• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - हमारी वसीयत और विरासत

Media: TEXT
Language: EN
SCAN TEXT


तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 15 17 Last
मथुरा का कार्य सुचारु रूप से चल पड़ने के उपरांत हिमालय से तीसरा बुलावा आया, जिसमें अगले चौथे कदम को उठाए जाने का संकेत था। समय भी काफी हो गया था। इस बार कार्य का दबाव अत्यधिक रहा और सफलता के साथ-साथ थकान बढ़ती गई थी। ऐसी परिस्थितियों में बैटरी चार्ज करने का यह निमंत्रण हमारे लिए बहुत ही उत्साहवर्धक था।

निर्धारित दिन प्रयाण आरम्भ हो गया। देखे हुए रास्ते को पार करने में कोई कठिनाई नहीं हुए। फिर मौसम भी ऐसा रखा गया था जिसमें शीत के कड़े प्रकोप का सामना न करना पड़ता और एकाकीपन की प्रथम बार जैसी कठिनाई न पड़ती। गोमुख पहुँचने पर गुरुदेव के छाया पुरुष का मिलना और अत्यंत सरलतापूर्वक नंदन वन पहुँचा देने का क्रम पिछली बार जैसा ही रहा। सच्चे आत्मीयजनों का पारस्परिक मिलन कितना आनंद-उल्लास भरा होता है, इसे भुक्त-भोगी ही जानते हैं। रास्ते भर जिस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा करनी पड़ी वह आखिर आ ही गई। अभिवादन आशीर्वाद का क्रम चला और पीछे बहुमूल्य मार्गदर्शन का सिलसिला चल पड़ा।

अब की बार मथुरा छोड़कर हरिद्वार डेरा डालने का निर्देश मिला और कहा गया कि ‘‘वहाँ रहकर ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने का कार्य आरम्भ करना है। तुम्हें याद है न, जब यहाँ प्रथम बार आए थे और हमने सूक्ष्म शरीरधारी इस क्षेत्र के ऋषियों का दर्शन कराया था। हर एक ने उनकी परम्परा लुप्त हो जाने पर दुःख प्रकट किया था और तुमने यह वचन दिया था कि इस कार्य को भी सम्पन्न करोगे। इस बार उसी निमित्त बुलाया गया है।’’

भगवान अशरीरी है। जब कभी उन्हें महत्त्वपूर्ण कार्य कराने होते हैं, तो ऋषियों के द्वारा कराते हैं। महापुरुषों को वे बनाकर खड़े कर देते हैं। स्वयं तप करते हैं और अपनी शक्ति देवात्माओं को देकर बड़े काम करा लेते हैं। भगवान राम को विश्वामित्र अपने यहाँ रक्षा के बहाने ले गए और वहाँ बला-अतिबला विद्या (गायत्री और सावित्री) की शिक्षा देकर उनके द्वारा असुरता का दुर्ग ढहाने तथा रामराज्य, धर्मराज्य की स्थापना का कार्य कराया था। कृष्ण भी संदीपन ऋषि के आश्रम में पढ़ने गए थे और वहाँ से गीता गायन, महाभारत निर्णय तथा सुदामा ऋषि की कार्य पद्धति को आगे बढ़ाने का निर्देशन लेकर वापस लौटे थे। समस्त पुराण इसी उल्लेख से भरे पड़े हैं कि ऋषियों के द्वारा महापुरुष उत्पन्न किए गए और उनकी सहायता से महान कार्य सम्पादित कराए। स्वयं तो वे शोध प्रयोजनों में और तप साधनाओं में संलग्न रहते ही थे। इसी कार्य को तुम्हें अब पूरा करना है।’’

‘‘गायत्री के मंत्र द्रष्टा विश्वामित्र थे। उन्होंने सप्त सरोवर नामक स्थान पर रहकर गायत्री की पारंगतता प्राप्त की थी, वही स्थान तुम्हारे लिए भी नियत है। उपयोगी स्थान तुम्हें सरलतापूर्वक मिल जाएगा। उसका नाम शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ रखना और उन सब कार्यों का बीजारोपण करना जिन्हें पुरातन काल के ऋषिगण स्थूल शरीर से करते रहे हैं। अब वे सूक्ष्म शरीर में हैं इसलिए अभीष्ट प्रयोजनों के लिए किसी शरीरधारी को माध्यम बनाने की आवश्यकता पड़ रही है। हमें भी तो ऐसी आवश्यकता पड़ी और तुम्हारे स्थूल शरीर को इसके लिए सत्पात्र देखकर सम्पर्क बनाया और अभीष्ट कार्यक्रमों में लगाया। यही इच्छा इन सभी ऋषियों की है। तुम उनकी परम्पराओं का नए सिरे से बीजारोपण करना। उन कार्यों में अपेक्षाकृत भारीपन रहेगा और कठिनाई भी अधिक रहेगी, किंतु साथ ही एक अतिरिक्त लाभ भी है कि हमारा ही नहीं, उन सबका भी संरक्षण और अनुदान तुम्हें मिलता रहेगा। इसलिए कोई कार्य रुकेगा नहीं।’’

जिन ऋषियों के छोड़े कार्य को हमें आगे बढ़ाना था, उनका संक्षिप्त विवरण बताते हुए उन्होंने कहा-विश्वामित्र परम्परा में गायत्री महामंत्र की शक्ति से जन-जन को अवगत कराना एवं एक सिद्ध पीठ-गायत्री तीर्थ का निर्माण करना है। व्यास परम्परा में आर्ष साहित्य के अलावा अन्यान्य पक्षों पर साहित्य सृजन एवं प्रज्ञा पुराण के १८ खण्डों को लिखने का, पतंजलि परम्परा में-योग साधना के तत्त्वज्ञान के विस्तार का, परशुराम परम्परा में अनीति उन्मूलन हेतु जन-मानस के परिष्कार के वातावरण निर्माण का तथा भागीरथी परम्परा में ज्ञान गंगा को जन-जन  तक पहुँचाने का दायित्व सौंपा गया। चरक परम्परा में वनौषधि पुनर्जीवन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान, याज्ञवल्क्य परम्परा में यज्ञ से मनोविकारों के शमन द्वारा समग्र चिकित्सा पद्धति का निर्धारण, जमदग्नि परम्परा में साधना आरण्यक का निर्माण एवं संस्कारों का बीजारोपण, नारद परम्परा में सत्परामर्श-परिव्रज्या के माध्यम से धर्म चेतना का विस्तार, आर्यभट्ट परम्परा में धर्मतंत्र के माध्यम से राजतंत्र का मार्गदर्शन, शंकराचार्य परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण का, पिप्पलाद परम्परा में आहार-कल्प के माध्यम से समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन एवं सूत-शौनिक परम्परा में स्थान-स्थान पर प्रज्ञा योजनों द्वारा लोक शिक्षण की रूपरेखा के सूत्र हमें बताए गए। अथर्ववेदीय विज्ञान परम्परा में कणाद ऋषि प्रणीत वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धति के आधार पर ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की रूपरेखा बनी।

हरिद्वार रहकर हमें क्या करना है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का समाधान कैसे करना है? यह ऊपर बताए निर्देशों के अनुसार हमें विस्तारपूर्वक बता दिया गया। सभी बातें पहले की ही तरह गाँठ बाँध लीं। पिछली बार मात्र गुरुदेव अकेले की ही इच्छाओं की पूर्ति का कार्य भार था। अबकी बार इतनों का बोझ लादकर चलना पड़ेगा। गधे को अधिक सावधानी रखनी पड़ेगी और अधिक मेहनत भी करनी पड़ेगी।

साथ ही इतना सब कर लेने पर चौथी बार आने और उससे भी बड़ा उत्तरदायित्व संभालने तथा सूक्ष्म शरीर अपनाने का कदम बढ़ाना पड़ेगा। यह सब इस बार उनने स्पष्ट नहीं किया, मात्र संकेत ही दिया।

यह भी बताया कि ‘‘हरिद्वार की कार्य पद्धति मथुरा के कार्यक्रम से बड़ी है। इसलिए उतार-चढ़ाव भी बहुत रहेंगे। असुरता के आक्रमण भी सहने पड़ेंगे, आदि-आदि बातें उन्होंने पूरी तरह समझा दीं। समय की विषमता को देखते हुए उस क्षेत्र में अधिक रुकना उन्हें उचित न लगा और एक वर्ष के स्थान पर छः महीने रहने का ही निर्देश दिया। कहाँ, किस प्रकार रहना और किस दिनचर्या का निर्वाह करना, यह उनने समझाकर बात समाप्त की और पिछली बार की भाँति ही अंतर्ध्यान होते हुए चलते-चलते यह कह गए कि’’ ‘‘इस कार्य को सभी ऋषियों का सम्मिलित कार्य समझना, मात्र हमारा नहीं।’’ हमने भी विदाई का प्रणाम करते हुए इतना ही कहा कि ‘‘हमारे लिए आप ही समस्त देवताओं के समस्त ऋषियों के और परब्रह्म के प्रतिनिधि हैं। आपके आदेश को इस शरीर के रहते टाला न जाएगा।’’

बात समाप्त हुई। हम विदाई लेकर चल पड़े। छाया पुरुष (वीरभद्र) ने गोमुख तक पहुँचा दिया। आगे अपने पैरों से बताए हुए स्थान के लिए चल पड़े।

जिन-जिन स्थानों पर इन यात्राओं में हमें ठहरना पड़ा, उनका उल्लेख यहाँ इसलिए नहीं किया गया कि वे सभी दुर्गम हिमालय में गुफाओं के निवासी थे। समय-समय पर स्थान बदलते रहते थे। अब तो उनके शरीर भी समाप्त हो गए। ऐसी दशा में उल्लेख की आवश्यकता न रही।

लौटते हुए हरिद्वार उसी स्थान पर रुके, सप्त ऋषियों की तपोभूमि में जिस स्थान का संकेत गुरुदेव ने किया था। काफी हिस्सा सुनसान पड़ा था और बिकाऊ भी था। जमीन पानी उगलती थी। पहले यहाँ गंगा बहती थी, यह स्थान सुहाया भी। जमीन के मालिक से चर्चा हुई और शेष जमीन का सौदा आसानी से पट गया। उसे खरीदने में लिखा-पढ़ी कराने में विलम्ब न हुआ। जमीन मिल जाने के उपरांत यह देखना था कि वहाँ-कहाँ, क्या बनाना है? यह भी एकाकी ही निर्णय करना पड़ा। सलाहकारों का परामर्श काम न आया, क्योंकि उन्हें बहुत कोशिश करने पर भी यह नहीं समझाया जा सका कि यहाँ किस प्रयोजन के लिए किस आकार-प्रकार का निर्माण होना है। वह कार्य भी हमने पूरा किया। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज, गायत्रीतीर्थ की स्थापना हुई।

शान्तिकुञ्ज में गायत्रीतीर्थ की स्थापना

मथुरा से प्रयाण के बाद हिमालय से ६ माह बाद ही हम हरिद्वार उस स्थान पर लौट आए, जहाँ निर्धारित स्थान पर शान्तिकुञ्ज के एक छोटे से भवन में माता जी व उनके साथ रहने वाली कन्याओं के रहने योग्य निर्माण हम पूर्व में करा चुके थे। अब और जमीन लेने के उपरांत पुनः निर्माण कार्य आरम्भ किया। इच्छा ऋषि आश्रम बनाने की थी। सर्वप्रथम अपने लिए सहकर्मियों के लिए अतिथियों के लिए निवास स्थान और भोजनालय बनाया गया।

यह आश्रम ऋषियों का, देवात्मा हिमालय का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए उत्तराखण्ड का गंगा का प्रतीक देवालय यहाँ बनाया गया। इसके अतिरिक्त सात प्रमुख तथा अन्यान्य वरिष्ठ ऋषियों की प्रतिमाओं की स्थापना का प्रबंध किया गया। आद्य शक्ति गायत्री का मंदिर तथा जलकूपों का निर्माण कराया गया। प्रवचन कक्ष का भी। इस निर्माण में प्रायः दो वर्ष लग गए। अब निवास के योग्य आवश्यक व्यवस्था हो गई, तब हम और माता जी ने नवनिर्मित शान्तिकुञ्ज को अपनी तपःस्थली बनाया। साथ में अखण्ड दीपक भी था। उसके लिए एक कोठरी और गायत्री प्रतिमा की स्थापना करने के लिए सुविधा पहले ही बन चुकी थी।

इस बंजर पड़ी भूमि के प्रसुप्त पड़े संस्कारों को जगाने के लिए २४ अखण्ड पुरश्चरण कराए जाने थे। इसके लिए ९ कुमारियों का प्रबंध किया। प्रारंभ में चार घण्टे दिन में, चार घण्टे रात्रि में इनकी ड्यूटी थी। बाद में इनकी संख्या २७ हो गई तब समय कम कर दिया गया। इन्हें दिन में माताजी पढ़ाती थीं। छः वर्ष उपरांत इन सबने ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई आरम्भ कर दी। बीस और पच्चीस वर्ष की आयु के मध्य सबके सुयोग्य घरों और वरों के साथ विवाह कर दिए गए।

इसके पूर्व संगीत और प्रवचन का अतिरिक्त प्रशिक्षण क्रम भी चलाया गया। देश व्यापी नारी जागरण के लिए इन्हें मोटर गाड़ियों में पाँच-पाँच के जत्थे बनाकर भेजा गया। तब तक पढ़ने वाली कन्याओं की संख्या १०० से ऊपर हो गई थी। इनके दौरे का देश के नारी समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा।

हरिद्वार से ही तेजस्वी कार्यकर्ताओं को ढालने का कार्य हाथ में लिया गया। इसके लिए प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र, एक-एक मास के युग शिल्पी सत्र एवं वानप्रस्थ सत्र भी लगाए गए। सामान्य उपासकों के लिए छोटे-बड़े गायत्री पुरश्चरणों की शृंखला भी चल पड़ी। गंगा का तट, हिमालय की छाया, दिव्य वातावरण, प्राणवान मार्ग दर्शन जैसी सुविधाओं को देखकर पुरश्चरणकर्त्ता भी सैकड़ों की संख्या में निरंतर आने लगे। पूरा समय देने वाले वानप्रस्थों का प्रशिक्षण भी अलग से चलता रहा। दोनों प्रकार के साधकों के लिए भोजन का प्रबंध किया गया।

यह नई संख्या निरंतर बढ़ती जाने लगी। ऋषि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए इसकी आवश्यकता भी थी कि सुयोग्य आत्मदानी पूरा समय देकर हाथ में लिए हुए महान कार्य की पूर्ति के लिए आवश्यक आत्मबल संग्रह करें और उसके उपरांत व्यापक कार्यक्रम में जुट पड़ें।

बढ़ते हुए कार्य को देखकर गायत्री नगर में २४० क्वार्टर बनाने पड़े। एक हजार व्यक्तियों के प्रवचन में सम्मिलित हो सकने जितने बड़े आकार का प्रवचन हाल बनाना पड़ा। इस भूमि को अधिक संस्कारवान बनाना था। इसलिए नौ कुण्ड की यज्ञशाला में प्रातःकाल दो घंटे यज्ञ किए जाने की व्यवस्था की और आश्रम में स्थायी निवासियों तथा पुरश्चरण कर्त्ताओं का औसत जप इस अनुपात से निर्धारित किया गया कि हर दिन २४ लक्ष गायत्री महापुरश्चरण सम्पन्न होता रहे। आवश्यक कार्यों के लिए एक छोटा प्रेस भी लगाना पड़ा। इन सब कार्यों के लिए निर्माण कार्य अब तक एक प्रकार से बराबर ही चलता रहा। इसी बीच ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के लिए भव्य भवन बनाना प्रारम्भ कर दिया था। इस सारे निर्माण में प्रायः चार वर्ष लग गए। इसी बीच वे कार्य आरम्भ कर दिए गए, जिन्हें सम्पन्न करने से ऋषि परम्परा का पुनर्जीवन हो सकता था। जैसे-जैसे सुविधा बनती गई, वैसे-वैसे नए कार्य हाथ में लिए गए और कहने योग्य प्रगति स्तर तक पहुँच गए।

भगवान बुद्ध ने नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय स्तर के विहार बनाए थे और उनमें प्रशिक्षित करके कार्यकर्ता देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में भेजे गए थे। धर्मचक्र प्रवर्तन की योजना तभी पूरी हो सकी थी।

भगवान आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार धाम बनाए थे और उनके माध्यम से देश में फैले हुए अनेक मत-मतांतरों को एक सूत्र में पिरोया था। दोनों ने अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में एक कुम्भ स्तर के बड़े सम्मेलन, समारोहों की व्यवस्था की थी, ताकि जो ऋषियों के मुख्य-मुख्य संदेश हों, वे आगंतुकों द्वारा घर-घर पहुँचाए जा सकें।

इन दोनों के ही क्रिया-कलापों को हाथ में लिया गया। निश्चय किया गया कि गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञा संस्थानों के नाम से देश के कोने-कोने में भव्य देवालय एवं कार्यालय बनाए जाएँ, जहाँ केंद्र बनाकर समीपवर्ती क्षेत्रों में काम किए जा सके, जिनको प्रज्ञा मिशन का प्रण-संकल्प कहा जा सके।

बात असम्भव लगती थी, किंतु प्राणवान परिजनों को शक्तिपीठ निर्माण के संकल्प दिए गए, तो २४०० भवन दो वर्ष के भीतर बन गए। उस क्षेत्र के कार्यकर्ता उसे केंद्र मानकर युग चेतना का आलोक वितरण करने और घर-घर अलख जगाने के काम में जुट पड़े। यह एक इतना बड़ा और इतना अद्भुत कार्य है, जिसकी तुलना में ईसाई मिशनरियों के द्वारा किए गए निर्माण कार्य भी फीके पड़ जाते हैं। हमारे निर्माणों में जन-जन का अल्पांश लगता है, अतः सबको अपना लगता है, जबकि चर्च, अन्यान्य बड़े मंदिर बड़ी धनराशियों से बनाए जाते हैं।

इसके अतिरिक्त चल प्रज्ञापीठों की योजना बनी। एक कार्यकर्ता एक संस्था चला सकता है। यह चल गाड़ियाँ हैं। इन्हें कार्यकर्ता अपने नगर तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में धकेलकर ले जाते हैं। पुस्तकों के अतिरिक्त आवश्यक सामान भी उसकी कोठी में भरा रहता है। यह चल पुस्तकालय अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक रहे इसलिए वे दो वर्ष में बारह हजार की संख्या में बन गए। स्थिर प्रज्ञा पीठों और चल पज्ञा संस्थानों के माध्यम से हर दिन प्रायः एक लाख व्यक्ति इनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

इसके अतिरिक्त उपरोक्त हर संस्था का वार्षिकोत्सव करने का निश्चय किया गया, जिसमें उस क्षेत्र के न्यूनतम एक हजार कार्यकर्ता एकत्रित हों। चार दिन सम्मेलन चले। नए वर्ष का संदेश सुनाने के लिए हरिद्वार से प्रचारक मंडलियाँ कन्याओं की टोलियों के समान ही भेजने का प्रबंध किया गया, जिनमें ४ गायक और १ वक्ता भेजे गए। पाँच प्रचारकों की टोली के लिए जीवन गाड़ियों का प्रबंध करना पड़ा ताकि कार्यकर्त्ताओं के बिस्तर, कपड़े, संगीत, उपकरण, लाउडस्पीकर आदि सभी सामान भली प्रकार जा सके। ड्राइवर भी अपना ही कार्यकर्ता होता है, ताकि वह भी छठे प्रकार का काम देख सके। अब हर प्रचारक को जीप व कार ड्राइविंग सिखाने की व्यवस्था की गई है, ताकि इस प्रयोजन के लिए बाहर के आदमी न तलाशने पड़ें।

मथुरा रहकर महत्त्वपूर्ण साहित्य लिखा जा चुका था। हरिद्वार आकर प्रज्ञा पुराण का मूल उपनिषद् पक्ष संस्कृत व कथा टीका सहित हिन्दी में १८ खण्डों में लिखने का निश्चय किया गया। पाँच खण्ड प्रकाशित भी हो चुके। इसके अतिरिक्त एक फोल्डर आठ पेज का नित्य लिखने का निश्चय किया गया। जिनके माध्यम से सभी ऋषियों की कार्य पद्धति से सभी प्रज्ञापुत्रों को अवगत कराया जा सके और उन्हें करने में संलग्न होने की प्रेरणा मिल सके। अब तक इस प्रकार ४०० फोल्डर लिखे जा चुके हैं। उनको भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद कराने का प्रबंध चल पड़ा व देश के कोने-कोने में यह साहित्य पहुँचा है।

देश की सभी भाषाओं और सभी मत-मतांतरों को पढ़ने और उनके माध्यम से हर क्षेत्र में कार्यकर्त्ता तैयार करने के लिए एक अलग भाषा एवं धर्म विद्यालय शान्तिकुञ्ज में ही इस वर्ष बनकर तैयार हुआ है और ठीक तरह चल पड़ा है।

उपरोक्त कार्यक्रमों को लेकर जो भी कार्यकर्ता देशव्यापी दौरा करते हैं, वे मिशन के प्रायः दस लाख कार्यकर्ताओं में उन क्षेत्रों में प्रेरणाएँ भरने का काम करते हैं, जहाँ वे जाते हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा इन क्षेत्रों में संगठन पूरी तरह सुव्यवस्थित हो गया है। अब देश का जो भाग प्रचार क्षेत्र में भाषा व्यवधान के कारण सम्मिलित करना नहीं बन पड़ा है, उन्हें भी एकाध वर्ष में पूरी कर लेने की योजना है।

प्रवासी भारतीय प्रायः ७४ देशों में बिखरे हुए हैं। उनकी संख्या भी तीन करोड़ के करीब है। उन तक व अन्य देशवासियों तक मिशन के विचारों को फैलाने की योजना बड़ी सफलतापूर्वक आरम्भ हुई है। आगे चलकर कई सुयोग्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से कई राष्ट्रों में प्रज्ञा आलोक पहुँचाना सम्भव बन पड़ेगा। कदाचित ही कोई देश अब ऐसा शेष रहा हो, जहाँ प्रवासी भारतीय न रहते हों और मिशन का संगठन न बना हो।

ऊपर की पंक्तियों में ऋषियों की कार्यपद्धति को जहाँ जिस प्रकार व्यापक बनाना सम्भव हुआ है, वहाँ उसके लिए प्रायः एक हजार आत्मदानी कार्यकर्ता निरंतर कार्यरत रहकर कार्य कर रहे हैं। इसके लिए ऋषि जमदअग्नि परम्परा का गुरुकुल आरण्यक यहाँ नियमित रूप से चलता है।

चरक परम्परा का पुनरुद्धार किया गया है। दुर्लभ जड़ी-बूटियों का शान्तिकुञ्ज में उद्यान लगाया गया है और उनमें हजारों वर्षों में क्या अंतर आया है, यह बहुमूल्य मशीनों से जाँच पड़ताल की जा रही है। एक औषधि का एक बार में प्रयोग करने की एक विशिष्ट पद्धति यहाँ क्रियान्वित की जा रही है, जो अत्यधिक सफल हुई है।

युग शिल्पी विद्यालय के माध्यम से सुगम संगीत की शिक्षा हजारों व्यक्ति प्राप्त कर चुके हैं और अपने-अपने यहाँ ढपली जैसे छोटे से माध्यम द्वारा संगीत विद्यालय चलाकर युग गायक तैयार कर रहे हैं।

पृथ्वी अन्तर्ग्रही वातावरण से प्रभावित होती है। उसकी जानकारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हर पाँच वर्ष पीछे ज्योतिष गणित को सुधारने की आवश्यकता होती है। आर्यभट्ट की इस विधा को नूतन जीवन प्रदान करने के लिए प्राचीनकाल के उपकरणों वाली समग्र वेधशाला विनिर्मित की गई है और नेपच्यून प्लेटो, यूरेनस ग्रहों के वेध समेत हर वर्ष दृश्य गणित पंचांग प्रकाशित होता है। यह अपने ढंग का एक अनोखा प्रयोग है।

अब प्रकाश चित्र विज्ञान का नया कार्य हाथ में लिया गया है। अब तक सभी संस्थानों में प्रोजेक्टर पहुँचाए गए थे। उन्हीं से काम चल रहा था। अब वीडियो क्षेत्र में प्रवेश किया गया है। इनके माध्यम से कविताओं के आधार पर प्रेरक फिल्में बनाई जा रही हैं। देश के विद्वानों, मनीषियों, मूर्धन्यों, नेताओं के दृश्य प्रवचन टेप कराकर उनकी छवि समेत संदेश घर-घर पहुँचाए जा रहे हैं। भविष्य में मिशन के कार्यक्रमों का उद्देश्य, स्वरूप और प्रयोग समझाने वाली फिल्में बनाने की बड़ी योजना है, जो जल्दी ही कार्यान्वित होने जा रही है।

शान्तिकुञ्ज मिशन का सबसे महत्त्वपूर्ण सृजन है ‘‘ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान।’’ इस बहुमूल्य प्रयोगशाला द्वारा अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने के लिए बहुमूल्य यंत्र उपकरणों वाली प्रयोगशाला बनाई गई है। कार्यकर्ताओं में आधुनिक आयुर्विज्ञान एवं पुरातन आयुर्वेद विधा के ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट हैं। विज्ञान की अन्य विधाओं में निष्णात उत्साही कार्यकर्ता हैं, जिनकी रुचि अध्यात्म परक है। इसमें विशेष रूप से यज्ञ विज्ञान पर शोध की जा रही है। इस आधार पर यज्ञ विज्ञान की शारीरिक, मानसिक रोगों की निवृत्ति में, पशुओं और वनस्पतियों के लिए लाभदायक सिद्ध करने में, वायुमण्डल और वातावरण के संशोधन में इसकी उपयोगिता जाँची जा रही है, जो अब तक बहुत ही उत्साहवर्धक सिद्ध हुई।

यहाँ सभी सत्रों में आने वालों की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है। उसी के अनुरूप उन्हें साधना करने का निर्देश दिया जाता है। अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय पर इस प्रकार शोध करने वाली विश्व की यह पहली एवं स्वयं में अनुपम प्रयोगशाला है।

इसके अतिरिक्त भी सामयिक प्रगति के लिए जनसाधारण को जो प्रोत्साहन दिए जाने हैं उनकी अनेक शिक्षाएँ यहाँ दी जाती हैं। अगले दिनों और भी बड़े काम हाथ में लिए जाने हैं।

गायत्री परिवार के लाखों व्यक्ति उत्तराखण्ड की यात्रा करने के लिए जाते समय शान्तिकुञ्ज के दर्शन करते हुए यहाँ की रज मस्तक पर लगाते हुए तीर्थयात्रा आरम्भ करते हैं। बच्चों के अन्नप्राशन, नामकरण, मुंडन, यज्ञोपवीत आदि संस्कार यहाँ आकर कराते हैं क्योंकि परिजन इसे सिद्ध पीठ मानते हैं। पूर्वजों के श्राद्ध तर्पण कराने का भी यहाँ प्रबंध है। जन्म-दिन विवाह-दिन मनाने हर वर्ष प्रमुख परिजन यहाँ आते हैं। बिना दहेज की शादियाँ हर वर्ष यहाँ व तपोभूमि, मथुरा में होती हैं। इससे परिजनों को सुविधा भी बहुत रहती है और, इस खर्चीली कुरीति से भी पीछा छूटता है।

जब पिछली बार हम हिमालय गए थे और हरिद्वार जाने और शान्तिकुञ्ज  रहकर ऋषियों की कार्य पद्धति को पुनर्जीवन देने का काम हमें सौंपा गया था, तब यह असमंजस था कि इतना बड़ा कार्य हाथ में लेने में न केवल विपुल धन की आवश्यकता है, वरन् इसमें कार्यकर्ता भी उच्च श्रेणी के चाहिए। वे कहाँ मिलेंगे? सभी संस्थाओं के पास वेतन भोगी हैं। वे भी चिह्न पूजा करते हैं। हमें ऐसे जीवनदानी कहाँ से मिलेंगे, पर आश्चर्य है कि शान्तिकुञ्ज में-ब्रह्मवर्चस् में इन दिनों रहने वाले कार्यकर्ता ऐसे हैं, जो अपनी बड़ी-बड़ी पोस्टों से स्वेच्छा से त्याग पत्र देकर आए हैं। सभी ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के हैं अथवा प्रखर प्रतिभा सम्पन्न हैं। इनमें से कुछ तो मिशन के चौके में भोजन करते हैं। कुछ उसकी लागत भी अपनी जमा धनराशि के ब्याज से चुकाते रहते हैं। कुछ के पास पेंशन आदि का प्रबंध भी है। भावावेश में आने जाने वालों का क्रम चलता रहता है, पर जो मिशन के सूत्र संचालक के मूलभूत उद्देश्य को समझते हैं, वे स्थायी बनकर टिकते हैं। खुशी की बात है कि ऐसे भावनाशील नैष्ठिक परिजन सतत आते व संस्था से जुड़ते चले जा रहे हैं।

गुजारा अपनी जेब से एवं काम दिन-रात स्वयं की तरह मिशन का, ऐसा उदाहरण अन्य संस्थाओं में चिराग लेकर ढूँढ़ना पड़ेगा। यह सौभाग्य मात्र शान्तिकुञ्ज को मिला है कि उसे एम० ए०, एम०एस०सी०, एम०डी०, एम०एस०, पी०एच०डी०, आयुर्वेदाचार्य, संस्कृत आचार्य स्तर के कार्यकर्ता मिले हैं। उनकी नम्रता, सेवा साधना, श्रमशीलता एवं निष्ठा देखते ही बनती है। जबकि वरीयता योग्यता एवं प्रतिभा को दी जाती है, डिग्री को नहीं, ऐसा परिकर जुड़ना इस मिशन का बहुत बड़ा सौभाग्य है।

जो काम अब तक हुआ है, उसमें पैसे की याचना नहीं करनी पड़ी। मालवीय जी का मंत्र मुट्ठी भर अन्न और दस पैसा नित्य देने का संदेश मिल जाने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो गया। आगे इसकी और भी प्रगति होने की सम्भावना है। हम जन्मभूमि छोड़कर आए, वहाँ हाईस्कूल, फिर इंटर कालेज एवं अस्पताल चल पड़ा। मथुरा का कार्य हमारे सामने की अपेक्षा उत्तराधिकारियों द्वारा दूना कर दिया गया है। हमारे हाथ का कार्य क्रमशः अब दूसरे समर्थ व्यक्तियों के कंधों पर जा रहा है, पर मन में विश्वास है कि घटेगा नहीं। ऋषियों का जो कार्य आरम्भ करना और बढ़ाना हमारे जिम्मे था, वह अगले दिनों घटेगा नहीं। प्रज्ञावतार की अवतरण वेला में मत्स्यावतार की तरह बढ़ता-फैलता ही चला जाएगा। चाहे हमारा शरीर रहे या न रहे, किंतु हमारा परोक्ष शरीर सतत उस कार्य को करता रहेगा, जो ऋषि सत्ता ने हमें सौंपा था।

बोओ एवं काटो का मंत्र, जो हमने जीवन भर अपनाया

हिमालय यात्रा से हरिद्वार लौटकर आने के बाद जब आश्रम का प्रारंभिक ढाँचा बनकर तैयार हुआ तो विस्तार हेतु साधनों की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। समय की विषमता ऐसी थी कि जिससे जूझने के लिए हमें कितने ही साधनों, व्यक्तियों एवं पराक्रमों की आवश्यकता अपेक्षित थी। दो काम करने थे-एक संघर्ष, दूसरा सृजन। संघर्ष उन अवाञ्छनीयताओं से, जो अब तक की संचित सभ्यता, प्रगति और संस्कृति को निगल जाने के लिए मुँह बाए खड़ी है। सृजन उसका, जो भविष्य को उज्ज्वल एवं सुख-शान्ति से भरा पूरा बना सके। दोनों ही कार्यों का प्रयोग समूचे धरातल पर निवास करने वाले ५०० करोड़ मनुष्यों के लिए करना ठहरा था, इसलिए विस्तार क्रम अनायास ही अधिक हो जाता है।

निज के लिए हमें कुछ भी न करना था। पेट भरने के लिए जिस स्रष्टा ने कीट-पतंगों तक के लिए व्यवस्था बना रखी है, वह हमें क्यों भूखा रहने देगा। भूखे उठते तो सब हैं, पर खाली पेट सोता कोई नहीं। इस विश्वास ने निजी कामनाओं का आरम्भ में ही समापन कर दिया। न लोभ ने कभी सताया, न मोह ने। वासना, तृष्णा और अहंता में से कोई भी भव बंधन जैसी बँधकर पीछे न लग सकी। जो करना था, भगवान के लिए करना था, गुरुदेव के निर्देशन पर करना था। उन्होंने संघर्ष और सृजन के दो ही काम सौंपे थे, सो उन्हें करने में सदा उत्साह ही रहा। टालमटोल करने की प्रवृत्ति न थी और न कभी इच्छा हुई। जो करना सो तत्परता और तन्मयता से करना, यह आदत जन्मजात दिव्य अनुदान के रूप में मिली और अद्यावधि यथावत बनी रही।

जिन साधनों की नव सृजन के लिए आवश्यकता थी, वे कहाँ से मिले, कहाँ से आएँ? इस प्रश्न के उत्तर में मार्गदर्शक ने हमें हमेशा एक ही तरीका बताया था कि बोओ ओर काटो, मक्का और बाजरा का एक बीज जब पौधा बनकर फलता है तो एक के बदले सौ नहीं वरन् उससे भी अधिक मिलता है। द्रौपदी ने किसी संत को अपनी साड़ी फाड़कर दी थी, जिससे उन्होंने लंगोटी बनाकर अपना काम चलाया था। वही आड़े समय में इतनी बनी कि उन साड़ियों के गट्ठे को सिर पर रखकर भगवान् को स्वयं भाग कर आना पड़ा। ‘‘जो तुझे पाना है, उसे बोना आरम्भ कर दे।’’ यही बीज मंत्र हमें बताया और अपनाया गया, प्रतिफल ठीक वैसा ही निकला जैसा कि संकेत किया गया।

शरीर, बुद्धि और भावनाएँ स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के साथ भगवान् सबको देते हैं। धन स्व उपार्जित होता है। कोई हाथों-हाथ कमाता है, तो कोई पूर्व संचित सम्पदा को उत्तराधिकार में पाते हैं। हमने कमाया तो नहीं था, पर उत्तराधिकार में अवश्य समुचित मात्रा में पाया। इन सबको बो देने और समय पर काट लेने के लायक गुंजायश थी, सो बिना समय गँवाए उस प्रयोजन में अपने को लगा दिया।

रात में भगवान् का भजन कर लेना और दिन भर विराट् ब्रह्म के लिए, विश्व मानव के लिए समय और श्रम नियोजित रखना, यह शरीर साधना के रूप में निर्धारित किया गया।

बुद्धि दिन भर जागने में ही नहीं, रात्रि के सपने में भी लोक मंगल की विधाएँ विनिर्मित करने में लगी रही। अपने निज के लिए सुविधा सम्पदा कमाने का ताना-बाना बुनने की कभी भी इच्छा ही नहीं हुई। अपनी भावनाएँ सदा विराट के लिए लगी रहीं। प्रेम, किसी वस्तु या व्यक्ति से नहीं आदर्शों से किया। गिरों को उठाने और पिछड़ों को बढ़ाने की ही भावनाएँ सतत उमड़ती रहीं।

इस विराट् को ही हमने अपना भगवान् माना। अर्जुन के दिव्य चक्षु ने इसी विराट् के दर्शन किए थे। यशोदा ने कृष्ण के मुख में स्रष्टा का यही स्वरूप देखा था। राम ने पालने में पड़े-पड़े माता कौशल्या को अपना यही रूप दिखाया था और काकभुशुण्डि इसी स्वरूप की झाँकी करके धन्य हुए थे।

हमने भी अपने पास जो कुछ था, उसी विराट ब्रह्म को-विश्व मानव को सौंप दिया। बोने के लिए इससे उर्वर खेत दूसरा कोई हो नहीं सकता था। वह समयानुसार फला-फूला। हमारे कोठे भर दिए, सौंपे गए दो कामों के लिए जितने साधनों की जरूरत थी, वे उसी में जुट गए।

शरीर जन्मजात दुर्बल था। शारीरिक बनावट की दृष्टि से उसे दुर्बल कह सकते हैं, जीवन शक्ति तो प्रचंड थी ही। जवानी में बिना शाक, घी, दूध के २४ वर्ष तक जौ की रोटी और छाछ लेते रहने से वह और कृश हो गया था, पर जब बोने-काटने की विधा अपनाई तो पिचहत्तर वर्ष की इस उम्र में वह इतना सुदृढ़ है कि कुछ ही दिन पूर्व उसने एक बिगड़ैल साँड़ को कंधे का सहारा देकर चित्त पटक दिया और उससे भागते ही बना।

सर्वविदित है कि अनीति एवं आतंक के पक्षधर किराए के हत्यारे ने एक वर्ष पूर्व पाँच बोर की रिवाल्वर से लगातार हम पर फायर किए और उसकी सभी गोलियाँ नलियों में उलझी रह गईं। रिवाल्वर उससे भय के मारे वहीं गिर गई। अब की बार वह छुरेबाजी पर उतर आया। छुरे चलते रहे। खून बहता रहा, पर भोंके गए सारे प्रहार शरीर में सीधे न घुसकर तिरछे फिसलकर निकल गए। डाक्टरों ने जख्म सी दिए और कुछ ही सप्ताह में शरीर ज्यों का त्यों हो गया।
इसे परीक्षा का एक घटनाक्रम ही कहना चाहिए कि पाँच बोर का लोडेड रिवाल्वर शातिर हाथों में भी काम न कर सका। जानवर काटने के छुरे के बारह प्रहार मात्र प्रमाण के निशान छोड़कर अच्छे हो गए। आक्रमणकारी अपने बम से स्वयं घायल होकर जेल जा बैठा। जिसके आदेश से उसने यह किया था, उसे फाँसी की सजा घोषित हुई। असुरता के आक्रमण असफल हुए। एक उच्चस्तरीय दैवी प्रयास को निष्फल कर देना सम्भव न हो सका। मारने वाले से बचाने वाला बड़ा सिद्धि हुआ।

इन दिनों एक से पाँच करने की सूक्ष्मीकरण विधा चल रही है। इस लिए क्षीणता तो आई है, तो भी बाहर से काया ऐसी है, जिसे जितने दिन चाहे जीवित रखा जा सके, पर हम जान-बूझकर इसे इस स्थिति में रखेंगे नहीं। कारण कि सूक्ष्म शरीर से अधिक काम लिया जा सकता है और स्थूल शरीर उसमें किसी कदर बाधा ही डालता है।

शरीर की जीवनीशक्ति, असाधारण रही है। उसके द्वारा दस गुना काम लिया गया है। शंकराचार्य, विवेकानन्द बत्तीस-पैंतीस वर्ष जिए, पर ३५० वर्ष के बराबर काम कर सके। हमने ७५ वर्षों में विभिन्न स्तर के इतने काम किए हैं कि उनका लेखा-जोखा लेने पर वे ७५० वर्ष से कम में होने वाले सम्भव प्रतीत नहीं होते। यह सारा समय नवसृजन की एक से एक अधिक सफल भूमिकाएँ बनाने में लगा है। निष्क्रिय-निष्प्रयोजन और खाली कभी नहीं रहा है।

बुद्धि को भगवान् के खेत में बोया और वह असाधारण प्रतिभा बनकर प्रकटी। अभी तक लिखा हुआ साहित्य इतना है कि जिसे शरीर के वजन से तोला जा सके। यह सभी उच्च कोटि का है। आर्षग्रंथों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा युग की भावी पृष्ठभूमि बनाने वाला ही सब कुछ लिखा गया है। आगे का सन् २००० तक का हमने अभी से लिखकर रख दिया है।

अध्यात्म को विज्ञान से मिलाने की योजना-कल्पना में तो कइयों के मन में थी, पर उसे कोई कार्यान्वित न कर सका इस असम्भव को सम्भव होते देखना हो तो ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में आकर अपनी आँखों से स्वयं देखना चाहिए। जो सम्भावनाएँ सामने हैं, उन्हें देखते हुए कहा जा सकता है कि अगले दिनों अध्यात्म की रूपरेखा विशुद्ध विज्ञान पर बनकर रहेगी।

छोटे-छोटे देश अपनी पंच वर्षीय योजनाएँ बनाने के लिए आकाश-पाताल के कुलावे मिलाते हैं, पर समस्त विश्व की कायाकल्प योजना का चिंतन और क्रियान्वयन जिस प्रकार शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में चल रहा है, उसे एक शब्द में अद्भुत एवं अनुपम ही कहा जा सकता है।

भावनाएँ हमने पिछड़ों के लिए समर्पित की हैं। शिव ने भी यही किया था। उनके साथ चित्र-विचित्र समुदाय रहता था और सर्पों तक को वे गले लगाते थे। उसी राह पर हमें भी चलते रहना पड़ा है। हम पर छुरा रिवाल्वर चलाने वालों को पकड़ने वाले जब दौड़ रहे थे पुलिस भी लगी हुई थी। सभी को हमने वापस बुला लिया और घातक को जल्दी ही भाग जाने का अवसर दिया। जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, प्रतिपक्षी अपनी ओर से कुछ कमी न रहने देने पर भी मात्र हँसने और हँसाने के रूप में प्रतिदान पाते रहे हैं।

हमने जितना प्यार लोगों से किया है, उससे सौ गुनी संख्या और मात्रा में लोग हमारे ऊपर प्यार लुटाते रहे हैं। निर्देशों पर चलते रहे हैं और घाटा उठाने तथा कष्ट सहने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ दिन पूर्व प्रज्ञा संस्थान बनाने का स्वजनों को आदेश किया, तो दो वर्ष के भीतर २४०० गायत्री शक्ति पीठों की भव्य इमारतें बनकर खड़ी हो गईं और उसमें लाखों रुपयों की राशि खप गई। बिना इमारत के १२ हजार प्रज्ञा संस्थान बने सो अलग। छुरा लगा तो सहानुभूति में इतनी बड़ी संख्या स्वजनों की उमड़ी, मानों मनुष्यों का आँधी-तूफान आया हो। इनमें से हर एक बदला लेने के लिए आतुरता व्यक्त कर रहा था। हमने तथा माताजी ने सभी को दुलार कर दूसरी दिशा में मोड़ा। यह हमारे प्रति प्यार की-सघन आत्मीयता की ही अभिव्यक्ति तो है।

हमने जीवन भर प्यार खरीदा, बटोरा और लुटाया है। इसका एक नमूना हमारी धर्मपत्नी, जिन्हें हम माताजी कहकर संबोधित करते हैं, की भावनाएँ पढ़कर कोई भी समझ सकता है। वे काया और छाया की तरह साथ रहीं हैं और एक प्राण दो शरीर की तरह हमारे हर काम में हर घड़ी हाथ बँटाती रही है।

पशु-पक्षियों तक का हमने ऐसा प्यार पाया है कि वे स्वजन सहचर की तरह आगे-पीछे फिरते रहे हैं। लोगों ने आश्चर्य से देखा कि सामान्यतः जो प्राणी मनुष्य से सर्वथा दूर रहते हैं वे किस तरह कंधे पर बैठते, पीछे-पीछे फिरते और चुपके से बिस्तर में आ सोते हैं। ऐसे दृश्य हजारों ने हजारों की संख्या में देखे और आश्चर्यचकित रह गए हैं। यह और कुछ नहीं, प्रेम का प्रतिदान मात्र था।

धन की हमें समय-समय पर भारी आवश्यकता पड़ती रही है। गायत्री तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज और ब्रह्मवर्चस् की इमारतें करोड़ों रुपए मूल्य की हैं। मनुष्य के आगे हाथ न पसारने का व्रत निबाहते हुए अचानक ही यह सारी आवश्यकताएँ पूरी हुई हैं। पूरा समय काम करने वालों की संख्या एक हजार से ऊपर है। इनकी आजीविका की ब्राह्मणोचित व्यवस्था बराबर चलती रहती है। प्रेस, प्रकाशन, प्रचार में संलग्न जीप-गाड़ियाँ तथा अन्यान्य खर्चे ऐसे हैं, जो समयानुसार बिना किसी कठिनाई के पूरे होते रहते हैं, यह वह फसल है, जो अपने पास की एक-एक पाई को भगवान् के खेत में बो देने के उपरांत हमें मिली है। इस फसल पर हमें गर्व है। जमींदारी समाप्त होने पर, जो धनराशि मिली है, वह गायत्री तपोभूमि निर्माण में दे दी। पूर्वजों की छोड़ी जमीन किसी कुटुम्बी को न देकर जन्मभूमि में हाई-स्कूल और अस्पताल बनाने में दे दी। हम व्यक्तिगत रूप से खाली हाथ हैं, पर योजनाएँ ऐसी चलाते हैं जैसी लखपति और करोड़पति लोगों के लिए भी सम्भव नहीं हैं। यह सब हमारे मार्गदर्शक के उस सूत्र के कारण सम्भव हो पाया है, जिसमें उन्होंने कहा-‘‘जमा मत करो, बिखेर दो। बोओ और काटो।’’ सत्प्रवृत्तियों का उद्यान जो प्रज्ञा परिवार के रूप में लहलहाता दृश्यमान होता है, उसकी पृष्ठभूमि इसी संकेत के आधार पर बनी है।


First 15 17 Last


Other Version of this book



हमारी वसीयत और विरासत
Type: SCAN
Language: EN
...

My Life - Its Legacy and Message
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

हमारी वसीयत और विरासत
Type: TEXT
Language: EN
...

મારી વસીયત અને વિરાસત
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
  • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
  • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
  • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
  • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
  • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
  • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
  • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
  • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
  • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
  • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
  • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
  • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
  • उपासना का सही स्वरूप
  • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
  • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
  • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
  • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
  • चौथा और अंतिम निर्देशन
  • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
  • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
  • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
  • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj