
कुसंस्कारों की अविराम श्रृंखला
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मध्य प्रदेश के डाकुओं के कुकृत्य ऐसे ही हैं जिनसे उस प्रान्त की गरिमा का मस्तक लज्जा से नीचा झुका है। कानपुर का कनपटी मार बाबा इसी में आनन्द लेता था कि सड़क पर सोते हुए मजूर इस तरह उसके हथौड़े की चोट से तिलमिला कर मरा करते थे। इस प्रकार कनपटी तोड़कर उसने सैकड़ों हत्यायें की थीं। मनुष्यों और पशुओं पर समान रूप से आजीवन छुरी चलाने का व्यवसाय करने वालों की इस दुनिया में कमी नहीं है।
ऐसे लोग मरने के बाद भी प्रायः उसी प्रकृति के बने रहते हैं और जिस प्रकार जीवनकाल में दुष्ट आचरण करते रहे थे वैसे ही प्रेत-पिशाच बनकर, मरने के बाद भी लोगों को सताते हैं।
इटली का तानाशाह मुसोलिनी कम्युनिस्ट क्रान्ति के उपरान्त अपनी जान बचाकर भागा। वह स्विट्जरलैंड की तरफ अपनी प्रेयसी क्लारा पैट्सी के साथ एक ट्रक में बैठकर गुप्त रूप में जा रहा था। अरबों रुपये की बहुमूल्य सम्पत्ति सोने की छड़ी—हीरे, जवाहरातों, पोण्ड, पेन्स और डॉलरों के रूप में उसके पास थी। पर उसका यह पलायन सफल नहीं हुआ। रास्ते में ही वह पकड़ा गया। दूसरे दिन कम्युनिस्टों ने उन दोनों को गोली से उड़ा दिया और उनकी सारी सम्पत्ति अपने कब्जे में ले ली। दोनों लाशों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया।
इसके बाद कहते हैं कि मुसोलिनी ने भयंकर प्रेत-पिशाच का रूप धारण कर लिया। वह अपने खजाने का लाभ किसी और को नहीं लेने देना चाहता था, खुद तो अशरीरी होने से उसका लाभ उठा ही क्या सकता था। कहा जाता है कि उसी ने प्रेत रूप में खुद खजाना छिपाया और खुद ही रखवाली की। जिनने उसका पता लगाने की कोशिश की उनके प्राण लेकर छोड़े, इतना ही नहीं जिनके प्रति उसके मन में प्रतिहिंसा की आग धधक रही थी, उन्हें भी उसने मार कर ही चैन लिया।
आश्चर्य यह हुआ कि वह विपुल सम्पदा रहस्यमय ढंग से कहीं गायब हो गयी। गुप्तचर विभाग की सारी शक्ति उस धन को तलाश करने पर केन्द्रित कर दी गई। इसी बीच एक घटना और घटित हो गई कि गुप्तचर विभाग की जिन दो सुन्दरियों ने मुसोलिनी को पकड़वाने में सहायता की थी वे मरी पाई गईं।
इसी प्रकार जिन लोगों को खजाने के बारे में कुछ जानकारी हो सकती थी ऐसे 75 व्यक्ति एक-एक करके कुछ ही दिनों के भीतर मृत्यु के मुख में चले गये। जिस ट्रक में मुसोलिनी भाग रहा था उसको ड्राइवर गौरेवी की लाश क्षत-विक्षत स्थिति में एक सड़क पर पड़ी पाई गई उसके पास मुसोलिनी का फोटो मौजूद था।
खजाने से भी अधिक रहस्यमय यह था कि उस प्रसंग से सम्बन्ध रखने वाले सभी व्यक्ति एक-एक करके मरते चले जा रहे थे। सन्देह यह किया जा रहा था कि कोई संगठित गिरोह यह कार्य कर रहा होगा; पर यह बात इसलिये सही नहीं बैठ रही थी कि मरने वाले एकाध दिन पूर्व ही बेतरह आतंकित होते थे और मुसोलिनी की आत्मा द्वारा उन्हें चुनौती, चेतावनी दिये जाने की बात कहते थे। खोज-बीन में संलग्न अधिकारी गोना भी उस खजाने वाली झील के पास मरा पाया गया। दूसरे अधिकारी मोस्कोवी की लाश उसके स्नानागार में ही मिली जिसका शिर गायब था। लाश के पास ही एक पर्चा मिला जिस पर लिखा था—‘मुसोलिनी का शरीर मर गया पर उसकी आत्मा प्रतिशोध लेने के लिये मौजूद है।’ गुप्तचर विभाग यह सोचता था शायद मुसोलिनी के साथी यह बदला लेने के लिये ऐसा कर रहे होंगे, आश्चर्य यह था कि मुसोलिनी के दांये हाथ समझे लाने वाले व्यक्ति भी इन्हीं मृतकों की सूची में शामिल थे। उसके विश्वस्त समझे जाने वाले साथी मेरिया की भी यही दुर्गति हुई। अन्धाधुन्ध कम्युनिस्टों से लेकर मुसोलिनी समर्थकों के बीच बिना भेद-भाव किये यह हत्या काण्ड आखिर किस उद्देश्य के लिये चल रहा है, उसे कौन चला रहा है उस रहस्य पर से पर्दा उठाये उठ नहीं रहा था। मिलान पत्र के सम्पादक ने एक सूचना छापी कि वह खजाने के बारे में कुछ जानकारी देगा। दूसरे ही दिन उसके सारे सम्बन्धित कागजात चोरी हो गये और वह मरा पाया गया। सर्वत्र आतंक छाया हुआ था और कोई गुपचुप भी उस खजाने के बारे में चर्चा करने की हिम्मत न करता था। क्योंकि लोगों के मन पर यह आतंक जम गया था कि मुसोलिनी की आत्मा ने खजाना स्वयं कहीं छिपा लिया है और वह उसे छोड़ना नहीं चाहती। जो उसे तलाश करने में लगे हैं या जिन्हें उसकी गति-विधियों का थोड़ा भी पूर्वाभास है उन सबको वही आत्मा चुन-चुनकर समाप्त कर रही है।
इस कार्य के लिए अतिरिक्त रूप से नियुक्त वरिष्ठ खुफिया पुलिस के अधिकारी बूचर और स्मिथ नियुक्त किये गये। उनने खजाने का पता लगाने का बीड़ा उठाया। यह स्पष्ट था कि वह धन कोमी झील के आस-पास ही होना चाहिए क्योंकि वहीं मुसोलिनी पकड़ा गया था। पकड़े जाते समय उसके पास वह खजाना था। गायब तो वह इसके बाद ही हुआ। इसलिये उसका वहीं कहीं छिपा होना संभव है। कम्युनिस्टों ने भी उसे वहीं कब्जे में ले लिया था और एक के बाद एक उनके बड़े अफसर भी जल्दी ही एकत्रित हो गये थे इतने समूह द्वारा चुरा लिये जाने की बात भी सम्भव नहीं थी। फिर वे पकड़ने वाले कम्युनिस्ट भी तो उसी कुचक्र में मर रहे थे।
अपने खोज कार्य में बूबर और स्मिथ अपने दल सहित कोमो झील के समीप ही डेरा डाले पड़े थे। अचानक एक रात उनने मुसोलिनी को सामने खड़ा देखा। उसका पीछा करने के लिए वे दौड़े पर तब तक वह गायब हो चुका था हां उसके पैरों के ताजा निशान ज्यों के त्यों धूलि पर अंकित थे। गुप्तचर विभाग ने प्रमाणित किया वे निशान सचमुच मुसोलिनी के पद चिन्हों से पूरी तरह मिलते हुए हैं। वे दोनों ही अधिकारी दूसरे दिन से गायब हो गये और फिर उनका कहीं पता न चला।
इटली के मिनिस्टर की पत्नी मेरिया मतंक के कब्जे में भी मुसोलिनी का कुछ धन था। वह उसे लेकर स्विट्जरलैंड भागने का प्रयत्न कर रही थी कि चुंगी चौकी के पास अज्ञात स्थान से गोली चली अधिकारी मारा गया और मोरिया गायब हो गई।
खजाने की बात तो पीछे रह गई, इन सनसनी खेज हत्याओं ने एक नई हलचल मचा दी। सरकार ने हत्याओं की खोज के लिए एक कमेटी बिठाई। इसके अध्यक्ष बनाये गये प्रधान जनरल लोइन जिंगेल। उनने प्रारम्भिक खोज के लिये जितने कागजात इकट्ठे किये थे एक दिन देखते-देखते उनकी मेज से वे सभी गायब हो गये। कमेटी के एक सदस्य ऐजिली की मृत्यु हो गई। उसे आत्म हत्या या हत्या का केस बताया गया। इन परिस्थितियों में जांच कार्य आगे चल सकना सम्भव न हो सका और खजाने की तथा उसी के सिलसिले में चल रही हत्याओं की खोज का कार्य बन्द कर देना पड़ा।
मनुष्य के भीतर अमृत भी है और विष भी। देवता भी है और असुर भी। यह स्वेच्छानुसार दोनों में से किसी की परिपुष्टि और किसी को भी तिरस्कृत कर सकता है जिन्होंने देवता को सींचा वे स्वयं सन्तुष्ट रहे और संसार के लिये सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त किया। इसके विपरीत जिन्होंने असुरता पकड़ी और नृशंस गतिविधियां अपनाई जाना तो उन्हें भी पड़ा पर अपने सामने और पीछे वे केवल एक ऐसी दुखद स्मृतियां छोड़ गये हैं। जिन्हें सदा कोसा और धिक्कारा ही जाता रहेगा।
जीव विकास की क्रमिक श्रृंखला पार करता हुआ जीवात्मा मनुष्य शरीर में प्रवेश करता है। यों यह सुरदुर्लभ ईश्वरीय उपहार है। तो भी उसके साथ निकृष्ट योनियों के पिछले संस्कार जुड़े रहते हैं। इन्हें परिष्कृत करके इस देव योनि के उपयुक्त आदतें विनिर्मित करनी हैं। यही जीवन साधना है। यदि यह प्रयत्न न किया जाय तो पशु संस्कार बने रहेंगे और मनुष्य ऐसे कृत्य करता रहेगा जो उसकी संस्कृति के लिए कलंक पूर्ण हैं।
सिंह, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू, बाज, गिद्ध की आक्रमण करने और दूसरों का विनाश करने में प्रसन्नता अनुभव करने की प्रवृत्ति असंस्कृत मनुष्यों में पाई जाती है। नर, मादा के बीच बिना माता, पुत्री, बहिन आदि का अन्तर किये अन्य प्राणियों में यौन स्वेच्छाचार चलता है। मानवी विवेक कुछ मर्यादा लगता है, पर पशुओं और कीड़ों में वैसा कोई बन्धन नहीं होता। जिनके मानवी संस्कार उदय न हुए होंगे, उनमें भी ऐसा ही स्वेच्छाचार चल रहा होगा। कुत्तों को रोटी के टुकड़े फेंके जायं तो वे बिना साथी बच्चों का ध्यान रखे पहले अपना पेट भरेंगे। दुर्बलों को दुत्कार कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करेंगे। नर पशु भी ऐसी ही स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता और स्वेच्छाचार का परिचय देते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए धर्म, अध्यात्म, दर्शन, पुण्य, परमार्थ, संयम, नीति मर्यादा, कर्त्तव्य आदि का निर्धारण हुआ है। यदि भाव परिष्कारों से उसे सुसंस्कृत न बनाया जाय तो उसकी पशुता यथावत् बनी रहेगी और पोषण पाकर अधिक विकृत विघातक बनती रहेगी। यह स्थिति उसे नर पशु और नर पिशाच स्तर का रखेगी और बुद्धिमत्ता का संयोग मिलने से वह रोमांचकारी, अनाचार के दृश्य उपस्थित करेगी। आज हमारी प्रगति इसी दिशा में तेजी से हो भी रही है।
यूनेस्को द्वारा पैरिस में आयोजित एक ‘‘आक्रामक प्रवृत्ति अन्वेषण गोष्ठी’’ में कतिपय मनः शास्त्र वेत्ताओं ने अपनी विचार व्यक्त किये और इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि मनुष्य जहां बुद्धि, सम्पत्ति और वैज्ञानिक उपलब्धियों की ओर बढ़ रहा है, वहां उसमें आक्रामक प्रवृत्ति भी बढ़ रही है, जो हत्या, आत्महत्या तथा दूसरे अपराधों के रूप में सामने आ रही हैं। लड़ाई, झगड़े आदि की घटनाएं बढ़ रही हैं।
इसी गोष्ठी में आक्रामक प्रवृत्ति का मूल कारण व्यक्ति का उद्वत ‘अहं’ बताया गया, इसी के कारण यह मान्यता बनती है कि हमारा प्रतिपादन सही है और दूसरा जो कुछ भी कहता है, वह कितना ही तर्क संगत क्यों न हो गलत है अपनी गलती स्वीकार करने और मानने में व्यक्ति को अपने ‘अहं’ पर ठेस लगती अनुभव होती है। लड़ाई की अवांछनीयता और सहयोग की उपयोगिता हर किसी को समझायी जा सकती है पर ‘विकृत अहं’ उसे कहने सुनने तक ही सीमित रखता है और मान्यता, भावना एवं क्रिया की गहराई तक उसे नहीं उतरने देता।
‘‘हमारा नहीं दोष दूसरों का है’’ सिद्ध करने की जब पहले से ठान ठन गई हो तो सन्तुलित विचार विनिमय के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती—मात्र अनिर्णीत विवाद हो सकता है। प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर सुदृढ़ पूर्वाग्रह किसी भी सफाई या तर्क से झुक नहीं सकता। यदि दलीलें अपने पक्ष में कम पड़ती होंगी तो भी वह हारने वाला नहीं है—सामने वालों को दुर्बुद्धि एवं दुर्भावनाग्रस्त बताकर डटा अपनी ही बात पर रहा जायगा। विवेक का उदय पक्षपात रहित स्थिति में ही हो सकता है। उद्धत अहमन्यता के तूफान में न्यायोचित तथ्य का पता लगाने वाले विवेक के पैर टिक ही नहीं पाते।
कौन बलवान है और कौन दुर्बल, इसकी परीक्षा करने की कसौटी यह होनी चाहिये कि कौन कितना सहिष्णु है और कौन कितना असहिष्णु है। जो तनिक-सी विपरीतता सामने आते ही उबल पड़ता है या डरने, कांपने लगता है, समझना चाहिये कि यह दुर्बल किस्म का मनुष्य है। अन्तःचेतना की दयनीय स्थिति इससे बढ़ कर और क्या हो सकती है कि उसे हवा के झोंके, हलके तिनके की तरह किधर भी उड़ा ले जायं और वह वैसे किसी झोंके का प्रतिरोध न कर सके।
भारी और वजनदार वस्तुओं का मूल्य और टिकाऊपन इसलिये होता है कि वे अवरोधों को सहन करते हुये अपनी राह पर, अपनी दिशा में ठीक तरह चलती रह सकती हैं। रेलगाड़ी और वायुयान यदि हवा के प्रभाव की दिशा में चलने उड़ने लगें तो फिर उनमें बैठे वालों का ईश्वर ही रक्षक है।
हर मनुष्य की आकृति एक दूसरे से भिन्न है और प्रकृति भी। हर आदमी की मनःस्थिति एक-सी नहीं होती। उसके सोचने का अपना तरीका होता है और निर्णय करने का अपना ढंग। यह मानसिक स्तर जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों और स्तरों पर निर्भर रहता है। उसमें सुधार-परिवर्तन भी होता है पर आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति दूरदर्शी और विचारशील ही हो। साथ ही यह भी, अनिवार्य नहीं कि मनुष्यों की विचारधारा, रुचि, प्रकृति और मनःस्थिति एक जैसी हो। इस प्रकृति प्रदत्त भिन्नता को हमें ध्यान में रखना होगा कि समन्वयशीलता और सहिष्णुता की नीति अपना कर यथा सम्भव अधिक से अधिक ताल-मेल बिठा सकने में आंशिक सफलता मिल सकती है और उसी कामचलाऊ समझौते के आधार पर जीवन-संकट को गतिशील रखा जा सकता है।
हमारी ही आकृति या प्रकृति के सब लोग बन जायं, यह सोचना बेकार है। हमारा ही नियन्त्रण, अनुशासन या परामर्श परिवार में या पड़ौस में शिरोधार्य किया जाना चाहिये, यह आकांक्षा थोड़े अहंकार का विज्ञापन करती है। हम दूसरे के शुभ-चिन्तक और परामर्श दाता हो सकते हैं और उन्हें श्रेष्ठ पथ पर चलाने के लिये अपनी सूझबूझ के अनुसार भरसक प्रयत्न कर सकते हैं, यह अपनी मर्यादा है। इस मर्यादा में रह कर ही हमारी सज्जनता अक्षुण्ण रह सकती है, इससे आगे बढ़ कर जब हमें दूसरों को बाध्य करने जितना दबाव डालते हैं और आतंकवादी आधारों को अपनाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यह मनुष्य की मर्यादाओं का उल्लंघन है। आक्रमण को रोकना आत्म-रक्षा की दृष्टि से सही है, पर अपना अनुयायी बनाने के लिये बाध्य करना मानवी अधिकारों के अपहरण के बराबर है।
मनुष्य हो या पशु पक्षी किसी को भी अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरे को दबाने उसकी स्वतंत्रता छीनने का अधिकार नहीं है। किसी पर भावनात्मक दबाव डालने से लेकर हत्या करने, आतंकित करने तक कोई भी कार्य क्रूरता और निष्ठुरता की पंक्ति में आ जाता है। निष्ठुरता के उन स्रोतों को तलाश और सुधारा जा सके देवत्व और मानवता के पक्ष को सुविधा पूर्वक उभारा जा सके तो है उसी में सबका हित सन्निहित है।
ऐसे लोग मरने के बाद भी प्रायः उसी प्रकृति के बने रहते हैं और जिस प्रकार जीवनकाल में दुष्ट आचरण करते रहे थे वैसे ही प्रेत-पिशाच बनकर, मरने के बाद भी लोगों को सताते हैं।
इटली का तानाशाह मुसोलिनी कम्युनिस्ट क्रान्ति के उपरान्त अपनी जान बचाकर भागा। वह स्विट्जरलैंड की तरफ अपनी प्रेयसी क्लारा पैट्सी के साथ एक ट्रक में बैठकर गुप्त रूप में जा रहा था। अरबों रुपये की बहुमूल्य सम्पत्ति सोने की छड़ी—हीरे, जवाहरातों, पोण्ड, पेन्स और डॉलरों के रूप में उसके पास थी। पर उसका यह पलायन सफल नहीं हुआ। रास्ते में ही वह पकड़ा गया। दूसरे दिन कम्युनिस्टों ने उन दोनों को गोली से उड़ा दिया और उनकी सारी सम्पत्ति अपने कब्जे में ले ली। दोनों लाशों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया।
इसके बाद कहते हैं कि मुसोलिनी ने भयंकर प्रेत-पिशाच का रूप धारण कर लिया। वह अपने खजाने का लाभ किसी और को नहीं लेने देना चाहता था, खुद तो अशरीरी होने से उसका लाभ उठा ही क्या सकता था। कहा जाता है कि उसी ने प्रेत रूप में खुद खजाना छिपाया और खुद ही रखवाली की। जिनने उसका पता लगाने की कोशिश की उनके प्राण लेकर छोड़े, इतना ही नहीं जिनके प्रति उसके मन में प्रतिहिंसा की आग धधक रही थी, उन्हें भी उसने मार कर ही चैन लिया।
आश्चर्य यह हुआ कि वह विपुल सम्पदा रहस्यमय ढंग से कहीं गायब हो गयी। गुप्तचर विभाग की सारी शक्ति उस धन को तलाश करने पर केन्द्रित कर दी गई। इसी बीच एक घटना और घटित हो गई कि गुप्तचर विभाग की जिन दो सुन्दरियों ने मुसोलिनी को पकड़वाने में सहायता की थी वे मरी पाई गईं।
इसी प्रकार जिन लोगों को खजाने के बारे में कुछ जानकारी हो सकती थी ऐसे 75 व्यक्ति एक-एक करके कुछ ही दिनों के भीतर मृत्यु के मुख में चले गये। जिस ट्रक में मुसोलिनी भाग रहा था उसको ड्राइवर गौरेवी की लाश क्षत-विक्षत स्थिति में एक सड़क पर पड़ी पाई गई उसके पास मुसोलिनी का फोटो मौजूद था।
खजाने से भी अधिक रहस्यमय यह था कि उस प्रसंग से सम्बन्ध रखने वाले सभी व्यक्ति एक-एक करके मरते चले जा रहे थे। सन्देह यह किया जा रहा था कि कोई संगठित गिरोह यह कार्य कर रहा होगा; पर यह बात इसलिये सही नहीं बैठ रही थी कि मरने वाले एकाध दिन पूर्व ही बेतरह आतंकित होते थे और मुसोलिनी की आत्मा द्वारा उन्हें चुनौती, चेतावनी दिये जाने की बात कहते थे। खोज-बीन में संलग्न अधिकारी गोना भी उस खजाने वाली झील के पास मरा पाया गया। दूसरे अधिकारी मोस्कोवी की लाश उसके स्नानागार में ही मिली जिसका शिर गायब था। लाश के पास ही एक पर्चा मिला जिस पर लिखा था—‘मुसोलिनी का शरीर मर गया पर उसकी आत्मा प्रतिशोध लेने के लिये मौजूद है।’ गुप्तचर विभाग यह सोचता था शायद मुसोलिनी के साथी यह बदला लेने के लिये ऐसा कर रहे होंगे, आश्चर्य यह था कि मुसोलिनी के दांये हाथ समझे लाने वाले व्यक्ति भी इन्हीं मृतकों की सूची में शामिल थे। उसके विश्वस्त समझे जाने वाले साथी मेरिया की भी यही दुर्गति हुई। अन्धाधुन्ध कम्युनिस्टों से लेकर मुसोलिनी समर्थकों के बीच बिना भेद-भाव किये यह हत्या काण्ड आखिर किस उद्देश्य के लिये चल रहा है, उसे कौन चला रहा है उस रहस्य पर से पर्दा उठाये उठ नहीं रहा था। मिलान पत्र के सम्पादक ने एक सूचना छापी कि वह खजाने के बारे में कुछ जानकारी देगा। दूसरे ही दिन उसके सारे सम्बन्धित कागजात चोरी हो गये और वह मरा पाया गया। सर्वत्र आतंक छाया हुआ था और कोई गुपचुप भी उस खजाने के बारे में चर्चा करने की हिम्मत न करता था। क्योंकि लोगों के मन पर यह आतंक जम गया था कि मुसोलिनी की आत्मा ने खजाना स्वयं कहीं छिपा लिया है और वह उसे छोड़ना नहीं चाहती। जो उसे तलाश करने में लगे हैं या जिन्हें उसकी गति-विधियों का थोड़ा भी पूर्वाभास है उन सबको वही आत्मा चुन-चुनकर समाप्त कर रही है।
इस कार्य के लिए अतिरिक्त रूप से नियुक्त वरिष्ठ खुफिया पुलिस के अधिकारी बूचर और स्मिथ नियुक्त किये गये। उनने खजाने का पता लगाने का बीड़ा उठाया। यह स्पष्ट था कि वह धन कोमी झील के आस-पास ही होना चाहिए क्योंकि वहीं मुसोलिनी पकड़ा गया था। पकड़े जाते समय उसके पास वह खजाना था। गायब तो वह इसके बाद ही हुआ। इसलिये उसका वहीं कहीं छिपा होना संभव है। कम्युनिस्टों ने भी उसे वहीं कब्जे में ले लिया था और एक के बाद एक उनके बड़े अफसर भी जल्दी ही एकत्रित हो गये थे इतने समूह द्वारा चुरा लिये जाने की बात भी सम्भव नहीं थी। फिर वे पकड़ने वाले कम्युनिस्ट भी तो उसी कुचक्र में मर रहे थे।
अपने खोज कार्य में बूबर और स्मिथ अपने दल सहित कोमो झील के समीप ही डेरा डाले पड़े थे। अचानक एक रात उनने मुसोलिनी को सामने खड़ा देखा। उसका पीछा करने के लिए वे दौड़े पर तब तक वह गायब हो चुका था हां उसके पैरों के ताजा निशान ज्यों के त्यों धूलि पर अंकित थे। गुप्तचर विभाग ने प्रमाणित किया वे निशान सचमुच मुसोलिनी के पद चिन्हों से पूरी तरह मिलते हुए हैं। वे दोनों ही अधिकारी दूसरे दिन से गायब हो गये और फिर उनका कहीं पता न चला।
इटली के मिनिस्टर की पत्नी मेरिया मतंक के कब्जे में भी मुसोलिनी का कुछ धन था। वह उसे लेकर स्विट्जरलैंड भागने का प्रयत्न कर रही थी कि चुंगी चौकी के पास अज्ञात स्थान से गोली चली अधिकारी मारा गया और मोरिया गायब हो गई।
खजाने की बात तो पीछे रह गई, इन सनसनी खेज हत्याओं ने एक नई हलचल मचा दी। सरकार ने हत्याओं की खोज के लिए एक कमेटी बिठाई। इसके अध्यक्ष बनाये गये प्रधान जनरल लोइन जिंगेल। उनने प्रारम्भिक खोज के लिये जितने कागजात इकट्ठे किये थे एक दिन देखते-देखते उनकी मेज से वे सभी गायब हो गये। कमेटी के एक सदस्य ऐजिली की मृत्यु हो गई। उसे आत्म हत्या या हत्या का केस बताया गया। इन परिस्थितियों में जांच कार्य आगे चल सकना सम्भव न हो सका और खजाने की तथा उसी के सिलसिले में चल रही हत्याओं की खोज का कार्य बन्द कर देना पड़ा।
मनुष्य के भीतर अमृत भी है और विष भी। देवता भी है और असुर भी। यह स्वेच्छानुसार दोनों में से किसी की परिपुष्टि और किसी को भी तिरस्कृत कर सकता है जिन्होंने देवता को सींचा वे स्वयं सन्तुष्ट रहे और संसार के लिये सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त किया। इसके विपरीत जिन्होंने असुरता पकड़ी और नृशंस गतिविधियां अपनाई जाना तो उन्हें भी पड़ा पर अपने सामने और पीछे वे केवल एक ऐसी दुखद स्मृतियां छोड़ गये हैं। जिन्हें सदा कोसा और धिक्कारा ही जाता रहेगा।
जीव विकास की क्रमिक श्रृंखला पार करता हुआ जीवात्मा मनुष्य शरीर में प्रवेश करता है। यों यह सुरदुर्लभ ईश्वरीय उपहार है। तो भी उसके साथ निकृष्ट योनियों के पिछले संस्कार जुड़े रहते हैं। इन्हें परिष्कृत करके इस देव योनि के उपयुक्त आदतें विनिर्मित करनी हैं। यही जीवन साधना है। यदि यह प्रयत्न न किया जाय तो पशु संस्कार बने रहेंगे और मनुष्य ऐसे कृत्य करता रहेगा जो उसकी संस्कृति के लिए कलंक पूर्ण हैं।
सिंह, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू, बाज, गिद्ध की आक्रमण करने और दूसरों का विनाश करने में प्रसन्नता अनुभव करने की प्रवृत्ति असंस्कृत मनुष्यों में पाई जाती है। नर, मादा के बीच बिना माता, पुत्री, बहिन आदि का अन्तर किये अन्य प्राणियों में यौन स्वेच्छाचार चलता है। मानवी विवेक कुछ मर्यादा लगता है, पर पशुओं और कीड़ों में वैसा कोई बन्धन नहीं होता। जिनके मानवी संस्कार उदय न हुए होंगे, उनमें भी ऐसा ही स्वेच्छाचार चल रहा होगा। कुत्तों को रोटी के टुकड़े फेंके जायं तो वे बिना साथी बच्चों का ध्यान रखे पहले अपना पेट भरेंगे। दुर्बलों को दुत्कार कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करेंगे। नर पशु भी ऐसी ही स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता और स्वेच्छाचार का परिचय देते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए धर्म, अध्यात्म, दर्शन, पुण्य, परमार्थ, संयम, नीति मर्यादा, कर्त्तव्य आदि का निर्धारण हुआ है। यदि भाव परिष्कारों से उसे सुसंस्कृत न बनाया जाय तो उसकी पशुता यथावत् बनी रहेगी और पोषण पाकर अधिक विकृत विघातक बनती रहेगी। यह स्थिति उसे नर पशु और नर पिशाच स्तर का रखेगी और बुद्धिमत्ता का संयोग मिलने से वह रोमांचकारी, अनाचार के दृश्य उपस्थित करेगी। आज हमारी प्रगति इसी दिशा में तेजी से हो भी रही है।
यूनेस्को द्वारा पैरिस में आयोजित एक ‘‘आक्रामक प्रवृत्ति अन्वेषण गोष्ठी’’ में कतिपय मनः शास्त्र वेत्ताओं ने अपनी विचार व्यक्त किये और इस बात पर चिन्ता प्रकट की कि मनुष्य जहां बुद्धि, सम्पत्ति और वैज्ञानिक उपलब्धियों की ओर बढ़ रहा है, वहां उसमें आक्रामक प्रवृत्ति भी बढ़ रही है, जो हत्या, आत्महत्या तथा दूसरे अपराधों के रूप में सामने आ रही हैं। लड़ाई, झगड़े आदि की घटनाएं बढ़ रही हैं।
इसी गोष्ठी में आक्रामक प्रवृत्ति का मूल कारण व्यक्ति का उद्वत ‘अहं’ बताया गया, इसी के कारण यह मान्यता बनती है कि हमारा प्रतिपादन सही है और दूसरा जो कुछ भी कहता है, वह कितना ही तर्क संगत क्यों न हो गलत है अपनी गलती स्वीकार करने और मानने में व्यक्ति को अपने ‘अहं’ पर ठेस लगती अनुभव होती है। लड़ाई की अवांछनीयता और सहयोग की उपयोगिता हर किसी को समझायी जा सकती है पर ‘विकृत अहं’ उसे कहने सुनने तक ही सीमित रखता है और मान्यता, भावना एवं क्रिया की गहराई तक उसे नहीं उतरने देता।
‘‘हमारा नहीं दोष दूसरों का है’’ सिद्ध करने की जब पहले से ठान ठन गई हो तो सन्तुलित विचार विनिमय के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती—मात्र अनिर्णीत विवाद हो सकता है। प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर सुदृढ़ पूर्वाग्रह किसी भी सफाई या तर्क से झुक नहीं सकता। यदि दलीलें अपने पक्ष में कम पड़ती होंगी तो भी वह हारने वाला नहीं है—सामने वालों को दुर्बुद्धि एवं दुर्भावनाग्रस्त बताकर डटा अपनी ही बात पर रहा जायगा। विवेक का उदय पक्षपात रहित स्थिति में ही हो सकता है। उद्धत अहमन्यता के तूफान में न्यायोचित तथ्य का पता लगाने वाले विवेक के पैर टिक ही नहीं पाते।
कौन बलवान है और कौन दुर्बल, इसकी परीक्षा करने की कसौटी यह होनी चाहिये कि कौन कितना सहिष्णु है और कौन कितना असहिष्णु है। जो तनिक-सी विपरीतता सामने आते ही उबल पड़ता है या डरने, कांपने लगता है, समझना चाहिये कि यह दुर्बल किस्म का मनुष्य है। अन्तःचेतना की दयनीय स्थिति इससे बढ़ कर और क्या हो सकती है कि उसे हवा के झोंके, हलके तिनके की तरह किधर भी उड़ा ले जायं और वह वैसे किसी झोंके का प्रतिरोध न कर सके।
भारी और वजनदार वस्तुओं का मूल्य और टिकाऊपन इसलिये होता है कि वे अवरोधों को सहन करते हुये अपनी राह पर, अपनी दिशा में ठीक तरह चलती रह सकती हैं। रेलगाड़ी और वायुयान यदि हवा के प्रभाव की दिशा में चलने उड़ने लगें तो फिर उनमें बैठे वालों का ईश्वर ही रक्षक है।
हर मनुष्य की आकृति एक दूसरे से भिन्न है और प्रकृति भी। हर आदमी की मनःस्थिति एक-सी नहीं होती। उसके सोचने का अपना तरीका होता है और निर्णय करने का अपना ढंग। यह मानसिक स्तर जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों और स्तरों पर निर्भर रहता है। उसमें सुधार-परिवर्तन भी होता है पर आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति दूरदर्शी और विचारशील ही हो। साथ ही यह भी, अनिवार्य नहीं कि मनुष्यों की विचारधारा, रुचि, प्रकृति और मनःस्थिति एक जैसी हो। इस प्रकृति प्रदत्त भिन्नता को हमें ध्यान में रखना होगा कि समन्वयशीलता और सहिष्णुता की नीति अपना कर यथा सम्भव अधिक से अधिक ताल-मेल बिठा सकने में आंशिक सफलता मिल सकती है और उसी कामचलाऊ समझौते के आधार पर जीवन-संकट को गतिशील रखा जा सकता है।
हमारी ही आकृति या प्रकृति के सब लोग बन जायं, यह सोचना बेकार है। हमारा ही नियन्त्रण, अनुशासन या परामर्श परिवार में या पड़ौस में शिरोधार्य किया जाना चाहिये, यह आकांक्षा थोड़े अहंकार का विज्ञापन करती है। हम दूसरे के शुभ-चिन्तक और परामर्श दाता हो सकते हैं और उन्हें श्रेष्ठ पथ पर चलाने के लिये अपनी सूझबूझ के अनुसार भरसक प्रयत्न कर सकते हैं, यह अपनी मर्यादा है। इस मर्यादा में रह कर ही हमारी सज्जनता अक्षुण्ण रह सकती है, इससे आगे बढ़ कर जब हमें दूसरों को बाध्य करने जितना दबाव डालते हैं और आतंकवादी आधारों को अपनाते हैं तो यह भूल जाते हैं कि यह मनुष्य की मर्यादाओं का उल्लंघन है। आक्रमण को रोकना आत्म-रक्षा की दृष्टि से सही है, पर अपना अनुयायी बनाने के लिये बाध्य करना मानवी अधिकारों के अपहरण के बराबर है।
मनुष्य हो या पशु पक्षी किसी को भी अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरे को दबाने उसकी स्वतंत्रता छीनने का अधिकार नहीं है। किसी पर भावनात्मक दबाव डालने से लेकर हत्या करने, आतंकित करने तक कोई भी कार्य क्रूरता और निष्ठुरता की पंक्ति में आ जाता है। निष्ठुरता के उन स्रोतों को तलाश और सुधारा जा सके देवत्व और मानवता के पक्ष को सुविधा पूर्वक उभारा जा सके तो है उसी में सबका हित सन्निहित है।