• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
    • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
    • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
    • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
    • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
    • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
    • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
    • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
    • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
    • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
    • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
    • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
    • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
    • उपासना का सही स्वरूप
    • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
    • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
    • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
    • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
    • चौथा और अंतिम निर्देशन
    • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
    • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
    • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
    • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - हमारी वसीयत और विरासत

Media: TEXT
Language: EN
SCAN TEXT


स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 19 21 Last
युग परिवर्तन की यह एक ऐतिहासिक वेला है। इन बीस वर्षों में हमें जमकर काम करने की ड्यूटी सौंपी गई थी। सन् १९८० से लेकर अब तक के पाँच वर्षों में जो काम हुआ है, पिछले तीस वर्षों की तुलना में कहीं अधिक है। समय की आवश्यकता के अनुरूप तत्परता बरती गई और खपत को ध्यान में रखते हुए तदनुरूप शक्ति अर्जित की गई। यह वर्ष कितनी जागरूकता, तन्मयता, एकाग्रता और पुरुषार्थ की चरम सीमा तक पहुँच कर व्यतीत करने पड़े हैं, उनका उल्लेख उचित न होगा। क्योंकि इस तत्परता का प्रतिफल २४०० प्रज्ञा पीठों और १५००० प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। एक कड़ी हर दिन एक फोल्डर लिखने की इसमें और जोड़ी जा सकती है, शेष सब कुछ परोक्ष है। परोक्ष का प्रत्यक्ष लेखा-जोखा किस प्रकार सम्भव हो?

युग संधि की वेला में अभी पंद्रह वर्ष और रह जाते है। इस अवधि में गतिचक्र और भी तेजी से भ्रमण करेगा। एक ओर उसकी गति बढ़ानी होगी, दूसरी ओर रोकनी। विनाश को रोकने और विकास को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ेगी। दोनों ही गतियाँ इन दिनों मंथर हैं। इस हिसाब से सन् २००० तक उस लक्ष्य की उपलब्धि न हो सकेगी जो अभीष्ट है। इसलिए सृष्टि के प्रयास चक्र निश्चित रूप से तीव्र होंगे। उसमें हमारी भी गीध-गिलहरी जैसी भूमिका है। काम कौन, कब-कब, किस प्रकार करें, यह बात आगे की है। प्रश्न जिम्मेदारी का है। युद्ध काल में जो जिम्मेदारी सेनापति की होती है, वही खाना पकाने वाले की भी है। आपत्तिकाल में उपेक्षा कोई नहीं बरत सकता।

इस अवधि में एक साथ कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़नी होगी। समय ऐसे भी आते हैं, जब खेत की फसल काटना, जानवरों को चारा लाना, बीमार लड़के का इलाज कराना, मुकदमें की तारीख पर हाजिर होना, घर आए मेहमान का स्वागत करना जैसे कई काम एक ही आदमी को एक ही समय पर करने होते हैं। युद्ध काल में तो बहुमुखी चिंतन और उत्तरदायित्व और भी अधिक सघन तथा विरल हो जाता है। किस मोर्चे पर कितने सैनिक भेजना हैं, जो लड़ रहे हैं, उनके लिए गोला-बारूद कम न पड़ने देना, रसद का प्रबंध रखना, अस्पताल का दुरुस्त होना, मरे हुए सैनिकों को ठिकाने लगाना, अगले मोर्चे के लिए खाइयाँ खोदना जैसे काम बहुमुखी होते हैं। सभी पर समान ध्यान देना होता है। एक में भी चूक होने पर बात बिगड़ जाती है। करा-धरा चौपट हो जाता है।

हमें अपनी प्रवृत्तियाँ बहुमुखी बढ़ा लेने के लिए कहा गया है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई स्थूल शरीर का सीमा बंधन है। यह सीमित है, सीमित क्षेत्र में ही काम कर सकता है। सीमित ही वजन उठा सकता है। काम असीम क्षेत्र से सम्बन्धित है और ऐसे में जिनमें एक साथ कितनों से ही वास्ता पड़ना चाहिए। यह कैसे बने? इसके लिए एक तरीका यह है कि स्थूल शरीर को बिल्कुल ही छोड़ दिया जाए और जो करना है, उसे पूरी तरह एक या अनेक सूक्ष्म शरीरों से सम्पन्न करते रहा जाए। निर्देशक को यदि यही उचित लगेगा, तो उसे निपटाने में पल भर की भी देर नहीं लगेगी। स्थूल शरीरों का एक झंझट है कि उनके साथ कर्मफल के भोग विधान जुड़ जाते हैं। यदि लेन-देन बाकी रहे तो अगले जन्म तक वह भार लदा चला जाता है और फिर खींचतान करता है। ऐसी दशा में उसके भोग भुगतते हुए जाने में निश्चिन्तता रहती है।

रामकृष्ण परमहंस ने आशीर्वाद वरदान बहुत दिए थे। उपार्जित पुण्य भण्डार कम था। हिसाब चुकाने के लिए गले का कैंसर बुलाया गया। बेबाकी तब हुई। आद्य शंकराचारर्य की भी भगंदर को फोड़ा ही जान लेकर गया था। महात्मा नारायण स्वामी को भी ऐसा ही रोग सहना पड़ा। गुरु गोलवलकर कैंसर से पीड़ित होकर स्वर्गवासी हुए। ऐसे ही अन्य उदाहरण हैं जिनमें पुण्यात्माओं को अंतिम समय व्यथा पूर्वक बिताना पड़ा। इसमें उनके पापों का दण्ड कारण नहीं होता, वह पुण्य व्यतिरेक की भरपाई करना होता है, वे कइयों का कष्ट अपने ऊपर लेते रहते हैं। बीच से चुका सके तो ठीक अन्यथा अंतिम समय हिसाब-किताब बराबर करते हैं, ताकि आगे के लिए कोई झंझट शेष न रहे और जीवन मुक्त स्थिति बने रहने में पीछे का कोई कर्मफल व्यवधान न करे।

मूल प्रश्न जीव सत्ता के सूक्ष्मीकरण का है। सूक्ष्म व्यापक होता है। बहुमुखी भी। एक ही समय में कई जगह काम कर सकता है। कई उत्तरदायित्व एक साथ ओढ़ सकता है। जबकि स्थूल के लिए एक स्थान, एक सीमा के बंधन हैं। स्थूल शरीरधारी अपने भाग दौड़ के क्षेत्र में ही काम करेगा। साथ ही भाषा ज्ञान के अनुरूप विचारों को आदान-प्रदान कर सकेगा। किन्तु सूक्ष्म में प्रवेश करने पर भाषा सम्बन्धी झंझट दूर हो जाते हैं। विचारों का आदान-प्रदान चल पड़ता है। विचार सीधे मस्तिष्क या अंतराल तक पहुँचाए जा सकते हैं। उनके लिए भाषा माध्यम आवश्यक नहीं। व्यापकता की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी सुविधा है यातायात की व्यवस्था भी स्थूल शरीरधारी को चाहिए। पैरों के सहारे तो यह एक घण्टे में प्रायः तीन मील ही चल पाता है। वाहन जिस गति का होगा, उसकी दौड़ भी उतनी ही रह जाएगी। एक व्यक्ति की एक जीभ होती है। उसका उच्चारण उसी से होगा, किन्तु सूक्ष्म शरीर की इंद्रियों पर इस प्रकार का बंधन नहीं है। उनकी देखने की, सुनने की, बोलने की सामर्थ्य स्थूल शरीर की तुलना में अनेक गुनी हो जाती है। एक शरीर समयानुसार अनेक शरीर में भी प्रतिभाषित हो सकता है, रास के समय श्रीकृष्ण के अनेक शरीर गोपियों का अपने साथ सहनृत्य करते दीखते थे। कंस वध के समय तथा सिया स्वयंवर के समय उपस्थित समुदाय को कृष्ण और राम  की विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ दृष्टिगोचर हुईं थीं। विराट रूप के दर्शन में भगवान् ने अर्जुन को, यशोदा को जो दर्शन कराया था, वह उनके सूक्ष्म एवं कारण शरीर का ही आभास था। अलंकार काव्य के रूप में उसकी व्याख्या की जाती है, सो भी किसी सीमा तक ठीक ही है।

यह स्थिति शरीर त्यागते ही हर किसी को उपलब्ध हो जाए, यह सम्भव नहीं। भूत-प्रेत चले तो सूक्ष्म शरीर में जाते हैं, पर वे बहुत ही अनगढ़ स्थिति में रहते हैं। मात्र सम्बन्धित लोगों को ही अपनी आवश्यकताएँ बताने भर के कुछ दृश्य कठिनाई से दिखा सकते हैं। पितर स्तर की आत्माएँ उससे कहीं अधिक सक्षम होती हैं। उनका विवेक एवं व्यवहार कहीं अधिक उदात्त होता है। इसके लिए उनका सूक्ष्म शरीर पहले से ही परिष्कृत हो चुका होता है। सूक्ष्म शरीर को उच्चस्तरीय क्षमता-सम्पन्न बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। वे तपस्वी स्तर के होते हैं। सामान्य काया को सिद्ध पुरुष अपनी काया की सीमा में रहकर जो दिव्य क्षमता अर्जित कर सकते हैं, कर लेते हैं, उसी से दूसरों की सेवा सहायता करते हैं, किन्तु शरीर विकसित कर लेने वाले उन सिद्धियों के भी धनी देखे गए हैं जिन्हें योगशास्त्र में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि कहा गया है। शरीर का हलका, भारी, दृश्य, अदृश्य हो जाना, यहाँ से वहाँ जा पहुँचना, प्रत्यक्ष शरीर के रहते हुए सम्भव नहीं क्योंकि शरीरगत परमाणुओं की संरचना ऐसी नहीं है जो पदार्थ विज्ञान की सीमा मर्यादा से बाहर जा सके। कोई मनुष्य हवा में नहीं उड़ सकता और न पानी पर चल सकता है। यदि ऐसा कर सका होता तो उसने वैज्ञानिकों की चुनौती अवश्य स्वीकार की होती और प्रयोगशाला जाकर विज्ञान के प्रतिपादनों में एक नया अध्याय अवश्य ही जोड़ता। किम्वदन्तियों के आधार पर कोई किसी से इस स्तर की सिद्धियों का बखान करने भी लगे, तो उसे अत्युक्ति ही माना जाएगा। अब प्रत्यक्ष को प्रामाणिक किए बिना किसी की गति नहीं।

प्रश्न सूक्ष्मीकरण साधना का है, जो हम इन दिनों कर रहे हैं। यह एक विशेष साधना है, जो स्थूल शरीर के रहते हुए भी की जा सकती है और उसे त्यागने के उपरांत भी करनी पड़ती है। दोनों ही परिस्थतियों में यह स्थिति बिना अतिरिक्त प्रयोग-पुरुषार्थ के, तप-साधना के सम्भव नहीं हो सकती। इसे योगाभ्यास तपश्चर्या का अगला चरण कहना चाहिए।

इसके लिए किसे क्या करना होता है, यह इसके वर्तमान स्तर एवं उच्चस्तरीय मार्गदर्शन पर निर्भर होता है। सबके लिए एक पाठ्यक्रम नहीं हो सकता। किंतु इतना अवश्य है कि अपनी शक्तियों का बहिरंग अपव्यय रोकना पड़ता है, अंडा जब तक पक नहीं जाता तब तक एक खोखले में बंद रहता है इसके बाद वह इस छिलके को तोड़कर चलने-फिरने और दौड़ने-उड़ने लगता है। लगभग यही अभ्यास सूक्ष्मीकरण के हैं, जो हमने पिछले दिनों किए हैं। प्राचीनकाल में गुफा सेवन, समाधि आदि का प्रयोग प्रायः इसी निमित्त होता था।

सूक्ष्म शरीर धारियों का वर्णन और विवरण पुरातन ग्रंथों में विस्तार पूर्वक मिलता है। यक्ष और युधिष्ठिर के मध्य विग्रह तथा विवाद का महाभारत में विस्तार पूर्वक वर्णन है। यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस जैसे कई वर्ग सूक्ष्म शरीर धारियों के थे। विक्रमादित्य के साथ पाँच ‘‘वीर’’ रहते थे। शिवजी के गण ‘‘वीरभद्र’’ कहलाते थे। भूत-प्रेत, जिंद, मसानों की अलग ही बिरादरी थी। ‘‘अल्लादीन का चिराग’’ जिनने पढ़ा है उन्हें इस समुदाय की गतिविधियों की जानकारी होगी। छाया पुरुष द्वारा साधना में अपने निज के शरीर से ही एक अतिरिक्त सत्ता गढ़ ली जाती है और वह एक समर्थ साथी सहयोगी जैसा काम करती है।

इन सूक्ष्म शरीर धारियों में अधिकांश का उल्लेख हानिकारक या नैतिक दृष्टि से हेय स्तर पर हुआ है। सम्भव है उन दिनों अतृप्त विक्षुब्ध स्तर के योद्धा रणभूमि में मरने के उपरांत ऐसे ही कुछ हो जाते रहे हों। उन दिनों युद्धों की मार-काट ही सर्वत्र संव्याप्त थी, साथ ही सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षियों का भी कम उल्लेख नहीं है। राजर्षि और ब्रह्मर्षि तो स्थूल शरीरधारी ही होते थे, पर जिनकी गति सूक्ष्म शरीर में भी काम करती थी, वे देवर्षि कहलाते थे। वे वायुभूत होकर विचरण करते थे। लोक-लोकांतरों में जा सकते थे। जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे, वहाँ भक्तजनों का मार्गदर्शन करने के लिए अनायास ही जा पहुँचते थे।

ऋषियों में से अन्य कइयों के भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं। वे समय-समय पर धैर्य देने, मार्गदर्शन करने या जहाँ आवश्यकता समझी है, वहाँ पहुँचे, प्रकट हुए हैं। पैरों से चलकर जाना नहीं पड़ा है। अभी भी हिमालय के कई यात्री ऐसा विवरण सुनाते हैं कि वह राह भटक जाने पर कोई उन्हें उपयुक्त स्थल तक छोड़कर चला गया। कइयों ने किन्हीं गुफाओं में, शिखरों पर अदृश्य योगियों को दृश्य तथा दृश्य को अदृश्य होते देखा है। तिब्बत के लामाओं की ऐसी कितनी ही कथा गाथाएँ सुनी गई हैं। थियोसोफिकल सोसायटी की मान्यता है कि अभी हिमालय के ध्रुव केंद्र पर एक ऐसी मण्डली है, जो विश्व शान्ति में योगदान करती है, इसे उन्होंने ‘‘अदृश्य सहायक’’ नाम दिया है।

यहाँ स्मरण रखने योग्य बात यह है कि यह देवर्षि समुदाय भी मनुष्यों का ही एक विकसित वर्ग है। योगियों, सिद्ध पुरुषों और महामानवों की तरह वह सेवा-सहायता में दूसरों की अपेक्षा अधिक समर्थ पाया जाता है, पर यह मान बैठना गलती होगी कि वे सर्व समर्थ हैं और किसी की भी मनोकामना को तत्काल पूरी कर सकते हैं, या अमोघ वरदान दे सकते हैं। कर्मफल की वरिष्ठता सर्वोपरि है, उसे भगवान् ही घटा या मिटा सकते हैं। मनुष्य की सामर्थ्य से वह बाहर है। जिस प्रकार बीमार की चिकित्सक, विपत्तिग्रस्त की धनी सहायता कर सकता है, ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म शरीरधारी देवर्षि भी समय-समय पर सत्कर्मों के निमित्त बुलाने पर अथवा बिना बुलाए भी सहायता के लिए दौड़ते हैं। इससे बहुत लाभ भी मिलता है। इतने पर भी किसी को यह नहीं मान बैठना चाहिए कि पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं रही, या उनके आड़े आते ही निश्चित सफलता मिल गई। ऐसा रहा होता तो लोग उन्हीं का आसरा लेकर निश्चिंत हो जाते और फिर निजी पुरुषार्थ की आवश्यकता न समझते। निजी कर्मफल आड़े आने परिस्थितियों के बाधक होने की बात को ध्यान में ही न रखते।

यहाँ एक अच्छा उदाहरण हमारे हिमालयवासी गुरुदेव का है। सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ही वे उस प्रकार के वातावरण में रह पाते हैं, जहाँ जीवन निर्वाह के कोई साधन नहीं हैं। समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन और सहायता करते रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कुछ करना नहीं पड़ा, कोई कठिनाई मार्ग में आई ही नहीं, कभी असफलता मिली ही नहीं। यह भी होता रहा है , पर निश्चित है कि हम एकाकी जो कर सकते थे, उसकी अपेक्षा उस दिव्य सहयोग से मनोबल बहुल बढ़ा-चढ़ा रहा है। उचित मार्गदर्शन मिला है। कठिनाई के दिनों में धैर्य और साहस यथावत स्थिर रहा है। यह कम नहीं है। इतनी ही आशा दूसरों से करनी भी चाहिए। सब काम करके कोई रख जाएगा ऐसी आशा भगवान् से भी नहीं करनी चाहिए। भूल यही होती रही कि दैवी सहायता का नाम लेते ही लोग समझते हैं कि वह जादू की छड़ी घुमाई और मनचाहा काम बन गया। ऐसे ही अतिवादी लोग क्षण भर में आस्था खो बैठते देखे गए हैं। दैवी शक्तियों से सूक्ष्म शरीरों से हमें सामयिक सहायता की आशा करनी चाहिए। साथ ही अपनी जिम्मेदारियाँ वहन करने के लिए कटिबद्ध भी रहना चाहिए। असफलताओं तथा कठिनाइयों को अच्छा शिक्षक मानकर अगले कदम अधिक सावधानी, अधिक बहादुरी के उठाने की तैयारी करनी चाहिए।

सूक्ष्म शरीरों की शक्ति सामान्यतः भी अधिक होती है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, पूर्वाभास, विचार-संप्रेषण आदि में प्रायः सूक्ष्म शरीर की ही भूमिका रहती है। उनकी सहायता से कितनों को ही विपत्तियों से उबरने का अवसर मिला है। कइयों को ऐसी सहायताएँ मिली हैं, जिनके बिना उनका कार्य रुका ही पड़ा रहता। दो सच्चे मित्र मिलने से लोगों की हिम्मत कई गुना बढ़ जाती है। वैसा ही अनुभव अदृश्य सहायकों के साथ सम्बन्ध जुड़ने से भी करना चाहिए।

जिस प्रकार अपना दृश्य संसार है और उसमें दृश्य शरीर वाले जीवधारी रहते हैं, ठीक उसी प्रकार उससे जुड़ा हुआ एक अदृश्य लोक भी है। उसमें सूक्ष्म शरीरधारी निवास करते हैं। इनमें कुछ बिल्कुल साधारण, कुछ दुरात्मा और कुछ अत्यंत उच्चस्तर के होते हैं। वे मनुष्य लोक में समुचित दिलचस्पी लेते हैं। बिगड़ों को सुधारना और सुधरों को अधिक सफल बनाने में अयाचित सहायता माँगने का प्रयोजन, और माँगने वाले का स्तर, उपयुक्त होने पर तो वह सहायता और भी अच्छी तरह और भी बड़ी मात्रा में मिलती है।

यह सूक्ष्म शरीरों की, सूक्ष्म लोक की सामान्य चर्चा हुई। प्रसंग अपने आपे को विकसित करने का है। यह विषम वेला है। इसमें प्रत्यक्ष शरीर वाले, प्रत्यक्ष उपाय-उपचारों से जो कर सकते हैं, सो कर ही रहे हैं। करना भी चाहिए, पर दीखता है कि उतने भर से काम चलेगा नहीं। सशक्त सूक्ष्म शरीरों को बिगड़ों को अधिक न बिगड़ने देने के लिए अपना जोर लगाना पड़ेगा। सँभालने के लिए जो प्रक्रिया चल रही है, वह पर्याप्त न होगी। उसे और भी अधिक सरल-सफल बनाने के लिए अदृश्य सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। यह सामूहिक समस्याओं के लिए भी आवश्यक होगा और व्यक्तिगत रूप से सत्प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तित्वों को अग्रगामी-यशस्वी बनाने की दृष्टि से भी।

जब हमें यह काम सौंपा गया तो उसे करने में आना-कानी कैसी? दिव्य सत्ता के संकेतों पर चिरकाल से चलते चले आ रहे और जब तक आत्मबोध जागृत रहेगा तब तक यही स्थिति बनी रहेगी। यही गतिविधि चलेगी। यह विषम बेला है, इन दिनों दृश्य और अदृश्य क्षेत्र में जो विषाक्तता भरी हुई है, उसके परिशोधन का प्रयास करना अविलम्ब आवश्यक हो गया है, तो संजीवनी बूटी लाने के लिए पर्वत उखाड़ लाने और सुषेन वैद्य की खोज में जाने के लिए जो करना पड़े करना चाहिए। यह कार्य स्थूल शरीर को प्रसुप्त से जाग्रत स्थिति में लाने के लिए हमें अविलम्ब जुटना पड़ा और विगत दो वर्षों में कठोर तपश्चर्या का-एकांत साधना का अवलंबन लेना पड़ा।
First 19 21 Last


Other Version of this book



हमारी वसीयत और विरासत
Type: SCAN
Language: EN
...

My Life - Its Legacy and Message
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

हमारी वसीयत और विरासत
Type: TEXT
Language: EN
...

મારી વસીયત અને વિરાસત
Type: SCAN
Language: GUJRATI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • इस जीवन यात्रा के गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण की आवश्यकता
  • जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
  • समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग
  • मार्गदर्शक द्वारा भावी जीवन क्रम सम्बन्धी निर्देश
  • दिए गए कार्यक्रमों का प्राण-पण से निर्वाह
  • गुरुदेव का प्रथम बुलावा पग-पग पर परीक्षा
  • ऋषि तंत्र से दुर्गम हिमालय में साक्षात्कार
  • भावी रूपरेखा का स्पष्टीकरण
  • अनगढ़ मन हारा, हम जीते
  • प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
  • विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण
  • मथुरा के कुछ रहस्यमय प्रसंग
  • महामानव बनने की विधा, जो हमने सीखी-अपनाई
  • उपासना का सही स्वरूप
  • जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती
  • तीसरी हिमालय यात्रा-ऋषि परम्परा का बीजारोपण
  • ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
  • हमारी प्रत्यक्ष सिद्धियाँ
  • चौथा और अंतिम निर्देशन
  • स्थूल का सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन सूक्ष्मीकरण
  • इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है
  • जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण
  • आत्मीय जनों से अनुरोध एवं उन्हें आश्वासन
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj