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Books - सहृदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य

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Language: HINDI
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मांसाहार की घृणित असभ्यता

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इन दिनों मांसाहार की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती जा रही है। लोग स्वाद के वशीभूत हो कर मांस भक्षण करते हों अथवा पौष्टिक तत्वों की प्राप्ति के लिए—इससे आत्मिक स्थिति पर तो बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। नैतिकता की दृष्टि से आध्यात्मिकता की दृष्टि से भी मांसाहार का औचित्य सिद्ध नहीं होता।

किसी भी दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाय तो किसी भी अधम पर मांसाहार का औचित्य सिद्ध नहीं होता और न ही यह विश्वास किया जा सकता है कि मांस हमारा स्वाभाविक आहार है। प्रथम तो यही कि मांस हमारी आत्मिक स्थिति को पतित और निकृष्ट बनाता है। इसलिये वह हमारा स्वाभाविक आहार नहीं हो सकता। हम इस संसार में सुख-शांति और निर्द्वंदता का जीवन जीने के लिये आये हैं। आहार हमारे जीवन धारण की सामर्थ्य को बढ़ाता है, इसलिये पोषण और शक्ति प्रदान करने वाला आहार तो चुना जा सकता है, किन्तु जो आहार हमारी मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों को नष्ट करता हो, वह पौष्टिक होकर भी स्वाभाविक नहीं हो सकता। हमारे जीवन की सुख-शांति शरीर पर उतनी अवलम्बित नहीं, जितना इनका संबंध मन, बुद्धि और आत्मा की शुद्धता से है। इसलिये जो आहार इन तीनों को शुद्ध नहीं रख सकता, वह हमारा स्वाभाविक आहार कभी भी नहीं हो सकता।

बहुत स्पष्ट बात है। जंगल के शेर, चीते, भेड़िये, भालू, लकड़बग्घे मांसाहार करते हैं, इन्हें देखकर लोग कहते हैं कि शक्तिशाली होने के लिये मांसाहार आवश्यक है। उनकी एक दलील वह भी होती हैं कि मांस खाने की प्रेरणा स्वयं प्रकृति ने दी है, समुद्र की बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को, जंगल के बड़े जन्तु छोटे जीवों को मारकर खाते रहते हैं? प्रकृति ने मानवेतर प्राणियों की संख्या न बढ़ने देने के लिये ऐसी व्यवस्था की है पर मनुष्य उन परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न है, जिनमें अन्य जीव-जन्तु जन्म लेते, बढ़ते और विकसित होते हैं। शेर, चीते मांसाहारी होने के कारण बलवान् होते हैं पर उनमें इस कारण दुष्टता और अशांति से जो संशयशीलता उत्पन्न होती है, वह उन्हें भयग्रस्त और कायर बना देती है। शेर दिन भर भय ग्रस्त रहता है। चीते और भेड़िये खूंखार होने के अतिरिक्त समय केवल इसी प्रयत्न में रहते हैं कि कहां छिपे रहें, जिससे कोई उन्हें देख न लें या मार न डाले। सांप, चलते हुए इतना भय ग्रस्त होता है कि सामान्य सी खटक से भी वह बुरी तरह घबड़ा जाता है। मनुष्य भी यदि मांसाहार करता है तो उसमें भी स्वभावतः ऐसी संशयशीलता, अविश्वास और भय की भावना होनी चाहिये। यह बुराइयां मनुष्य को सदैव ही अधःपतित करती रही हैं।

द्वेष, घृणा और मनोमालिन्य का बाजार गर्म है। साथ-साथ रहने वाले भी केवल शिष्टाचार का निर्वाह करते हैं। सहानुभूति, स्नेह, सेवा और करुणा के तत्व धीरे-धीरे घटते चले जा रहे हैं। अपने आप में सीमित रहने और अपनी सुविधा को ही महत्व देने वाली प्रवृत्ति इतनी अधिक बढ़ गई है कि दूसरे के दर्द में सहायता करना तो दूर उलटे उसमें रस लेते हुए परपीड़ा को अच्छा-खासा विनोद माना जाने लगा है। अब बड़े जानवर तो शिकार के लिए उतने नहीं मिलते, पर मछली और चिड़ियां मारने, पकड़ने को एक मनोरंजन मान लिया गया है। आर्थिक लाभ के लिए छोटे-बड़े शिकार करने की अपेक्षा उन लोगों की संख्या अधिक है जो सिर्फ एक खेल की तरह यह सब करते हैं। निशाना साधने का अभ्यास करने के लिए चिड़ियों को—फंसाने की कला में प्रवीणता पाने के लिए मछलियों को मारा जाता है।

मांसाहार के पीछे स्वाद की बात प्रधान नहीं होती क्योंकि वस्तुतः वह फल, मेवा, दूध, घी आदि की तुलना में कहीं अधिक घटिया होता है। गंध तो और भी अधिक घिनौनी होती है। सिद्ध हो चुका है कि मांस की तुलना में सोयाबीन में प्रोटीन अधिक मात्रा में है और अधिक निर्दोष है। विटामिन ए. गाजर जैसे सस्ते पदार्थों में पर्याप्त है। मांस दुष्पाच्य भी है, महंगा भी और पकाने में बहुत झंझट भरा भी। इतने पर भी मांसाहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण लोगों में हिंसा के प्रति उत्साह और दूसरों को कष्ट देने में अपना पराक्रम दिखाने की छिपी इच्छा बलवती रहती है। किसी को उजाड़ने, बर्बाद करने और पीड़ा में चीत्कार करने का अपने आपको निर्मित बनाते हुए लोग अपने आपको साहसी, शूरवीर, पराक्रमी, विजेता, प्रगतिशील आदि ने जाने क्या-क्या अनुभव करते हैं। आतंकवाद इसी आधार पर पनपता है। गुण्डागर्दी और दुष्टता की घटनायें इसी आधार पर होती हैं। और इसी प्रवृत्ति से मांसाहार को बढ़ते हुए लोक उत्साह के साथ जुड़ा हुआ देखा जा सकता है।

मांसाहार के पक्ष में जितनी भी दलीलें प्रस्तुत की जा सकती हैं, उन सबको काट देने के लिए एक ही तर्क बहुत बड़ा है कि उससे निरीह प्राणियों का अकारण विनाश होता है और उसके साधन जुटाने मनुष्य की सर्वोपरि गरिमा संवेदना सहानुभूति को भारी आघात लगता है। निष्ठुरता—सम्वर्धन की यह क्रिया मनुष्य के स्वभाव का अंग बनती जाती हैं और फिर वह मनुष्य समाज में भी प्रयुक्त होती है। लोग परोक्ष रूप से एक दूसरे को जाल में फंसाते और परस्पर रक्तपात करते हैं। इस चपेट में अपना प्रिय परिवार भी आ जाता है। लोग अपने छोटे से स्वार्थों के लिए अपने आश्रितों, कुटुम्बियों, स्वजनों, मित्रों के हितों का किस प्रकार बलिदान करते रहते हैं इसके दुःखद दृश्य हम अपने चारों ओर बिखरे हुए पर्याप्त मात्रा में देख सकते हैं और यह अनुमान लगा सकते हैं कि निष्ठुरता किस कदर बढ़ती जा रही है। कहना न होगा कि यदि निष्ठुरता की जड़ मनः क्षेत्र में जम जायं तो मनुष्य निकृष्ट कोटि का स्वार्थी बन जायगा और फिर सहज ही आक्रामक बनने के लिए तत्पर रहेगा। स्नेह सौजन्य की घटती हुई संवेदनाएं वस्तुतः मानवी जीवन को नीरस, कर्कश, कलह ग्रस्त और असुरक्षित बनाती हैं इसमें समस्त समाज के लिए—समस्त संसार के लिए भयंकर सम्भावनाओं के विष बीज छिपे हुए हैं।

शक्ति भी कहां मिलती हैं

मांसाहार से शरीर में शक्ति आती है, यह ख्याल करना बिल्कुल गलत है कुछ दिन पूर्व कानपुर के किन्हीं ऐसे दो अखाड़ों के पहलवानों में कुश्तियां हुईं जिसमें एक अखाड़े के पहलवान अधिकांश मुसलमान थे और मांस भक्षण करते थे और दूसरे में सब हिन्दू थे जो विशुद्ध दूध, फल, घी और मेवों का इस्तेमाल करते थे। इस प्रतियोगिता में उस समय लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मुसलमान पहलवानों में से एक भी विजयी नहीं हुआ जबकि देखने में वे अधिक मोटे ताजे थे। इस घटना से अखाड़े का उस्ताद इतना प्रभावित हुआ कि उसने तमाम मुसलमान पहलवानों का मांसाहार बन्द करा दिया।

सन् 1898 में एक ऐसी ही प्रतियोगिता जर्मन में हुई। इसमें मांसाहारियों और शाकाहारियों में सत्तर मील पैदल चलने की होड़ हुई। प्रतियोगिता में बीस मांसाहारी थे, 6 शाकाहारी। शाकाहारी मांसाहारी से बहुत पहले गन्तव्य स्थान पर पहुंच गये। सबसे कम समय, 14 घन्टे में सत्तर मील की दूरी तय करने वाला शाकाहारी ही था। सन् 1899 में क्वेटा नामक एक स्थान में एक ऐसी ही दिलचस्प रस्साकसी प्रतियोगिता रखी गई। इसमें एक ओर मांसाहारी अंग्रेज थे दूसरी ओर सिख रेजिमेण्ट के निरामिष जवान। कुछ देर की खींचतान के बाद अंग्रेज जवानों के हाथ छिल गये और उन्हें रस्सा छोड़ना पड़ा शाकाहारी जवानों की उसमें जीत हुई। इस प्रकार के कई उदाहरण हैं, जो पुष्ट करते हैं कि शाकाहारी अधिक शक्तिशाली होते हैं।

मांस में स्थूलता बढ़ाने वाले तत्व हो सकते हैं पर दुर्बुद्धि, क्रोधी स्वभाव, असहिष्णुता, आलस्य कोष्ठबद्धता अमानवता जैसे दुर्गुण भी मांसाहार में ही होते हैं। मानव अन्तःकरण को प्रिय लगने वाले समस्त गुण शाकाहारी से उपलब्ध होते हैं—यह बात प्रकृति के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है।

स्वामी वीर जी एक बार शाकाहार के समर्थन में व्याख्यान दे रहे थे—‘‘बैल और घोड़े शाकाहारी जीव हैं उनमें बोझा ढोने और दौड़ने की शक्ति सर्वाधिक होती है। घोड़े की शक्ति तो मशीन से भी बढ़कर होती है। यदि मनुष्य केवल एक ही आहार भर पेट लेता रहे तो घोड़े की तरह मशीनों को भी परास्त करने वाला हो सकता है।’’

‘‘हाथी का बल विख्यात है वह भी शाकाहारी ही होता है’’—इस पर एक मांसाहारी सज्जन ने तर्क किया कि यदि हाथी अधिक बलवान् होता है तो शेर उसे क्यों परास्त कर देता है?—श्री वीर जी ने कहा—यदि आपके मन में यही भ्रम है तो आपको जानना चाहिए कि शेर को तो सुअर परास्त कर देता है जबकि शेर मांसाहारी होता है और सुअर अमांसाहारी। शेर आवेश, छल और धोखे से आश्चर्य चकित करने वाले आक्रमण के कारण कभी हाथी को जीत लेता हो वह बात अलग है सीधे मुकाबले में हाथी का कभी भी शेर मुकाबला नहीं कर सकता? एक और भी बात यह है कि हाथी पत्ता, घास, छाल, फल, दाना चाहे जो कुछ पा जाये खा जाता है तमाम तरह का आहार ठूंसते रहने के कारण वह जितना बलवान् होता है उतना बुद्धिमान नहीं, शेर बुद्धिमान होता है इसलिये भी वह एकाएक हमले में जीत सकता है पर हाथी के मुकाबले वह देर तक ठहर नहीं पाता।

इंग्लैण्ड के प्राणि शास्त्री डा. इयेन हैमिल्टन ने अफ्रीका में रहकर लम्बे समय तक हाथियों के जीवन का अध्ययन किया वे दुनिया के सबसे बड़े हाथी विशेषज्ञ माने जाते हैं लिखते हैं कि हाथी से शेर कभी जीत जाता हो यह अलग बात है वरना हाथी कभी शेर से डरता नहीं। एकबार मैंने देखा कि एक शेर ने हाथी के एक बच्चे पर धोखे से हमला कर दिया—उसकी मां पास ही थी वह दौड़ी और सिंह से भिड़ गई और उसे पांवों से रौंदकर मार डाला। सत्य यह है कि शेर हाथी से डरते हैं और उनसे सीधे मुकाबले से सदैव कतराते हैं।’’

शक्ति की अपेक्षा मानवीय गुणों का महत्व अधिक है। गुणों पर ही व्यक्ति, परिवार समाज और विश्व की सुख शांति आधारित है। जहां मांसाहार दुर्गुणों का पोषण करता है वहां शाकाहार सद्गुणों की रक्षा और विकास। इसलिये मांसाहार मानवता का पाप है वहां शाकाहार एक पुण्य भी। ऊंट शाकाहारी जीव है वह सर्वाधिक सहिष्णु होता है, सर्प मांस खाता है जबकि फुदकती रहने वाली क्रियाशील गिलहरी शाकाहारी होती है। समय पर यदि क्रोध और युद्धप्रियता अनिवार्य हो तो वह भी शाकाहार में हैं भैंसा शाकाहारी जीव है उसकी युद्धप्रियता और क्रोधी स्वभाव के आगे शेर तक हार मानते हैं। हिरण के शरीर जैसी लचक खरगोश जैसे जीव की उछाल और मेढ़ें की सी प्रतिद्वन्द्विता की शक्ति मांसाहारी जीवों में नहीं होती इससे यह सिद्ध होता है कि मानवता की रक्षा वाले सभी गुण शाकाहार में हैं मांसाहार में नहीं।

मांसाहार मनुष्य की आत्मिक और शारीरिक दोनों ही प्रकृतियों के विपरीत हैं। मानवी अन्तरात्मा दयालु तत्वों से बनी हुई है किसी कष्ट पीड़ित को देखकर उसमें सहज करुणा उत्पन्न होती है। दूसरों के दुःख में दुःखी और दूसरों के सुख में सुखी होने की उसकी आन्तरिक विशेषता है। इसे वह हटा मिटा नहीं सकता।

प्राणियों का प्राणहरण करके अपने लिए भोजन जुटाने में उसकी आत्म-सत्ता व्यथित एवं उद्विग्न ही हो सकती है। स्वाद, बल आदि का कोई भी बहाना क्यों न बनाया जाय आत्म ग्लानि और आत्म प्रताड़ना को शान्त नहीं किया जा सकता है। जबकि मांस से भी अधिक बलवर्धक और स्वाद परक पदार्थ संसार में प्रचुर परिमाण में एवं सस्ते मूल्य में उपलब्ध हैं तब मांस की ओर लपकना केवल आसुरी वृत्ति को तुष्ट करना ही एकमात्र कारण हो सकता है। ऐसे लोगों की अन्तः चेतना सदा अपने को अपराधी ही अनुभव करती रहेगी। पुण्य-पाप की मान्यता मात्र धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही नहीं मनःशास्त्र के आधार पर भी खरी सिद्ध होती है। आत्म हनन करने वाले अनेक अप्रत्यक्ष आधारों पर आधि-व्याधियों से ग्रसित होते रहते हैं और अपने कुकर्मों का समुचित दण्ड भोगते रहते हैं।

भौतिक दृष्टि से—शरीर रचना के साथ आहार की संगति बिठाने वाली प्रकृति व्यवस्था की दृष्टि से भी मांसाहार मनुष्य प्राणी के लिए किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं बैठता। मनुष्य की शरीर रचना शाकाहारी प्राणियों जैसी है मांसाहारियों जैसी नहीं।

मांस पौष्टिक और मनुष्य के लिए उपयोगी खाद्य-पदार्थ है इस मूढ़ मान्यता को अब वैज्ञानिक शोधें निरन्तर झुठला रही हैं और बता रही हैं कि वह अखाद्य है, अभक्ष्य है। इसे खाकर लोग स्वास्थ्य बढ़ाते नहीं गंवाते ही हैं।

अमेरिका के आहार शास्त्री एल.एच. एन्डरसन ने अपने भोजन विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ में लिखा है—‘‘हम सभ्यताभिमानियों के हाथ, मूक और उपयोगी पशुओं के रक्त से रंगे हैं। हमारे माथे पर उनके खून का कलंक है। हमारा पेट एक घिनौना कब्रिस्तान है। शरीर की दुर्गन्ध हमारे मुख से निकल रही है। क्या यही मानवोचित आहार है। आहार के नाम पर परमात्मा की हंसती खेलती कृतियों को चीत्कार भरे क्रन्दन में धकेल देना यह भूख बुझाना नहीं, राक्षसी वितृष्णा का परिपोषण करना है।

प्रकृति के भी विपरीत

मनुष्य की प्रकृति शाकाहारी है या मांसाहारी इसका पता लगाना हो तो उसकी शरीर रचना पर ध्यान देना होगा। शाकाहारी प्राणियों की आंतें लम्बी होती हैं और मांसाहारियों की अपेक्षाकृत छोटी। मनुष्य की आंतें बन्दर जैसी शाकाहारियों के स्तर की होती हैं। शाकाहारियों की आंतें उनके शरीर की लम्बाई में 22 प्रतिशत होती हैं और मांसाहारियों की 5 प्रतिशत। अन्नाहार करते करते मनुष्य की आंतें घास खाने वालों की तुलना में कुछ छोटी अवश्य हो गई हैं फिर भी 12 प्रतिशत से कम नहीं होतीं। ऐसी दशा में उसे मांसाहारी वर्ग में नहीं गिना जा सकता।

भोजन करने के प्रधान माध्यम दांत हैं। उन्हीं से वह कुचले और चबाये जाने के उपरान्त पचने योग्य बनता और पेट में जाता है। प्रकृति ने निर्धारित आहार के अनुरूप दांतों की संरचना की है। बाघ, चीते, कुत्ते, बिल्ली आदि के दांत मांस की नोंच-नोंच कर खाने योग्य नुकीले बनाये गये हैं और चीर-फाड़ के लिए दो दांत अधिक बड़े और अधिक मजबूत बनाये गये हैं। इसके विपरीत शाकाहारी गाय, बकरा, घोड़े, गधे आदि के समतल और छोटे होते हैं। मनुष्य की दन्त रचना भी शाकाहारी वर्ग की है। इसके अतिरिक्त मांसाहारी जीवों के दांत लम्बे नुकीले और कुछ पीछे की ओर मुड़े होते हैं ताकि वे शिकार को पकड़ने और मारने में सफल हो सकें। उनके जबड़े ऊपर नीचे उठ बैठ सकते हैं इधर-उधर घूम नहीं सकते। उनकी लार में स्टार्च पचाने के लिए आवश्यक एनजीम और टियालिन बहुत कम होते हैं। इसके स्थान पर उनकी पाचन ग्रन्थियों में हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिला रहता है इसके कारण शिकार की हड्डियां भी मांस की तरह ही लचीली बन जाती हैं शिकारियों की डाढ़ें अधिक होती हैं ताकि वे वनस्पति आहार को चबा सकें। इन कसौटियों पर कसने में मनुष्य विशुद्ध शाकाहारी सिद्ध होता है उसकी शरीर रचना में प्रकृति ने एक भी विशेषता वैसी पैदा नहीं की है जो मांसाहारियों में पाई जाती है।

मांसाहारी प्राणियों के बच्चे आंख मूंदे पैदा होते हैं। शाकाहारियों की आंखें खुली होती हैं। मांसाहारियों के शरीर से पसीना नहीं निकलता उनकी जीभ तथा पैरों के तलवों से पसीना आता है।

मांसाहारी जीभ से चाट-चाटकर पानी पीते हैं और शाकाहारी घूंट-घूंटकर पीते हैं। उनकी आंखें इस तरह की बनी होती हैं कि अन्धेरे में भली प्रकार देख सकें। शाकाहारी जैसा दिन में देख पाते हैं वैसा उनकी आंखें रात में नहीं देख सकतीं। मांसाहारियों की आंखें अंधेरे में चमकती हैं, शाकाहारियों की नहीं।

मांसाहारी जानवरों के बच्चे जन्मते समय आंख बन्द किये हुए पैदा होते हैं कई दिन बाद उनकी आंखें खुलती हैं शाकाहारियों के बच्चे आंख खोले पैदा होते हैं। मनुष्य ऐसा ही है।

मांसाहारी जीवों के शरीर से पसीना नहीं निकलता इसलिए उससे तेज गंध आती रहती है। शाकाहारियों के शरीर से पसीना निकलता है।
मांसाहारी जीभ लपलपाते हुए चप-चप करके पानी पीते हैं। इसके विपरीत शाकाहारी घूंट भरकर पीते हैं।

शाकाहारी रात में सोते और दिन में जागते हैं। इसके विपरीत मांसाहारी सोते बेखबर प्राणियों को पकड़ने के लिए रात में विचरते हैं अस्तु उनकी आंखें अन्धेरे में देख सकने योग्य चमकीली होती हैं। शाकाहारियों की आंखें दिन में और मांसाहारियों की रात में काम कर सकने योग्य बनी होती हैं। मनुष्य की आंखें दिवाचरों की तरह ही बनी हैं। मांसाहारी शिकार के शरीर को अपने दांतों और पंजों से दबोच सकते हैं, फाड़ चीर करके खा सकते हैं और कच्चा मांस पचा सकते हैं। ऊपर से चमड़ी बाल आदि उतारने की जरूरत नहीं पड़ती, भेड़िये तो हड्डी तक पचा जाते हैं। शाकाहारी वैसा नहीं कर सकते। मनुष्य के लिये बिना पका मांस पचाना संभव नहीं। हड्डी आंतें, बाल, चमड़ी आदि अनेक भाग हटाकर वह केवल मांस पेशियां ही पका कर खा पाता है उसकी मूल प्रकृति मांसाहारियों जैसी है ही नहीं।

‘मनुष्य’ प्रकृतितः शाकाहारी है। वनस्पति भोजी प्राणियों के दांत चौड़े और आंतें लम्बी होती हैं, उन्हें आहार के पचाने में देर लगती है तथा सड़न का खतरा कम है, इसलिए लम्बी आंतों की आवश्यकता समझी गई और वैसा ही पेट बन गया। वनस्पति खाने के लिए—कुतरने-चबाने के लिए जिस प्रकार के दांत चाहिए वैसे चौड़े दांत मनुष्य के हैं। मांसाहारियों की स्थिति भिन्न है। मांस चीरने-फाड़ने के लिए नुकीले दांतों और पकड़ने कसने वाले होठों की आवश्यकता रहती है। मांस पेट में पहुंचने पर जल्दी सड़ता है—उसे जल्दी निकाल बाहर करना आवश्यक होता है, अस्तु हिंस्र प्राणियों की आंतें छोटी होती हैं। मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों की स्थिति में भिन्नता स्पष्ट है। मनुष्य यदि अपनी शाकाहारी जाति छोड़कर मांसाहारी आदतें बदले तो प्रकृति उसके अवयवों को उसी आधार पर बदल देगी। तब हमारी आंतें छोटी हो जायेंगी और दांत नुकीले। मल-विसर्जन अब की अपेक्षा अधिक जल्दी-जल्दी करना पड़ेगा। इस परिवर्तन से वनस्पति पचाने वाले संस्थान से वंचित होना पड़ेगा। यदि उभय-पक्षी क्रम अपनाया गया तो दोनों में से एक भी स्तर स्थिर न रहेगा और स्थिति अधर में लटक जायेगी। वर्तमान नीति शाकाहार और मांसाहार को मिलाकर चलने की—प्रकृति के द्विपक्षीय वर्गीकरण में से एक को भी स्वीकार न करने से विचित्र बन जायगी। तब हमारा पेट न शाकाहार पचाने की स्थिति में रहेगा और न ठीक तरह से मांस ही हजम होगा। यदि परिवर्तन ही अभीष्ट हो तो शाकाहार छोड़कर मांसाहार को पूरी तरह अपना लिया जाय। चीते, भेड़िये, बाज, गिद्ध जैसे पशु-पक्षी विशुद्ध मांसाहारी होने से अपनी शारीरिक स्थिति ठीक बनाये हुए हैं। बन्दर, गाय, घोड़े जैसे शाकाहारी प्राणी भी अपना अस्तित्व ठीक से बनाये रहेंगे। कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जो आरम्भ से ही शाक और मांस पचाने की प्रकृति लेकर आये हैं उनकी संरचना मध्यता है। पर मनुष्य पर यह मध्यवर्ती कानून लागू नहीं होता। चीता घास पर रहेगा या गाय-मांस खाएगी तो उसे अपने वर्तमान स्तर को समाप्त ही करना पड़ेगा। मनुष्य की दुमुंही नीति उनके लिए अन्ततः घातक ही सिद्ध होगी।

शाकाहारी प्राणी प्रातः उठते और संध्या होते ही विश्राम करने लगते हैं। मांसाहारी दिन में पड़े सुस्ताते रहते हैं और रात्रि होते ही अपने आहार की तलाश में निकलते हैं। दोनों ही जाति वाले अपने काम करने और विश्राम करने की मर्यादा पालन करते हैं, फलतः वे अपनी शारीरिक स्थिति सही बनाये रहते हैं। मनुष्य ने दिन को रात तो उतना नहीं बनाया, पर रात्रि को दिन बनाने की दिशा में अति बरतना आरम्भ कर दिया है; बहुत रात्रि बीत जाने तक जागना, तरह-तरह के आवश्यक अनावश्यक कामों में उलझे रहना, आर्थिक अपना मनोरंजन की दृष्टि से लाभदायक हो सकता है, पर स्वास्थ्य सन्तुलन पर उसका घातक प्रभाव पड़ना निश्चित है।

प्रकृति ने प्राणियों को सुविधा साधनों के अजस्र अनुदान दिये हैं। पर साथ ही मर्यादा पालन और अनुशासन बरतने के लिए उन्हें बाध्य भी किया है। उच्छृंखलता बरत कर तत्काल तो कुछ पाया भी जा सकता है, पर अन्ततः वह बहुत ही घाटे का सौदा सिद्ध हो सकता है। मनुष्य बुद्धिमान तो है, पर प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाये रखने की सामर्थ्य उसमें नहीं है। परस्पर उच्छृंखलता बरतने की भी प्रतिक्रिया होती है फिर प्रकृति के अनुशासन को तोड़ना तो आग से खेलने की तरह है। रात्रि में देर तक जागने और तेज प्रकाश का आश्रय लेने पर हम नेत्रों की शक्ति ही नहीं गंवाते वरन् पूरे स्वास्थ्य सन्तुलन पर ही कुठाराघात करते हैं। इस प्रकार हम अपने स्वाभाविक आहार को छोड़कर अप्राकृतिक भोजन-मांसाहार की आदत बनाकर प्रकृति की मर्यादाओं की उपेक्षा ही करते हैं।

इसके अतिरिक्त परीक्षणों के दौरान यह भी देखा गया कि मांसाहारी जीवों को शाकाहारी भोजन देने से उनकी प्रकृति में भी परिवर्तन आता देखा गया। फूड एण्ड एनीमल नामक एक पुस्तक में इंग्लैण्ड के प्रख्यात वैज्ञानिक डा. एडवर्ड ने लिखा है कि—

‘‘कई मांसाहारी जीवों को कुछ दिन के लिये मांस देना बिलकुल बन्द कर दिया गया। इस अवधि में निर्वाह के लिये उन्हें घास, सब्जी और फल खाने को दिये गये। देखा गया कि ऐसा करने से कुछ दिन में ही इन जानवरों का उतावलापन मन्द पड़ गया, वे काफी शान्त रहने लगे, कम हिंसक हो चले।’’

‘‘एक दूसरे कमरे में कुछ शाकाहारी जीवों को रखकर उन्हें मांसाहार के लिये विवश किया गया। उनमें से कुछ ऐसे थे जिन्होंने तो आमरण अनशन ही कर दिया, उन्होंने मांस को सूंघा तक नहीं। अन्त में परीक्षण के लिये उन्हें अम्लीय (एसिडिक) आहार दिया गया। इससे उन पर बड़े दूषित प्रभाव दिखाई दिये, उनकी पाचन क्रिया अवरुद्ध हो गई और कई तरह के रोगों ने घेर लिया। उनमें अधिक स्वार्थपरता आ गई, उनका सौम्य स्वभाव नष्ट हो गया, वे गुर्राने और काटने तक लगे। पहले उनके पास जाने में उन्हें कोई भय नहीं लगता था। वे सकरुण आंखों से देखते रहते थे। पर इस तरह के प्रयोग के बाद उनमें संशयशीलता की मात्रा एकाएक बहुत अधिक हो गयी।’’
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Pragya Puran Stories -2
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संत विनोबा भावे
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Language: HINDI
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अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
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Language: HINDI
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Language: HINDI
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गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
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Articles of Books

  • असुरता की नृशंसता में परिवर्तन
  • मनुष्य चाहे तो नर पिशाच भी बन सकता है
  • कुसंस्कारों की अविराम श्रृंखला
  • आत्मिक प्रगति पर आत्मा का प्रभाव
  • मांसाहार की घृणित असभ्यता
  • स्वास्थ्य के लिए भी प्रतिकूल मांसाहार
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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