकर्षणों में बंधकर मनुष्य असन्तुष्ट और क्षुब्ध रहने लगता है। प्रकृति ने वह लक्ष्य मनुष्य की स्वाभाविक विशेषताओं के साथ ही जोड़ दिया होता है, जो प्रत्येक मनुष्य की भिन्न हैं। अपनी उन विशेषताओं को समझकर, विशिष्ट क्षमताओं को अनुभव कर अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए, उस दिशा में आगे बढ़ने की आकांक्षायें विकसित करनी चाहिए, तथा सन्तोष और सुख-शान्ति के साथ जीवन यात्रा को सफलता पूर्वक सम्पन्न करना चाहिए। आकांक्षाओं की पूर्ति में ही सारी मानसिक शारीरिक शक्तियां न लगाकर उपयुक्त अनुपयुक्त आकांक्षाओं के वर्गीकरण, उनके शोधन, परिष्कार एवं परिवर्तन का भी महत्व समझें। उसके लिए अध्ययन, प्रयास, पुरुषार्थ करें तो हम गहनतम आत्म गौरव एवं सन्तोष के अधिकारी निश्चित रूप से बन सकते हैं। 
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