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Books - सहृदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य

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Language: HINDI
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असुरता की नृशंसता में परिवर्तन

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मनुष्य में देवता और असुर की—शैतान और भगवान की सम्मिश्रित सत्ता है। दोनों में वह जिसे चाहे उसे गिरादें यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। विचारों के अनुसार क्रिया विनिर्मित होती है। असुरता अथवा देवत्व की बढ़ोतरी विचार क्षेत्र में होती है; उसी अभिवर्धन उत्पादन के आधार पर मनुष्य दुष्कर्मों अथवा सत्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। यह क्रियाएं ही उसे उत्थान पतन के—सुख-दुख के गर्त में गिराती हैं।

असुरता कितनी नृशंस हो सकती है इसके छुटपुट और व्यक्तिगत उदाहरण हैं आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। वैसा सामूहिक रूप से—बड़े पैमाने पर और मात्र सन की पूर्ति के लिए भी किया जाता रहा है। उसके उदाहरण भी कम नहीं हैं। छुटपुट लड़ाई झगड़ों से लेकर महायुद्ध तक जितनी भी क्रूरतायें; जितनी भी विनाश लीलायें हुई हैं सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है।

लड़ाइयां छोटी हों या बड़ी उनके मूल में मनुष्य की यह मान्यता काम करती है कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ बल प्रयोग करना उचित और आवश्यक है। एक ग्रीक कहावत है—‘‘शान्ति चाहते हो तो युद्ध की तैयारी करो’’ सशक्त पक्ष अपने अहं को प्रतिष्ठित करने के लिए छोटों के साथ दमन की नीति अपनाता है। इसमें उसे तिहरा लाभ प्रतीत होता है अपने अहं की तुष्टि—आतंक से दूसरे लोगों का डरकर आत्म-समर्पण करना और दूसरे भौतिक लाभों को कमा लेना। अस्तु युद्ध के पक्ष में शक्तिशाली पक्ष बहुत से कारण बताकर अपने लोगों को उत्तेजित करके दूसरे पक्ष पर चढ़ दौड़ने की भूमिका विनिर्मित करता है।

साधारणतया अपराधों पर चिन्ता प्रकट की जाती है और उनकी रोकथाम का प्रयत्न किया जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि उस अनौचित्य की जड़े काफी गहरी हैं। मानसिक रोगों की स्थिति यह बढ़ती ही गई तो फिर रोकथाम के राजकीय प्रयत्नों से कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा।

न्यूरेस्थेनिया के मरीज सदा अपराधों की भाषा में सोचते हैं। वैसा ही कुछ कर गुजरने का उनका मन होता है जिससे किसी न किसी पर विपत्ति आये—कोई न कोई कष्ट उठाये—किसी न किसी का नुकसान हो। इससे उन्हें अपने बड़प्पन का—शक्तिमत्ता का गौरव पा सकने का आभास होता है।

दूसरों के प्रति दुर्भावना रखने की आदत आरम्भ में बहुत छोटी होती है। छिन्द्रान्वेषण, दोषारोपण, निन्दा में रस लेना, कल्पना को लोगों की बुराइयां ढूंढ़ने में लगाना, अनुमान के आधार पर जिस-तिस को दुष्ट-दुराचारी मान लेना और सामने न सही पीठ पीछे निन्दा करते रहना, विकृत मन के लोगों को बहुत पसन्द आता है। वे किसी के साथ न्याय करने के लिए आवश्यक प्रमाण ढूंढ़ने का भी प्रयत्न नहीं करते। अपनी विकृत कल्पना को ही अमुक व्यक्ति को दुष्ट मान लेने के लिए पर्याप्त मान लेते हैं। दुष्टता के प्रति रोष होना स्वाभाविक है। रोष से घृणा पैदा होती है और घृणास्पद को हानि पहुंचाने के लिए मन में ताना-बाना बुना जाने लगता है। यही आदत बढ़ते-बढ़ते इस स्तर तक जा पहुंचती है कि मानसिक हिंसा प्रत्यक्ष आक्रमण के रूप में परिणत ही जाय और क्रूर कर्मों में रस लेने की आदत बनकर मनुष्य के जीवन को निकृष्ट स्तर तक पहुंचा दे। यह मानसिक हिंसा जब बाह्य जीवन में आकर प्रकट होती है तो व्यक्ति किस स्थिति तक पहुंच जाता है; इसकी कल्पना नहीं की जा सकती और कितना क्रूर हो उठता है—निष्ठुर बन जाता है यह भी नहीं कहा जा सकता। संसार के कुछ क्रूर व्यक्तियों के क्रिया कलाप देखें तो विदित हो सकता है कि उनकी निष्ठुरता कैसे कैसे अनर्थ करती थी।

नमरी शाह के सम्बन्ध में सर्वविदित है कि वह जर्मन में गड़रिया था। भेड़ चराते-चराते डाकेजनी करते हुए दूसरे डाकुओं को अपने नियंत्रण कर डाकुओं का सरदार बन बैठा। इसी प्रकार वह ईरान की गद्दी पर जा बैठा। शासन सत्ता को अपने हाथ में लेने के बाद यदि वह चाहता तो इतिहास पुरुष बन सकता था और अपनी प्रतिभा का उपयोग जनहित में कर लाखों व्यक्तियों का वन्दनीय बन सकता था। पर उसके व्यक्तित्व में विद्यमान थे क्रूरता के—नृशंसता के तत्व। ईरान का शासक बनकर उसे पर पीड़ा में—नर हत्या में रस आने लगा और उसने कई देशों में कत्लेआम मचाया। भारत आकर उसने दिल्ली लूटी और एक दिन में डेढ़ लाख आदमी कत्ल कराये। दिल्ली प्रायः उजड़ हो गई। भवन निर्माण कला के विशेषज्ञ जितने भी मिले उन सबको कैद करके वह ईरान ले गया।

जर्मनी का हिटलर नृशंसता में अपने वर्ग के सभी साथियों को पीछे छोड़ गया। उसका ख्याल था कि प्रथम महायुद्ध में जर्मनी यहूदियों के कारण ही हारा; इसलिये उसने उसका प्रतिशोध अगली पीढ़ी से जाति वध के रूप में लिया। उसमें लगभग 50-60 लाख यहूदियों को विषैली गैस से दम घोट कर मार डाला।

अभी अभी बंगला देश में पाकिस्तानी बूचरों ने 30 लाख बंगालियों को इस तरह कत्ल किया जैसे किसान घास चारे की कुट्टी कूटता है। दया और मनुष्यता से अपरिचित इन बधिकों को किन शब्दों से अलंकृत किया जाय? ऐसे ही नृशंस असुर-कृत्य इतिहास में पहले भी दृष्टिगोचर होते रहे हैं और मनुष्यता उन पिशाचों से पहले भी कलंकित होती रही है।

21 अक्टूबर सन् 1941 का दिन यूगोस्लाविया की जनता के लिए सबसे नृशंस दिन है। उस दिन सात हजार निरपराध नागरिकों और स्कूलों में पढ़ रहे बालकों को एक साथ मौत के घाट इस अपराध में उतारा था कि वे अपने देश को प्यार क्यों करते हैं आक्रमणकारी नाजियों की सहायता क्यों नहीं करते।

29 नवम्बर 43 को नये यूगोस्लाविया की नींव पड़ीं। उस दिन इस देश के निवासियों ने नाजियों के पंजे से मुक्ति पाकर अपने को स्वतन्त्र घोषित किया। क्रागुजेवर में शहीदों का समाधि स्थल बना है जहां हर वर्ष राष्ट्रीय दिवस पर वहां की जनता अपने शहीदों को भाव भरे अश्रुओं के साथ श्रद्धांजलि अर्पित करती है। वेनेडिक्ट कार्पजे सन् 1620 से 1666 तक लिपजिंग (जर्मनी) के सेशन कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रहा। वह बड़ी कठोर और क्रूर प्रकृति का था। छोटे से जुआ, उठाईगीरी, जादू-टोना जैसे अपराधों में भी वह मृत्यु दण्ड ही देता था। मानो इससे हलकी सजा की बात उसने पढ़ी ही न हो। उसने अपने 46 वर्ष के लम्बे कार्य काल में 30 हजार पुरुषों और 20 हजार स्त्रियों को फांसी के तख्ते पर चढ़वाया। स्त्रियों में से तो अधिकांश जादू-टोना करने के सन्देह में पकड़ी गई थीं।

कार्पंजे फांसी लगने का दृश्य देखने में बहुत रस लेता था और यह व्यवस्था देखने खुद जाता था कि मृतकों का मांस खाने के लिये रखे गये शिकारी कुत्ते तथा दूसरे जानवर यथा समय पहुंचे या नहीं। औसतन प्रतिदिन 5 व्यक्तियों को उसने फांसी पर चढ़वाया। दया करना तो उसने सीखा ही नहीं था, उसकी कुरुचि ने असंख्य निर्दोषों को करुण विलाप करते हुए अकारण मृत्यु के मुख में धकेला। आश्चर्य यह था कि यह निष्ठुर न्यायाध्यक्ष—नियमित रूप से गिरजाघर जाता था। प्रार्थना करता था। बाइबिल पढ़ता था और अपने को बड़े गर्व से धार्मिक कहता था।

चंगेज खां का बेटा ‘हलाकू खां’ भी अपने बाप की तरह निर्दय था। उसने ईरान पर चढ़ाई करके उसकी ईंट से ईंट बजा दी। खलीफा को खत्म किया—इस्लामियों का सफाया किया और उस देश को खून से रंग दिया।

तैमूर लंग वलख की गद्दी पर 1359 में बैठा। उसकी निर्दयता रोमांचकारी थी। उसने अपने शत्रुओं के रक्त और हड्डियों का गारा बनाकर कितनी ही मीनारें चिनवाईं। अंकारा के सुलतान वायजीद को उसने पकड़ा एक पिंजड़े में उसे बन्द किया और उसे अपने साथ ले गया। दिल्ली लूटा ही नहीं सारे शहर को लाशों से पाट दिया। इस तरह उसने न जाने कितने नगरों और गांवों में कत्लेआम कराया। खड़ी फसलों और बस्तियों में आग लगाते हुए वह आगे बढ़ता था।

बारहवीं सदी का मंगोल शासक चंगेज खां अपने लड़ाकू साथियों सहित जहां भी चढ़ाई करता पहला काम कत्लेआम कराने का पूरा करता। लूट के धन से उसे जितनी खुशी होती थी उससे ज्यादा मजा उसे बिलखते चीत्कार करते नर-नारियों के सिर उड़ाने और भाले भौंकने में आता। 49 वर्ष की आयु में वह चीन का शासक बन बैठा। उसने अनेकों नगर गांव उजाड़े। रूस का एक नगर तो उसने लाशों से इस तरह पाट दिया कि उन्हें उठाने वाला भी कोई नहीं बचा। बदबू से भयंकर बीमारी फैली यहां तक कि उसे स्वयं, उस नगर का कब्जा छोड़कर भागना पड़ा।

रोम का शासक नीरो 14 वीं शताब्दी में नौ वर्ष तक सिंहासनारूढ़ रहा। उसने अपने करुणामयी माता का कत्ल करवाया, अपनी पत्नी का सिर कटवा डाला, जिन अफसरों से उसकी अनबन हुई देखते-देखते उन्हें मौत के घाट उतार दिया। एक बार उचंग आई तो पूरा शहर ही जलवा कर खाक करा दिया और उस अग्निकाण्ड में होती हुई धन जन की भारी हानि का दृश्य एक अच्छे खासे मनोरंजन के रूप में ऊंची पहाड़ी पर बैठा देखता रहा। उस सर्वनाश का मजा उसने बांसुरी बजाते हुए लूटा।

मृतात्माओं को सुख-सुविधा पहुंचाने, के विचार से उनके हितैषी यह प्रयत्न करते थे कि परलोक में उपलब्ध रहने की दृष्टि से उनके मृत शरीर के साथ उपयोगी वस्तुएं भी—गाड़ी या जलाई जायं। भारत में मृतक की जीवित पत्नी को मृत शरीर के साथ जलने की प्रथा रही है जिसमें यह सोचा जाता था कि जीवित पत्नी अपने पति के साथ जलकर परलोक में उसकी सेवा करती रह सकेगी।

मिस्र में यह प्रथा सत्ताधीशों के मृत शरीर को परलोक में अधिक सुखी बनाये रखने की दृष्टि से विशालकाय ‘पिरामिड’ स्मारक बनाये गये और उनके भीतर सुख-सुविधा के अनेकानेक साधन रखने का प्रचलन किया गया।

यह तथ्य बताते हैं कि मनुष्य अपने प्रियजनों की सुविधा के लिए अनेकों गिरोहों का किस प्रकार और किस हद तक उत्पीड़न कर सकता है।

रोडेशिया में जब सीथियस सभ्यता का बोलबाला था तब राजा की अन्त्येष्टि बहुत शान से होती थी। उसकी लाश में से आंतें निकालकर मसाला भरा जाता था ताकि शरीर बहुत समय तक सड़े नहीं, उसे सुसज्जित रथ में रखकर देश भर में घुमाया जाता था ताकि प्रजाजन उसका दर्शन कर सकें। प्रजा इस मृतक के लिए धन भेंट करती थी और कान का थोड़ा सा टुकड़ा काट कर बलि प्रतीक के रूप में रखना पड़ता था। सभी प्रजाजन मुण्डन कराते थे और समाधि बनाने में श्रमदान करते थे।

इतिहासकार हेकोडोटस ने लिखा है राजा के शव के साथ अन्तःपुर की रानियों में से कम से कम एक को गला घोंटकर मार डाला जाता था और उसे साथ ही दफन किया जाता था। पचास घोड़े तथा पचास सेवक भी मारकर गाढ़े जाते थे ताकि वे परलोक में वाहन एवं सेवकों की आवश्यकता पूरी कर सकें।

तुर्क तातार सरदारों की अन्त्येष्टि और भी भयंकर थी। शव यात्रा लम्बी होती थी और उस रास्ते में जो भी मिल जाता उसे यह कहकर कत्ल कर दिया जाता था कि—‘‘जाओ परलोक में अपने स्वामी की सेवा करना।’’

इतिहासकार मार्कोपोलो ने एक सरदार मंगूखां की शवयात्रा का वर्णन किया है जिसमें सामने पड़ने वाले 20 हजार व्यक्तियों का कत्ल किया गया था।

वर्तमान रूस के कृष्ण सागर तटवर्ती इलाके में वोल्गा, यूराल, दोन, तथा रूमानिया, हंगरी, बालगेरिया, साइबेरिया क्षेत्रों में ऐसी अनेक कब्रें मिली हैं जिनकी खुदाई में न केवल स्वर्ण जटित रत्न आभूषण मिले हैं, वरन् मनुष्यों एवं पशुओं के कंकाल भी मिले हैं। समझा गया है कि सत्ताधीशों अथवा श्रीमन्तों को परलोक में सुख-सुविधाएं पहुंचाने की दृष्टि से ही यह वस्तुएं तथा प्राणी दफनाये गये हैं। यह मकबरे ईसा से 6 शताब्दी पूर्व से लेकर ईसा की तीसरी सदी तक नौ सौ वर्ष की अवधि के बीच के माने गये हैं। मिश्र के पिरामिडों में यह प्रचलन चरम सीमा तक पहुंचा हुआ सिद्ध होता है जहां रानियां, दास-दासियां, वाहन, वस्त्र, आभूषण आदि अनेकानेक सुख-साधन बहुत बड़ी मात्रा में तथा बड़े सुसज्जित ढंग से मृतक राजाओं के साथ दफनाये गये हैं।

मनुष्य के भीतर छिपी हुई असुरता अनेक आवरणों में होकर झांकी है। लोभ से प्रेरित होकर वह चोरी, डकैती, जालसाजी, बेईमानी, रिश्वत आदि का रूप धारण करती है। अहंकार और आतंक का दर्प लेकर वह उत्पीड़न, शोषण, हत्या आदि क्रूर कर्मों में बदल जाती है।
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