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Books - आध्यात्मिक काम-विज्ञान

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नर-नारी का मिलन एक असामान्य प्रक्रिया

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नर-नारी को सामान्य सामाजिक स्तर पर अलग रहने की जरूरत नहीं है। जरूरत यौन सम्पर्क के सम्बन्ध में अति सतर्कता बरतने की है। मस्तिष्क के बाद जननेन्द्रिय का दूसरा स्थान है। इन दोनों केन्द्रों को शक्ति संस्थान कहना चाहिये। पृथ्वी के दो सिरे दो ध्रुव कहलाते हैं, इन ध्रुवों में अति रहस्यमय प्रकृति की शक्ति धाराओं के स्रोत बीज दबे पड़े हैं। इन्हीं के कारण यह धरती अपनी धुरी पर घूमने, सूर्य की परिक्रमा करने, लहराती चाल से चलने, महा सूर्य को अपने सौर मण्डल के साथ भ्रमण कराने में समर्थ है। ऋतु परिवर्तन से लेकर, वनस्पति उत्पादन और खनिज द्रव्यों के निर्माण तथा सारी प्रक्रियाएं उन्हीं उभय ध्रुवों में सन्निहित शक्ति बीजों के कारण सम्भव होती है। मनुष्य पिण्ड में भी पृथ्वी की ही तरह मस्तिष्क उत्तरी ध्रुव और मूलाधार दक्षिणी ध्रुव है। जीवन की चेतनात्मक, बौद्धिक एवं भावनात्मक हलचलों का केन्द्र मस्तिष्क है और शरीर में जो कुछ उत्तम, आकर्षक दीखता है उसका केन्द्र जननेन्द्रिय के अन्तराल में दबा पड़ा है। यदि मस्तिष्क में विकृति आ जाय तो बुद्धिहीन व्यक्ति पागल की तरह अपने और दूसरे के लिए निरर्थक हो जायगा। इसी प्रकार यदि मूलाधार के कामबीज विकृत हो जायें तो स्नायु मंडल से लेकर पाचन तन्त्र तक सारा कार्य-कलाप लड़खड़ा जायगा। इसलिए इन दोनों शक्ति-संस्थानों का बहुत ही समझ-बूझ कर अति दूरदर्शिता पूर्वक उपयोग किया जाता है। इस उपयोग में बरती गई भूलें बहुत ही विघातक सिद्ध होती हैं।

प्रकृति ने मस्तिष्क का वाह्य कलेवर हड्डियों के मजबूत किले के भीतर सुरक्षित रखा है। ताकि बाहरी कोई विघातक तत्व-शीत, ग्रीष्म का प्रभाव उसे प्रभावित न कर सके, भीतरी प्रभावों को ग्रहण करे और छोड़ने की गुंजाइश ही रखी गई। मनुष्य अपने चिन्तन मनन, स्वाध्याय सत्संग से उसे प्रभावित कर सकता है और दिशा दे सकता है। मस्तिष्क की दिशा जिधर चल पड़ती है जीवन का स्वरूप वैसा ही बन जाता है और उसी आधार पर मनुष्य उन्नति अवनति सुख-दुःख के परिणाम उपलब्ध करता है। मस्तिष्क मर्म स्थल कहा गया है—उसके ब्रह्म रन्ध्र में क्षीर सागर निवासी विष्णु भगवान् विराजमान हैं इस पौराणिक अलंकार में यही रहस्य छिपा पड़ा है कि समस्त दिव्य शक्तियों सिद्धियों और विभूतियों का केन्द्र इस मस्तिष्क को ही कहा जाता है। इसे स्वस्थ एवं समुन्नत रखने के लिए विद्याध्ययन से लेकर विचार विनिमय तक हमें बहुत कुछ करना होता है। तभी इस मस्तिष्क से समुचित लाभ मिल पाता है। यदि उसे कुसंग, दुर्बुद्धि, अशुभ-चिंतन आदि से विकृत कर लिया जाय तो समझना चाहिये कि उत्कर्ष की संभावनाएं समाप्त हो गईं और भविष्य को अन्धकारमय बना लिया गया।

ठीक इसी प्रकार जननेन्द्रिय का महत्व है। उसे मात्र मूत्र त्याग अथवा घिनौने मनोरंजन के लिए नहीं बनाया गया उसमें स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर दीर्घ जीवन तक के सारे सूत्र बीज रूप में विद्यमान हैं। इसलिए इसे भी ऐसी जंघाओं की मांसल किन्तु अति कोमल परिधि के दायरे में प्रकृति ने प्रतिष्ठापित किया है। इस सुरक्षात्मक व्यवस्था के पीछे प्रकृति का यही निर्देश सन्निहित है कि इस मर्म स्थान का उपयोग अति सतर्कता और दूर-दर्शिता के साथ ही किया जाना चाहिये। उसे निम्न स्तर के क्रीड़ा-कलाप का खिलौना बना कर अपनी शारीरिक क्षमताओं पर कुठाराघात नहीं किया जाना चाहिये।

नर-नारी का सामान्य मिलन जितना उपयोगी है उतना ही वासनात्मक सम्पर्क से खतरा भी है। दोनों का स्वरूप और महत्व अलग-अलग है। प्रतिबंधित, व्यक्ति सान्निध्य नहीं, यौन मिलन किया जाना चाहिये। यह ध्यान रखा जाय वासनाओं का उभार एक अलग चीज है जिसका सामाजिक नर-नारी सम्पर्क से कोई विशेष संबंध नहीं। पुरुष दुकानदारों के यहां सामान खरीदने दिन भर औरतें जातीं और बात करती हैं। कोई विकार उत्पन्न नहीं होता न कोई किसी की ओर आकर्षित होता है। आकर्षण उस विशेष मनःस्थिति में उत्पन्न होता है जिसमें यौन-सम्पर्क की अभिलाषा भी रहती है। यदि इस भावस्थल को पहले से ही निर्मल बना लिया जाय तो बात भले ही नवयौवन की हो, सामने वाले रूपवान पक्ष के लिए भी आकर्षण पैदा न होगा।

यह बचाव इसलिए आवश्यक है कि यौन संस्थानों में अद्भुत विद्युत धाराएं प्रवाहित करने वाला शक्ति केन्द्र विराजमान है जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं। वस्तुतः यह नाम करण बहुत ही समझ-बूझकर किया गया है। यही शरीर के अन्तर्गत काम करने वाले सारे क्रिया-कलाप, उत्साह, स्फूर्ति, कोमलता, आकर्षण, आरोग्य, दीर्घ-जीवन आदि का मूलभूत आधार है। इसकी अवांछनीय छेड़खानी करने से हम काम-क्षमता को एक प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट ही कर डालते हैं।

‘नर में प्राण और नारी में रयि शक्ति की प्रधानता है। उन्हें आध्यात्मिक भाषा में अग्नि और सोम कहते हैं। विज्ञान के शब्दों में इन्हें धन और ऋण विद्युत-धारा पुकारते हैं, इनमें स्वभावतः आकर्षण है। एक दूसरे के समीप आकर अपनी अपूर्णता पूर्व करना चाहते हैं। जहां तक सामान्य सम्पर्क का संबंध है वहां तक यह विनिमय उपयोगी है। सभी जानते हैं कि बिना बाप या भाई की लड़की और बिना मां या बहिन का लड़का मानसिक दृष्टि से अपूर्ण अविकसित पाया जाता है। प्रतिपक्षी वर्ग का सम्पर्क व्यक्तित्व में विकास के अनेक द्वार खेलता है। एकांकी अलग-थलग पड़ा जीवन-क्रम कुंठित और मूर्छित होता चला जाता है। विधवा और विधुरों की मृत्यु संख्या, रोग ग्रस्तता एवं शारीरिक दुर्बलता—विवाहितों की अपेक्षा कहीं अधिक पायी जाती है। पर्दे में रहने वाली महिलाएं हर दृष्टि से पिछड़ती चली जाती हैं। यह सामान्य प्रतिपक्षी सम्पर्क से वंचित होने का ही दुष्परिणाम है। यदि जन-सम्पर्क में नर-नारी जैसी बाधा उपस्थित की जाय तो इससे व्यक्तित्वों के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं होगी वरन् सहायता ही मिलेगी।

यदि मन में काम-विकार जाग पड़े तो प्रतिपक्षी वर्ग के साथ सामान्य सम्पर्क की मर्यादा तोड़कर यौन सम्बन्ध स्थापित करने की अभिलाषा होती है। दोनों विद्युत-धारायें समीप आने के लिए मचल उठती हैं और उससे सामाजिक काम-विकृति तो प्रत्यक्ष ही फैलती है। शारीरिक मानसिक गड़बड़ी भी कम नहीं उभरती। व्यभिचार के पीछे एक तथ्य तो स्पष्ट है कि सामान्य स्तर के व्यक्ति अपने दाम्पत्य जीवन तथा परिवार के प्रति निष्ठावान् नहीं रहते दूसरी जगह आकर्षण चला जाने से अपना परिवार उस स्नेह सौजन्य के लाभ से वंचित होने लगता है जो सामान्यतया किसी सद्ग्रहस्थ के लिए आवश्यक है। परिवार व्यवस्थाएं गड़बड़ाने न लगें, ग्रहस्थ अपनी-अपनी धुरी पर टिके रहें; इस दृष्टि से व्यभिचार को हेय माना गया पर यह कोई अविच्छिन्न मर्यादा नहीं है। आवश्यकतानुसार इसमें हेर-फेर भी होते रहते हैं। जर्मनी में जब पिछले महायुद्ध के समय पुरुष बहुत मारे गये और नारियों की संख्या अधिक रह गई तो तत्कालीन स्थिति को देखते हुए एक पुरुष कई पत्नियां रख सके, कानून में ऐसे सुधार किये गये। सामान्य तथा इसाई देशों में एक पत्नी-एक पति का ही कानून रहता है। इसी प्रकार देहरादून-जिले के जौनसार वावर क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में यह आम रिवाज है कि भाइयों में से एक बड़े भाई का विवाह होता है जो पत्नी आती है वह सब छोटे भाइयों की भी उपपत्नी होती है। बच्चे उन जन्म दाताओं को बड़े पिताजी, मंझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि कह कर संबोधित करते हैं। वहां इस विवाह पद्धति को कोई न व्यभिचार कहता है—न बुरा मानता है। उनका कहना है कि हम उन पाण्डवों की सन्तान हैं, जिनने एक द्रौपदी से ही पांचों ने अपना दाम्पत्य-जीवन निभा लिया था। जहां तक उथले स्तर पर बहुपतियों बहुपत्नियों का संबंध है वहां तक उसे सामाजिक स्तर का परिवार जीवन में विकृति उत्पन्न करने वाला पाप ही कहा जा सकता है। यदि कहीं ऐसी गड़बड़ न होती हो और गृहस्थ सद्भावतः यथावत् बना रहता हो तो उस दोष का परिमार्जन हो जाता है जिसके कारण एक से अनेक का दाम्पत्य जीवन गर्हित या वर्जित घोषित किया गया है। कृष्ण ने बहुपत्नी और द्रोपदी ने बहुपति का सफल प्रयोग करके यह सिद्ध किया था कि पारिवारिक जीवन में विकृति उत्पन्न किये बिना यौन-सम्पर्क को विस्तृत किया जा सकता है पर यह हर किसी के बस की बात नहीं। इस प्रयोग में बहुत ऊंचे या बहुत नीचे व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं। अस्तु सामान्य समाज व्यवस्था में एक पत्नी या एक पति प्रथा का ही प्रचलन है जो उचित भी है और आवश्यक है।

प्राचीन काल में नियोग प्रथा प्रचलित थी। सुयोग्य सन्तान उत्पन्न कर सकने की क्षमता से सम्पन्न न होने पर पति अपनी पत्नी के लिए अन्य उपयुक्त व्यक्ति से यौन-सम्पर्क करने की आज्ञा देते थे और उस आधार पर जो बच्चे होते थे उन्हें सम्मानित नागरिक ही माना जाता था। विचित्र वीर्य ने अपनी पत्नियों की व्यास जी द्वारा ऐसे ही नियोग की व्यवस्था की थी और उत्पन्न हुए तीनों बालक पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा विदुर वैध सन्तान के सम्मान से वंचित नहीं हुए थे। आज के लोगों की मनःस्थिति दूसरी है इस लिए प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत पड़ी, उन दिनों व्यक्ति अधिक उदार और उत्तरदायी होते थे, नियोग की प्रथा रहने पर भी कोई अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों में गड़बड़ाता न था, उन दिनों की बात दूसरी थी, पर अब जब कि छोटी तवियत के लोग तनिक से आकर्षण में अपने घर बिगाड़ने लगे तो एक पत्नी या एक पति की मर्यादा ही उचित है।

नर-नारी सम्पर्क की अभिवृद्धि में जो खतरा है उसे समझने के लिए हमें अधिक गहराई तक विचार करना होगा। सामाजिक मान के रूप में जहां तक परिवार विग्रह के कारण उत्पन्न अव्यवस्था का सवाल है वहां यदि उच्चस्तरीय सम्पर्क हो तो उस संबन्ध में थोड़ी उपेक्षा भी की जा सकती है। पर इस संदर्भ में अधिक कड़ाई बरतने का अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि यौन सम्पर्क नर-नारी की अति महत्वपूर्ण विद्युत-शक्ति की एक दूसरे में अति तीव्रता पूर्वक प्रवाहित होती है। यदि वह प्रवाह उपयुक्त न हुआ तो आन्तरिक क्षमता का भयानक ह्रास और विद्रूप प्रस्तुत होता है। शक्ति का नियम यह है कि अधिक स्वल्प समर्थता की ओर भागती है, दो तालाबों को यदि एक नाली खोद कर परस्पर मिला दिया जाय तो ऊंचे लेविल का पानी नीचे लेविल के तालाब की ओर बहना आरम्भ कर देगा और वह प्रवाह तब तक चलता रहेगा जब तक कि दोनों का पानी एक लेविल पर नहीं आ जाता। एक रोगी और दूसरा निरोग व्यक्ति यदि यौन-सम्पर्क करेंगे तो प्रत्यक्षतः रोगी को लाभ और निरोग को हानि होगी। एक की सामर्थ्य दूसरे में प्रवाहित होगी और नर या नारी जो भी दुर्बल होगा लाभ में रहेगा और सबल को घाटा उठाना पड़ेगा। यह बात शरीर सम्बन्धी स्थिति पर जितनी लागू होती है उससे हजार गुनी अधिक मनःस्थिति पर लागू होती है। ओछे स्तर के दुष्ट, दुराचारी, व्यसनी और अनाचारी व्यक्तियों से यौन सम्पर्क बनाने वाला दूसरा पक्ष अपनी आत्मिक विशेषताओं को खोता चला जायगा इसी प्रकार मंद बुद्धि और प्रतिभा सम्पन्नों के बीच इस प्रकार का प्रत्यावर्तन निश्चित रूप से समर्थ पक्ष के लिए हानि-कारक सिद्ध होगा।

उच्च स्तरीय प्रतिभाओं से सम्पन्न व्यक्तियों में स्वभावतः कितने ही महत्वपूर्ण चेतन तत्व भरे पड़े होते हैं उन्हीं के आधार पर उन्हें आश्चर्यजनक सफलतायें मिलती हैं। यदि उस शक्ति स्रोत को वे काम-क्रीड़ा में खर्च करने लगे तो धीरे-धीरे अपना कोष समाप्त करते चले जायेंगे। इस लिए प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को-उच्चस्तरीय बौद्धिक अथवा आत्मिक गुण सम्पन्नों को ऐसे विनियोग करने से रोका गया। ब्रह्मचर्य ऐसे लोगों के लिए अधिक आवश्यक है। घटिया शरीर स्थिति और मनःस्थिति का व्यभिचार करे तो उसे उतना घाटा नहीं है जितना मनोबल और आत्मबल सम्पन्न लोगों को इस शरीर बल की तुलना में मनोबल का मूल्य अत्यधिक है। पुष्ट शरीर और दुर्बल शरीर का यौन सम्पर्क स्वस्थ पक्ष को थोड़ी-सी ही शारीरिक क्षति पहुंचाता है पर मनोबल और बुद्धिबल तो प्रत्यक्ष प्राण है वह तनिक अवसर पाते ही प्रचण्ड प्रवाह की तरह विद्युत गति से दौड़ पड़ता है और निम्न स्तर के पक्ष में स्थिर कर अपनी भारी हानि कर लेता है। दुर्बल मनोबल वाला पक्ष थोड़ा लाभ उठाले यह ठीक है पर उससे प्राण शक्ति सम्पन्न पक्ष अपनी प्रतिभा खोकर उस प्रयोजन को पूरा कर सकने में असमर्थ हो जाता है जो अनेक दृष्टियों से अति महत्वपूर्ण होते हैं।

विवाह वस्तुतः व्यक्ति विनियोग की दृष्टि से अतीव सतर्कता के साथ ही किये जाने चाहिये। जोड़ा ठीक हो तो ही उसकी सार्थकता है अन्यथा उससे लाभ से भी अधिक हानि की सम्भावना रहती है। भोजन पका देने या बच्चे पैदा करने का लाभ उतना महत्व का नहीं जितना कि प्राणों के प्रत्यावर्तन का। जिसका व्यक्तित्व जितना घटिया होगा गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से जिसका स्तर जितना नीचा है उसमें आन्तरिक क्षमता उतनी ही स्वल्प होगी। कई व्यक्ति शरीर से सुन्दर और पुष्ट दीखते हुए भी आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बहुत ही दीन-हीन होते हैं। इसके विपरीत शरीर से क्षीण दीखने वालों का प्राण बल भी आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण बहुत प्रबल रहता है। यौन सम्पर्क से प्रत्यावर्तन शरीरों का नहीं प्राण का होता है। शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप प्राण है, शरीर या कलेवर नहीं। प्राण की पुष्टि परिपक्वता केवल उत्कृष्ट व्यक्तित्वों और श्रेष्ठ प्रतिभा सम्पन्नों में ही सम्भव है, ऐसे व्यक्ति अपनी उस विभूति को क्रीड़ा-कल्लोल में खर्च करके छूंछ न बन जायं और विश्व की महती सेवा कर सकने के पुण्य से वंचित न हो जायें इसलिए उन्हें अधिक सतर्कता और कठोरता के साथ ब्रह्मचर्य पालन, करने के लिए प्रतिबन्धित किया गया है।

काम-विकार आंधी, तूफान की तरह आते हैं और बिना पात्र कुपात्र का भेद किये बादलों की तरह चाहे जहां बरस पड़ते हैं। यदि यह सम्पर्क वैध अथवा उपयुक्त नहीं है तो इससे बहुत प्रकार की विकृतियां उत्पन्न होंगी। विवाह हो या व्यभिचार प्राण शक्ति का विनियोग समान रूप से अपना वैज्ञानिक प्रभाव उत्पन्न करेगा। घटिया, स्तरहीन प्राण और ओछे व्यक्तियों के साथ सम्पर्क बना कर न पत्नी को लाभ मिलेगा न प्रेयसी को। न पति का कल्याण है न प्रेमी का। यौन-सम्पर्क एक प्रकार से अपनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक पूंजी का आत्म-समर्पण है। अविवेक पूर्वक चाहे जहां, चाहे जिसके साथ बिना उसकी आन्तरिक स्थिति को परखे, यदि शरीर आकर्षण अथवा इन्द्रिय प्रेरणा से प्रेरित होकर ये किये जायेंगे तो उसमें समर्थ पक्ष को बहुत तरह की बहुत गहरी क्षति उठानी पड़ेगी। तनिक भी क्रीड़ा उसे बहुत महंगी पड़ेगी।

नर-नारी का समाज सम्पर्क यदि व्यभिचार तक बढ़ चले तो निस्संदेह वह बहुत हानिकारक है इससे मनोबल उन्नत न होगा। बहुत घाटे में रहेंगे, प्रतिभाएं कुंठित होती चली जायेंगी और उच्च व्यक्तित्वों के दुर्बल होने से समाज की भारी क्षति होगी। यों शरीर सम्पर्क की मर्यादा का व्यक्ति-क्रम भी कम हानिकारक नहीं है। सामान्य व्यक्तियों को भी बहुत दिन बाद—यदा कदा ही काम-सेवन की बात सोचनी चाहिये; यदि वे आये दिन इसी मखौल में उलझे रहे और अपने ओजस= को गन्दी नालियों में बहाते रहे तो उन्हें शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता का शिकार ही नहीं बनना पड़ेगा, बल्कि मनोबल, आत्मबल, और प्राण शक्ति की पूंजी से भी हाथ धोना पड़ेगा। काम-सेवन में जिनकी अति प्रवृत्ति है वे अपनी ही पूंजी नहीं चुकाते वरन् साथी का भी सर्वनाश करते हैं। अपने समाज में नारी की शारीरिक और मानसिक दुर्गति का एक बहुत बड़ा कारण उनके प्रतियों द्वारा बरती जा रही अत्याचारी रीत-नीति है जिसके कारण उन्हें विवश होकर अपने अच्छे खासे स्वास्थ्य की बर्बादी सहन करनी पड़ी, यदि संयम से गृहस्थ जीवन चलाया गया होता तो न कोई नारी बन्ध्या होती न किसी को प्रदर जैसे रोगों को शिकार बनना पड़ता। जितनी संतान भली प्रकार पालित नहीं की जा सकती उतनी पैदा करके गृहस्थ-जीवन का उद्देश्य और आनन्द नष्ट कर लेना भी यौन-सम्पर्क की मर्यादाओं का अतिक्रमण ही है। ऐसे अविवेकी साथी को पाकर किस गृहस्थ को विवाह का आनन्द मिलेगा। यौन-सम्पर्क की जिसमें खुली छूट है उस विवाह के करने से पूर्व ही हजार बार सोचना चाहिए, कि साथी का प्राण तत्व किस स्तर का है, उसकी विचारणा भावना, गुण, कर्म-स्वभाव, चरित्र, मनोबल, आत्मबल जैसे उच्च तत्वों की स्थिति क्या है। यदि ऐसा नहीं ढूंढ़ा गया और यों ही किसी नर तनुधारी से विवाह कर लिया गया तो उससे शरीर को क्षीण करने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।

जननेन्द्रियों का सम्पर्क ही काम उल्लास नहीं। वरन् उच्च भावना सम्पन्न व्यक्तित्वों का परस्पर आन्तरिक आदान प्रदान ही वह आनन्द प्रदान कर सकता है जिसे भौतिक जगत का सर्वोपरि सुख माना गया है और जिसकी तुलना ब्रह्मानन्द से की गई है। प्रकृति और पुरुष का संयोग ही इस सृष्टि में आनन्द और उल्लास की तरंगें प्रवाहित कर रहा है केवल उच्च स्तरीय भावनाओं से सम्पन्न नर-नारी ही एकान्त मिलन का वह आनन्द ले सकते हैं जो शक्ति को किसी तरह नष्ट नहीं करता वरन् असंख्य गुनी बढ़ा देता है, काम-सेवन आम तौर से हानिकारक ही माना गया है पर उन अपवादों से लाभदायक शक्ति संवर्धक और उत्कर्ष में सहायक भी सिद्ध हो सकता है। नहीं तो उन आत्माओं का शारीरिक ही नहीं आत्मिक मिलन भी संभव होता है। पर ऐसा होता कहां है? ऐसे जोड़े मिलते कहां है? जब तब वैसी स्थिति प्राप्त न हो केवल इन्द्रिय सुख के लिये काम-सेवन एक क्षणिक आवेश और हानिकारक कार्य ही सिद्ध होता है। इसलिये यौन-सम्पर्क में बहुत ही सावधानी बरतने और जहां तक सम्भव हो ब्रह्मचर्य पालन करने की मर्यादा नियन्त्रित की गई है। वही सर्वोपयोगी भी है।

काम को मरण मात्र नहीं अमृत बनायें

शरीर शास्त्री और मनोविज्ञान वेत्ता यह बताते हैं कि नर-नर का सान्निध्य—नारी, नारी का सान्निध्य मानवीय प्रसुप्त शक्तियों के विकास की दृष्टि से इतना उपयोगी नहीं जितना भिन्न वर्ग का सान्निध्य। विवाहों के पीछे सहचरत्व की भावना ही प्रधान रूप से उपयोगी है, सच्चे सखा सहचर की दृष्टि से परस्पर हंसते, खेलते जीवन बिताने वाले पति-पत्नी यदि आजीवन काम सेवन न करें तो भी एक दूसरे की मानसिक एवं आत्मिक अपूर्णता को बहुत हद तक पूरा कर सकते हैं। मनुष्य में न जाने क्या ऐसी रहस्यमय अपूर्णता है कि वह भिन्न वर्ग के सहचरत्व से अकारण ही बड़ी तृप्ति और शान्ति अनुभव करता है। अविवाहित जीवन में सब प्रकार की सुविधायें होते हुए भी एक उद्विग्नता, अतृप्ति और अशांति बनी रहती है। विवाह के बाद एक निश्चिंतता सी अनुभव होती है। साथी की प्रगाढ़ मैत्री का विश्वास करके व्यक्ति अपनी समर्थता दूनी ही नहीं दस गुनी अनुभव करता है। एकांकी जीवन में शून्यता थी उसकी पूर्ति तब होती है जब यह विश्वास बन जाता है कि हम अकेले नहीं दूसरे साथी को लेकर चल रहे हैं, जो हर मुसीबत में सहायता करेगा और प्रगति के हर स्वप्न में रंग भरेगा। यह विश्वास मन में उतरते ही मनोबल चौगुना बढ़ जाता है और उत्साह भरी कर्मठता और आशा भरी चमक से जीवन-क्रम में एक अभिनव उल्लास दृष्टिगोचर होता है। विवाह का मूल लाभ भिन्न वर्ग के सान्निध्य से होने वाले उभयपक्षी सूक्ष्म शक्ति प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण प्रत्यावर्तन तो है ही, एक मनोवैज्ञानिक लाभ अन्तरंग का एकाकीपन दूर करना और समर्थता को द्विगुणित हुई अनुभव करना भी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का आशापूर्ण भविष्य की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।

काम-सेवन विवाहित जीवन में आवश्यकतानुसार—मर्यादाओं के अन्तर्गत—उपयुक्त होता रहे तो उसमें कोई बड़ा अनर्थ नहीं है। पर उसे आवश्यक या अनिवार्य न माना जाय। मोटेतौर से पति-पत्नी की परस्पर मनःस्थिति वैसी ही होनी चाहिए जैसे दो पुरुष या दो नारियों की सघन मित्रता होने पर होती है। सखा, साथी, मित्र, स्नेही का रिश्ता पर्याप्त है कामुक और कामिनी को दृष्टि में रखकर किये गये विवाह घृणित हैं। रूप, रंग, शोभा, सौन्दर्य के आधार पर उत्पन्न हुआ आकर्षण एक आवेश मात्र है। उस आधार पर जो जोड़े बनेंगे वे सफल न हो सकेंगे। रूप, यौवन की सारी चमक एक छोटा-सा रोग बात की बात में नष्ट करके रख सकता है। फिर कोई दूसरा अधिक सुन्दर आकर्षण सामने आ जाय तो मन उधर ढुलक सकता है। रूपवान में दोष, दुर्गुण भरे पड़े हों तो भी निवाह देर तक नहीं हो सकेगा। शारीरिक आकर्षण की खोज आज की विवाह सफलता का प्रधान अंग बनती जा रही है। रूपवान लड़के लड़कियों की ही मांग है। कुरूपों की बाजार दर दिन-दिन गिरती जाती है। यह प्रवृत्ति बहुत ही विघातक है। चमड़ी की चमक ही यदि अच्छे साथी की कसौटी बन जायेगी तो फिर आन्तरिक स्तर की उत्कृष्टता का क्या मूल्य रह जायगा? फिर भावनाओं की सद्गुणों की, स्नेह सौजन्य की कीमत कौन आंकेगा?

चमड़ी का रंग या नखशिख की बनावट की शोभा, सौन्दर्य की दृष्टि से सराहा जा सकता है। नृत्य अभिनय में उसको प्रमुखता मिल सकती है। नयनाभिराम मनमोहक आकर्षण भी उसमें देखा जा सकता है। ईश्वर की कृति की इस विभूति से प्रसन्न हुआ जा सकता है। दाम्पत्य-जीवन में उसकी कोई बहुत उपयोगिता नहीं है। मिलन चमड़ी का—आंख, नाक, का नहीं वरन् अन्तरंग का होता है और उसकी उत्कृष्टता, निकृष्टता चेहरे पर अवयवों की बनावट से तनिक भी सम्बन्ध नहीं रखता। हो सकता है कोई काला कुरूप व्यक्ति योगी अष्टावक्र नीतिज्ञ चाणक्य अथवा पांचाली द्रौपदी की तरह उच्च मनःस्थिति धारण किये हो। रूपवती नर्तकियों अभिनेत्रियां नट-नायक कोई उच्च भावनाशील ही थोड़े होते हैं। बन्दीगृह में क्रूर कर्म करने के दण्ड में अगणित नर-नारी आते रहते हैं उनके कुकर्मों का विवरण सुनकर रोमांच खड़े हो जाते हैं। रूप रंग के आवरण में उनके भीतर प्रेत पिशाच का वीभत्स नृत्य देखकर दिल दहल जाता है। विवाह का वास्तविक आनन्द और लाभ जिन्हें लेना हो उन्हें साथी का चुनाव करने में रंग रूप की बात उठाकर ताक में रख देनी चाहिये। केवल सद्भावना निष्ठा, सौजन्य, व्यवस्था, उदारता, दूरदर्शिता, उत्साही और हंसमुख प्रकृति जैसे सद्गुणों पर ही ध्यान देना चाहिये। सज्जनों के बीच ही चिरस्थायी मैत्री का निर्वाह होता है। दुर्जन तो क्षण भर में मित्र बनते हैं और पल भर में शत्रु बनते देर नहीं लगती। अभी बहकावे की मीठी-मीठी बात कर रहे थे और चापलूसी की अति कर रहे थे, अभी तनिक सी बात पर खून के प्यासे बन सकते हैं। प्रेम के जाल में ऐसे ही लोग दूसरों को फंसाते फिरते बहुत देखे जाते हैं। इसलिये विवाह की सोचने से पहले—साथी के चुनाव की कसौटी निश्चित करनी चाहिए और वह यह होनी चाहिए कि रंग रूप कैसा ही क्यों न हो साथी की आन्तरिक स्थिति में स्नेह सौजन्य की समुचित पुट होना ही चाहिए। जिन्हें ऐसा साथी मिल जाय समझना चाहिए कि उसका विवाह करना सार्थक हो गया।

काम-सेवन के सम्बन्ध में उपेक्षा वृत्ति बरती जानी चाहिए। इस प्रयोग का स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। कम ही लोग ऐसे होते हैं जिनके पास अपनी शारीरिक, मानसिक आवश्यकता की पूर्ति के अतिरिक्त इतना ओजस् संचित रहे जिसे क्रीड़ा कल्लोल में व्यय कर सके। आमतौर से—वर्तमान परिस्थितियों में लोग इतनी ही शक्ति उपार्जित कर पाते हैं जिसके आधार पर किसी प्रकार काम चलता रहे और गाड़ी लुढ़कती रहे। इस स्वल्प उत्पादन में से यौन सम्पर्क में अपव्यय किया जायगा तो उसका सीधा प्रभाव समग्र स्वास्थ्य और जीवन यात्रा पर पड़ेगा। विषयी मनुष्य अपनी श्रमशीलता, तेजस्विता, स्फूर्ति, निरोगता, प्रतिभा, स्मरण शक्ति, साहसिकता, स्थिरता, सन्तुलन आदि सभी शारीरिक मानसिक विशेषतायें खोते चले जाते हैं। यह अपव्यय जितना बढ़ता है उतना ही खोखलापन बढ़ता चला जाता है, आसक्ति का शिकंजा अपने गले में कसा जाना हर कामुक व्यक्ति निरन्तर अनुभव करता रहा है। यह एक प्रकार से स्वेच्छा पूर्वक, हंसते-खेलते की जाने वाली मन्दगति से की जाने वाली आत्मा हत्या ही है। प्रजनन जब उचित और आवश्यक हो तो उचित मर्यादाओं के अन्तर्गत काम-सेवन में ढील छोड़ी जा सकती है। यदि अपनी या साथी की तन्दुरुस्ती या मनःस्थिति ठीक न हो तो इस प्रकार के छेड़छाड़ का कोई तुक नहीं रह जाता। पति-पत्नी के बीच इस प्रकार का धैर्य, संतुलन रहना ही चाहिये कि जब तक अति आवश्यक न हो दोनों की पूर्ण सहमति न हो तब तक इस प्रसंग को उपेक्षित ही किया जाय। साथी की अनिच्छा रहने पर उसे विवश करना एक प्रकार से बलात्कार जैसा अपराध ही है भले ही वह विवाहित साथी के साथ किया गया हो। कानून उसे भले ही दण्डनीय न माने पर नैतिक दृष्टि से उसे निर्लज्ज बलात्कार ही कहा जायगा। ऐसा प्रसंग जिससे साथी का मन रोष या क्षोभ से भर जाय निश्चित रूप से कामुक पक्ष के लिए हर दृष्टि से हानिकारक सिद्ध होगा। क्षणिक उद्वेग शान्त करके जितनी प्रसन्नता पाई गई थी, कालान्तर में उसकी प्रतिक्रिया अनेक गुणी अप्रसन्नता की परिस्थिति लेकर सामने आवेगी। अस्तु हर समझदार पति-पत्नी की आदि से अन्त तक ऐसी मनःस्थिति विनिर्मित करनी चाहिए कि कोई किसी को कठिनाई, क्षति या असमंजस में न डाले। दाम्पत्य-जीवन के बीच ब्रह्मचर्य की निष्ठा का जितना प्रभाव होगा उतना ही पारस्परिक सद्भाव प्रगाढ़ होता जायगा और वह लाभ मिलेगा जिसे प्राप्त करना विवाह का मूल प्रयोजन है।

जननेन्द्रिय का अमर्यादित उपयोग यौन रोग उत्पन्न करता है। विशेषतया नारी को तो इससे अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। औसत नारी महीने में एकाध बार से अधिक काम-क्रीड़ा का दबाव सहन नहीं कर सकती। प्रजनन की दृष्टि से हर बच्चे के बीच कम से कम पांच वर्ष का अन्तर होना चाहिए। जल्दी-जल्दी बच्चे उत्पन्न करने और काम-क्रीड़ा का अधिक दबाव पड़ने पर नारी अपना शारीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य भी खो बैठती है। दैनिक काम-क्रीड़ा का स्वरूप हंसी, विनोद, मनोरंजन, चुहल, छेड़-छाड़ तक सीमित रहे तभी ठीक है। हर्षोल्लास बढ़ाने वाले छुटपुट क्रिया-कलाप चलते रहें तो चित्त प्रसन्न रहता है, परस्पर घनिष्ठता बढ़ती है और सान्निध्य का मनोवैज्ञानिक ही नहीं काम प्रयोजन भी पूरा हो जाता है। यौन-संपर्क को यदा कदा के लिए ही सीमित रखना चाहिए। आये दिन की इस विडम्बना में फंस कर मनुष्य अपना स्वास्थ्य ही नष्ट नहीं करता, प्रतिक्रिया के आनन्द से भी वंचित हो जाता है। कामुक व्यक्ति बहुत घटिया और उथला आनन्द ले पाते हैं। उसमें जो ऊंचे स्तर का उल्लास है उसे प्राप्त करने के लिए देर तक की संग्रहीत शक्ति होनी चाहिए। जिन्हें यौन रोगों से बचना हो उन्हें इस प्रकार की सतर्कता रखना ही चाहिए।

इस संदर्भ में यह समझ ही लिया जाय कि जननेन्द्रिय का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। वहां जो कुछ गड़बड़ होगी उसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ेगा। मनोविज्ञान वेत्ताओं के अनुसार उचित समय पर उचित काम-सेवन को अवसर न मिलने से जहां अपस्मार मूर्छा, भूत-प्रेत, अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, स्मरणशक्ति की कमी, शिर दर्द, हृदयरोग, नाड़ी विकृति आदि रोग उत्पन्न होते हैं वहां अति काम-सेवन भी ऐसे ही उद्वेग उत्पन्न करता है। लम्पटों का शरीर जितना क्षीण होता है मन उससे भी अधिक विक्षिप्त, असंतुलित, रहने लगता है। अनेकों मानसिक रोगों से त्रस्त उन्हें पाया जायगा जिन्होंने काम-सेवन की दिशा में अति बरती। इस प्रकार का दुरुपयोग यों दोनों के लिए ही हानिकारक है पर नारी को तो उसकी क्षति असाधारण रूप से उठानी पड़ती है। अतएव विवाहित जीवन को काम-क्रीड़ा के उच्छृंखल उपयोगी की खुली छूट नहीं मान लेनी चाहिए और उस संदर्भ में लगभग वैसी ही सतर्कता उपेक्षा बरतनी चाहिए जैसी कि अविवाहित-जीवन में बरती जाती है। इस शक्ति संग्रह का सर्वतोमुखी प्रतिभा और व्यक्तित्व के विकास पर सीधा असर पड़ता है। सुहागिनों की अपेक्षा विधवायें अथवा कुमारियां अधिक तेज तर्रार और स्फूर्तिवान पाई जाती हैं। इसका कारण उनकी अन्तःशक्ति का अनावश्यक क्षरण न होना ही प्रधान कारण है। इस लाभ से विवाहितों को भी वंचित नहीं होना चाहिए।

काम-सेवन का वैज्ञानिक स्वरूप यह है कि शरीरों की विद्युत शक्ति का इस प्रयोग द्वारा अति द्रुत-गति से प्रत्यावर्तन होता है। मानवीय विद्युत की मात्रा शरीर में भी पाई जाती है पर उसका भण्डार-चेतन संस्थान में ही देखा पाया जाता है। यौन संस्थान की नींव में यह बिजली अकूत मात्रा में भरी पड़ी है। जैसे ही जननेन्द्रिय निकट आती है वैसे ही वह प्रसुप्त शक्ति सजग और प्रबल हो उठती है और तत्काल दोनों पक्ष अपनी विद्युत-शक्ति का विनिमय करने लग जाते हैं। ऋण विद्युतधारा धन की ओर और धन धारा ऋण की ओर दौड़ने लग जाती है। नर-नारी को और नारी नर को अपना शक्ति प्रवाह प्रस्तुत करते हैं। इस सम्मिलन एवं प्रत्यावर्तन का ही वह परिणाम है जो काम-सेवन के आनन्द के रूप में उस क्षण अनुभव किया जाता है। यह विशुद्ध रूप से प्राण और रयि शक्ति के—अग्नि और सोम के परस्पर प्रत्यावर्तन की अनुभूति है। यह प्रयोग अति महत्वपूर्ण है उससे जहां व्यक्तित्वों का विकास हो सकता है वहां विनाश भी संभव है। प्रबल विद्युतधारा वाला पक्ष निर्बल पक्ष को अपना अनुदान देकर उसे ऊंचा उठने और परिपुष्ट बनने में सहायता कर सकता है, पर जिसके शरीर में क्षीण प्राण है वह साथी को क्षति ही पहुंचा सकता है। इसका परिणाम यह भी हो सकता है कि दोनों शारीरिक दृष्ट से न सही प्राण-शक्ति की दृष्टि से समान स्तर पर आ जावें।

वेश्या शरीर का क्षरण करते रहने पर भी अपना रूप सौन्दर्य बनाये रहती है। इसके कारण शरीर शास्त्री नहीं बता सकते। इसका उत्तर प्राण विद्या के ज्ञाताओं के पास है। वे मनस्वी कामुकों की शक्ति चूसती रहती हैं और जिस स्थिति में सामान्य गृहस्थ नारी मृत्यु के मुख में जा सकती थी उस स्थिति में भी अपने चेहरे पर चमक और शरीर में स्फूर्ति बनाये रहती हैं। यदि उनके प्रेमी घटिया स्तर के रोगी या मूर्ख स्तर के हों तो फिर उनका स्वास्थ्य और तेज कभी भी स्थिर न रहेगा। यों शरीर की दृष्टि से युवाकाल में नर-नारियों के बिजली अधिक रहती है इसी से उसका आकर्षण युवा वर्ग के साथ काम-सेवन की लालसा संजोये रहता है। शरीर में विद्युत-शक्ति है तो पर थोड़ी और घटिया स्तर की ही पाई जाती है। असली शक्ति भण्डार मस्तिष्क और हृदय में भरा रहता है। स्वस्थ और सुन्दर व्यक्ति भी यदि मनोबल की दृष्टि से घटिया है तो उसे इस सन्दर्भ में अशक्त ही माना जायगा। कुरूप और ढलती आयु का व्यक्ति भी उसके आन्तरिक स्तर के अनुरूप प्रबल प्राण रह सकता है असलियत यह है कि शरीर की स्थिति से प्राण क्षमता का संबंध बहुत ही कम है। किसी भी आयु में मनःस्थिति के अनुरूप प्राण की प्रबलता या न्यूनता हो सकती है और उसका लाभ-हानि साथी को भोगना पड़ सकता है।

यों ब्रह्मचर्य सभी के लिये उचित है पर उन प्राण सम्पन्न उच्च व्यक्तित्वों के लिए तो बहुत ही आवश्यक है। वे इस प्रकार का व्यतिक्रम करके अपनी प्रगति को ही रोक देंगे। साथी को उतना लाभ न मिलेगा जितनी स्वयं क्षति उठा लेंगे। इसलिये ब्रह्मचर्य की महत्ता असंदिग्ध है। प्राण को संचित करते रहा जाय और यदा-कदा उसका उपयोग काम-क्रीड़ा में कर लिया जाय तो साथी की सहायता की दृष्टि से भी समर्थ पक्ष की यही बुद्धिमत्ता होगी। कामुक व्यक्ति बाहर से ही चमक-दमक के भले दीखें भीतर से खोखले होते हैं और वे जिससे भी सम्पर्क बनाते हैं उसी की शक्ति चूसने लगते हैं। लम्पट व्यक्ति के साथ दाम्पत्य-जीवन बना कर उसका साथी शारीरिक और मानसिक क्षति ही उठा सकता है। क्षीण प्राण वाला व्यक्ति समर्थ पक्ष की कुछ सहायता नहीं कर सकता। ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी ही अपनी विशेष विद्युत धाराओं से एक-दूसरे को लाभान्वित कर सकते हैं। प्रशंसनीय केवल इसी स्तर का काम-सेवन कहा जा सकता है जिससे प्रबल शक्ति प्रवाह का लाभ दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी आवश्यकता की पूर्ति और अतृप्ति निवारण के लिए कर सकें।

संतान उत्पादन के सत्परिणाम संयम शीलता पर निर्भर हैं। कामुकता की दशा में अति करने वाले दम्पत्ति कुछ ही दिनों में अपनी जननेंद्रियों की मूल सत्ता खो बैठते हैं। ऐसे पुरुष को नपुंसक और नारी को बंध्या होते देखा जाता है। गर्भ रहे भी तो गर्भपात होने, दुर्बल या मृत सन्तान होने का खतरा बना रहता है। ऐसे माता पिता मूर्ख दुर्गुणी रोगी, अविकसित सन्तान ही उत्पन्न कर सकते हैं। समर्थ सन्तान के लिए जिसे परिपक्व एवं शुक्र की आवश्यकता है उसका निर्माण ब्रह्मचारी जीवन से ही संभव है, पुष्ट शरीर वाले युवक युवती मिलकर पुष्ट शरीर वाले बालक को तो जन्म दे सकते हैं पर उसकी मनःशक्ति-बुद्धिमत्ता एवं तेजस्विता अपूर्ण ही रह जायगी। आन्तरिक समस्त विशेषतायें और विभूतियां प्राण-शक्ति से सम्बन्धित हैं। प्राण का परिपाक ब्रह्मचर्य ही कर सकता है। इसलिए जिन्हें आंतरिक दृष्टि से मेधावी प्रतिभावान और दूरदर्शी सन्तान अपेक्षित हो उन्हें अपनी अन्तःक्षमता की सुरक्षा एवं परिपुष्टि का ध्यान रखना चाहिये। यह उपलब्धि अधिक संयम से ही प्राप्त कर सकना सम्भव है। इसलिए गृहस्थ रहते हुए भी ब्रह्मचारी की स्थिति बनाये रहकर अपना-अपने साथी का और भावी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाने की बात सोचनी चाहिये। काम-सेवन क्षुद्र मनोरंजन के लिए इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं किया जाना चाहिये उसका सदुपयोग तो प्राण प्रत्यावर्तन द्वारा एक दूसरे के अभावों को पूर्ण करने में ही किया जाना चाहिये। यह प्रयोजन केवल प्राणवान और प्रबुद्ध पति-पत्नी मिलकर ही कर सकते हैं। अपने देश और समाज और वंश का मुख उज्ज्वल कर सकने वाली सन्तान उत्पन्न करना हर किसी के वश की बात नहीं है। इसके लिए इन्द्रिय संयम की साधना करनी पड़ती है और प्राण को परिपुष्ट करने वाली सत्प्रवृत्तियों से भरा पूरा व्यक्तित्व बनाना पड़ता है। वस्तुतः सुयोग्य सन्तानोत्पादन भी एक साधना है जिसके लिए संयमी ही नहीं मनस्वी भी बनना पड़ता है।

दो वस्तुयें मिलने से तीसरी बनने की प्रक्रिया ‘रसायन’ कहलाती है। केमिस्ट्री इस विज्ञान का नाम है। रज और वीर्य मिलने से भ्रूण की उत्पत्ति होती है और नौ महीने की अवधि पूरी करके भ्रूण बालक के रूप में प्रसव होता है। यह स्थूल गर्भ धारण या प्रजनन हुआ। इसके अतिरिक्त भी एक प्राण प्रत्यावर्तन होता है जिसे अनेक अवसरों पर अनेक रूपों में देखा जा सकता है। शिष्य के प्राण में गुरु अपना प्राण प्रतिष्ठापित करके उसकी प्रतिभा, मेधा और विद्या को प्रखर बनाता है। यह कार्य स्कूली मास्टर नहीं कर सकते, वे तो बेचारे मात्र जानकारी दे सकने वाले पाठ भर पढ़ा सकते हैं। वह विद्या जो शिष्य को गुरु के समान ही प्रखर बना दे केवल तपस्वी गुरुओं द्वारा ही उपलब्ध हो सकती है। योगी अपने साधकों को शक्तिपात करते हैं, वे अपनी तपःशक्ति शिष्य को देकर बात की बात में उच्च भूमिका तक पहुंचा देते हैं। मरणासन्न रोगी को रक्तदान देकर पुनर्जीवन प्रदान किया जा सकता है इसी प्रकार दुर्बल प्राण को सबल प्राण बनाने का कार्य शक्ति प्रत्यावर्तन जैसी प्रक्रिया से सम्पन्न करती है। काम-सेवन का ऊंचा स्तर यही है। वह बच्चे पैदा करने के लिए नहीं दो प्राणों के समन्वय से एक नवीन प्रतिभा विकसित करने के लिए किया जा सकता है। सतोगुणी और सौम्य दम्पत्ति एक प्राण साधना के रूप में यदि काम-सेवन करते भी हैं, तो इसका प्रयोजन एक अद्भुत प्रतिभा को जन्म देना होता है जो आवश्यकतानुसार एक या दो शरीरों में पैदा की जा सकती है। यह उच्चस्तरीय शिशु जन्म है। ऐसा काम-सेवन अभिशाप न होकर वरदान भी हो सकता है। विष को भी यदि संशोधन करके भेषज बना लिया जाय तो वह विधातक न रहकर संजीवन मूरि बन सकता है। काम-प्रक्रिया को विष बनाकर अपने मरण का साज न संजोयें बल्कि उसे अमृत बनाकर दो व्यक्तित्वों के असाधारण उत्कर्ष एवं विश्व-कल्याण के कर सकने में समर्थ एवं प्राण प्रयोजन सिद्ध करे यह पूर्णतया अपने बस की बात है और अपनी बुद्धिमत्ता दूर-दर्शिता पर निर्भर है।
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