
काम-प्रवृत्तियों का नियन्त्रण परिष्कृत अन्तःचेतना से
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भारतीय तत्व वेत्ताओं ने कामोत्तेजना को मनोज-मनसिज आदि नाम देकर बहुत पहले ही यह स्वीकार कर लिया था कि यह उद्वेग शारीरिक हलचल नहीं मानसिक उभार है। यदि मन पर नियन्त्रण किया जा सके—उसे ईश्वर-भक्ति, कला, साधना एवं आदर्श, निष्ठा में नियोजित किया जा सके तो युवावस्था में भी शरीर और मन से ब्रह्मचारी रहा जा सकता है। इसके विपरीत यदि शारीरिक नियन्त्रण तो निभाया जाय पर मानसिक उत्तेजना उभरती रहे तो ब्रह्मचर्य का वह लाभ न मिल सकेगा जैसा कि साधना ग्रन्थों में उसका माहात्म्य बताया गया है। दृष्टिकोण में परिवर्तन ही इन्द्रिय-निग्रह का प्रधान आधार है। आहार-विहार के संयम से तो उसमें थोड़ी सी सहायता भर मिलती है।
आमतौर से यह समझा जाता है कि सुन्दरता या परिपुष्ट स्थिति के नर-नारी अधिक काम तृप्ति करते होंगे एवं अच्छा प्रजनन करने में सफल रहते होंगे पर यह बात वैज्ञानिक तथ्यों के विपरीत है। मनुष्य की चेतनात्मक विद्युत शक्ति ही कामोत्तेजना उत्पन्न करती है और उसी की प्रबलता से यौन-तृप्ति एवं उत्कृष्ट प्रजनन का सम्बन्ध रहता है। यह भ्रम अब दूर होता चला जा रहा है कि शरीर गठन का कामोल्लास से सीधा सम्बन्ध है। वस्तुतः कामोत्तेजना विशुद्ध मानसिक प्रक्रिया है। वह जिस आयु में भी—जिस मात्रा में उल्लसित रहेगी उसी स्थिति में कामोद्वेग उठते रहेंगे और तृप्ति तथा प्रजनन की सफलता भी उसी अनुपात से सामने आती रहेगी।
भ्रूमध्य भाग में अवस्थित पिट्यूटरी ग्रन्थि एक विशेष प्रकार के हारमोन उत्पन्न करती है, जो कामोत्तेजना की वृद्धि तथा यौन अवयवों को परिपुष्ट करते हैं। विशेषज्ञ हर्मन्शन का कथन है, कामुकता को भावुकता का ऐसा आवेश कह सकते हैं जिसे प्रजनन हारमोनों की प्रबलता उत्पन्न करती है। इसी आधार पर लोगों में न्यूनाधिक कामोत्तेजना पाई जाती है। हो सकता है कि कोई पूर्ण स्वस्थ पूर्ण नपुंसक भी हो, इसके विपरीत दुर्बल शरीर में वही आवेश अनियन्त्रित स्थिति में उभर रहा हो।
शिकागो मनोविश्लेषण संस्थान के डा. थेरेसी वेनेडेव तथा जीव रसायन शास्त्री डा. रुवेन स्टीन ने मासिक धर्म का जल्दी तथा देरी का, न्यूनता तथा अधिकता से होना हारमोन स्रावों के साथ अति घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ बताया है। रजोदर्शन के कुछ पहले से लेकर कुछ दिन पश्चात तक नारी प्रवृत्ति में आमतौर से भावुकता और उत्तेजना बढ़ जाती है। इन दिनों वे अधिक चंचल होती हैं। या तो यौन उत्तेजना की बात सोचती हैं या फिर खीज, झुंझलाहट अथवा आक्रोश प्रकट करती हैं। गृह कलह प्रायः इन्हीं दिनों अधिक होता है। महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अपराधों में तीन चौथाई इन्हीं दिनों होते हैं।
मेडिकल न्यूज ट्रिव्यून नामक लन्दन से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र में डा. एन.एन. जोफरी का एक अन्वेषण लेख छपा है जिसमें उन्होंने प्रकाश और उष्णता के प्रभाव से जल्दी यौवन उभार आने का उल्लेख किया है। कई जीवों को गरम और प्रकाश के वातावरण में रखने पर उनमें युवावस्था जल्दी उभरी।
ब्रिटेन के एक दूसरे साप्ताहिक पत्र ‘लान्सेट’ में यह विवरण प्रकाशित हुआ कि इंग्लैंड का तापमान क्रमशः बढ़ रहा है। अब वहां पहले जितनी ठण्ड नहीं पड़ती। फलस्वरूप लड़कियां जल्दी रजस्वला होने लगी हैं। औसत लड़की हर 10 वर्ष में चार मास पहले रजस्वला होने लगी हैं। इसी प्रकार सन्तानोत्पादन समर्थता भी पहले की अपेक्षा अब कम आयु में परिपुष्ट होने लगी है।
आहार-विहार और वातावरण की गर्मी बढ़ जाने से नर-नारियों में काम प्रवृति तीव्र होने की मान्यता पुरानी हो गई। अब शरीर शास्त्री इस नये निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उत्तेजनात्मक चिन्तन से जो मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह उमड़ते हैं वे ही यौन लिप्सा में मनुष्य को बलात् प्रवृत्त करते हैं। यह विद्युत धारा घटाई भी जा सकती है और बढ़ाई भी। तदनुसार संयम के लिए पृष्ठभूमि अपने ही प्रयास से बन सकती है। इसके लिए सोचने का तरीका बदलने भर से काम नहीं चलता वरन् हारमोन प्रवाह की रोक थाम कर सकने वाली अन्तःचेतना का बलिष्ठ होना भी आवश्यक है। जो योगाभ्यास जैसे उपायों से ही सम्भव है।
मनोविज्ञानवेत्ता क्रुशन्स का कथन है—काम तृप्ति में इन्द्रिय समाधान ही नहीं आवेश की तृप्ति भी आवश्यक होती है और वह चेतना में भावुकता भरी उमंगें उठने से ही सम्भव है। यह उमंगें श्रृंगार रस का वातावरण बनाने से भी उठती हैं किन्तु मुख्यतया वे उस अन्तःचेतना पर निर्भर हैं, जिन्हें हारमोन स्रावों का जन्मदाता कहा जा सकता है।
पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने में भी उस आवेश विद्युत का ही प्रधान हाथ रहता है। सामान्यतया शुक्र कीटाणुओं और रज अण्ड की स्थिति को गर्भ धारण के लिए उत्तरदायी माना जाता है ओर यह कहा जाता है कि पुत्र जन्म के लिए और कन्या जन्म के लिए अलग-अलग कीटाणुओं का हाथ रहता है।
शरीर शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि नर के शुक्राणुओं में मादा और नर जाति के जीवाणु पाये जाते हैं जबकि नारी रज में केवल एक ही प्रकार के—नारी जाती के जीवाणु रहते हैं। इन दोनों के मिलने से गर्भ स्थापना होती है। इस मिलन में यदि नर शुक्राणु का नारी बीज सफल हुआ तो लड़की की और यदि उसका नर बीज सफल हुआ तो लड़के की उत्पत्ति होती है। मोटा सिद्धान्त सभी प्राणियों में यही लागू होता है। इसलिए कन्या या पुत्र की उत्पत्ति के लिए नर शरीर को ही उत्तरदायी माना जाता है। इस संदर्भ में नारी सर्वथा निष्पक्ष निर्दोष है।
शुक्र में उभयपक्षी जीवाणुओं में से एक वर्ग को यदि निष्क्रिय बनाया जा सके तो संतान अभीष्ट लिंग की उत्पन्न हो सकती है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ऐसी औषधियों की खोज बहुत दिन तक चली जिनके आधार पर एक पक्ष के जीवाणु मूर्छित बनाये जा सके। इन प्रयोगों में सफलता न मिलने से उन्हें बन्द कर दिया गया। जर्मन वैज्ञानिकों ने रतिक्रिया के समय प्रयुक्त हो सकने वाले ऐसे रसायन तैयार किये जो एक वर्ग के जीवाणुओं को मूर्छित कर सकें, पर यह प्रयोग भी असफल ही रहा। रूसी महिला वैज्ञानिक बी.एन. श्रोडर ने अपनी साथी एन.के. कोलस्तोव की सहायता से यह अन्वेषण किया कि वीर्य बीज बिजली की ऋण और धन धाराओं से प्रभावित होते हैं। शरीर में यदि एक वर्ग को ही बिजली कहें तो एक वर्ग के शुक्रबीज विशेष रूप से उत्तेजित होंगे और दूसरे वर्ग के मन्द स्थिति में पड़े रहेंगे। धन विद्युत नर बीजों को और ऋण धारा नारी बीजों को उत्तेजित करती है। उन्होंने ‘एलेक्ट्री फोटेसिस’ की सहायता से बीजाणुओं का पृथक्करण करके खरगोशों से सन्तानोत्पादन कराया, परिणाम आशाजनक रहा।
इंग्लैंड के शैरीलेवीन और अमेरिका के मेनुयल गेडिन ने भी इस दिशा में प्रयोग किये। वे पूर्ण सफलता तक तो नहीं पहुंचे पर यह प्रतिपादन पूर्ण विश्वास के साथ व्यक्त कर सके कि निकट भविष्य में अभीष्ट लिंग की सन्तान उत्पन्न कर सकना सम्भव हो जाय, ऐसे आधार हाथ लग गये हैं।
उपरोक्त प्रतिपादन यह सिद्ध करते हैं कि शुक्राणुओं में से किस वर्ग के कीटक प्रबल होंगे और किस लिंग का बालक जन्म देंगे इसकी बागडोर उन कीटाणुओं की संरचना में रहने वाली रासायनिक विशेषता पर निर्भर नहीं है वरन् उस विद्युत प्रवाह पर निर्भर है जो अमुक वर्ग के कीटाणुओं को उत्तेजित करती है। अब औषधि सेवन करा के नपुंसकों को पौरुषवान बनाने की बात व्यर्थ मानी जाती है इसी प्रकार उन औषधियों को झुठला दिया गया है जो पुत्र या कन्या उत्पन्न कराने का दावा करती हैं। आधुनिकतम मान्यता यह है कि मानव शरीर के अन्तःक्षेत्र में प्रवाहित रहने वाली विद्युत शक्ति का स्तर ही नर के शुक्र एवं नारी के रज को न केवल गर्भाधान की स्थिति में लाता है वरन् उसी पर पुत्र या कन्या का जन्म भी निर्भर है।
कोलम्बिया विश्व विद्यालय के प्रसूति शास्त्र के अध्यापक डा. लंड्रम शेटल्स ने एक हजार मनुष्यों के शुक्राणु संग्रह करके उन पर विभिन्न प्रकार के परीक्षण किये। वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्रोमोसोम कणों को विद्युत धारा द्वारा इस स्तर तक प्रभावित किया जा सकता है कि उसने इच्छित लिंग की सन्तान पैदा कराई जा सके। फ्लैडलफिया मेडीकल सेन्टर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अधिक मात्रा में और अधिक समक्ष जीवाणुओं की उत्पत्ति कामोत्तेजना की मन्द अथवा तीव्र स्थिति पर निर्भर है। अन्यमनस्क मनःस्थिति में हुए संयोग से उत्पादन जीवाणु भी निष्क्रिय और निस्तेज ही पाये गये हैं। ऐसे निस्तेज निराश गर्भाधान से मनस्वी और प्रतिभाशाली बालक उत्पन्न नहीं हो सकते।
अधिक संख्या में सन्तानोत्पादन शरीर की रासायनिक स्थिति पर निर्भर नहीं है वरन् हारमोन उत्तेजना से सम्बन्धित है। रासायनिक दृष्टि से जिस स्थिति का एक शरीर बन्ध्यत्व ग्रस्त होगा उसी स्थिति का दूसरा शरीर बहु प्रजनन की अति भी कर सकता है। ऐसे शरीरों का विश्लेषण करने पर उनके आन्तरिक विद्युत प्रवाह को ही उस भिन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
रूस की एक महिला ने 27 बार गर्भवती होकर 23 शिशुओं को जन्म दिया। यह महिला अपने समय में बहुत प्रख्यात हुई थी और सम्राट जारद्वितीय ने उसे सम्मानित किया था।
फ्रांस की एक ग्रामीण नारी ने 21 सन्तानों की मां बनकर इस समय में सर्वाग्रणी जननी का पद प्राप्त किया है। इण्डोनेशिया की एक महिला गत 28 वर्षों से हर साल एक सन्तान को अनवरत रूप से जन्म देती चली आ रही है। मांटीमिलेटो (इटली) की एक महिला श्रीमती रोसा अब तक 26 बच्चों को जन्म दें चुकी है।
केवल कन्याओं को जन्म देने वाली महिलाओं में प्रथम है इण्डियाना पोलिश की श्रीमती सिसिल जिन्होंने लगातार 14 कन्याओं को जन्म दिया है। इसके बाद दूसरे नम्बर पर आती है—श्रीमती लाइड ब्रुक्स उनके 13 कन्याएं ही हैं। इन दोनों महिलाओं ने कभी भी पुत्र प्रसव नहीं किया।
आयु के न्यून या अधिक होने पर भी प्रजनन अवयव इस स्थिति में हो सकते हैं कि वे सन्तानोत्पादन कर सकें—
गुआर्रांटगुएट (ब्राजील) में 23 बच्चों के पिता जोसे पारफरियो डी. एराओ ने 109 वर्ष की आयु में 48 वर्षीय महिला के साथ चौथा विवाह किया है। पूछने वालों को उसने बताया कि यदि मेरे और सन्तान होती है तो उसे पूर्णतया स्वाभाविक समझूंगा।
नव-वधू का यह प्रथम विवाह है। वह बहुत समय से उसकी प्रेयसी रही है। लोगों ने इस वृद्ध विवाह का मखौल उड़ाया तो वधू ने इससे असहमति प्रकट की और उसने कहा—मेरा पति शारीरिक दृष्टि से पूर्ण समक्ष है और मैं उससे सन्तुष्ट हूं।
दक्षिण पेरू के आरिक्विया अस्पताल में एक 11 वर्षीय बालिका ने 1.8 किलोग्राम वजन के बच्चे को जन्म दिया। जच्चा और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रहे। इससे पूर्व कम उम्र की लड़की द्वारा प्रजनन का पहला रिकार्ड यह है कि 1938 में एक सात वर्षीय बालिका लिण्डा मैडिना ने कैस्ट्रोविरीना के अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था।
यह प्रमाण बताते हैं कि शरीर की स्थिति पर प्रजनन निर्भर नहीं वरन् उसका सीधा सम्बन्ध ऐसी चेतना से है जो कायगत रासायनिक पदार्थों से कहीं ऊंचा है। इन तथ्यों पर विचार करने से काम प्रवृत्ति को नियंत्रित परिष्कृत, परिपुष्ट, प्रबल और शिथिल बनाने को ही नहीं अभीष्ट सन्तानोत्पादन के लिए उस विशिष्ट चेतना के साथ सम्पर्क बनाना पड़ेगा जो अस्थि मांस से नहीं वरन् अन्तःचेतना से सम्बन्धित है। चेतना का यह स्तर योगाभ्यास की कुण्डलिनी उत्थान जैसी साधना पद्धतियों से सम्बन्धित है। ब्रह्मचर्य का परिपूर्ण पालन और उस ओजस् शक्ति का प्रखर व्यक्तित्व के रूप में परिवर्तन भी इसी स्तर की साधनाओं द्वारा सम्भव हो सकता है।
काम बीज का परिष्कार
शरीर की उत्पत्ति काम बीज से है। फ्राइड के अनुसार वह बालक पन में दुग्ध-पान से लेकर साथियों की छेड़छाड़ के अनेक रूप में विकसित होता है। किशोरावस्था में वह जोश बनकर उभरता है। होश को पीछे छोड़कर जोश की जो तूफानी लहरें उठती हैं उनमें मनोविज्ञानी काम तत्व की प्रबलता देखते हैं। लड़कों में नये स्थानों पर नये केश उत्पन्न होने-जननेंद्रिय में प्रौढ़ता बढ़ने के रूप में उसकी अभिवृद्धि प्रकट होती है। लड़कियों में रजो-दर्शन तथा वक्षस्थल का उभार इसी का प्रमाण है कल्पना क्षेत्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक कल्पनाओं के आंधी-तूफान उठने लगते हैं। आगे चलकर इस की परिणिति प्रणय में होती है। दाम्पत्य सूत्र जुड़ते हैं, आदान-प्रदान के भावभरे रसास्वादन मिलते हैं और सन्तानोत्पत्ति का क्रम चल पड़ता है। एक नये गृहस्थ का-नये परिवार का श्रीगणेश होता है और पति-पत्नी को उसी की विविध-व्यवस्थाएं जुटाने में अपनी लगभग पूरी शक्ति झोंकनी पड़ती है। यह ‘काम बीज’ से उत्पन्न वट-वृक्ष है, जिसका विस्तार भली या बुरी व्यस्त क्रिया-प्रक्रियाओं में होता है। जीवन सम्पदा का उत्सर्ग इसी वेदी पर होता देखा गया है। बीच-बीच में उच्छृंखल यौनाचार की कल्पनायें अथवा क्रियायें अपने अलग ही कुहराम मचाती रहती हैं। उन पर सामाजिक नियन्त्रण न हो तो उस स्वेच्छाचार की प्रतिक्रिया से सामाजिकता का, पारिवारिकता का, सभ्यता का, मानवी प्रगति का अन्त हुआ ही समझना चाहिये। अपराधों के घटना-क्रम में काम-विग्रह का—उसकी विकृति प्रतिक्रिया का जितना हाथ रहता है उतना सब अनाचारों से मिलकर भी नहीं होता है। नीति मर्यादाओं का उल्लंघन इसी प्रबल प्रेरणा से आये दिन होता रहता है।
इतने प्रेरक तत्व को तुच्छ मानकर नहीं चलना चाहिए। उसकी सामर्थ्य असीम है। एक शरीर से दूसरे का उत्पन्न होना इस सृष्टि का अभ्यस्त किन्तु अद्भुत आश्चर्य है। मानव तत्व की भावना, विचारणा एवं क्रिया को अपने जाल-जंजाल में समेट बटोर कर बैठ जाना इसी आकर्षण का काम है। भव-बन्धनों की चर्चा जब-तब होती रहती है। प्रकारान्तर से वह संकेत काम-विग्रह के लिए ही किया गया होता है। गीता के कर्मयोग में ‘निष्काम’ होने पर जोर दिया गया है। यों उसका मोटा अर्थ कामनाओं से पीछा छुड़ाकर कर्त्तव्य-परायण होना है, पर गहराई में उतरने पर उसमें ‘काम’ रहित होने पर उच्चस्तरीय आत्मिक प्रगति होने—आत्म-कल्याण एवं ईश्वर दर्शन का लाभ मिलने-का तथ्य सामने आ खड़ा होता है।
ब्रह्मचर्य का महत्व सनातन धर्म के रूप में सभी सम्प्रदाओं ने समान रूप से बताया है। उसके कई प्रकार के लाभ सत्परिणाम बताये हैं। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ संयोग से बचना बताया गया है। यह शारीरिक मर्यादा है। पर इसका लाभ भी तभी होता है जब उसे मानसिक रूप से भी निवाहा जाय। सच तो यह है कि यह प्रसंग शारीरिक कम और मानसिक अधिक है। मन पर कामुकता छाई रहे तो शरीर संयम निरर्थक ही नहीं कई बार तो हानिकारक ही होता है। शरीर शास्त्री काम निरोध को हानिकारक भी बताते हैं। यह बात उस स्थिति में सही भी है जब मानसिक असंयम तो बनाये रहा जाय किन्तु शरीर को हठपूर्वक नियन्त्रित किया जाय। ऐसी दशा में स्वप्न दोष होने लगेंगे अथवा गुप्त कुकृत्यों का सिलसिला चल पड़ेगा। इसमें प्रत्यक्ष मैथुन से कम नहीं अधिक ही हानि है। इसके विपरीत यदि धर्म-पत्नी के साथ, मित्र, सहचर, सहोदर के भाव से रहा जाय और आवश्यकतानुसार मर्यादित कामसेवन क्रम भी चलता रहे तो उसकी कोई बुरी प्रतिक्रिया न होगी। सच तो यह है कि उससे कुकल्पनाओं और कुचेष्टाओं को निरस्त करने में सहायता भी मिलेगी। देवताओं, ऋषियों और महामानवों को भी जब विवाहित जीवन-क्रम अपनाते देखते हैं तो लगता है यह कोई गर्हित कृत्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो वे इस मार्ग पर क्यों चलते?
यहां विवाहित रहने या अविवाहित रहने की उपयोगिता के पक्ष-विपक्ष में कुछ नहीं कहा जा रहा है। व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति, परिस्थिति एवं कार्य-पद्धति को देखते हुए दोनों ही मार्ग उपयोगी हैं जिन्हें उच्च आदर्शों में निरत रहना है उन्हें अपनी शक्तियां बचाकर लक्ष्य के लिए अधिक कुछ कर सकना तभी हो सकता है जब गृहस्थ का भार ढोने से अवकाश मिले, प्राचीन काल से साधु परम्परा यह रास्ता अपनाती रही है। परिव्राजक कार्य-पद्धति में, न्यूनतम निर्वाह में, चिन्ता मुक्त रहने में उन्हें सुविधाएं अविवाहित रहकर ही मिलती थीं। इसके विपरीत जिन्हें आश्रम चलाने पड़ते थे वे ब्राह्मण गृह-व्यवस्था के लिए पत्नी के सहयोग की सुविधा देखते थे। जो हो यह प्रसंग यहां नहीं उठना है। चर्चा काम प्रक्रिया की हो रही थी। वह शरीर क्षेत्र से कम और मनःक्षेत्र से अधिक सम्बन्धित है। शरीर का ब्रह्मचारी मन से व्यभिचारी रहे तो उसे इस प्रति बन्धन की विडम्बना का कोई लाभ न मिल सकेगा। इसके विपरीत यदि मन पवित्र रहे तो गृहस्थ भी एक योगी बन सकता है। तब घर में तपोवन का वातावरण बना देना कुछ कठिन न होगा। वासना और विलासिता का स्थान यदि स्वच्छ सहकार और बालकोपम हास्य-विनोद ग्रहण करले तो उसे वंधित ब्रह्मचर्य से कम नहीं अधिक लाभदायक ही कहा जायगा।
समस्या यहां आकर अटक जाती है कि यदि काम बीज जीव चेतना की इतनी गहराई में घुसा बैठा है—उसकी शक्ति इतनी प्रबल और जड़ इतनी गहरी है तो फिर उससे बच सकना कैसे हो सकता है? तब ब्रह्मचर्य के लाभों से लाभान्वित कैसे हुआ जा सकता है? यदि संयम न बरता जाय तो ओजस् की क्षति होती है। यदि बरता जाय तो दमित मानस विकृत ग्रंथियों का हानिकारक संग्रह करता है। इधर खाई उधर कुआं। आखिर किया जाय तो क्या किया जाय?
मनीषियों ने इसका उत्तर कुण्डलिनी जागरण की साधना के रूप में दिया है। इसका कर्मकाण्ड और विधि-विधान जितना चमत्कारी है उससे अधिक महत्वपूर्ण है उसका तत्व दर्शन। कुण्डलिनी विधान जानने से पहले उसका दर्शन जानना आवश्यक है। प्रतिपादन यह है कि काम-कला को ब्रह्म विद्या के रूप में परिवर्तित किया जाय। इसे विज्ञान की भाषा में—ट्रांसफार्मेशन-रूपान्तरण कहते हैं। काम को कला में परिणत, परिष्कृत किया जा सकता है। भक्ति भावना उसी प्रयास का उत्कृष्ट रूप है, ललित कलाओं में, उद्देश्य पूर्ण शौर्य, साहस में, पारमार्थिक सेवा साधना में जो उच्चस्तरीय उल्लास उपलब्ध होता है उसे ‘काम’ तत्व की परिष्कृत भाव भूमिका कह सकते हैं। चिन्तन की दिशा धारा मोड़ देने से यह परिवर्तन सम्भव हो सकता है। वर्षा का जल यदि अनियन्त्रित फैले तो खेतों, घरों को डुबाकर हानिकारक सिद्ध होगा। पर यदि नदी नाले के माध्यम से बांध बनाकर संग्रह किया जाय और नहरों के माध्यम से सिंचाई के लिए खेतों तक पहुंचाया जाय तो इससे हर प्रकार लाभ ही लाभ है। अनियन्त्रित काम प्रवृत्ति का निरोध इसी प्रकार उचित है उसे हठ पूर्वक नष्ट कर देने की बात न सोची जाय, वरन् ऐसे प्रयोजन में लगा दिया जाय जिसमें उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति हो।
पौराणिक कथा में कामदेव भगवान शंकर पर प्रकोप करता है, उन्हें अपनी उंगली के इशारे पर नचाना चाहता है। शिवजी अपने दूरदर्शी विवेक से—तृतीय नेत्र से इसके दुष्परिणामों को समझने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुस्थिति समझ में आते ही, तृतीय नेत्र खुलते ही सम्भावना समाप्त हो जाती है। कामदेव जलकर भस्म हो जाता है। वह विवेकशीलता की—पशु प्रवृत्ति पर प्रत्यक्ष विजय है। कुविचारों को सद्विचारों से ही निरस्त किया जाता है। लोहे से लोहा कटता है। कामुकता के दुष्परिणामों और संयम के सत्परिणामों पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाय तो विवेक का निर्णय औचित्य के पक्ष में होगा। चोर की घात तो तब लगती है जब घर मालिक सोये हुए हों जब उनमें से कोई बच्चा रोने लगे—बुड्ढा खांसने लगे तो बलिष्ठ चोर की भी हिम्मत टूट जायेगी और उसे उलटे पैरों भागना ही पड़ेगा। कामुकता, सम्मत समस्त कुविचारों के सम्बन्ध में यही बात लागू होती है। यदि आदर्शवाद के समर्थक तर्कों, तथ्यों, प्रमाण और उदाहरणों की सेना सजा ली जाय और जब भी शत्रु शिर उठाये तभी वह सेना लड़ा दी जाय तो समझना चाहिए कि औचित्य ही जीतेगा। कल्मषों के उन्मूलन का यही एकमात्र मार्ग है। महाभारत युद्ध की घटना को लेकर जीव रूपी अर्जुन को—दुरित दुर्जनों को परास्त करने के लिए जिस सैन्य सज्जा के लिए कहा गया है उसे अन्तःसधर्म की समझना चाहिए। शिवजी का काम दहन भी इसी तथ्य के समर्थन में एक प्रेरणाप्रद प्रसंग है। पीछे काम पत्नी-रति; सरसता विलाप करती है। विधवा के दुःख को—भगवान आशुतोष सहन नहीं कर पाते, वे द्रवित होते हैं और वरदान देते हैं कि भस्मसात कामदेव शरीर समेत तो जीवित नहीं हो सकते, पर वे सूक्ष्म रूप में फिर सजीव हो जायेंगे और उच्च आत्माओं पर भी अपना अस्त्र छोड़ने की अपनी कामना पूरी करेंगे।
इस वरदान का अभिप्राय यही है कि पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने वाली और जीवन सम्पदा को कुमार्गगामी बनाने वाली कामुकता को परिष्कृत किया जा सकता है। उसे भावनात्मक श्रेष्ठ सम्वेदनाओं से लगा कर स्थूल-यौनाचार के आकर्षण से विरत किया जा सकता है।
कुण्डलिनी के स्वरूप निर्धारण में यह तथ्य और भी स्पष्ट है। काम केन्द्र मूलाधार चक्र को बताया गया है। यह जननेन्द्रिय के मूल में है। इसे अग्नि कुण्ड, अग्नि समुद्र, शक्ति समुद्र भी कहा गया है। उमंगें और उत्साह भरने की क्षमता वहां केन्द्रित है। इस स्थिति में उसकी संज्ञा सर्पिणी की है। सर्प दंश और सर्प विष की भयानकता सर्वविदित है। सामान्य स्थिति में अधोगामी और बहिर्मुखी रहती है। उसके क्षरण-स्राव-जननेन्द्रिय मार्ग से नीचे की ओर टपकते हैं। उसका प्रत्यक्ष रूप त्वचा तल से ऊपर उभरा होता है। नर और नारी की जननेन्द्रियों की स्थिति इस दृष्टि से लगभग एक जैसी ही है। इसे कुण्डलिनी की गर्हित, मूर्छित, अधःपतित स्थिति समझा जाना चाहिए।
कुण्डलिनी जागरण साधना में समुद्र मंथन जैसे प्रयत्न करने पड़ते हैं। फलतः प्रसुप्ति जागृति में बदलती है। तप की उष्णता पाकर अन्तःऊर्जा उभरती है और ऊपर की ओर चलने का प्रयत्न करती है। गर्मी से वायु, जल आदि सभी का विस्तार होता है। वे ऊपर की ओर उठते हैं। ग्रीष्म में चक्रवात गरम हवा के द्वारा ही उठते हैं। पानी से भाप गर्मी ही ऊपर की ओर उठाती है। मूलाधार से जगी हुई व्यक्ति ऊर्जा, प्राण-शक्ति कुण्डलिनी ऊपर को उठती है। मेरुदण्ड मार्ग से सर्पिणी की तरह लहराती हुई ब्रह्मरंध्र की ओर चलाती है, बिजली की यही चाल है। यह ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंचती है। सहस्रार कमल से सम्बन्ध बनाती है और उसी में लय हो जाती है। कमल सात्विकता का, कला का, दिव्य सौन्दर्य का केन्द्र माना गया है। भगवान के अंगों का-अवयवों का-वर्णन कमल उपमा के साथ किया जाता रहा है। लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान हैं। गजेन्द्र ने ग्राह से मुक्ति पाने के लिए कमल पुष्प सूंड़ में लेकर भगवान की अभ्यर्थना की थी। कमला लक्ष्मी का दूसरा नाम है। विष्णु के चार हाथों में चार उपकरण हैं। शंख, चक्र, गदा के उपरान्त चौथा ‘पद्म’ ही आता है। इस प्रकार पौराणिक संगतियों में कमल को दिव्यता का प्रतीक माना गया है। मस्तिष्क के मध्य क्षेत्र में-ब्रह्मरन्ध्र में-सहस्रार कमल अवस्थित है। उस पर कहीं विष्णु की कहीं, शिव की, कहीं सद्गुरु की स्थापना और ध्यान का उल्लेख है। यह प्रतिपादन यही इंगित करता है कि कामुकता में संलग्न अन्तःऊर्जा को उस पतन के गर्त से निकाल कर ब्रह्मचेतना में-उत्कृष्ट उल्लास प्रधान करने वाली ब्रह्म विद्या में नियोजित किया जाना चाहिए। इसी परिवर्तन परिष्कार को—उत्कर्ष उन्नयन की कुण्डलिनी जागरण कहा गया है। ब्रह्मचर्य की तात्विक साधना यही है। इसी में अध्यात्म तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र संजोये हुए हैं। इस ट्रान्सफार्मेशन का—रूपान्तर का सत्परिणाम, महान् जागरण, महान् परिवर्तन दिव्य जीवन के पक्ष में सामने आता है। काम बीज का यह ब्रह्म समर्पण कितना श्रेयस्कर होता है इसे कुण्डलिनी महाविज्ञान की जागरण साधना एवं तत्व भावना को अपना कर ही जाना जा सकता है।
भ्रूमध्य भाग में अवस्थित पिट्यूटरी ग्रन्थि एक विशेष प्रकार के हारमोन उत्पन्न करती है, जो कामोत्तेजना की वृद्धि तथा यौन अवयवों को परिपुष्ट करते हैं। विशेषज्ञ हर्मन्शन का कथन है, कामुकता को भावुकता का ऐसा आवेश कह सकते हैं जिसे प्रजनन हारमोनों की प्रबलता उत्पन्न करती है। इसी आधार पर लोगों में न्यूनाधिक कामोत्तेजना पाई जाती है। हो सकता है कि कोई पूर्ण स्वस्थ पूर्ण नपुंसक भी हो, इसके विपरीत दुर्बल शरीर में वही आवेश अनियन्त्रित स्थिति में उभर रहा हो।
शिकागो मनोविश्लेषण संस्थान के डा. थेरेसी वेनेडेव तथा जीव रसायन शास्त्री डा. रुवेन स्टीन ने मासिक धर्म का जल्दी तथा देरी का, न्यूनता तथा अधिकता से होना हारमोन स्रावों के साथ अति घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ बताया है। रजोदर्शन के कुछ पहले से लेकर कुछ दिन पश्चात तक नारी प्रवृत्ति में आमतौर से भावुकता और उत्तेजना बढ़ जाती है। इन दिनों वे अधिक चंचल होती हैं। या तो यौन उत्तेजना की बात सोचती हैं या फिर खीज, झुंझलाहट अथवा आक्रोश प्रकट करती हैं। गृह कलह प्रायः इन्हीं दिनों अधिक होता है। महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अपराधों में तीन चौथाई इन्हीं दिनों होते हैं।
मेडिकल न्यूज ट्रिव्यून नामक लन्दन से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र में डा. एन.एन. जोफरी का एक अन्वेषण लेख छपा है जिसमें उन्होंने प्रकाश और उष्णता के प्रभाव से जल्दी यौवन उभार आने का उल्लेख किया है। कई जीवों को गरम और प्रकाश के वातावरण में रखने पर उनमें युवावस्था जल्दी उभरी।
ब्रिटेन के एक दूसरे साप्ताहिक पत्र ‘लान्सेट’ में यह विवरण प्रकाशित हुआ कि इंग्लैंड का तापमान क्रमशः बढ़ रहा है। अब वहां पहले जितनी ठण्ड नहीं पड़ती। फलस्वरूप लड़कियां जल्दी रजस्वला होने लगी हैं। औसत लड़की हर 10 वर्ष में चार मास पहले रजस्वला होने लगी हैं। इसी प्रकार सन्तानोत्पादन समर्थता भी पहले की अपेक्षा अब कम आयु में परिपुष्ट होने लगी है।
आहार-विहार और वातावरण की गर्मी बढ़ जाने से नर-नारियों में काम प्रवृति तीव्र होने की मान्यता पुरानी हो गई। अब शरीर शास्त्री इस नये निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उत्तेजनात्मक चिन्तन से जो मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह उमड़ते हैं वे ही यौन लिप्सा में मनुष्य को बलात् प्रवृत्त करते हैं। यह विद्युत धारा घटाई भी जा सकती है और बढ़ाई भी। तदनुसार संयम के लिए पृष्ठभूमि अपने ही प्रयास से बन सकती है। इसके लिए सोचने का तरीका बदलने भर से काम नहीं चलता वरन् हारमोन प्रवाह की रोक थाम कर सकने वाली अन्तःचेतना का बलिष्ठ होना भी आवश्यक है। जो योगाभ्यास जैसे उपायों से ही सम्भव है।
मनोविज्ञानवेत्ता क्रुशन्स का कथन है—काम तृप्ति में इन्द्रिय समाधान ही नहीं आवेश की तृप्ति भी आवश्यक होती है और वह चेतना में भावुकता भरी उमंगें उठने से ही सम्भव है। यह उमंगें श्रृंगार रस का वातावरण बनाने से भी उठती हैं किन्तु मुख्यतया वे उस अन्तःचेतना पर निर्भर हैं, जिन्हें हारमोन स्रावों का जन्मदाता कहा जा सकता है।
पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने में भी उस आवेश विद्युत का ही प्रधान हाथ रहता है। सामान्यतया शुक्र कीटाणुओं और रज अण्ड की स्थिति को गर्भ धारण के लिए उत्तरदायी माना जाता है ओर यह कहा जाता है कि पुत्र जन्म के लिए और कन्या जन्म के लिए अलग-अलग कीटाणुओं का हाथ रहता है।
शरीर शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि नर के शुक्राणुओं में मादा और नर जाति के जीवाणु पाये जाते हैं जबकि नारी रज में केवल एक ही प्रकार के—नारी जाती के जीवाणु रहते हैं। इन दोनों के मिलने से गर्भ स्थापना होती है। इस मिलन में यदि नर शुक्राणु का नारी बीज सफल हुआ तो लड़की की और यदि उसका नर बीज सफल हुआ तो लड़के की उत्पत्ति होती है। मोटा सिद्धान्त सभी प्राणियों में यही लागू होता है। इसलिए कन्या या पुत्र की उत्पत्ति के लिए नर शरीर को ही उत्तरदायी माना जाता है। इस संदर्भ में नारी सर्वथा निष्पक्ष निर्दोष है।
शुक्र में उभयपक्षी जीवाणुओं में से एक वर्ग को यदि निष्क्रिय बनाया जा सके तो संतान अभीष्ट लिंग की उत्पन्न हो सकती है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ऐसी औषधियों की खोज बहुत दिन तक चली जिनके आधार पर एक पक्ष के जीवाणु मूर्छित बनाये जा सके। इन प्रयोगों में सफलता न मिलने से उन्हें बन्द कर दिया गया। जर्मन वैज्ञानिकों ने रतिक्रिया के समय प्रयुक्त हो सकने वाले ऐसे रसायन तैयार किये जो एक वर्ग के जीवाणुओं को मूर्छित कर सकें, पर यह प्रयोग भी असफल ही रहा। रूसी महिला वैज्ञानिक बी.एन. श्रोडर ने अपनी साथी एन.के. कोलस्तोव की सहायता से यह अन्वेषण किया कि वीर्य बीज बिजली की ऋण और धन धाराओं से प्रभावित होते हैं। शरीर में यदि एक वर्ग को ही बिजली कहें तो एक वर्ग के शुक्रबीज विशेष रूप से उत्तेजित होंगे और दूसरे वर्ग के मन्द स्थिति में पड़े रहेंगे। धन विद्युत नर बीजों को और ऋण धारा नारी बीजों को उत्तेजित करती है। उन्होंने ‘एलेक्ट्री फोटेसिस’ की सहायता से बीजाणुओं का पृथक्करण करके खरगोशों से सन्तानोत्पादन कराया, परिणाम आशाजनक रहा।
इंग्लैंड के शैरीलेवीन और अमेरिका के मेनुयल गेडिन ने भी इस दिशा में प्रयोग किये। वे पूर्ण सफलता तक तो नहीं पहुंचे पर यह प्रतिपादन पूर्ण विश्वास के साथ व्यक्त कर सके कि निकट भविष्य में अभीष्ट लिंग की सन्तान उत्पन्न कर सकना सम्भव हो जाय, ऐसे आधार हाथ लग गये हैं।
उपरोक्त प्रतिपादन यह सिद्ध करते हैं कि शुक्राणुओं में से किस वर्ग के कीटक प्रबल होंगे और किस लिंग का बालक जन्म देंगे इसकी बागडोर उन कीटाणुओं की संरचना में रहने वाली रासायनिक विशेषता पर निर्भर नहीं है वरन् उस विद्युत प्रवाह पर निर्भर है जो अमुक वर्ग के कीटाणुओं को उत्तेजित करती है। अब औषधि सेवन करा के नपुंसकों को पौरुषवान बनाने की बात व्यर्थ मानी जाती है इसी प्रकार उन औषधियों को झुठला दिया गया है जो पुत्र या कन्या उत्पन्न कराने का दावा करती हैं। आधुनिकतम मान्यता यह है कि मानव शरीर के अन्तःक्षेत्र में प्रवाहित रहने वाली विद्युत शक्ति का स्तर ही नर के शुक्र एवं नारी के रज को न केवल गर्भाधान की स्थिति में लाता है वरन् उसी पर पुत्र या कन्या का जन्म भी निर्भर है।
कोलम्बिया विश्व विद्यालय के प्रसूति शास्त्र के अध्यापक डा. लंड्रम शेटल्स ने एक हजार मनुष्यों के शुक्राणु संग्रह करके उन पर विभिन्न प्रकार के परीक्षण किये। वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्रोमोसोम कणों को विद्युत धारा द्वारा इस स्तर तक प्रभावित किया जा सकता है कि उसने इच्छित लिंग की सन्तान पैदा कराई जा सके। फ्लैडलफिया मेडीकल सेन्टर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अधिक मात्रा में और अधिक समक्ष जीवाणुओं की उत्पत्ति कामोत्तेजना की मन्द अथवा तीव्र स्थिति पर निर्भर है। अन्यमनस्क मनःस्थिति में हुए संयोग से उत्पादन जीवाणु भी निष्क्रिय और निस्तेज ही पाये गये हैं। ऐसे निस्तेज निराश गर्भाधान से मनस्वी और प्रतिभाशाली बालक उत्पन्न नहीं हो सकते।
अधिक संख्या में सन्तानोत्पादन शरीर की रासायनिक स्थिति पर निर्भर नहीं है वरन् हारमोन उत्तेजना से सम्बन्धित है। रासायनिक दृष्टि से जिस स्थिति का एक शरीर बन्ध्यत्व ग्रस्त होगा उसी स्थिति का दूसरा शरीर बहु प्रजनन की अति भी कर सकता है। ऐसे शरीरों का विश्लेषण करने पर उनके आन्तरिक विद्युत प्रवाह को ही उस भिन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
रूस की एक महिला ने 27 बार गर्भवती होकर 23 शिशुओं को जन्म दिया। यह महिला अपने समय में बहुत प्रख्यात हुई थी और सम्राट जारद्वितीय ने उसे सम्मानित किया था।
फ्रांस की एक ग्रामीण नारी ने 21 सन्तानों की मां बनकर इस समय में सर्वाग्रणी जननी का पद प्राप्त किया है। इण्डोनेशिया की एक महिला गत 28 वर्षों से हर साल एक सन्तान को अनवरत रूप से जन्म देती चली आ रही है। मांटीमिलेटो (इटली) की एक महिला श्रीमती रोसा अब तक 26 बच्चों को जन्म दें चुकी है।
केवल कन्याओं को जन्म देने वाली महिलाओं में प्रथम है इण्डियाना पोलिश की श्रीमती सिसिल जिन्होंने लगातार 14 कन्याओं को जन्म दिया है। इसके बाद दूसरे नम्बर पर आती है—श्रीमती लाइड ब्रुक्स उनके 13 कन्याएं ही हैं। इन दोनों महिलाओं ने कभी भी पुत्र प्रसव नहीं किया।
आयु के न्यून या अधिक होने पर भी प्रजनन अवयव इस स्थिति में हो सकते हैं कि वे सन्तानोत्पादन कर सकें—
गुआर्रांटगुएट (ब्राजील) में 23 बच्चों के पिता जोसे पारफरियो डी. एराओ ने 109 वर्ष की आयु में 48 वर्षीय महिला के साथ चौथा विवाह किया है। पूछने वालों को उसने बताया कि यदि मेरे और सन्तान होती है तो उसे पूर्णतया स्वाभाविक समझूंगा।
नव-वधू का यह प्रथम विवाह है। वह बहुत समय से उसकी प्रेयसी रही है। लोगों ने इस वृद्ध विवाह का मखौल उड़ाया तो वधू ने इससे असहमति प्रकट की और उसने कहा—मेरा पति शारीरिक दृष्टि से पूर्ण समक्ष है और मैं उससे सन्तुष्ट हूं।
दक्षिण पेरू के आरिक्विया अस्पताल में एक 11 वर्षीय बालिका ने 1.8 किलोग्राम वजन के बच्चे को जन्म दिया। जच्चा और बच्चा दोनों ही स्वस्थ रहे। इससे पूर्व कम उम्र की लड़की द्वारा प्रजनन का पहला रिकार्ड यह है कि 1938 में एक सात वर्षीय बालिका लिण्डा मैडिना ने कैस्ट्रोविरीना के अस्पताल में पुत्र को जन्म दिया था।
यह प्रमाण बताते हैं कि शरीर की स्थिति पर प्रजनन निर्भर नहीं वरन् उसका सीधा सम्बन्ध ऐसी चेतना से है जो कायगत रासायनिक पदार्थों से कहीं ऊंचा है। इन तथ्यों पर विचार करने से काम प्रवृत्ति को नियंत्रित परिष्कृत, परिपुष्ट, प्रबल और शिथिल बनाने को ही नहीं अभीष्ट सन्तानोत्पादन के लिए उस विशिष्ट चेतना के साथ सम्पर्क बनाना पड़ेगा जो अस्थि मांस से नहीं वरन् अन्तःचेतना से सम्बन्धित है। चेतना का यह स्तर योगाभ्यास की कुण्डलिनी उत्थान जैसी साधना पद्धतियों से सम्बन्धित है। ब्रह्मचर्य का परिपूर्ण पालन और उस ओजस् शक्ति का प्रखर व्यक्तित्व के रूप में परिवर्तन भी इसी स्तर की साधनाओं द्वारा सम्भव हो सकता है।
काम बीज का परिष्कार
शरीर की उत्पत्ति काम बीज से है। फ्राइड के अनुसार वह बालक पन में दुग्ध-पान से लेकर साथियों की छेड़छाड़ के अनेक रूप में विकसित होता है। किशोरावस्था में वह जोश बनकर उभरता है। होश को पीछे छोड़कर जोश की जो तूफानी लहरें उठती हैं उनमें मनोविज्ञानी काम तत्व की प्रबलता देखते हैं। लड़कों में नये स्थानों पर नये केश उत्पन्न होने-जननेंद्रिय में प्रौढ़ता बढ़ने के रूप में उसकी अभिवृद्धि प्रकट होती है। लड़कियों में रजो-दर्शन तथा वक्षस्थल का उभार इसी का प्रमाण है कल्पना क्षेत्र में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षक कल्पनाओं के आंधी-तूफान उठने लगते हैं। आगे चलकर इस की परिणिति प्रणय में होती है। दाम्पत्य सूत्र जुड़ते हैं, आदान-प्रदान के भावभरे रसास्वादन मिलते हैं और सन्तानोत्पत्ति का क्रम चल पड़ता है। एक नये गृहस्थ का-नये परिवार का श्रीगणेश होता है और पति-पत्नी को उसी की विविध-व्यवस्थाएं जुटाने में अपनी लगभग पूरी शक्ति झोंकनी पड़ती है। यह ‘काम बीज’ से उत्पन्न वट-वृक्ष है, जिसका विस्तार भली या बुरी व्यस्त क्रिया-प्रक्रियाओं में होता है। जीवन सम्पदा का उत्सर्ग इसी वेदी पर होता देखा गया है। बीच-बीच में उच्छृंखल यौनाचार की कल्पनायें अथवा क्रियायें अपने अलग ही कुहराम मचाती रहती हैं। उन पर सामाजिक नियन्त्रण न हो तो उस स्वेच्छाचार की प्रतिक्रिया से सामाजिकता का, पारिवारिकता का, सभ्यता का, मानवी प्रगति का अन्त हुआ ही समझना चाहिये। अपराधों के घटना-क्रम में काम-विग्रह का—उसकी विकृति प्रतिक्रिया का जितना हाथ रहता है उतना सब अनाचारों से मिलकर भी नहीं होता है। नीति मर्यादाओं का उल्लंघन इसी प्रबल प्रेरणा से आये दिन होता रहता है।
इतने प्रेरक तत्व को तुच्छ मानकर नहीं चलना चाहिए। उसकी सामर्थ्य असीम है। एक शरीर से दूसरे का उत्पन्न होना इस सृष्टि का अभ्यस्त किन्तु अद्भुत आश्चर्य है। मानव तत्व की भावना, विचारणा एवं क्रिया को अपने जाल-जंजाल में समेट बटोर कर बैठ जाना इसी आकर्षण का काम है। भव-बन्धनों की चर्चा जब-तब होती रहती है। प्रकारान्तर से वह संकेत काम-विग्रह के लिए ही किया गया होता है। गीता के कर्मयोग में ‘निष्काम’ होने पर जोर दिया गया है। यों उसका मोटा अर्थ कामनाओं से पीछा छुड़ाकर कर्त्तव्य-परायण होना है, पर गहराई में उतरने पर उसमें ‘काम’ रहित होने पर उच्चस्तरीय आत्मिक प्रगति होने—आत्म-कल्याण एवं ईश्वर दर्शन का लाभ मिलने-का तथ्य सामने आ खड़ा होता है।
ब्रह्मचर्य का महत्व सनातन धर्म के रूप में सभी सम्प्रदाओं ने समान रूप से बताया है। उसके कई प्रकार के लाभ सत्परिणाम बताये हैं। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ संयोग से बचना बताया गया है। यह शारीरिक मर्यादा है। पर इसका लाभ भी तभी होता है जब उसे मानसिक रूप से भी निवाहा जाय। सच तो यह है कि यह प्रसंग शारीरिक कम और मानसिक अधिक है। मन पर कामुकता छाई रहे तो शरीर संयम निरर्थक ही नहीं कई बार तो हानिकारक ही होता है। शरीर शास्त्री काम निरोध को हानिकारक भी बताते हैं। यह बात उस स्थिति में सही भी है जब मानसिक असंयम तो बनाये रहा जाय किन्तु शरीर को हठपूर्वक नियन्त्रित किया जाय। ऐसी दशा में स्वप्न दोष होने लगेंगे अथवा गुप्त कुकृत्यों का सिलसिला चल पड़ेगा। इसमें प्रत्यक्ष मैथुन से कम नहीं अधिक ही हानि है। इसके विपरीत यदि धर्म-पत्नी के साथ, मित्र, सहचर, सहोदर के भाव से रहा जाय और आवश्यकतानुसार मर्यादित कामसेवन क्रम भी चलता रहे तो उसकी कोई बुरी प्रतिक्रिया न होगी। सच तो यह है कि उससे कुकल्पनाओं और कुचेष्टाओं को निरस्त करने में सहायता भी मिलेगी। देवताओं, ऋषियों और महामानवों को भी जब विवाहित जीवन-क्रम अपनाते देखते हैं तो लगता है यह कोई गर्हित कृत्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो वे इस मार्ग पर क्यों चलते?
यहां विवाहित रहने या अविवाहित रहने की उपयोगिता के पक्ष-विपक्ष में कुछ नहीं कहा जा रहा है। व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति, परिस्थिति एवं कार्य-पद्धति को देखते हुए दोनों ही मार्ग उपयोगी हैं जिन्हें उच्च आदर्शों में निरत रहना है उन्हें अपनी शक्तियां बचाकर लक्ष्य के लिए अधिक कुछ कर सकना तभी हो सकता है जब गृहस्थ का भार ढोने से अवकाश मिले, प्राचीन काल से साधु परम्परा यह रास्ता अपनाती रही है। परिव्राजक कार्य-पद्धति में, न्यूनतम निर्वाह में, चिन्ता मुक्त रहने में उन्हें सुविधाएं अविवाहित रहकर ही मिलती थीं। इसके विपरीत जिन्हें आश्रम चलाने पड़ते थे वे ब्राह्मण गृह-व्यवस्था के लिए पत्नी के सहयोग की सुविधा देखते थे। जो हो यह प्रसंग यहां नहीं उठना है। चर्चा काम प्रक्रिया की हो रही थी। वह शरीर क्षेत्र से कम और मनःक्षेत्र से अधिक सम्बन्धित है। शरीर का ब्रह्मचारी मन से व्यभिचारी रहे तो उसे इस प्रति बन्धन की विडम्बना का कोई लाभ न मिल सकेगा। इसके विपरीत यदि मन पवित्र रहे तो गृहस्थ भी एक योगी बन सकता है। तब घर में तपोवन का वातावरण बना देना कुछ कठिन न होगा। वासना और विलासिता का स्थान यदि स्वच्छ सहकार और बालकोपम हास्य-विनोद ग्रहण करले तो उसे वंधित ब्रह्मचर्य से कम नहीं अधिक लाभदायक ही कहा जायगा।
समस्या यहां आकर अटक जाती है कि यदि काम बीज जीव चेतना की इतनी गहराई में घुसा बैठा है—उसकी शक्ति इतनी प्रबल और जड़ इतनी गहरी है तो फिर उससे बच सकना कैसे हो सकता है? तब ब्रह्मचर्य के लाभों से लाभान्वित कैसे हुआ जा सकता है? यदि संयम न बरता जाय तो ओजस् की क्षति होती है। यदि बरता जाय तो दमित मानस विकृत ग्रंथियों का हानिकारक संग्रह करता है। इधर खाई उधर कुआं। आखिर किया जाय तो क्या किया जाय?
मनीषियों ने इसका उत्तर कुण्डलिनी जागरण की साधना के रूप में दिया है। इसका कर्मकाण्ड और विधि-विधान जितना चमत्कारी है उससे अधिक महत्वपूर्ण है उसका तत्व दर्शन। कुण्डलिनी विधान जानने से पहले उसका दर्शन जानना आवश्यक है। प्रतिपादन यह है कि काम-कला को ब्रह्म विद्या के रूप में परिवर्तित किया जाय। इसे विज्ञान की भाषा में—ट्रांसफार्मेशन-रूपान्तरण कहते हैं। काम को कला में परिणत, परिष्कृत किया जा सकता है। भक्ति भावना उसी प्रयास का उत्कृष्ट रूप है, ललित कलाओं में, उद्देश्य पूर्ण शौर्य, साहस में, पारमार्थिक सेवा साधना में जो उच्चस्तरीय उल्लास उपलब्ध होता है उसे ‘काम’ तत्व की परिष्कृत भाव भूमिका कह सकते हैं। चिन्तन की दिशा धारा मोड़ देने से यह परिवर्तन सम्भव हो सकता है। वर्षा का जल यदि अनियन्त्रित फैले तो खेतों, घरों को डुबाकर हानिकारक सिद्ध होगा। पर यदि नदी नाले के माध्यम से बांध बनाकर संग्रह किया जाय और नहरों के माध्यम से सिंचाई के लिए खेतों तक पहुंचाया जाय तो इससे हर प्रकार लाभ ही लाभ है। अनियन्त्रित काम प्रवृत्ति का निरोध इसी प्रकार उचित है उसे हठ पूर्वक नष्ट कर देने की बात न सोची जाय, वरन् ऐसे प्रयोजन में लगा दिया जाय जिसमें उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति हो।
पौराणिक कथा में कामदेव भगवान शंकर पर प्रकोप करता है, उन्हें अपनी उंगली के इशारे पर नचाना चाहता है। शिवजी अपने दूरदर्शी विवेक से—तृतीय नेत्र से इसके दुष्परिणामों को समझने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुस्थिति समझ में आते ही, तृतीय नेत्र खुलते ही सम्भावना समाप्त हो जाती है। कामदेव जलकर भस्म हो जाता है। वह विवेकशीलता की—पशु प्रवृत्ति पर प्रत्यक्ष विजय है। कुविचारों को सद्विचारों से ही निरस्त किया जाता है। लोहे से लोहा कटता है। कामुकता के दुष्परिणामों और संयम के सत्परिणामों पर विस्तारपूर्वक विचार किया जाय तो विवेक का निर्णय औचित्य के पक्ष में होगा। चोर की घात तो तब लगती है जब घर मालिक सोये हुए हों जब उनमें से कोई बच्चा रोने लगे—बुड्ढा खांसने लगे तो बलिष्ठ चोर की भी हिम्मत टूट जायेगी और उसे उलटे पैरों भागना ही पड़ेगा। कामुकता, सम्मत समस्त कुविचारों के सम्बन्ध में यही बात लागू होती है। यदि आदर्शवाद के समर्थक तर्कों, तथ्यों, प्रमाण और उदाहरणों की सेना सजा ली जाय और जब भी शत्रु शिर उठाये तभी वह सेना लड़ा दी जाय तो समझना चाहिए कि औचित्य ही जीतेगा। कल्मषों के उन्मूलन का यही एकमात्र मार्ग है। महाभारत युद्ध की घटना को लेकर जीव रूपी अर्जुन को—दुरित दुर्जनों को परास्त करने के लिए जिस सैन्य सज्जा के लिए कहा गया है उसे अन्तःसधर्म की समझना चाहिए। शिवजी का काम दहन भी इसी तथ्य के समर्थन में एक प्रेरणाप्रद प्रसंग है। पीछे काम पत्नी-रति; सरसता विलाप करती है। विधवा के दुःख को—भगवान आशुतोष सहन नहीं कर पाते, वे द्रवित होते हैं और वरदान देते हैं कि भस्मसात कामदेव शरीर समेत तो जीवित नहीं हो सकते, पर वे सूक्ष्म रूप में फिर सजीव हो जायेंगे और उच्च आत्माओं पर भी अपना अस्त्र छोड़ने की अपनी कामना पूरी करेंगे।
इस वरदान का अभिप्राय यही है कि पशु-प्रवृत्तियों को भड़काने वाली और जीवन सम्पदा को कुमार्गगामी बनाने वाली कामुकता को परिष्कृत किया जा सकता है। उसे भावनात्मक श्रेष्ठ सम्वेदनाओं से लगा कर स्थूल-यौनाचार के आकर्षण से विरत किया जा सकता है।
कुण्डलिनी के स्वरूप निर्धारण में यह तथ्य और भी स्पष्ट है। काम केन्द्र मूलाधार चक्र को बताया गया है। यह जननेन्द्रिय के मूल में है। इसे अग्नि कुण्ड, अग्नि समुद्र, शक्ति समुद्र भी कहा गया है। उमंगें और उत्साह भरने की क्षमता वहां केन्द्रित है। इस स्थिति में उसकी संज्ञा सर्पिणी की है। सर्प दंश और सर्प विष की भयानकता सर्वविदित है। सामान्य स्थिति में अधोगामी और बहिर्मुखी रहती है। उसके क्षरण-स्राव-जननेन्द्रिय मार्ग से नीचे की ओर टपकते हैं। उसका प्रत्यक्ष रूप त्वचा तल से ऊपर उभरा होता है। नर और नारी की जननेन्द्रियों की स्थिति इस दृष्टि से लगभग एक जैसी ही है। इसे कुण्डलिनी की गर्हित, मूर्छित, अधःपतित स्थिति समझा जाना चाहिए।
कुण्डलिनी जागरण साधना में समुद्र मंथन जैसे प्रयत्न करने पड़ते हैं। फलतः प्रसुप्ति जागृति में बदलती है। तप की उष्णता पाकर अन्तःऊर्जा उभरती है और ऊपर की ओर चलने का प्रयत्न करती है। गर्मी से वायु, जल आदि सभी का विस्तार होता है। वे ऊपर की ओर उठते हैं। ग्रीष्म में चक्रवात गरम हवा के द्वारा ही उठते हैं। पानी से भाप गर्मी ही ऊपर की ओर उठाती है। मूलाधार से जगी हुई व्यक्ति ऊर्जा, प्राण-शक्ति कुण्डलिनी ऊपर को उठती है। मेरुदण्ड मार्ग से सर्पिणी की तरह लहराती हुई ब्रह्मरंध्र की ओर चलाती है, बिजली की यही चाल है। यह ऊर्जा मस्तिष्क में पहुंचती है। सहस्रार कमल से सम्बन्ध बनाती है और उसी में लय हो जाती है। कमल सात्विकता का, कला का, दिव्य सौन्दर्य का केन्द्र माना गया है। भगवान के अंगों का-अवयवों का-वर्णन कमल उपमा के साथ किया जाता रहा है। लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान हैं। गजेन्द्र ने ग्राह से मुक्ति पाने के लिए कमल पुष्प सूंड़ में लेकर भगवान की अभ्यर्थना की थी। कमला लक्ष्मी का दूसरा नाम है। विष्णु के चार हाथों में चार उपकरण हैं। शंख, चक्र, गदा के उपरान्त चौथा ‘पद्म’ ही आता है। इस प्रकार पौराणिक संगतियों में कमल को दिव्यता का प्रतीक माना गया है। मस्तिष्क के मध्य क्षेत्र में-ब्रह्मरन्ध्र में-सहस्रार कमल अवस्थित है। उस पर कहीं विष्णु की कहीं, शिव की, कहीं सद्गुरु की स्थापना और ध्यान का उल्लेख है। यह प्रतिपादन यही इंगित करता है कि कामुकता में संलग्न अन्तःऊर्जा को उस पतन के गर्त से निकाल कर ब्रह्मचेतना में-उत्कृष्ट उल्लास प्रधान करने वाली ब्रह्म विद्या में नियोजित किया जाना चाहिए। इसी परिवर्तन परिष्कार को—उत्कर्ष उन्नयन की कुण्डलिनी जागरण कहा गया है। ब्रह्मचर्य की तात्विक साधना यही है। इसी में अध्यात्म तत्व ज्ञान के समस्त सूत्र संजोये हुए हैं। इस ट्रान्सफार्मेशन का—रूपान्तर का सत्परिणाम, महान् जागरण, महान् परिवर्तन दिव्य जीवन के पक्ष में सामने आता है। काम बीज का यह ब्रह्म समर्पण कितना श्रेयस्कर होता है इसे कुण्डलिनी महाविज्ञान की जागरण साधना एवं तत्व भावना को अपना कर ही जाना जा सकता है।