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Books - आध्यात्मिक काम-विज्ञान

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अखंड आनंद की प्राप्ति

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सांसारिक भोगों में एक विचित्र आकर्षण होता है। यही कारण है वे मनुष्य को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं। किन्तु इससे भी अद्भुत बात यह है कि यह जितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते जाते हैं, मनुष्य का आकर्षण उतना ही उनकी ओर बढ़ता जाता है और शीघ्र ही वह दिन आ जाता है, जब मनुष्य इनमें आकण्ठ डूबकर नष्ट हो जाता है। सांसारिक भोगों की ओर अशक्त की भांति विवश होकर खिंचते रहना ठीक नहीं। मनुष्य को अपना स्वामी होना चाहिये, इस प्रकार यन्त्रवत् प्रवृत्तियों के संकेत पर परिचालित होते रहना चाहिये। संयम मनुष्य की शोभा ही नहीं शक्ति भी है। अपनी इस शक्ति को काम में लाकर, विनाशकारी भोगों के चंगुल से उसे अपनी रक्षा करनी ही चाहिये। मनुष्य जीवन अनुपम उपलब्धि है। इस प्रकार सस्ते रूप में उसका ह्रास कर डालना न उचित है और न कल्याणकारी।

यह निर्विवाद सत्य है कि भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का ह्रास कर देती है। भोग जिनमें भ्रमवश मनुष्य आनन्द की कल्पना करता है, वास्तव में विष रूपी ही होते हैं। यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता है। यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्तियों का बाहुल्य होता है, साथ ही कुछ न कुछ जीवन-तत्व का नव निर्माण होता रहता है इसलिये उस समय उसका कुप्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु अवस्था का उत्थान रुकते ही इसके कुपरिणाम सामने आने लगते हैं। लोग अकाल में वृद्ध हो जाते हैं। नाना प्रकार की कमजोरियों और व्याधियों के शिकार बन जाते हैं। चालीस तक पहुंचते-पहुंचते सहारा खोजने लगते हैं, इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं और जीवन एक भार बन जाता है। शरीर का तत्व वीर्य, जो कि मनुष्य की शक्ति और वास्तविक जीवन कहा गया है, अपव्यय हो जाता है। जिससे सारा शरीर एकदम खोखला हो जाता है।

ईसामसीह जीवन भर ब्रह्मचारी रहे। साथ ही वहां भी अच्छे-अच्छे तथा बुद्धिजीवी लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं।

गृहस्थ आश्रम में सन्तानोत्पादन का बहाना लेकर भोगपूर्ण जीवन बिताने वाले गृहस्थाश्रम का सही मन्तव्य नहीं समझते। सृष्टि क्रम को स्थिर रखने के लिये दाम्पत्य जीवन की अनिवार्यता स्वीकार अवश्य की गई है। तथापि उसमें भी संयम का महत्व कम नहीं किया गया है। धर्म कर्त्तव्य के रूप में सन्तान-सृजन और बात है और कामुकता के वशीभूत होकर दाम्पत्य जीवन को भोग का माध्यम बना डालना भिन्न बात है। उस प्रकार के आचरण को संसार के सभी विद्वान् तथा विवेकशील व्यक्तियों ने अनुचित तथा मानव-जीवन को नष्ट करने वाला बतलाया है। वेद भगवान् ने तो यहां तक कहा है कि ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा म मुमुपाध्रंत’ ब्रह्मचर्य के प्रभाव से मनुष्य बलवान तथा शक्तिवान ही नहीं बनता वरन् मृत्यु तक को जीत सकता है।

ब्रह्मचर्य की महिमा बतलाते हुए छान्दोग्योपनिषद् में तो यहां तक कहा गया है—‘‘एक तरफ चारों वेदों का उपदेश और दूसरी तरफ ब्रह्मचर्य—यदि दोनों को तोला जाये तो ब्रह्मचर्य का पलड़ा वेदों के उपदेश के पलड़े के बराबर रहता है’’

विषयों का निषेध करते हुये भगवान् ने गीता में स्पष्ट कहा है—

‘‘ये हि सं स्पर्शजा भोगा दुःखयोनय; एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।’’

जो इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब सुख हैं, यद्यपि वे विषयी पुरुष को सुख रूप प्रतीत होते हैं, किन्तु, वास्तव में होते वे दुःख के ही हेतु हैं और नाशवान भी। इसलिये हे कुन्ती पुत्र अर्जुन? बुद्धिमान् व्यक्ति उनमें आसक्त और लिप्त नहीं होते।

न केवल धर्म-शास्त्रों में ही, अपितु लौकिक शास्त्रों में भी ब्रह्मचर्य की महिमा का बखान किया गया है। आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थ चरक संहिता में कहा गया है

‘‘सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम् । ब्रह्मचर्योपवासश्च नियमाश्च पृथग्विधाः’’

सज्जनों की सेवा, दुर्जनों का त्याग, ब्रह्मचर्य, उपवास, धर्म शास्त्र के नियमों का ज्ञान और अभ्यास आत्म-कल्याण का मार्ग है।

यही नहीं कि भारतीय मनीषियों ने ही जीवन में ब्रह्मचर्य संयम का गुण गाया हो, विदेशी विचारकों ने भी इसकी कम प्रशंसा नहीं की है प्रसिद्ध जीवशास्त्री डा. क्राउन एम.डी. ने लिखा है

‘‘ब्रह्मचारी यह नहीं जानता कि व्याधि-ग्रस्त दिन कैसा होता है। उसकी पाचन-शक्ति सदा नियंत्रित रहती है और उसको वृद्धावस्था में भी बाल्यावस्था जैसा आनंद आता है।’’

‘‘अमेरिका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डा. बेनीडिक्ट लूस्टा का कथन है ‘‘जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा करता है, उतने आंशों तक वह विशेष महत्व का कार्य कर सकता है।’’

‘‘सिद्ध सन्त स्वामी रामतीर्थ और योगी अरविन्द ने वीर्य का वैज्ञानिक महत्व प्रकट करते हुये, अपने अनुभव इस प्रकार व्यक्त किये हैं ‘‘जैसे दीपक का तेल बत्ती के द्वारा ऊपर चढ़कर प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिणित हो जाता है रेनस (वीर्य) का जो तत्व रति करने के समय काम में लगता है, जितेन्द्रिय होने से वह तत्व, प्राण, मन और शरीर की शक्तियों को पोषण देने वाले एक महत्व के दूसरे तत्व में बदल जाता है। इस तरह आयों का आदर्श रेतस का ओजस में रूपान्तर होने के फलस्वरूप उसकी ऊर्ध्वगति करने का आदर्श सर्वोच्च है।’’

अपने पिता आशुतोष शिवजी को प्रसन्न चित जानकर कुमार सम्भव ने उनके पास जाकर पूछा तात? आपने जिस प्रकार दुर्लभ साधनायें की वैसा साहस किसी में हो और वह सिद्धियों का स्वामित्व तथा ब्रह्म को प्राप्त करना चाहता हो तो उसे क्या करना चाहिए वह सरल उपाय आप हमें बताने की कृपा करें। लोक कल्याण की इच्छा रखने वाले भगवान् शंकर ने बताया—

सिद्धे बिन्दु महायत्ने किं न सिद्धयति भूतले । यस्य प्रसादान्महिमा, ममाप्येतादृशो भवेत ।।

वत्स? उसका एक उपाय है अखण्ड ब्रह्मचर्य अर्थात् ‘‘जिसने यत्न पूर्वक अपने वीर्य को सिद्ध कर लिया है उसके लिये इस पृथ्वी में कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता सिद्ध वीर्य पुरुष तो मेरे समान समर्थ हो सकता है।

वीर्य तत्व के बारे में इन पंक्तियों में जो कुछ कहा गया है उसकी यथार्थता का अनुमान तो ब्रह्मचर्य-व्रती जीवन बिताकर ही किया जा सकता है पर अब उसकी यथार्थता वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं और कहते हैं कि वीर्य-कीट जिस सुरक्षित घोल में रखे जाते हैं उसी से अनुमान किया जा सकता है कि सृष्टि का कितना महत्वपूर्ण तत्व है। वीर्य एक प्रकार का रसायन है। वीर्य कीट उसमें रहने वाले जीवाणु होते हैं। तरल पदार्थ 75 प्रतिशत जल 5 प्रतिशत फास्फेट आफ लाइम, 4 प्रतिशत चिनाई, 3 प्रतिशत प्रोटीन ऑक्साइड शेष भाग फास्फेट, फास्फोरस, सोडियम क्लोराइड आदि पदार्थ होते हैं। पुरुष के शुक्र कीट (पर्म) तथा स्त्री के डिम्ब (ओवम) का उत्पादन पुरुष के अण्ड तथा स्त्री के अण्डाशय में होता है। यहां से एक प्रकार का रस जो कि वीर्य रसायन का एक प्रकार का ‘‘प्लाज्मा’’ होता है जो सारी शरीर में ओज और तेजस की भांति छाया रहता है। यह तेजस ही परसार आकर्षण का कारण होता है। जिस शरीर में वीर्य की प्रचुर मात्रा होती है वह काले कुबड़े होने पर भी आकर्षक लगते हैं। कहते हैं अष्टावक्र जो शरीर में आठ स्थानों से टेढ़ा था ने अपनी संयम शक्ति द्वारा

................................................................... पेज मिसिंग - 31, 32 ................................................................... सुरक्षा पर ध्यान रखा जाता था इससे उसकी विचार क्षमता ऊर्ध्वमुखी बनी रहती थी। ऊर्ध्वरेता चिन्तन ही जीवन के यथार्थ लक्ष्य और ब्रह्म की विराटता की अनुभूति कर सकता है।

11 से 16 वर्ष तक की आयु में वीर्य मेरुदण्ड से होता हुआ उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे-धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थान बना लेता है। काम विकार पहले मन में आता है उसके बाद तुरन्त ही मूलाधार चक्र उत्तेजित हो उठता है उसके उत्तेजित होने से वह सारा ही क्षेत्र जिसमें कि कामेन्द्रिय भी सम्मिलित होती है उत्तेजित हो उठती है ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य को सम्भालना कठिन हो जाता है 24 वर्ष तक की आयु में यह वीर्य मूलाधार चक्र में से सारे शरीर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है जैसे—

यथा पयसि सर्पिस्तु, गूढश्चेक्षौ रसो यथा । एवं हि सकले काले शुक्र तिष्ठति देहिनाम ।।

अर्थात् जिस प्रकार दुग्ध में घी, तिल में तेल ईख में मीठापन तथा काष्ठ में अग्नि तत्व विद्यमान रहता है उसी प्रकार वीर्य सारे शरीर में व्याप्त हो जाता है। यदि 25 वर्ष की आयु तक आहार-विहार को दूषित नहीं होने दिया गया और ब्रह्मचर्य खंडित न हुआ तो इस आयु में शक्ति की मस्ती और विचारों की प्रफुल्लता देखते ही बनती है। ऐसे बच्चे प्रायः जीवन भर स्वस्थ रहते हैं। काम-विकार से घिरे बच्चों को दमित वासना का संकट हो सकता है जिस बालक के मस्तिष्क में मातृभाव रहा काम-वासना प्रदीप्त नहीं होने पाई उसे दमित वासना की तो कल्पना भी नहीं आयेगी वरन् ऐसा सोचने वाले उसके सम्मुख कीट-तत्व जैसे हीन बुद्धि लगेंगे। प्रफुल्लता, मानसिक उन्मुक्तता, साहस, निर्भयता, वाक् विनोद अपने आप में उतना आनन्द है जितना संभोग में। सम्भोग का आनन्द तो थोड़ी देर का है पर यदि वीर्य अच्छी तरह शरीर में पच गया है तो वह आनन्द जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह और सफलता के रूप में सर्वत्र लिया जा सकता है।
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