• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - हमारी वसीयत और विरासत

Media: TEXT
Language: EN
SCAN TEXT


ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 16 18 Last
अंतरंग में ब्राह्मण वृत्ति जागते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना, स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह में काम चलाने से संतुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में ही मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था। माता-पिता तो एक मास पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे। ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पहनना और छोड़ना पड़ा होगा। तृष्णाओं की पूर्ति के लिए न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे, पर संतोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का, दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।

ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बचा रहता है, क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊँट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है, पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। दस उँगली वाले दो हाथ, कमाने की हजार तरकीबें ढूँढ़ निकालने वाला मस्तिष्क, सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन, परिवार सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा। फिर पेट की लम्बाई-चौड़ाई भी तो मात्र छः इंच की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह करने की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घण्टे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली बचा रहता है। जिसके अंतराल में संत जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता, प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका उपयोग कहाँ किया जाए? कैसे किया जाए?

इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में बहुत देर नहीं लगती। देव मानवों का पुरातन इतिहास इसके लिए प्रमाण उदाहरणों की एक पूरी शृंखला लाकर खड़ी कर देता है। उनमें से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, अपने लिए चुना, अपनाया जा सकता है। केवल दैत्य ही हैं जिनकी इच्छाएँ आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ कभी किसी की पूरी नहीं हुई हैं। साधनों के विपुल भण्डार जमा करने और उन्हें अतिशय मात्रा में भोगने की योजनाएँ तो अनेकों ने बनाईं, पर हिरण्याक्ष से लेकर सिकंदर तक कोई उन्हें पूरी नहीं कर सका।

आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती एक मिलन-विराम है, जिसे देवमानव कहते हैं। इसके और भी कई नाम हैं-महापुरुष, संत, सुधारक और शहीद आदि। पुरातन काल में इन्हें ऋषि कहते थे। ऋषि अर्थात वे-जिनका निर्वाह न्यूनतम में चलता हो और बची हुई सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किए रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करें। वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का अनुपात बढ़ाएँ। जो श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ रहे हैं, उन्हें मनोबल अनुकूल मिले। जो विनाश को आतुर हैं, उनके कुचक्रों को सफलता न मिले। संक्षेप में यही हैं वे कार्य निर्धारण जिनके लिए ऋषियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयास अनवरत गति से चलते रहते हैं। निर्वाह से बची हुई क्षमता को वे इन्हीं कार्यों में लगाते रहते हैं। फलतः जब कभी लेखा-जोखा लिया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे कितना कार्य कर चुके, कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। यह एक-एक कदम चलते रहने का परिणाम है। एक-एक बूँद जमा करते रहने की गति की ही परिणति है।

अपनी समझ में वह भक्ति नहीं आई, जिसमें मात्र भावोन्माद ही हो, आचरण की दृष्टि से सब कुछ क्षम्य हो। न उनका कोई सिद्धांत जँचा, न उस कथन के औचित्य को विवेक ने स्वीकारा। अतएव जब-जब भक्ति उमंगती रही ऋषियों का मार्ग ही अनुकरण के योग्य जँचा और जो समय हाथ में था, उसे पूरी तरह ऋषि परम्परा में खपा देने का प्रयत्न चलता रहा। पीछे मुड़कर देखते हैं कि अनवरत प्रयत्न करते रहने वाले कण-कण करके मनों जोड़ लेते हैं। चिड़िया तिनका-तिनका बीनकर अच्छा-खासा घोंसला बना लेती है। अपना भी कुछ ऐसा ही सुयोग्य सौभाग्य है कि ऋषि परम्परा का अनुकरण करने के लिए कुछ कदम बढ़ाए तो उनकी परिणति ऐसी हुई कि जिसे समझदार व्यक्ति शानदार कहते हैं।

अपने समय के विभिन्न ऋषिगणों ने अपने हिस्से के काम सँभाले और पूरे किए थे। उन दिनों ऐसी परिस्थितियाँ, अवसर और इतना अवकाश भी था कि समय की आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने कार्यों को वे धैर्यपूर्वक संचित समय में सम्पन्न करते रह सकें, पर अब तो आपत्तिकाल है। इन दिनों अनेक काम एक ही समय में द्रुतगति से निपटाने हैं। घर में अग्निकाण्ड हो तो जितना बुझाने का प्रयास बन पड़े उसे स्वयं करते हुए, बच्चों को, कपड़ों को, धनराशि को निकालने-ढोने का काम साथ-साथ ही चलता है। हमें ऐसे ही आपत्तिकाल का सामना करना पड़ा है और ऋषियों द्वारा हमारी हिमालय यात्रा में सौंपे गए कार्यों में से प्रायः प्रत्येक को एक ही समय में बहुमुखी जीवन जीकर संभालना पड़ा है। इसके लिए प्रेरणा, दिशा और सहायता हमारे समर्थ मार्गदर्शक की मिली है और शरीर से जो कुछ भी हम कर सकते थे, उसे पूरी तरह तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किया है। उसमें पूरी-पूरी ईमानदारी का समावेश किया है। फलतः वे सभी कार्य इस प्रकार सम्पन्न होते चले हैं मानों वे किए हुए ही रखे हों। कृष्ण का रथ चलाना और अर्जुन का गाण्डीव उठाना पुरातन इतिहास होते हुए भी हमें अपने संदर्भ में चरितार्थ होते दीखता रहा है।

युग परिवर्तन जैसा महान कार्य होता तो भगवान् की इच्छा, योजना एवं क्षमता के आधार पर ही है, पर उसका श्रेय वे ऋषि, कल्प जीवनमुक्त आत्माओं को देते रहते हैं। यही उनकी साधना का-पात्रता का सर्वोत्तम उपहार है। हमें भी इस प्रकार का श्रेय उपहार देने की भूमिका बनी और हम कृत-कृत्य हो गए। हमें सुदूर भविष्य की झाँकी अभी से दिखाई पड़ती है, इसी कारण हमें यह लिख सकने में संकोच रंचमात्र भी नहीं होता।

अब पुरातन काल के ऋषियों में से किसी का भी स्थूल शरीर नहीं है, उनकी चेतना निर्धारित स्थानों में मौजूद है। सभी से हमारा परिचय कराया गया और कहा गया कि इन्हीं पद चिन्हों पर चलना है। इन्हीं की कार्य पद्धति अपनानी, देवात्मा हिमालय के प्रतीक स्वरूप शान्तिकुञ्ज हरिद्वार में एक आश्रम बनाना और ऋषि परम्परा को इस प्रकार कार्यान्वित करना है, जिससे युग परिवर्तन की प्रक्रिया का गति चक्र सुव्यवस्थित रूप से चल पड़े।

जिन ऋषियों, तप पूत मानवों ने कभी हिमालय में रहकर विभिन्न कार्य किए थे, उनका स्मरण हमें मार्गदर्शक सत्ता ने तीसरी यात्रा में बार-बार दिलाया था। इनमें थे, भगीरथ (गंगोत्री), परशुराम (यमुनोत्री), चरक  (केदारनाथ), व्यास (बद्रीनाथ), याज्ञवल्क्य (त्रियुगी नारायण), नारद (गुप्तकाशी), आद्य शंकराचार्य (ज्योतिर्मठ), जमदग्नि (उत्तरकाशी), पातंजलि (रुद्र प्रयाग), पिप्पलाद, सूत-शौनिक, लक्ष्मण, भरत एवं शत्रुघ्न (ऋषिकेश), दक्ष प्रजापति, कणादि एवं विश्वामित्र सहित सप्त ऋषिगण (हरिद्वार), इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर एवं तुलसीदास जी के कर्तव्यों की झाँकी दिखाकर भगवान् बुद्ध के परिव्राजक धर्म चक्र प्रवर्तन अभियान को युगानुकूल परिस्थितियों में संगीत, संकीर्तन, प्रज्ञा पुराण कथा के माध्यम से देश-विदेश में फैलाने एवं प्रज्ञावतार द्वारा बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध पूरा किए जाने का भी निर्देश था। समर्थ रामदास के रूप में जन्म लेकर जिस प्रकार व्यायामशालाओं, महावीर मंदिरों की स्थापना सोलहवीं सदी में हमसे कराई गई थी, उसी को नूतन अभिनव रूप में प्रज्ञा संस्थानों, प्रज्ञापीठों, चरणपीठों, ज्ञानमंदिरों, स्वाध्याय मण्डलों द्वारा सम्पन्न किए जाने के संकेत मार्गदर्शक द्वारा हिमालय प्रवास में ही दे दिए गए थे।

देवात्मा हिमालय का प्रतीक प्रतिनिधि शान्तिकुञ्ज को बना देने का जो निर्देश मिला वह कार्य साधारण नहीं श्रम एवं धन साध्य था, सहयोगियों की सहायता पर निर्भर भी। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के उस ध्रुव केंद्र में सूक्ष्म शरीर से निवास करने वाले ऋषियों की आत्मा का आह्वान करके प्राण प्रतिष्ठा का संयोग भी बिठाना था। यह सभी कार्य ऐसे हैं, जिन्हें देवालय परम्परा में अद्भुत एवं अनुपम कहा जा सकता है। देवताओं के मंदिर अनेक जगह बने हैं। वे भिन्न-भिन्न भी हैं। एक ही जगह सारे देवताओं की स्थापना का तो कहीं सुयोग हो भी सकता है, पर समस्त देवात्माओं ऋषियों की एक जगह प्राण प्रतिष्ठा हुई हो ऐसा तो संसार भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं है। फिर इससे भी बड़ी बात यह है कि ऋषियों के क्रियाकलापों का न केवल चिह्न पूजा के रूप में वरन् यथार्थता के रूप में भी यहाँ न केवल दर्शन वरन् परिचय भी प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार शान्तिकुञ्ज, ब्रह्मवर्चस् गायत्री तीर्थ एक प्रकार से प्रायः सभी ऋषियों के क्रियाकलापों का प्रतिनिधित्व करते हैं।   

भगवान् राम ने लंका विजय और रामराज्य की स्थापना के निमित्त मंगलाचरण रूप में रामेश्वरम् पर शिव प्रतीक की स्थापना की थी। हमारा सौभाग्य है कि हमें युग परिवर्तन हेतु संघर्ष एवं सृजन प्रयोजन के लिए देवात्मा हिमालय की प्रतिमा प्राण प्रतिष्ठा समेत करने का आदेश मिला। शान्तिकुञ्ज में देवात्मा हिमालय का भव्य मंदिर पाँचों प्रयागों, पाँचों काशियों, पाँचों सरिताओं और पाँचों सरोवरों सहित देखा जा सकता है। इसमें सभी ऋषियों के स्थानों के दिव्य दर्शन हैं। इसे अपने ढंग का अद्भुत एवं अनुपम देवालय कहा जा सकता है। जिसने हिमालय के उन दुर्गम क्षेत्रों के दर्शन न किए हों, वे इस लघु संस्करण के दर्शन से ही वही लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

जमदग्नि पुत्र परशुराम के फरसे ने अनेक उद्धत उच्छृंखलों के सिर काटे थे। यह वर्णन अलंकारिक भी हो सकता है। उन्होंने यमुनोत्री में तपश्चर्या कर प्रखरता की साधना की एवं सृजनात्मक क्रांति का मोर्चा संभाला। जो व्यक्ति तत्कालीन समाज निर्माण में बाधक, अनीति में लिप्त थे, उनकी वृत्तियों का उन्होंने उन्मूलन किया। दुष्ट और भ्रष्ट जनमानस के प्रवाह को उलट कर सीधा करने का पुरुषार्थ उन्होंने निभाया। इसी आधार पर उन्हें भगवान् शिव से ‘‘परशु (फरसा)’’ प्राप्त हुआ। उत्तरार्द्ध में उन्होंने फरसा फेंककर फावड़ा थामा एवं स्थूल दृष्टि से वृक्षारोपण एवं सूक्ष्मतः रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण किया। शान्तिकुञ्ज से चलने वाली लेखनी ने, वाणी ने उसी परशु की भूमिका निभाई एवं असंख्यों की मान्यताओं, भावनाओं, विचारणाओं एवं गतिविधियों में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है।

भागीरथ ने जल दुर्भिक्ष के निवारण हेतु कठोर तप करके स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाने में सफलता प्राप्त की थी। भागीरथ शिला गंगोत्री के समीपस्थ है। गंगा उन्हीं के तप पुरुषार्थ से अवतरित हुईं। इसीलिए भागीरथी कहलाईं। लोक मंगल के प्रयोजन हेतु प्रचण्ड पुरुषार्थ करके भागीरथ दैवी कसौटी पर खरे उतरे एवं भगवान् शिव के कृपा पात्र बने। आज आस्थाओं का दुर्भिक्ष चारों ओर संव्याप्त है। इसे दिव्य ज्ञान की धारा गंगा से ही मिटाया जा सकता है। बौद्धिक और भावनात्मक अकाल निवारणार्थ शान्तिकुञ्ज से ज्ञान गंगा का जो अविरल प्रवाह बहा है, उससे आशा बँधती है कि दुर्भिक्ष मिटेगा, सद्भावना का विस्तार चहुँ ओर होगा।

चरक ऋषि ने केदारनाथ क्षेत्र के दुर्गम क्षेत्रों में वनौषधियों की शोध करके रोग ग्रस्तों को निरोग करने वाली संजीवनी खोज निकाली थी। शास्त्र कथन है कि ऋषि चरक औषधियों से वार्ता करके गुण पूछते और उन्हें एकत्र कर उन पर अनुसंधान करते थे। जीवनीशक्ति सम्वर्धन, मनोविकार शमन एवं व्यवहारिक गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन करने वाले गुण रखने वाली अनके औषधियाँ इसी अनुसंधान की देन हैं। शान्तिकुञ्ज में दुर्लभ औषधियों को खोज निकालने, उनके गुण प्रभाव को आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों से जाँचने का जो प्रयोग चलता है, उसने आयुर्वेद को एक प्रकार से पुनर्जीवित किया है। सही औषधि के एकाकी प्रयोग से कैसे निरोग रहकर दीर्घायुष्य बना जा सकता है, यह अनुसंधान इस ऋषि परम्परा के पुनर्जीवन हेतु किए जा रहे प्रयासों की एक कड़ी है।

महर्षि व्यास ने नर एवं नारायण पर्वत के मध्य वसुधारा जल प्रपात के समीप व्यास गुफा में गणेश जी की सहायता से पुराण लेखन का कार्य किया था। उच्चस्तरीय कार्य हेतु एकाकी, शान्ति, सतोगुणी वातावरण की अभीष्टता। आज की परिस्थितियों में, जबकि प्रेरणादायी साहित्य का अभाव है, पुरातन ग्रंथ लुप्त हो चले, शान्तिकुञ्ज में विराजमान तंत्री ने आज से पच्चीस वर्ष से पूर्व ही चारों वेद, अट्ठारह पुराण, एक सौ आठ उपनिषद्, छहों दर्शन, चौबीस गीताएँ, आरण्यक, ब्राह्मण आदि ग्रंथों का भाष्य कर सर्वसाधारण के लिए सुलभ एवं व्यावहारिक बनाकर रख दिया था। साथ ही जनसाधारण की हर समस्या पर व्यवहारिक समाधान परक युगानुकूल साहित्य सतत लिखा है, जिसने लाखों व्यक्तियों के मन मस्तिष्क प्रभावित कर सही दिशा दी है। प्रज्ञापुराण के अट्ठारह खण्ड नवीनतम सृजन हैं, जिसमें कथा साहित्य के माध्यम से उपनिषद्-दर्शन को जन सुलभ बनाया गया है।

पतंजलि ने रुद्रप्रयाग में अलकनंदा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। उन्होंने प्रमाणित किया कि मानवी काया में ऊर्जा का भण्डार निहित है। इस शरीर तंत्र के ऊर्जा केंद्रों को प्रसुप्ति से जागृति में लाकर मनुष्य देवमानव बन सकता है, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बन सकता है। शान्तिकुञ्ज में योग साधना के विभिन्न अनुशासनों योगत्रयी, कायाकल्प एवं आसन-प्राणायाम के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों की बहुमूल्य यंत्र उपकरणों से शारीरिक-मानसिक परीक्षा सुयोग्य चिकित्सकों से कराने उपरांत साधना लाभ दिया जाता है एवं भावी जीवन सम्बन्धी दिशाधारा प्रदान की जाती है।

याज्ञवल्क्य ने त्रियुगी नारायण में यज्ञ विद्या अन्वेषण किया था और उनके भेद-उपभेदों का परिणाम मनुष्य एवं समग्र जीवन जगत के स्वास्थ्य सम्वर्धन हेतु, वातावरण शोधन, वनस्पति सम्वर्धन एवं वर्षण के रूप में जाँचा परखा था। हिमालय के इस दुर्गम स्थान पर सम्प्रति एक यज्ञकुण्ड में अखण्ड अग्नि है, जिसे शिव-पार्वती के विवाह के समय से प्रज्ज्वलित माना जाता है। यह उस परम्परा की प्रतीक अग्नि शिखा है, आज यज्ञ विज्ञान की लुप्त प्राय शृंखला को फिर से खोजकर समय के अनुरूप अन्वेषण करने का दायित्त्व ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान ने अपने कंधों पर लिया है। यज्ञोपचार पद्धति (यज्ञोपैथी) के अनुसंधान हेतु समय के अनुरूप एक सर्वांगपूर्ण प्रयोगशाला आधुनिक उपकरणों से युक्त ब्रह्मवर्चस् प्रांगण के मध्य में विद्यमान है। वनौषधि यजन से शारीरिक, मानसिक रोगों के उपचार, मनोविकार शमन, जीवनीशक्ति वर्धन, प्राणवान पर्जन्य की वर्षा एवं पर्यावरण संतुलन जैसे प्रयोगों के निष्कर्ष देखकर जिज्ञासुओं को आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

विश्वामित्र गायत्री महामंत्र के द्रष्टा, नूतन सृष्टि के सृजेता माने गए हैं। उनने सप्तऋषियों सहित जिस क्षेत्र में तप करके आद्यशक्ति का साक्षात्कार किया था, वह पावन भूमि यही गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज की है, जिसे हमारे मार्गदर्शक ने दिव्य चक्षु प्रदान करके दर्शन कराए थे एवं आश्रम निर्माण हेतु प्रेरित किया था। 
विश्वामित्र की सृजन साधना के सूक्ष्म संस्कार यहाँ सघन हैं। महाप्रज्ञा को युग शक्ति का रूप देने उनकी चौबीस मूर्तियों की स्थापना कर सारे राष्ट्र एवं विश्व में आद्यशक्ति का वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सद्बुद्धि की प्रेरणा वाला संदेश यहीं से उद्घोषित हुआ। अनेक साधकों ने यहाँ गायत्री अनुष्ठान किए हैं एवं आत्मिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है। शब्द शक्ति एवं सावित्री विधा पर वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वामित्र परम्परा का ही पुनर्जीवन है।

जमदग्नि का गुरुकुल-आरण्यक उत्तरकाशी में स्थित था एवं बालकों, वानप्रस्थों की समग्र शिक्षा व्यवस्था का भांडागार था। अल्पकालीन साधना, प्रायश्चित, संस्कार आदि कराने एवं प्रौढ़ों के शिक्षण की यहाँ समुचित व्यवस्था थी। प्रखर व्यक्तित्वों के उत्पादन, वानप्रस्थ, परिव्राजक हेतु लोकसेवियों का शिक्षण, गुरुकुल में बालकों को नैतिक शिक्षण तथा युग शिल्पी विद्यालय में समाज निर्माण की विधा का समग्र शिक्षण इस ऋषि परम्परा को आगे बढ़ाने हेतु शान्तिकुञ्ज द्वारा संचालित ऐसे ही क्रिया कलाप हैं।

देवर्षि नारद ने गुप्त काशी में तपस्या की। वे निरंतर अपने वीणवादन से जन-जागरण में निरत रहते थे। उन्होंने सत्परामर्श द्वारा भक्ति भावनाओं को प्रसुप्ति से प्रौढ़ता तक समुन्नत किया था। शान्तिकुञ्ज के युग गायन शिक्षण विद्यालय ने अब तक हजारों ऐसे परिव्राजक प्रशिक्षित किए हैं। वे एकाकी अपने-अपने क्षेत्रों में एवं समूह में जीप टोली द्वारा भ्रमण कर नारद परम्परा का ही अनुकरण कर रहे हैं।

देव प्रयाग में राम को योग वशिष्ठ का उपदेश देने वाले वशिष्ठ ऋषि धर्म और राजनीति का समन्वय करके चलते थे। शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार ने सन् १९३० से सन् १९४७ तक आजादी की लड़ाई लड़ी है। जेल में कठोर यातनाएँ सही हैं। बाद में साहित्य के माध्यम से समाज एवं राष्ट्र का मार्गदर्शन किया है। धर्म और राजनीति के समन्वय साहचर्य के लिए जो बन पड़ा है, हम उसे पूरे मनोयोग से करते रहे हैं।

आद्य शंकराचार्य ने ज्योतिर्मठ में तप किया एवं चार धामों की स्थापना देश के चार कोनों पर की। विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय एवं धार्मिक संस्थानों के माध्यम से जन-जागरण उनका लक्ष्य था। शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में २४०० गायत्री शक्तिपीठें विनिर्मित हुई हैं, जहाँ से धर्म धारणा को समुन्नत करने का कार्य निरंतर चलता रहता है। इसके अतिरिक्त बिना इमारत वाले चल प्रज्ञा संस्थानों एवं स्वाध्याय मण्डलों द्वारा सारे देश में चेतना केन्द्रों का जाल बिछाया गया है। ये सभी चार धामों की परम्परा में अपने-अपने क्षेत्रों में युग चेतना का आलोक वितरण कर रहे हैं।

ऋषि पिप्पलाद ने ऋषिकेश के समीप ही अन्न के मन पर प्रभाव का अनुसंधान किया था। वे पीपल वृक्ष के फलों पर निर्वाह करके आत्म संयम द्वारा ऋषित्व पा सके। हमने २४ वर्ष तक जौ की रोटी एवं छाछ पर रहकर गायत्री अनुष्ठान किए। तदुपरान्त आजीवन उबले आहार, अन्न शाक पर ही रहे। अभी भी उबले अन्न एवं हरी वनस्पतियों के कल्प प्रयोगों की प्रतिक्रिया जाँच-पड़ताल शान्तिकुञ्ज में अमृताशन शोध के नाम से चलती रही है। ऋषिकेश में ही सूत-शौनिक कथा पुराण वाचन के ज्ञान सत्र जगह-जगह लगाते थे। प्रज्ञा पुराणों का कथा वाचन इतना लोकप्रिय हुआ है कि लोग इसे युग पुराण कहते हैं। चार भाग इसके छप चुके हैं, चौदह और प्रकाशित होने हैं।

हर की पौड़ी हरिद्वार में सर्वमेध यज्ञ में हर्षवर्धन ने अपनी सारी सम्पदा तक्षशिला विश्वविद्यालय निर्माण हेतु दान कर दी थी। शान्तिकुञ्ज के सूत्रधार ने अपनी लाखों की सम्पदा गायत्री तपोभूमि तथा जन्मभूमि में विद्यालय निर्माण हेतु दे दी। स्वयं या संतान के लिए इनमें से एक पैसा भी नहीं रखा। इसी परम्परा को अब शान्तिकुञ्ज से स्थायी रूप से जुड़ते जा रहे लोकसेवी निभा रहे हैं।

कणाद ऋषि ने अथर्ववेदीय शोध परम्परा के अंतर्गत अपने समय में अणु विज्ञान का वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का अनुसंधान किया था। बुद्धिवादियों के गले उतारने के लिए समय के अनुरूप अब आप्तवचनों के साथ-साथ तर्क, तथ्य एवं प्रमाण भी अनिवार्य हैं। ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान में अध्यात्मदेव एवं विज्ञान-दैत्य के समन्वय का समुद्र मंथन चल रहा है। दार्शनिक अनुसंधान ही नहीं, वैज्ञानिक प्रमाणों का प्रस्तुतिकरण भी इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इसकी उपलब्धियों के प्रति संसार बड़ी-बड़ी आशाएँ लगाए बैठा है।

बुद्ध के परिव्राजक संसार भर के धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु दीक्षा लेकर निकले थे। शान्तिकुञ्ज में, मात्र अपने देश में धर्मधारणा के विस्तार हेतु ही नहीं, संसार के सभी देशों में देव संस्कृति का संदेश पहुँचाने हेतु परिव्राजक दीक्षित होते हैं। यहाँ आने वाले परिजनों को धर्म चेतना से अनुप्राणित किया जाता है। भारत में ही प्रायः एक लाख प्रज्ञा पुत्र परिव्रज्या में निरत रह कर घर-घर अलख जगाने का कार्य कर रहे हैं।

आर्यभट्ट ने सौर मंडल के ग्रह-उपग्रहों का ग्रह गणित कर यह जाना था कि पृथ्वी के साथ सौर परिवार का क्या आदान-प्रदान क्रम है और इस आधार पर धरित्री का वातावरण एवं प्राणी समुदाय कैसे प्रभावित होता है। शान्तिकुञ्ज में एक समग्र-वेधशाला बनाई गई है एवं आधुनिक यंत्रों का उसके साथ-साथ समन्वय स्थापित कर ज्योतिर्विज्ञान का अनुसंधान किया जा रहा है। दृश्य गणित पंचांग यहाँ की एक अनोखी देन है।

चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर, समर्थ गुरु रामदास, प्राणनाथ महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी मध्यकालीन संतों की धर्मधारणा विस्तार परम्परा का अनुसरण शान्तिकुञ्ज में किया गया है।

सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग यह है कि इस आश्रम का वातावरण इतने प्रबल संस्कारों से युक्त है कि सहज ही व्यक्ति अध्यात्म की ओर प्रेरित होता चला जाता है। यह सूक्ष्म सत्ताधारी ऋषियों की यहाँ उपस्थिति की ही परिणति है। वे अपने द्वारा सम्पन्न क्रियाओं का यह पुनर्जीवन देखते होंगे तो निश्चय ही प्रसन्न होकर भावभरा आशीर्वाद देते होंगे। ऋषियों के तप प्रताप से ही यह धरती देवमानवों से धन्य हुई है। बाल्मीकि आश्रम में लव−कुश एवं कण्व के आश्रम में चक्रवर्ती भरत विकसित हुए। कृष्ण-रुक्मिणी ने बद्री नारायण में तप करके कृष्ण सदृश्य प्रद्युम्न को जन्म दिया था। पवन एवं अञ्जनी ने तपस्वी पूषा के आश्रम में बजरंग बली को जन्म दिया। यह हिमालय क्षेत्र में बन पड़ी तप साधना के ही चमत्कारी वरदान थे।

संस्कारवान क्षेत्र एवं तपस्वियों के सम्पर्क लाभ के अनेक विवरण हैं। स्वाति बूँद के पड़ने से सीप में मोती बनते हैं, बाँस में वंशलोचन एवं केले में कपूर, चंदन के निकटवर्ती झाड़-झंखाड़ भी उतने ही सुगंधित हो जाते हैं। पारस स्पर्श कर लोहा सोना बन जाता है। हमारे मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीर से पृथ्वी के स्वर्ग इसी हिमालय क्षेत्र में शताब्दियों से रहते आए हैं, जिसके द्वार पर हम बैठे हैं। हमारी बैटरी चार्ज करने के लिए समय-समय पर वे बुलाते रहते हैं। जब भी उन्हें नया काम सौंपना हुआ है, तब नई शक्ति देने हमें वहीं बुलाया गया है और लौटने पर हमें नया शक्ति भण्डार भर कर वापस आने का अनुभव हुआ है।

हम प्रज्ञापुत्रों को, जाग्रत आत्माओं को युग परिवर्तन में रीछ, वानरों की, ग्वाल-बालों की भूमिका निभाने की क्षमता अर्जित करने के लिए शिक्षण पाने या साधना करने के निमित्त बहुधा शान्तिकुञ्ज बुलाते रहते हैं। इस क्षेत्र की अपनी विशेषता है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, प्राण चेतना से भरा-पूरा वातावरण एवं दिव्य संरक्षण यहाँ उपलब्ध है। इसमें थोड़े समय भी निवास करने वाले अपने में कायाकल्प जैसा परिवर्तन हुआ अनुभव करते हैं। उन्हें लगता है कि वस्तुतः किसी जाग्रत तीर्थ में निवास करके अभिनव चेतना उपलब्ध करके वे वापस लौट रहे हैं। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक सैनीटोरियम है।

साठ वर्ष से जल रहा अखण्ड दीपक, नौ कुण्ड की यज्ञशाला में नित्य दो घण्टे यज्ञ, दोनों नवरात्रियों में २४-२४ लक्ष गायत्री महापुरश्चरण, साधना आरण्यक में नित्य गायत्री उपासकों द्वारा नियमित अनुष्ठान, इन सब बातों से ऐसा दिव्य वातावरण यहाँ विनिर्मित होता है जैसा मलयागिरि में चंदन वृक्षों की मनभावन सुगंध का। बिना साधना किए भी यहाँ वैसा ही आनंद आता है, मानों यह समय तप साधना में बीता। शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ की विशेषता यहाँ सतत दिव्य अनुभूति होने की है। यह संस्कारित सिद्ध पीठ है, क्योंकि यहाँ सूक्ष्म शरीरधारी वे सभी ऋषि क्रिया-कलापों के रूप में विद्यमान हैं, जिनका वर्णन हमने किया है।

उपरोक्त पंक्तियों में ऋषि परम्परा की टूटी कड़ियों में से कुछ को जोड़ने का वह उल्लेख है जो पिछले दिनों अध्यात्म और विज्ञान की, ब्रह्मवर्चस् शोध साधना द्वारा सम्पन्न किया जाता रहा है। ऐसे प्रसंग एक नहीं अनेकों हैं, जिन पर पिछले साठ वर्षों से प्रयत्न चलता रहा है और यह सिद्ध किया जाता रहा है कि लगनशीलता, तत्परता यदि उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न हो तो उसके परिणाम कितने महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं।

सबसे बड़ा और प्रमुख काम अपने जीवन का एक ही है कि प्रस्तुत वातावरण को बदलने के लिए दृश्य और अदृश्य प्रयत्न किए जाएँ। इन दिनों आस्था संकट सघन है। लोग नीति और मर्यादा को तोड़ने पर बुरी तरह उतारू हैं। फलतः अनाचारों की अभिवृद्धि से अनेकानेक संकटों का माहौल बन गया है। न व्यक्ति सुखी है, न समाज में स्थिरता है। समस्याएँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ निरंतर बढ़ती जा रही हैं। सुधार के प्रयत्न कहीं भी सफल नहीं हो रहे हैं। स्थिर समाधान के लिए जनमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन यह दो ही उपाय हैं। यह प्रत्यक्ष, रचनात्मक, संगठनात्मक, सुधारात्मक उपयोग द्वारा भी चलने चाहिए और अदृश्य आध्यात्मिक उपचारों द्वारा भी। विगत जीवन में यही किया गया है। समूची सामर्थ्य को इसी में होमा गया है। परिणाम आश्चर्यजनक हुए हैं, जो होने वाला है, अगले दिनों अप्रत्याशित कहा जाएगा। एक शब्द में यह ब्राह्मण मनोभूमि द्वारा अपनाई गई संत परम्परा अपनाने में की गई तत्परता है। इस प्रकार के प्रयासों में निरत व्यक्ति अपना भी कल्याण करते हैं, दूसरे अनेकानेक का भी।
First 16 18 Last


Other Version of this book



हमारी वसीयत और विरासत
Type: SCAN
Language: EN
...

My Life - Its Legacy and Message
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

हमारी वसीयत और विरासत
Type: TEXT
Language: EN
...

મારી વસીયત અને વિરાસત
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
  • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
  • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
  • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
  • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
  • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
  • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
  • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
  • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
  • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
  • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
  • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
  • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
  • उपासना का सही स्वरूप
  • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
  • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
  • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
  • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
  • चौथा और अंतिम निर्देशन
  • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
  • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
  • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
  • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj