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Books - गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

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उपवास

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जिसके शरीर में मलों का भार संचित हो रहा हो उस रोगी की चिकित्सा आरम्भ करने से पहले चतुर चिकित्सक प्रथम उसे जुलाब देते हैं ताकि दस्त होने से पेट साफ हो जाय और औषधि अपना काम कर सके। यदि चिर संचित मल के ढेर की सफाई न की जाय तो औषधि भी उस मल के ढेर में मिलकर प्रभाव हीन हो जायगी। अन्न मय कोश की अनेक सूक्ष्म विकृतियों का परिमार्जन करने में उपवास वही काम करता है जो चिकित्सा से पूर्व जुलाब लेने से होता है।

मोटे रूप से उपवास के लाभों से सभी परिचित हैं। पेट में रुका अपच पच जाता है, विश्राम करने से पाचन अंग नव चेतना के साथ दूना काम करते हैं, आमाशय में भरे हुए अपक्व अन्न से जो विष उत्पन्न होता है वह नहीं बनता, आहार की बचत से आर्थिक लाभ होता है, आदि उपवास के लाभ ऐसे हैं जो हर किसी को मालूम हैं। डाक्टरों का यह भी निष्कर्ष प्रसिद्ध है कि ‘‘स्वल्पाहारी दीर्घजीवी होते हैं।’’ जो बहुत खाते हैं पेट को ठूंस ठूंस कर भरते हैं, कभी पेट को चैन नहीं लेने देते एक दिन की भी उसे छुट्टी नहीं देते वे अपनी जीवन सम्पत्ति को जल्दी ही समाप्त कर लेते हैं और स्थिर आयु की अपेक्षा बहुत जल्दी उन्हें दुनिया से बिस्तर बांधना पड़ता है। आज के राष्ट्रीय अन्न संकट में तो उपवास देश भक्ति भी है। यदि लोग सप्ताह में एक दिन उपवास करने लगें तो विदेशों से करोड़ों रुपये का अन्न न मंगाना पड़े तो अन्न सस्ता होने के साथ साथ अन्य सभी चीजें भी सस्ती हो जायें।

गीता में ‘‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन’’ श्लोक में बताया है कि उपवास से विषय विकारों की निवृत्ति होती है। मन का विषय विकारों से रहित होना एक बहुत बड़ा मानसिक लाभ है इसे ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म में प्रत्येक शुभ कार्य के साथ उपवास को जोड़ दिया है। कन्यादान के दिन माता-पिता उपवास रखते हैं। यज्ञोपवीत, व्रतवंध, समावर्तत, वेदारम्भ आदि संस्कारों के दिन ब्रह्मचारी को उपवास रखना पड़ता है। अनुष्ठान के दिन यजमान तथा आचार्य उपवास रखते हैं। नव दुर्गाओं के नौ दिन कितने ही स्त्री पुरुष पूर्ण या आंशिक उपवास रखते हैं। ब्राह्मण भोजन करने से पूर्व उस दिन घर वाले भोजन नहीं करते। स्त्रियां अपने पति तथा सास ससुर आदि पूज्यों को भोजन कराये बिना भोजन नहीं करतीं। यह आंशिक उपवास भी चित्त शुद्धि की दृष्टि से बड़े उपयोगी होते हैं।

स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास का असाधारण महत्व है। रोगियों के लिए तो इसे जीवन मूरि ही कहते हैं। चिकित्सा शास्त्र का रोगियों को एक दैवी उपदेश है कि ‘‘बीमारी को भूखा मारो।’’ भूखे रहने से बीमारी मर जाती है और रोगी बच जाता है। संक्रामक, कष्ट साध्य एवं खतरनाक रोगों में लंघन ही एक मात्र चिकित्सा है। मोतीझरा, निमोनिया, विशूचिका, प्लेग सन्निपात; टाइफ़ाइड जैसे रोगों में कोई भी चिकित्सक उपवास कराये बिना रोग को अच्छा नहीं कर सकता। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान में तो समस्त रोगों में पूर्ण या आंशिक उपवास को ही प्रधान उपचार माना गया है।

इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने भली प्रकार समझा था उनने हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्व स्थापित किया था।

अन्नमय कोश की शुद्धि के लिए उपवास की विशेष आवश्यकता है। शरीर में कई जाति की उपत्यिकाएं देखी जाती हैं जिन्हें शरीर शास्त्री ‘नाड़ी गुच्छक’ कहते हैं। देखा गया है कई स्थानों पर ज्ञान तन्तुओं जैसी बहुत पतली नाड़ियां आपस में लिपटी होती हैं। यह गुच्छक कई बार रस्सी की तरह आपस में लिपटे और बंटे हुये होते हैं। कई जगह यह गुच्छक गांठ की तरह ठोस गोली जैसे बन जाते हैं।

कई बार यह समानान्तर लहराते हुए सर्प की भांति चलते हैं और अन्त में इनके सिरे आपस में जुड़ जाते हैं। कई जगह इनमें से बरगद वृक्ष की तरह शाखा प्रशाखाएं फैली रहती हैं और इस प्रकार के कई गुच्छक परस्पर सम्बद्ध होकर एक परिधि बना लेते हैं। इनके रंग आकार एवं अनुच्छेद में काफी अन्तर होता है। यदि गहरा अनुसंधान किया जाय तो उनके ताप मान अणु पराक्रम एवं प्रतिभा पुंज में काफी अन्तर पाया जाता है।

वैज्ञानिक इन नाड़ी गुच्छकों के कार्य का कुछ विशेष परिचय अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं पर योगी लोग जानते हैं कि यह उपत्यिकाएं शरीर में अन्नमय कोश की बन्धन ग्रन्थियां हैं। मृत्यु होते ही सब बन्धन खुल जाते हैं और फिर एक भी गुच्छक दृष्टिगोचर नहीं होता। यह उपत्यिकाएं अन्नमय कोश के गुण दोषों की प्रतीक हैं। ‘इन्धिका’ जाति की उपत्यिकाएं चंचलता, अस्थिरता, उद्विग्नता की प्रतीक हैं। जिन व्यक्तियों में इस जाति के नाड़ी गुच्छक अधिक हों तो उनका शरीर एक स्थान पर बैठकर काम कर सकेगा, उन्हें कुछ खटपट करती रहनी पड़ेगी। ‘दीपिका’ जाति की उपत्यिकाएं जोश, क्रोध, शारीरिक ऊष्मा, अधिक पाचन, गर्मी, खुश्की आदि उत्पन्न करेंगी। ऐसे गुच्छकों की अधिकता वाले लोग चर्मरोग, फोड़ा-फुन्सी नकसीर फूटना, पीला पेशाब, आंखों में जलन आदि रोगों के शिकार होते रहेंगे।

‘मोचिकाओं’ की अधिकता वाले व्यक्ति के शरीर से पसीना, लार, कफ, पेशाब आदि मलों का निष्कासन अधिक होगा। पतले दस्त अक्सर हो जाते हैं और जुकाम की शिकायत होते देर नहीं लगती ‘आप्यायिनी’ जाति के गुच्छक आलस्य, अधिक निद्रा, अनुत्साह, भारीपन, उत्पन्न करते हैं ऐसे व्यक्ति थोड़ी सी मेहनत में थक जाते हैं। उनसे शारीरिक या मानसिक कार्य विशेष नहीं हो सकता।

‘पूषा’ जाति के गुच्छक काम वासना की ओर मन को बलात खींच ले जाते हैं। संयम ब्रह्मचर्य के सारे आयोजन रखे रह जाते हैं, पूषा का तनिक सा उत्तेजन मन को बेचैन कर डालता है और वह बेकाबू होकर विकार ग्रस्त हो जाता है। शिवजी पर शर संधान करते समय कामदेव ने अपने कुसुम वाण से उस प्रदेश की पूषाओं को उत्तेजित कर डाला था।

‘चिन्द्रका’ जाति की उपत्यिकाएं सौन्दर्य बढ़ाती हैं। उनकी अधिकता से वाणी में मधुरता नेत्रों में मादकता चेहरे पर आकर्षण, कोमलता एवं मोहकता की मात्रा रहेगी। ‘कपिला’ के कारण नम्रता, डर लगना दिल की धड़कन, बुरे स्वप्न, आशंका, मस्तिष्क की अस्थिरता, नपुंसकता, वीर्य रोग आदि लक्षण पाएं जाते हैं। ‘धूमार्चि’ में संकोचन शक्ति बहुत होती है। फोड़े देर में पकते हैं, कफ मुश्किल से निकलता है। शौच कड़ा और देर में होता है।, मन की बात कहने में झिझक लगती है। ‘ऊष्माओं’ की अधिकता से मनुष्य हांफता रहता है। जाड़े में भी गर्मी लगती है। क्रोध आते देर नहीं लगती। जल्द बाजी बहुत होती है। रक्त की गति में श्वास प्रस्वास में तीव्रता रहती है।

‘अमाया’ वर्ण के गुच्छक दृढ़ता, मजबूती, कठोरता गम्भीरता, हठधर्मी, के प्रतीक होते हैं। इस प्रकार के शरीरों पर वाह्य उपचारों का कुछ असर नहीं होता। कोई दवा काम नहीं करती। वे स्वेच्छापूर्वक रोगी या रोग मुक्त होते हैं। उन्हें कोई कुपथ्य रोगी नहीं कर पाता परन्तु जब गिरते हैं तो संयम नियम का पालन भी कुछ काम नहीं आता।

चिकित्सक लोगों के उपचार अनेक बार असफल होते रहते हैं। कारण कि उपत्यिकाओं के अस्तित्व के कारण शरीर की सूक्ष्म स्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि चिकित्सा कुछ विशेष काम नहीं करती। उद्गीथ, उपत्यिकाओं की अभिवृद्धि से सन्तान होना बन्द हो जाता है। यह जिस पुरुष या स्त्री में अधिक होगी वह पूर्ण स्वस्थ होते हुए भी सन्तानोत्पादन के अयोग्य हो जायेगा।

स्त्री पुरुष में से ‘असिता’ की अधिकता जिसमें होगी वही अपने लिंग की सन्तान उत्पन्न करने में विशेष सफल रहेगा। ‘असिता’ से सम्पन्न नारी को कन्याएं और पुरुष को पुत्र उत्पन्न करने में सफलता मिलती है। जोड़े में से जो अधिक असिता, होगा उसकी शक्ति जीतेगी।

युक्त ‘हिंस्रा’ जाति के गुच्छक क्रूरता, दुष्टता, परपीड़न की प्रेरणा देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को चोरी जुआ, व्यभिचार, ठगी आदि करने में बड़ा रस आता है। आवश्यक धन सम्पत्ति होते हुये भी उन्हें अनुचित मार्ग अपनाने को मन चलता रहता है। कोई विशेष कारण न होते हुये भी दूसरों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और आक्रमण का आचरण करते हैं। ऐसे लोग मांसाहार, मद्यपान, शिकार खेलना, मारपीट करना या लड़ाई झगड़े में दौर पंच बनना बहुत पसंद करते हैं। हिंसा उपत्यिकाओं की अधिकता वाला शरीर सदा ऐसे काम करने में रस लेगा जो अशान्ति उत्पन्न करते हों, ऐसे लोग अपना सिर फोड़ लेने आत्म हत्या करने अपने बच्चों को बेतरह पीटने जैसे कुकृत्य करते देखे जाते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में कुछ थोड़ी सी उपत्यिकाओं का वर्णन किया गया है। इनकी 96 जातियां जानी जा सकी हैं। संभव है इससे भी वे अधिक होती हों। यह ग्रंथियां ऐसी हैं जो शारीरिक स्थिति को इच्छा अनुकूल रखने में बाधक होती हैं। मनुष्य चाहता है कि में अपने शरीर को ऐसा बनाऊं वह उसके लिए कुछ उपाय भी करता है पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते। कारण यह है कि ये उपत्यिकाएं भीतर ही भीतर शरीर में ऐसी विलक्षण क्रिया एवं प्रेरणा उत्पन्न करती हैं जो वाह्य प्रयत्नों को सफल नहीं होने देतीं और मनुष्य अपने को बार बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है।

अन्नमय कोश को शरीर से बांधने वाली यह उपत्यिकाएं शारीरिक एवं मानसिक अकर्मों से उलझ कर विकृत होती हैं सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती हैं। बुरा आचरण यह खाई खोदता है और शरीर को उस खाई में गिरकर रोग शोक आदि की पीड़ा सहनी पड़ती है। इन उलझनों को सुलझाने के लिए आहार विहार का संयम एवं सात्विक रखना, दिनचर्या ठीक रखना, प्रकृति के आदेशों पर चलना आवश्यक है। साथ कुछ ऐसे ही विशेष योगिक उपाय भी हैं जो उन आन्तरिक विकारों पर काबू पा सकते हैं जिनको कि केवल बाह्योपचार से सुधारना कठिन है।

उपवास का उपत्यिकाओं के संशोधन परिमार्जन और सुसंतुलन से बड़ा सम्बन्ध है। योग साधना में उपवास का एक सुविस्तृत विज्ञान है। अमुक अवसर पर, अमुक मास में, अमुक मुहूर्त में अमुक प्रकार से उपवास करने का अमुक फल होता है।

ऐसे आदेश शास्त्रों में जगह जगह पर मिलते हैं। ऋतुओं के अनुसार शरीर की छह अग्नियां न्यूनाधिक होती रहती हैं। ऊष्मा, वहुवृच, ह्वादी, रोहिता, आप्ता, व्याप्ति यह छह शरीर गत अग्नियां ग्रीष्म से लेकर वसन्त तक छह ऋतुओं में क्रियाशील रहती हैं। इनमें से प्रत्येक के गुण भिन्न भिन्न हैं।

1—उत्तरायण दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति
2—चन्द्रमा की घटती बढ़ती कलाएं
3—सूर्य की अंशकिरणों का मार्ग,


इन चारों बातों का शरीरगत ऋतु अग्नियों के साथ सम्बन्ध होने से क्या परिणाम होता है इसका ध्यान रखते हुये ऋषियों ने ऐसे पुण्य पर्व निश्चित किए हैं जिनमें अमुक विधि उपवास किया जाय तो उसका अमुक परिणाम हो सकता है। जैसे कार्तिक कृष्णा चौथ जिसे करवाचौथ कहते हैं उस दिन का उपवास दम्पत्ति प्रेम को बढ़ाने वाला होता है क्योंकि उस दिन की गोलार्ध स्थिति, चन्द्र कलाएं, नक्षत्र प्रभाव, एवं सूर्य मार्ग का सम्मिश्रित परिणाम शरीरगत अग्नि के साथ समन्वित होकर शरीर एवं मन की स्थिति को ऐसा उपयुक्त बना देता है जो दाम्पत्ति सुख को सुदृढ़ और चिरस्थाई बनाने में बड़ा सहायक होता है।
इस प्रकार अन्य अनेकों व्रत उपवास हैं जो अनेक इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में तथा बहुत से अनिष्टों को टालने में उपयोगी सिद्ध होते हैं।

उपवासों के पांच भेद होते हैं।

1—पाचक
2—शोधक
3—शामक
4—आनक
5—पावक।

(1.)  पाचक— उपवास वे हैं जो पेट के अपच अजीर्ण कोष्ट बद्धता को पचाते हैं। शोधक वे हैं जो रोगों को भूखा मार डालने के लिये किए जाते हैं इन्हें लंघन भी कहते हैं। शामक—वे हैं जो कुविचारों, मानसिक विकारों, दुष्प्रवृत्तियों एवं विकृत उपत्यकाओं का शमन करते हैं। आनक—वे हैं जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किए जाते हैं। पावक वे हैं जो पापों के प्रायश्चित के लिए, आत्मिक पवित्रता के लिए किए जाते हैं।
किस व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन-सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिये सूक्ष्म विवेचना की आवश्यकता है।

साधक का अन्नमय कोश किस स्थिति में है, उसकी उपत्यिकाएं विकृत हो रही हैं? किस उत्तेजित संस्थान को शान्त करना एवं किस मर्म पर स्थूल सतेज करने आवश्यकता है यह देखकर निर्णय किया जाना चाहिए कि कौन व्यक्ति किस प्रकार का उपवास कब करे।

पाचक उपवास में तब तक भोजन छोड़ देना चाहिए जब तक कि कड़ाके की भूख न लगे। एक बार का एक दिन का या दो दिन का आहार छोड़ देने से आमतौर से कब्ज पक जाता है। पाचक उपवास में सहायता देने के लिए नींबू का रस गरम जल एवं किसी पाचक औषधि का सेवन किया जा सकता है।

(2.)  शोधक उपवासों के साथ विश्राम आवश्यक है। यह लगातार तब तक चलते हैं जब तक कि रोगी खतरनाक स्थिति को पार न करले औटाकर ठण्डा किया हुआ पानी ही ऐसे उपवासों में एक मात्र अवलम्बन होता है।

(3.)  शामक उपवास दूध, छाछ, फलों का रस आदि पतले, रसीले, हलके पदार्थों के आधार पर चलते हैं। इन उपवासों में स्वाध्याय, आत्म चिन्तन, एकान्त सेवन, मौन, जप-ध्यान, पूजन, प्रार्थना आदि आत्मशुद्धि के उपचारों को भी साथ में होना चाहिए।

( 4.)  आनक उपवास में सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति को आह्वान करना चाहिए। सूर्य की सप्तवर्ण किरणों में राहु केतु को छोड़कर अन्य सातों ग्रहों की राशियां सम्मिलित होती हैं।

सूर्य— में तेजस्विता, उष्णता, पित्त प्रकृति, प्रधान हैं।चन्द्रमा—शीतल, शान्तिदायक, उज्ज्वल, कीर्तिकारक।
मंगल—कठोर, बलवान, संहारक।
बुध—सौम्य, शिष्ट, कफ प्रधान, सुन्दर, आकर्षक।
गुरु—विद्या बुद्धि धन सूक्ष्म दर्शिता शासक न्याय राज्य का अधिष्ठाता।
शुक्र—वात प्रधान, चंचल, उत्पादक, कूटनीतिक।
शनि— स्थिरता, स्थूलता सुखोपभोग दृढ़ता परिपुष्ट का प्रतीक है।

जिस गुण की आवश्यकता हो, उसके अनुरूप दैवी तत्वों को आकर्षित करने के लिए सप्ताह में उसी दिन उपवास करना उचित है। इन उपवासों में लघु आहार उन ग्रहों की शक्तियों से समता रखने वाला होना चाहिए। तथा उसी ग्रह के अनुरूप रंग की वस्तुएं, वस्त्र आदि का जहां तक संभव हो अधिक प्रयोग करना चाहिए।
रविवार को श्वेत रंग और गाय के दूध का दही उचित आहार है।
सोमवार को पीला रंग और चावल का मांड़ उपयुक्त है।
मंगल को—लाल रंग, भैंस का दही या छाछ।
बुध को नीला रंग और खट्टे मिट्ठे फल।
गुरु को नारंगी रंग मीठे फल।
शुक्र को—हरा रंग, बकरी का दूध दही गुड़ का उपयोग ठीक रहता है। प्
रातःकाल की किरणों में सम्मुख होकर नेत्र बन्द करके निर्धारित किरणें अपने में प्रवेश होने का ध्यान करने से वह शक्ति सूर्य रश्मियों द्वारा अपने में अवतरित होती है।
(5.)  पावक उपवास प्रायश्चित स्वरूप किए जाते हैं ऐसे उपवास केवल जल लेकर करने चाहिए। अपनी भूल के लिए प्रभु से सच्चे हृदय से क्षमा याचना करते हुए भविष्य में वैसी भूल न करने का प्रण करना चाहिए। अपराध के लिये शारीरिक कष्ट साध्य तितीक्षा एवं शुभ कार्य के लिए इतना दान करना चाहिये जो पाप की व्यथा को पुण्य की शान्ति के बराबर कर सके। चांद्रायण व्रत, कृच्छ चांद्रायण, आदि ऐसे ही पावक व्रतों में गिने जाते हैं।

प्रत्येक उपवास में यह बातें विशेष रूप से ध्यान रखने की हैं

1—उपवास के दिन जल बार बार पीना चाहिए, बिना प्यास को भी पीना चाहिए।
2—उपवास के दिन अधिक शारीरिक श्रम न करना चाहिए
3—उपवास के दिन यदि निराहार न रहा जा सके तो अल्प मात्रा में रसीले पदार्थ, फल, दूध आदि ले लेना चाहिए। मिठाई, हलुआ आदि गरिष्ठ पदार्थ भरपेट      खा लेने से उपवास का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता
4—उपवास तोड़ने के बाद हलका, शीघ्र पचने वाला, आहार स्वल्प मात्रा में लेना चाहिए। उपवास समाप्त होते ही अधिक मात्रा में भोजन कर लेना हानि
      कारक है।
5—उपवास के दिन अधिकांश समय आत्म चिन्तन स्वाध्याय या उपासना में लगाना चाहिए।
उपत्यिकाओं के शोधन परिमार्जन और उपयोगी करण के लिए उपवास किसी विज्ञ पथ प्रदर्शक की सलाह से करने चाहिए पर साधारण उपवास जो प्रत्येक गायत्री उपासक के अनुकूल होता है रविवार के दिन होना चाहिए। उस दिन सातों ग्रहों की सम्मिलित शक्ति पृथ्वी पर आती है जो विविध प्रयोजनों के लिए उपयोगी होती है। रविवार को प्रातःकाल स्नान करके या सम्भव न हो तो हाथ मुंह धोकर शुद्ध वस्त्रों से सूर्य के सम्मुख मुख करके बैठना चाहिए और एक बार खुले नेत्रों से सूर्य नारायण को देखकर फिर नेत्र बन्द कर लेने चाहिए और वैसे ही गायत्री के तेजपुंज रविमंडल का ध्यान करना चाहिए ‘‘इस सूर्य के तेजपुंज रूपी समुद्र में हम स्नान कर रहे हैं वह हमारे चारों ओर ओत प्रोत हो रहा है।’’ ऐसा ध्यान करने से सविता की ब्रह्म रश्मियां अपने भीतर भर आती हैं। बाहर से चेहरे पर धूप का पड़ना और भीतर से ध्यानाकर्षण द्वारा उसकी सूक्ष्म रश्मियों को खींचना उपत्यिकाओं को सुविकसित करने में बड़ा सहायक होता है। यह साधना 15 से 30 मिनट तक की जा सकती है।

उस दिन श्वेत वर्ण की वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना चाहिए, वस्त्र भी अधिकांश सफेद ही हों। दोपहर को बारह बजे बाद फलाहार करना चाहिए। जो लोग रह सकें वे निराहार रहें जिन्हें कठिनाई होती हो वे फल, दूध, शाक लेकर रहें। बालक, वृद्ध, गर्भिणी, रोगी या कमजोर व्यक्ति चावल, दलिया आदि दोपहर को और दूध रात को ले सकते हैं। नमक एवं शकर इन दो स्वाद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को छोड़ कर बिना स्वाद का भोजन भी एक प्रकार का उपवास हो जाता है। आरम्भ में अस्वाद आहार के आंशिक उपवास से भी गायत्री साधक अपनी प्रवृत्ति को बढ़ा सकते हैं।




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