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Books - व्यक्तित्व निर्माण युवा शिविर - 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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पर्यावरण संरक्षण

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व्याख्यान का उद्देश्य :-

१)    पर्यापरण क्या है? यह समझ में आए।
२)    मनुष्य पर्यावरण को कैसे प्रदूषित कर रहा है? यह बात मोंटा- मोंटा समझ में आ जाए।
३)    शिविरार्थी को मन में यह दृढ़ संकल्प जागे कि मेरे द्वारा ऐसा कोई कार्य न बन पड़े जिससे पर्यावरण को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नकसान होता हो।
४)    श्वििरार्थी पर्यावरण संरक्षण के निम्र (व्यक्तिगत) उपायोगं को अपनाने के लिए संकल्कित हों ।
१.    अपने घर के बाड़ी या छात पर न्यूनतम ५ पौध (पीपल, नीम, बरगद, आम अशोक आदि) बड़े व मोटे पाँलीथिन में लगाकर।
    ७-८ फीट तक बड़ा करुणगा। बरसात अपने प उपयुक्त स्थान पर रोपित करुंगा। खाद पानी व संरक्षण की व्यवस्था करुंगा।
२.    बाजार जाने पर अपने साथ पर्याप्त बैग झोले रखुंगा। पाँलीथिन का प्रयोग नहीं करुगा।
३.    गौघत, जायफल, गुड़ व अन्य जड़ी-बूटी के द्वारा समय-समय पर हवन करुंगा ।
४.    घर के आसपास की गन्दगियों में गोबर का घोल छिडक़ूंगा।
५.    नियमित शंख बजाकर ध्वनि प्रदूषण के नियंत्रण में सहयोग करुंगा।

व्याख्यान क्रम:-

१. पर्यावरण क्या है ?

    वायु, पानी मिट्टी, ध्वनि, पेड़ पौध, वनस्पति, जीव-जत्तु, सूर्य आदि हमारे आसपास चारों ओर उपस्थित रहकर जीवन के लिए एक परिपूर्ण व्यवस्था बनाते है जिसे हम पर्यावरण कहते है। पर्यावरण प्रकृति का वह घटक है जो मानव जीवन से सम्बन्धित है और उसे प्रभावित करता है। हमारे आसपास की प्रत्येक वस्तु जड़, चेतन, प्राणी, हमारा रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति विचार आदि सभी कुछ पर्यावरण के ही अंग है। वैज्ञानिक शब्दावली में कहें तो चारों ओर की भूमि, जलवायु और इसके भीतर ऊपर के सजीव-निर्जीव सब पदार्थ मिलकर बायोस्फियर यानी जीवमण्डल है। जर्मन वैज्ञानिक अरनेस्ट हैकन ने पर्यावरण की परिभाषा की है- किसी भी जीव जन्तु में समस्त कार्बनिक व अकार्बनिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों को पर्यावरण कहेंगे । पर्यावरण का मानव जीवन में विशेष महत्व है। उसका अपना प्रभाव होता है। मानव संस्कृति और मानव जीवन के विकास उन्नयन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान पर्यावरण का ही रहता है। जैसे जलचर बिना जल के जीवित नहीं रह सकते उसी प्रत्येक जीव, प्राणी, वनस्पति उपयुक्त पर्यावरण के बिना नहीं रह सकते । पर्यावरण के महत्व को ऋषि-मुनि वैदिक युग में भी अच्छे से पहचानते रहे है। यही कारण है कि आर्ष ग्रन्थों में प्रकृति और उसके घटक तत्वों के प्रति विशेष सम्मान का, पूजा का भाव, परिलक्षित होता है, और ऐसी ही प्रेरणा सम्प्रेषित होती है। उन दिनों तद्रुरूप ही नीति नियम भी बनाए जाते थे।

    प्रकृति एक विराट शरीर की तहर है। जीव-जन्तु, वृक्ष-वनस्पति, नदी-पहाड़ आदि उसके अंग -प्रत्यंग है। इनके परस्पर सहयोग सेयह वृहद शरीर स्वस्थ और सन्तुलित है। जिस प्रकार मानव शरीर के किसी एक अंग में खराबी आ जाने से पूरे शरीर के कार्य में बाधा पड़ती है, उसी प्रकार प्रकृति के घटकों से छेड़छाड़ करने पर प्रकृति की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है।

२. प्रकृति का स्वनिर्मित सन्तलन व्यवस्था:-

    जीव जन्तुओं, वृक्ष वनस्पतियों का सहअस्तित्व परस्पर एक दूसरे के सहयोग पर टिका हुआ है। एक मरेगा तो दूसरा भी अपना अस्तित्व सुरक्षित न रख सकेगा सहअस्तित्व का यह उदाहरण सर्वत्र देखा जा सकता है। मनुष्य तथा अन्य जीव वृक्ष-वनस्पतियों से पोषण प्राप्त करते है। जो मांसाहारी जीव हैं उन्हीं भी परोक्ष रूप से वनस्पतियों से ही जीवन तत्व उपलब्ध होता है। वृक्ष-वनस्पति मात्र स्थूल आहार ही नहीं देते बल्कि जीवन के लिए अन्य आवश्यक तत्व भी जुटाते है। आँक्सीजन प्राणवायु है जो वृक्षों से ही मिलता है। एक ओर वे जीव समुदाय को पोषण देते हैं और दूसरी ओर उस विषाक्त वायु (कार्बन डाइआक्साइड) का पना भी करते हैं, जो मनुष्य तथा अन्य प्राणी प्रश्वांस द्वारा छोड़ते हैं। प्रकृति की यह कैसी अद्भुत व्यवस्था है। इस श्रंृखला की अन्य कितनी ही कडिय़ां हैं जो जीवन चक्र को सतत गतिशील बनाए रखने में मदद करती है। वनस्पतियों को पोषण जमीन से मिलता है। मिट्टी में मौजूद अनेक प्रकार के क्षुद्र जीव पूरी तत्पता से वुक्ष वनस्पतियों की खुराक तैयार करने में संलग्र रहते हैं। असंख्यो की संख्या में विद्यमान बैक्टीरिया मिट्टी के केन्द्रीय कार्बनिक पदर्थ से अपलना पालन पोषण करते हैं और वंशवुद्धि करते हैं। जितना मिट्टी से लेते हैं उससे कई गुना वापस लौटाते हैं। उनका मलमूत्र एवं मृत शरीर भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए काम आ जाता है। पौधे की सूखी पत्तियां और अन्तत: स्वयं पौधा भी उन नन्हे जीवों का खुराक बनते है जिसक सहके सहारे वह स्वयं पल रहा था। प्रकृति में जीवन के असंख्यों महाचक्र गतिमान है। इन चक्रों के एक भी कड़ी में अवरोध आने पर मानव जीवन पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है।

कुछ उदाहरण:-

१. शेर एक मांसाहारी जीव है जो अनेक प्रकार के जंगली जीवों हिरण, खरगोश आदि को खाकर उनकी असीम वृद्धि पर निन्त्रण रखता है। यदि जंगल से शेर किसी प्रकार नष्ट हो जाएं तो एक समय ऐसा आ सकता है, जब बढ़ी हुई शाकाहारी जीव विभिन्न प्रकार के पौधें की प्रजातियों को समप्त कर देंगे, इससे वातावरण में हानिकर परिवर्रन हो सकता है।

२. मिट्ट में पाये जाने वाला केंचुआ दिखने में साधारण है पर प्रकृति सन्तुलन में इसका भी बहुत बड़ा योगदान है। एक केंचुआ छ: माह की अवधि में बीस पौड़ पोरूक कार्बनिक पदार्थ तैयार करके मिट्टी में मिला देता है। यह खेत की जमनी को पोला व भुरभूरा भी बनाता है इनकी जातियां यदि नष्ट न हों तो वे मिट्टी में दस वर्ष में एक इंच सतह को बढ़ा सकते हैं, जो अत्यन्त उपजाऊ होती है। केंचुए यदि नष्ट हो जाएं तो यह कार्य करनें में प्रकिति को ५०० वर्ष लग जाएंगे।

३. वृक्ष वनस्पतियों से युक्त जंगलों का सफाया करने से भयंकर जाती है और मिट्टी के कणों को मजबूती से जकड़े रहती है। फलस्वरू भूमि का कटाव नहीं होता । जड़ो से विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थ तथा एन्जाइम निकलते रहते हैं, जो चट्टानों को तोडक़र मिट्टी के कणों में बदलते हैं तथा मृदा में पाये जाने वाले अनेक प्रकार के सूक्ष्मजीवों-र्बक्टीरिया आदि को आवास प्रदान करते हैं। पौधों की सतह श्वसन द्वारा जल का उत्सेल होता रहता है, जिससे वातावरण में नमी बनी रहती है और वर्ष अच्ठी तरह होती है। वृक्ष वनस्पतियों से मनुष्य का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष ऐसे लाभ होते है जिनकी पूर्ति जंगलों के नष्ट हो जाने पर असम्भव तो है ही, बल्कि मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा ।

पर्यावरण असन्तुलन व प्रदूषण का जिम्मेदार कौन?

    विशेषज्ञों के अनुसार इकोलाँजी विज्ञान की बुनियादी धारणा यह है कि प्रकृति के प्रत्येक घटक सन्तुलन की दृष्टि से उपयोगी है, यह एक दूसरे पर परावलम्बी है। दुर्भाग्यवश मनुष्य इस सिद्धान्त को नहीं समझता, तात्कालिक लाभ की दृष्टि से स्वयं के लिए उपयोगी मानकर वह कितने ही जीव-जन्तुओं वृद्वा-वनस्पतियों को अपने स्वार्थवश सतत नष्ट करता रहता है।

    आज का मनुष्य अपनी समृद्धि व सुख सुविधा को बढ़ाने के लिए प्रकृति शोषण की अदूरदर्शी नीतियों को अपनाकर सम्पूर्ण प्रकृति परिवार को असन्तुलित व प्रदूषित कर रहा है।

मित्रों आजकल आप अखबार व न्यज चैनलों माध्यम से यह जानते ही होंगी कि हमारी प्रकृति किस कदर प्रदूषित व असन्तुलित हो गई है। बताइए वर्तमान प्रदूषण के बारे में आप क्या-जानते हैं? मित्रों! आज मनुष्य औद्योगिक प्रगति के नाम पर जो भी कार्य कर रहा है, उससे हवा, पानी, मिट्टी, अनाज , फल, सब्जियां जहरीली होती जा रही है। आईए जानें-

    प्राकृतिक रूप से वायुमण्डल में विद्यमान गैसें एक निश्चित मात्रा और अनुपात में होती है जब वायु के अवयवों  में अवांछित तत्व अवांछित मात्रा में प्रवेश कर जाता है, तब उसका सन्तुलन बिगड़ जाता है जिसे हम वायु प्रदूषण कहते है। ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है जिसके परिणामस्वरूप ध्रुवाय बर्फ तेज से पिघल रहे है। हिमालय व अन्य ग्लेशियरों के पिघलने की गति भी तीव्र हो गई है। नाइट्रोजन आक्साइड और सल्फर डाइआक्याइड गैसों के कारण संसार के अनेक भागों में तेजाब वर्षा हो रही है।


वायु प्रदूषण:-

१.    एक ताप बिजली घर (थर्मल पावर प्लांट) से ५० टन सल्फर डाइआँक्साइड और उससे भी अधिक कालिख वातावरण में फैल जाती है। भारत में ऐसे ७५ से ज्यादा ताप बिजली घर है।

२.    वाहनों से निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनाआँक्साइड़ नाट्रोजंन व लेड के आँक्साईड, हाइड्रोकार्बन, एल्डीहाइड आदि होते हैं जो कि वायुमण्डल को जहरीली बना रही है। दुनिया भर में इन दिनों १०० करोड़ वाहनों का उपयोग किया जाता है। एक पुराने सर्वेक्षण के मुताबिक पर्यावरण निन्त्रण के सभी नियमों के बावजूद विकसित देशों मे १५० टन कार्बन मोनोआँक्साइड, १५ लाख टन हाइड्रोकार्बन, १० लाख टव नाइट्रोजन आक्साइड।

३.    कल कारखानों का धुआँ ।

४.    बीड़ी, सिगरेट, चिलम, गांजा आदि धूम्रपान से वायुमण्डल में ४००० से भी अधिक घातक विषैले पदार्थ घुल जाते हैं। इनमें से प्रमुख है हाइड्रोजन साइनइट, कार्बन मोनोआँक्साइड, निकोटिन, टार अमोनिया, बेंजापाइरिन, कैडमिश्म, डी.डी.टी. (कैंसर कारक) कोलोडाँन, आर्सेनिक, डाईबें जाक्रिडीन, फीनोल मार्श गैस आदि।

५.    वायुयान या राँकेटों का धुंआ ।

६. वायुमण्ड को शुद्ध रखने वाले जंगलों की अंधाधुंध कटाइ ।
जल प्रदूषण्:-
१.    कल कारखानों के गन्दा पानी से हमारी नदिया भी गन्दी हो गई है, जैसे दिल्ली में यमुना नदी।
२.    रासयनिक खाद व कीटनाशकों के अधिकाधिक प्रयोग के कारण भूमिगत जल भी विषक्त हो रहा है।
३.    नहाने व कपड़े धोने का साबुन व डिटर्जेन्ट से।
४.    शहरों का गन्दा पानी ।

ध्वनि प्रदूषण (शोर):-

    मौजूदा औद्योगिक क्रान्ति, आबदी की बढ़ोतरी, लाउड स्पीकर, डी.जे. साउण्ड आदि के कारण अगणित बीमारियों का जनक शोर उपजा है।

    शोर के कारण श्वसन गति, रक्तचाप, नाड़ी गति में उतार-चढ़ाव, पाचतन्त्र की गतिशीलता में कमी आदि दुष्प्रभाव भी देखे गए हैं। एक अनुसन्धान के  अनुसार ध्वनि प्रदूषण के कारण मुर्गियों ने अंडे देना बंद कर दिया और मवेशियों के दूध में कमी आ गई। अनिद्रा और कुंठा जैसे विकारों का कारण भी शोर  ही है। इससे पाचन विकार, सिरदर्द, झुंझलाहट आदि होना सामान्य बात है। इसी कारण विज्ञानवेत्तओं ने ध्वनि प्रदूषण को मानवता के लिए स्लो पाइजन (धीमी जहर) कहा है।

शोर का मापांक डेसीबल है। ७५ डेसीबल से अधिक का शोर हानिकारक माना जाता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि ८५ डेसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन भी आ सकता है। ९० डेसीबल शोर के कारण एकाग्रता व मानसिक कुशलता में कमी कमीआ जाती है। १२० डेसीबल से उपर का शोर गर्भपती स्त्रियों और पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहँुचा सकता है। १५५ डेसीबल से अधिक शोर से मावन त्वचा जलने लगती है और १८० पर मृत्यु तक हो सकती है। एक अध्ययन के अनुसार भारी टै्रफिक में ९० डेसीबल, रेलगाड़ी व कार के हार्न से १००, हवाई जहाज से १४०-१७० तथा मोटर साइकिल से ९० डेसीबल ध्वनि तरंगें पैदा होती है। सुपर सोनिक जेट और कंकार्ड विमानों से उत्पन्न १५० डेसीबल से अधिक शोर के कारण ओजोन परत को सर्वाधिक क्षति पहुचती है।


मृदा प्रदूषण :-

१.    डिस्पोजल, प्लाँस्टिक व पतले पाँलीथिन ।
२.     रासायनिक खाद व कीटनाशक।
३.    कारखानों व शहरों के गन्दे व जहरीले पानी के कारण ।
४.    परमाणु रियेक्टरों के राख।
५.    शहरों का बढ़ता कचरा
    इस प्रकार प्रकृति असन्तुलन का मुल कारण मनुष्य का आधुनिक व अदूरर्शी भौतिकवादी जीवनशैली को माना जा सकता है। मनुष्य के अत्याचार से अब प्रकृति भी क्रुद्ध हो गई है और  भमकम्प, अतिवृष्टि, अनाष्टि, बाढ़, सुनामी, ग्लोबल वार्मिग आदि के द्वारा वह अपना आक्रोश प्रकट कर रही है।
युगधर्म - पर्यवरण संरक्षण

प्रकृति से खिलवाड़ करके जो विभिषिकाएं मनुष्य ने खड़ी कर दी है प्रसका समाधान भी मनुष्य को ही करना होगा। प्रदूषण नियन्त्रण व प्रकृतिक सन्तुलन के लिए उपायों के लाभ:-
१.    यज्ञण्वं अग्रिहोत्र, नित्य बलिवैश्व- हवन की हुई किसी भी औषधि का कोई भी तत्व किसी भी प्रकार नष्ट नहीं होता वे सारे के सारे अपनी पूरी शक्ति के साथ विस्फुटित होकर वायुमणडल में मिल जाते हैं। -पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
*     जहाँ यज्ञ होते हैं वहाँ के वायुमंडल में ऋण आयनों की     संख्या बढ़ जाती है जो कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य     के लिए बहुत लाभकारी है।
*     खाण्ड (देशी शक्कर या गुड़) का हपन करने से जो धुंआ उठता है उसमें वायु को शुद्ध करने की विलक्षण शक्त है ।
-फ्रांस के विज्ञानवेत्ता पो. टिलबर्ट ।
*     गौधृत से हवन करने पर आँक्सीजन उत्पन्न होती है।
 -वैज्ञानिक शिरोविच, रूप ।
*     वायुमण्डल को घातक विकिरण से बचाने के लिए देशी गाय के शुद्ध घी से हवन किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक - शिरोविच।
*    जायफल जलाने से उसके तेल के परमाणु १/१०००००००० से.मी. व्यास तक के सूक्ष्मा पाए गए। इनमें कार्बन के धुंए के कणों में घुसकर उन्हें शुद्ध तत्वों में बदलने की क्षमता पाई गई।
*     यान्त्रिक सभ्यता को रोकने और वायु शुद्ध करने के लिए सारे विश्व में ही यज्ञ परम्परा चलाने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह जाता। यज्ञों में ही वह सामथ्र्य है जो वायु प्रदूषण को समानान्तर गति से रोक सकती है। -पं. श्रीराम शर्मा आचर्य ।
२. वृक्षारोपण, जड़ी-बूटी व हरितिमा संवद्र्धन :-
*     एक वृक्ष एक ऋतु में वायुमण्डल से १३० लीटर पेट्रोल के शीशे के अंश को सोंखकर उसे लेड फास्फेट में बदल देते है। वृक्ष के मरने पर यह ईंधन के रूप में काम में  आते हैं।
*     एक स्वस्थ और परिपक्व पेड़ से एक दिन में जो ठंडक मिलती है वह २० घण्टे चलने वाले १० एयरकंडीशनर के बराबर होता है।
*     एक पेड़ हर साल करीब ........ किलो आँक्सीजन देता है ।
*    एक एकड़ में लगे पेड़ हर वर्ष वायुमण्डल से २.६ टन डाइआँक्साइड सोंखते है।
*    नीम, तुलसी व पीपल २४ घण्टे प्राणवायु (आँक्सीजन) छोड़ते है।
*     वृक्ष-वनस्पतियां एटामिक रेडिएशन से हमारी रक्षा करते है।
*     जड़ी-बूटियों का स्थूल सेवन न करने पर भी वे हमारे आसपास शुद्ध व आरोग्यकारी वातावरण बनाते हैं।
*     भूमिगत जल को संरक्षित करता है।
*     ग्रीन हाऊस गैसों को सोंखकर वातावरण को अधिक गर्म होने से रोकता है।
3.     अपने जीवन शैली में यथोचित परीवर्तन:-
*     बाजार जाने से पहले पर्याप्त छोटे-बड़े झोले रख लेने से पॉलीथिन से बचा जा सकता है।
*     डिस्पोजेबल गिलास, थाली आदि के प्रयोग से बचा जाए, पत्तल दाने का प्रयोग किया जाए।
*     नहाने के लिए झाग वाले साबुन के बजाए मुल्तानी मिट्टी, नीबू, हल्दी, दूध आदि का प्रयोग किया जाए।
*     केमिकल वाले सेंटेड अगरबत्ती के स्थान पर गुगुल व हवन सामाग्री वाली अगरबत्ती का प्रयोग करें।
*     जहाँ पैदल व साइकिल के प्रयोग से काम चलता हो वहां व्यर्थ पेट्रोल डीजल न फूंका जाए।

नित्य यज्ञ (बलिवैश्य यज्ञ) कैसे करें?

    घर पर दोनों समय भोजन तैयार होने पर अग्नि देवता को भोग लगाने की प्रक्रिया बलिवैश्व कहलाती है। वैसे तो इसके आध्यात्मिक लाभ अनेकों है पर यहाँ हम सीखेंगे कि वातावरण शुद्धि के दृष्टि कोण से इसे कैसे करें कि लाभ अधिक से अधिक मिले-
सामाग्री:- 1) हवन सामाग्री 1 कि.ग्रा.। 2) जायफल चूर्ण 50 से 100 ग्राम। 3) देशी गाय का शुद्ध घी 200 ग्राम। उपरोक्त तीनों को अच्छी तरह से मिलाकर डिब्बे में रख लें।
अन्य:- 1. कपूर (डली वाला)। 2. गुड़ के टुकड़े। 3. गैस चूल्हा में करना हो तो बलिवैश्य पात्र। 4. रोटी के छोटे पांच टुकड़े या भात जो पकाया गया हो।
विधि:- गैस चूल्हा में करना हो तब बलिवैश्व पात्र बर्नर पर रखें थोड़ा घी व कपूर का टुकड़ा रखें, बाहर चारों तरफ पानी सिंचन करें, गैस चालू करें। कपूर के आग पकडऩे पर सामाग्री रोटी व गुड़ तीनों को थोड़ा-थोड़ा पांच हिस्सों में बांटकर पांच बार गायत्री मन्त्र के साथ आहुति दें।
नोट:- सिगड़ी या लकड़ी वाले चूल्हे में करते समय बलिवैश्व पात्र की आवश्यकता नहीं रहती। कपूर व घी शुरु में रखना भी नहीं है। ऐसे में कपूर को पीसकर सामाग्री में मिला लेना चाहिए।

वृक्षारोपण

असफलता के कारण व उपाय:-
पहला कारण:- लगाए गए पौधों की वृद्धि में सबसे बड़ी समस्या पौधों को मवेशियों (गाय, बकरी आदि)द्वारा चरने से होती है। पौधों में ज्यों ही नये पत्ते आते हैं, मवेशियों द्वारा उन्हेें खा जिया जाता है। बार-बार की चराई  से पौधे बढ़ नहीं पाते तथा कुछ समय बाद मर जाते हैं। यों तो वृक्षारोपण के बाद पौधों को लोहे की जाली, ईंट आदि से घेराव किया जाता है, जो कि अत्यधिक खर्चीला होता है। इस प्रकार के घेरे अधिक ऊँचे नहीं होते अत: जब पौधे इन घेरों के बाहर आते है तब भी मवेशी इन्हें चर लेते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पौधों को काँटों से घेरा जाता है। इससे अधिक श्रम व समय लगता है तथा ये काँटे भी कुछ समय बाद नष्ट हो जाते है। इस प्रकार के घेरे के भीतर की घास बड़ी-बड़ी हो जाती है जिसे खाने के लालच में इन्हें मवेशी भी तोड़ देते हैं। उपरोक्त बताए गए घेरे अधिक खर्चीले व श्रमसाध्य होते है तथा अधिक संख्या में वृक्षारोपण करने के लिए उपयुक्त वही छोटे लोहे की जाली व ईंटों की चोरी की सम्भावना होती है।

समाधान:- पौधों की सुरक्षा सम्बन्धी उपरोक्त समस्या के निवारण हेतु विचार आया कि क्यों न पौधों की नर्सरी बनाकर पौधों को नर्सरी में ही इतना बड़ा कर लिया जाए कि जब उन्हें रोपा जाए तो उनका बसकसे उपरी सिरा  मवेशियों के पहुँच के बाहर हो जाए। अर्थात् पौधों को नर्सरी में ही 7 से 9 फीट व्यास या अधिक की मोटी पॉलीथिन में मिट्टी, रेत व गोबर खाद बराबर मात्रा में मिलाकर भरें। यदि रेत उपलब्ध न हो तो मिट्टी व गोबर खाद बराबर मात्रा में मिलाकर पॉलीथिन में भरें। पॉलीथिन के उपरी हिस्से को लगभग 2 इंच खाली रहने दें ताकि उसमें पानी भरा जा सके। भारी पॉलीथिन के नीचे तरफ किनारे सूजा या मोटेक खीले से एक दो छेद कर दें, ताकि अतिरिक्त पानी इन छेदों से निकल जाए, अन्यथा अधिक पानी के कारण जड़ें गल सकती हैं। इस प्रकार मिट्टी व खाद के मिश्रण से भरी पॉलीथिन का चौड़ाई में चार या पांच की संख्या व लम्बाई में अपनी सुविधानुसार रखकर क्यारी बना लेना चाहिए। यदि दूसरी क्यारी बनानी हो तो दो क्यारियों के बीच 2 से 3 फीट की जगह आने जाने के लिए छोडऩी चाहिए। क्यारी तैयार होने के बाद सभी पॉलीथिन में अच्छी तरह पानी भरकर अच्छी तरह भीगों देवें। हो सके तो पॉलीथिन में छेद करने का काम मिट्टी को एक बारी भीगो देने के बाद करना चाहिए। अब सभी पॉलीथिन में जो पौधे लगाने हों उनके बीज या थरहा लगा देना चाहिए। इस प्रकार नर्सरी तैयार होने के बाद सभी पॉलीथिन में समय-समय पर पानी सींचन करना चाहिए। पानी बागवानी वाले झारे या पाईप के सामने बाथरूम मे उपयोगी शावर लगाकर देना अधिक उचित होता है। पानी कभी भी पाईप से तेज धार में नहीं देना चाहिए, ऐसा करने से पॉलीथिन फटने की सम्भावना रहती है। समय-समय पर पौधे के आसपास उगने वाली खरपतवार को उखाडक़र फेंकते रहना चाहिए। इस प्रकार नर्सरी में ही पौधों को एक दो वर्ष तक रखकर 7-8 फीट ऊँचाई तक बढऩे देना चाहिए। सम्भव हो तो पॉलीथिन को धूप से बचाने के लिए क्यारी के चारों कोने में करीब 2 फीट ऊँची लकड़ी गड़ाकर कपड़ा या बोरा बांधकर पॉलीथिन के लिए छांव की व्यवस्था करनी चाहिए।

दूसरा चरण:- वृक्षारोपण के असफलता के दूसरा प्रमुख कारण है समय-समय पर पौधों को पानी न मिल पाना। प्राय: वृक्षारोपण तो कर दिया जाता है, परन्तु वृक्षारोपण वाली जगह दूर होने के कारण या अन्य कारणों से उन्हें समय-समय पर पानी नहीं दिया जाता परिणामस्वरूप पौधे गर्मी में मरकर नष्ट हो जाते हैं।

समाधान:- इसके लिए कम से कम एक से डेढ़ फीट लम्बा व इतना ही चौड़ा गड्ढा खोदकर नर्सरी में तैयार पौधे की पॉलीथिन फाडक़र पौधारोपण करें व सम्भव हो तो साथ में गोबर खाद में गड्ढ में भर दें पौधा हवा से झूके मत इतके बबूल, बेर या अन्य किसी प्रकार की डण्डी पौधे के साथ गड़ाकर रस्सी से हल्की गठान द्वारा बांध दें। वृक्षारोपण बारिश में ही करना चाहिए अन्यथा निरन्तर पौधों का पानी देना पड़ेगा। यदि बारिश के शुरुआती दिनों में कम से कम डेढ़ फीट गहरे गड्ढ में 7-8 फीट लंबा घनी जड़ वाले पौधे का रोपण किया जाता है, तो बारिश के तीन चार महीनों में उसकी जड़ें कम से कम एक-दो फीट और नीचे पहुँच जाती है। अर्थात् सतह से लगभग तीन फीट की गहराई में पहुँच जाती है। जमीन की सतह से लगभग तीन फीट गहराई में वर्ष भर नमी रहती है, इसलिए इस प्रकार रोपे गये पौधों को ग्रीष्म ऋतु में इनकी सतत निगरानी करना चाहिए व पत्ते मुरझाकर नीचे झूकने लगे तो तत्काल पानी देना चाहिए। वर्षा ऋतु में गहरा गड्ढा करके वृक्षारोपण करने से आगे के दिनों पानी देने की समस्या पूर्णरूपेण तो नहीं पर लगभग समाप्त हो जाती है।

कुछ ध्यान देने योग्य बातें:-

1. बारिश में वृक्षारोपण करने से पौधे को शीत व ग्रीष्म ऋतु में पानी देने की आवश्यकता लगभग नहीं रहती फिर भी उनकी सतत निगरानी करते रहना चाहिए और यदि पौधों के पत्ते नीचे की ओर झूकने लगे अर्थात् पौधा मुरझाने लगे तो तत्काल पानी देना चाहिए।
2. वृक्षारोपण के समय गड्ढा के ऊपरी भाग को कुछ गहरा रखना चाहिए व गड्ढा के चारों ओर मिटटी कापार बनाना चाहिए ताकि पानी डालने पर पानी अगल बगल न बहे।
3. सम्भव हो तो पौधे के साथ कोई डंडा या बांस गाड़ कर बांध व उसमें बबूल, बेर आदि की कंटीली झाडिय़ां बांध दें या पौधे के चारों ओर गाडक़र या बिखेर कर रख दें, ताकि जानवर पौधों के पास न जा पाए या उसे न रगड़े।
4. पौधों का लम्बा होना ही पर्याप्त नहीं है, पौधों के तनों में पर्याप्त मोटाई आने तक उनकी देखभाल आवश्यक है।
5. निचली जगह जहां वारिस में पानी भर जाता हो वहां पौधों की जड़ गल जाती है। ऐसी गहरी जगहों मे कहवा, जामुन, इमली, करंज के पौधे लगाना चाहिए। इन पौधों का ऊपरी भाग पानी की सतह से ऊपर होने पर ये पानी भरी जगहों मे भी जीवित रहकर वृद्धि करते हैं। अन्य पौधों के मरने की सम्भावना रहती है।
6. सम्भव हो तो घर पर ही छोटी-छोटी पॉलीथिन में मिट्टी भरकर पीपल, बरगद आदि सभी प्रकार के पौधों को बीज या थरहा के माध्यम से लगाकर रखना चाहिए व जब भी बड़ी पॉलीथिन में नर्सरी बनायें तो इन पौधों को छोटी पॉलीथिन फाडक़र बड़ी पॉलीथिन में स्थानांतरित कर देना चाहिए ऐसा करने से पौधे तुरन्त बढऩे लगते हैं।
7. उखाडक़र लगाए गए पौधों की जड़ टूटकर प्राप्त होने पर पॉलीथिन में रोपण के बाद इनके पत्ते सूखकर गिर जाते हैं तथा कुछ दिन बाद नये पत्ते आ जाते हैं।
8. रोपने के बाद यदि पौधे मर जाता है तो उस पॉलीथिन में दूसरा पौधा लगा देना चाहिए।
9. पॉलीथिन में लगे पौधे के तनों में अगल बगल से निकलने वाली शाखाओं की सावधानी से कटाई कर देनी चाहिए ताकि पौधा सीधा ऊपर की बढ़े।
 (वृक्षारोपण से सम्बन्धित शंका समाधान हेतु श्री प्रफुल्ल पटेल मो. 9229473011 से सम्पर्क करें।)

 प्रश्नावली:-

1. पर्यावरण संरक्षण के लिए आप क्या क्या करेंगे?

सन्दर्भ ग्रन्थ:-
1. युग धर्म - पर्यावरण संरक्षण
2. पर्यावरण असन्तुलन - जिम्मेदार कौन?

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