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Books - आध्यात्मिक काम-विज्ञान

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सृष्टि में संचरण और उल्लास की प्रवृत्ति

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ब्रह्मा की दो पत्नियां होने की चर्चा पुराणों में आती है। एक का नाम सावित्री दूसरी का गायत्री है। एक को परा प्रकृति दूसरी को अपरा प्रकृति कहते हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें जड़ और चेतन सृष्टि कह सकते हैं। जड़-शक्ति वह है जो अणु शक्ति के पीछे काम करने वाली प्रेरक सत्ता से आरम्भ होती है। नाभिक न्यूक्लियस के अन्तराल में भरी हुई अगणित और अद्भुत गति-विधियों और दिशा विदिशाओं के रूप में जिसका परिचय प्राप्त किया जाता है। भौतिक जगत इसी का पसारा है। इन्द्रियों से जिनका स्वरूप देखा समझा जाता है एवं इन्द्रियातीत वे शक्तियां जिनको उपकरणों से पकड़ा जा सकता है वे सभी दृश्य अदृश्य शक्तियां यों हलचल से शून्य नहीं है। पर उनमें चिन्तन क्षमता न होने से जड़ कहते हैं। जड़ प्रकृति का अर्थ गतिहीन नहीं। शक्ति में गति न हो तो फिर वह शक्ति कैसी। बोलचाल की भाषा में उसे जड़—दार्शनिक चर्चा में उसे परा पौराणिक अलंकारों में उसे सावित्री कहते हैं। जितना कुछ यह जगत देखा समझा जा सकता है उसे सावित्री कहना चाहिये। जो कुछ विचार की, भावना की उत्साह की शक्ति है उसे गायत्री कहते हैं। पुराणों का उपरोक्त अलंकारिक उपाख्यान—यही प्रतिपादित करता है कि ब्रह्म-परमेश्वर अपनी परा और अपरा प्रकृति के—जड़ और चेतन विभूतियों के माध्यम से समस्त सृष्टि का उद्भव, पोषण और प्रत्यावर्तन करता है।

मनुष्य इन परा और अपरा प्रकृतियों का सजीव सम्मिश्रण है। शरीर पंच तत्वों का बना होने से जड़ है। आत्मा विचारशील और भाव सम्पन्न होने से चेतन है। जड़ और चेतन का यह संयोग ही मनुष्य की अद्भुत प्रतिभा का स्रोत है, जिन निम्न वर्ग वाले जीव-जन्तुओं का चेतन जितना निर्बल है वे उतने ही पिछड़े हुए हैं। हम इसलिए अगणित सम्पदाओं और विभूतियों के अधिपति बन सके कि इस काया में उत्कृष्ट स्तर की परा और अपरा प्रकृति को कर्ता ने भली प्रकार नियोजित कर दिया है। काया में दो केन्द्र इन शक्तियों के हैं। सावित्री-जड़ परा प्रकृति का केन्द्र है। मूलाधार चक्र यहां कुण्डलिनी महाशक्ति अत्यन्त प्रचण्ड स्तर की क्षमतायें दबाये बैठी है। पुराणों में इसे महाकाली के नाम से पुकारा गया है। मोटे शब्दों में इसे काम-शक्ति कह सकते हैं। काम शक्ति का अनुपयोग, सदुपयोग दुरुपयोग किस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है उसे आध्यात्मिक कामविज्ञान कहना चाहिए। इस शक्ति का बहुत सूझ-बूझ के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए, यही ब्रह्मचर्य का तत्व-ज्ञान है। बिजली की शक्ति से अगणित प्रयोजन पूरे किये जाते हैं और लाभ उठाये जाते हैं पर यह होता तभी है जब उसका ठीक तरह प्रयोग करना आये, अन्यथा चूक करने वाले के लिये तो वही बिजली प्राण घातक सिद्ध होती है।

काम-शक्ति को गोपनीय तो माना गया है, जिस प्रकार धन कितना है, कहां है, आदि बातों को आमतौर से लोग गोपनीय रखते हैं। उसकी अनावश्यक चर्चा करने से अहित होने की आशंका रहती है। इसी प्रकार काम-तत्व को गोपनीय ही रखा गया है। पर इसकी महत्ता, सत्ता और पवित्रता से कभी किसी ने इनकार नहीं किया। यह घृणित नहीं, पवित्र तम है। यह हेय नहीं अभिवंदनीय है। भारतीय अध्यात्म शास्त्र के अन्तर्गत शिव और शक्ति का प्रत्यक्ष समन्वय जिस पूजा प्रतीक में प्रस्तुत किया गया है उसमें इस रहस्य का सहज ही उद्घाटन हो जाता है। शिव को पुरुष की जनेन्द्रिय और पार्वती को नारी की जनेन्द्रिय का स्वरूप दिया गया है। इनका सम्मिलित विग्रह ही अपने देव मन्दिरों में स्थापित है। यह अश्लील नहीं है। तत्वतः यह सृष्टि में संचरण और उल्लास उत्पन्न करने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम के संयोग से उत्पन्न होने वाले महानतम शक्ति प्रवाह की ओर संकेत है। इस तत्व-ज्ञान को समझना न तो अश्लील है और न घृणित वरन् शक्ति के उद्भव विकास एवं विनियोग का उच्चस्तरीय वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारभूत एक दिव्य संकेत है। यदि ऐसा न होता अपने त्रिकालदर्शी और ईश्वर समकक्ष स्तर पर पहुंचे हुए तपःपूत ग्रन्थि भगवान् शिव और उनकी स्फुरण शक्ति का समन्वय मन्दिरों में स्थापित न करते। हेय तो हर वस्तु का दुरुपयोग ही होता है। अमृत भी दुरुपयोग से विष बन सकता है। काम-शक्ति स्वयं घृणित नहीं। घृणित तो वह विडम्बना है जिसके द्वारा इतनी बहुमूल्य ज्योति धारा को शरीर को जर्जर और मन को अधःपतित करने के लिए अविवेक पूर्वक प्रयुक्त किया जाता है। सावित्री का-कुंडलिनी का प्राण-काम पतित कैसे हो सकता है। वह तो देवता की पंक्ति में अति सम्मान पूर्वक विराजमान होता रहा है। जो जितना उत्कृष्ट है विकृत होने पर वह उतना ही निकृष्ट बन जाता है यह एक तथ्य है। काम-तत्व के बारे में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। जब वह विद्रोही और उच्छृंखल हो उठा और अवांछनीय चेष्टायें करने लगा तभी उसके शमन का प्रयोग करना पड़ा। भगवान् शिव ने तीसरा नेत्र खोल कर उसकी कुचेष्टाओं को जलाया था। उसके अस्तित्व को छोड़ा नहीं। वरन् उसे वरदान देकर अजर अमर बना दिया। यदि वह वस्तुतः अनुपयुक्त होता तो शिवजी त्रिपुर असुर की तरह उसे भी समूल नष्ट कर सकते थे। पर ऐसा किया नहीं गया। ऐसा हो गया होता तो यह संसार की महानतम दुर्घटना होती। फिर प्राणी अशक्त और अवसर ग्रस्त नीरस, निराश और निरीह जीवन-जीकर किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते भर दिखाई देते। यहां आनन्द और उल्लास जैसी—उमंग और उत्साह जैसी शक्ति प्रगति श्री समृद्धि उत्पन्न करने वाली कोई परिस्थिति देखने को न मिलती।

ब्रह्मा की दूसरी पत्नी-शक्ति-गायत्री जिसे विचारणा एवं भावना कहते हैं अपने स्थान पर अति महत्व पूर्ण है। मानवीय चिन्तन का उचित निर्देशन उसी के द्वारा होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा ही नर-पशु को नर-नारायण बनाती है। समस्त धर्म-शास्त्र, तत्व-ज्ञान स्वाध्याय, सत्संग, मनन चिन्तन, उसी की क्षेत्र परिधि में आता है। उसके प्रकाश विस्तार पर कोई प्रतिबन्ध न होने से अतीत से लेकर अद्यावधि पर्यन्त बहुत कुछ कहा सुना जाता रहा है उसी की चर्चा की जाती रही है सावित्री की चर्चा अधिक हो न सकी। कुण्डिलिनी शक्ति की गोपनीयता का उद्घाटन करने से कतराने की ही परम्परा चली आई है। गोपनीयता की मर्यादा जहां तक रही वहां तक उसे तन्त्र विद्या के माध्यम से किसी न किसी रूप में कहा, बताया जाता रहा। पर जब दुरुपयोग का विग्रह-उग्र से उग्रतर होने लगा और बात अश्लीलता तक पहुंच गई। उसके प्रयोक्ता असुर दुष्टता को अपनाने लगे तो उसकी चर्चा और भी अधिक अस्पर्श हो गई। तन्त्र काल जब तक रहा तब तक स्नायु मण्डल में थिरकती हुई इस महाकाली की विवेचना और साधना सम्मानित बनी रही। दश महाविद्यायें जिनकी साधना से भौतिक जीवन में ऋद्धि-सिद्धियों का अद्भुत संचरण होता है तन्त्र-विज्ञान की आधार स्तम्भ है। इन दश देवियों की पूजा प्रकरण हमने अपने तन्त्र-विज्ञान ग्रन्थ में लिखी भी है, पर गहन क्षेत्र में प्रवेश करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु स्थिति पूजा उपासना तक सीमित नहीं। उन्हें जीवन की ज्योतिमयी शक्ति पीठ ही कहना चाहिए। दस विद्यायें मात्र पूजा साधना में प्रयुक्त होने वाली देवियां नहीं हैं। वरन् मानवीय चेतना की समस्त क्रिया प्रक्रियाओं में व्याप्त शक्ति निर्झरणी है जिनमें स्नान अवगाहन करने पर मनुष्य सामान्य न रह कर असामान्य बनता है और तुच्छता का कलेवर उतार कर महानता की भूमिका में प्रवेश करता है।

समय आ गया कि काम-विद्या के तत्व-ज्ञान का संयत और विज्ञान सम्मत प्रतिपादन करने का साहस किया जाय और संकोच का यह पर्दा उठा दिया जाय कि इस महान् विद्या की विवेचना हर स्तर पर अश्लील ही मानी जायगी—उसे हर स्थिति में गोपनीय ही रखा जाना चाहिए। यह संकोच मानव-जाति को एक महान् लाभ से वंचित ही रखे रहेगा। चर्चा करने वाले को लोग हलके स्तर का समझेंगे उसकी गरिमा घटेगी यह अपराध ही है। शरीर शक्ति का शिक्षण करने वाले उपाध्याय जननेन्द्रियों का स्वरूप समझाने में झिझक कर अपने छात्रों को उस महत्वपूर्ण ज्ञान से वंचित नहीं करते। यदि यह संकोच शीलता न तोड़ी जाती तो यौन रोगों के चिकित्सक कहां से आते? प्रसव सहायता और गर्भाशयों की शल्य-क्रिया कैसे सम्भव होती? संकोच वहां उचित है जहां कुत्साएं भड़कने की आशंका हो। प्रतिबन्ध पशुता भड़काने वाले अश्लीलता कामुकता, वासना की आत्मघाती प्रवृति के प्रसारण पर होना चाहिए। सृष्टि की संचरण प्रक्रिया और मानव-जीवन की अतिशय महत्वपूर्ण एवं प्रेरक प्रवृति की दिशा-विदिशा जानने से वंचित रहना, वस्तुतः अपने ही पैरों कुल्हाड़ी मारना है। उचित ज्ञान के अभाव में ही प्रक्षिप्त ज्ञान को विस्तार मिलता है। काम-वासना मनुष्य जीवन की एक अति प्रबल प्रवृत्ति है। उस की हलचल मस्तिष्क को उद्वेलित करती ही रहती है। फलतः व्यक्ति उस सम्बन्ध में कुछ न कुछ कहने-सुनने के पूछने-बताने के—पढ़ने-जानने के लिये भी खोजबीन करता रहता है। उच्चस्तरीय जानकारी न होने से उसे घटिया, विकृत और अवांछनीय सामग्री हाथ लगती है। जिससे आत्मघात करने का ही पथ प्रशस्त होता है। इस स्थिति से बचने की दृष्टि से भी यह आवश्यक है। काम प्रवृति की तथ्य पूर्ण जानकारी सर्व साधारण को उपलब्ध रहे और उसके आधार पर उसे अपने व्यक्ति-विकास एवं शक्ति संतुलन में सहायता मिलती रह सके। आध्यात्मिक काम-विज्ञान का प्रथम पाठ आज की स्थिति में भारतीयों को यह पढ़ाना चाहिए कि वे प्रकृति और पुरुष की समीपता एवं एकता को तात्विक दृष्टि से देखें और उनका समन्वय वैसे ही करें जैसे कि एक ही शरीर में रहने वाले इन दो तत्वों का सहज भाव से बना चला आता है मस्तिष्क प्राण का-अग्नि का-ब्रह्म का प्रतीक है। मूलाधार काम संस्थान-रयि का-सोम का-प्रकृति का-प्रतीक है। दोनों एक ही शरीर में घुले−मिले पास-पास रहते हैं। दोनों की यह स्थिति कोई उपद्रव उत्पन्न नहीं करती वरन् एक अपूर्णता को पूर्णता में विकसित करती है। दो पृथक अंगों की सीमा में विकसित होकर यही प्रक्रिया में एक से दो में और दो से बहुत में विकसित होती है। नर और नारियां दोनों ही मनुष्य हैं और दोनों के अस्तित्व में प्रत्यक्षतः कोई बड़ा अन्तर नहीं है दोनों की योग्यता मर्यादा और क्षमता लगभग एक ही माननी चाहिए। पर यदि सूक्ष्मता की गहराई में जाया जाय तो उनकी मूल प्रकृति में पाया जायगा-नर जहां प्राण का-पौरुष का अग्नि का बाहुल्य रख रहा होगा वहां नारी सोम की-सोचनीय की भावना का प्रतिनिधित्व कर रही होगी। दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं और उनका महत्व समान रूप से मूल्यवान है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। समीपता से दोनों एक दूसरे को बहुत कुछ देते हैं और दें सकते हैं। एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। इसलिये उन्हें परस्पर अछूत की तरह नहीं रहना चाहिए। पिछले दिनों सामन्तवादी युग में नारी का बहुत ही दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण चित्रण कर दिया गया। उसे स्वर्ग की देवी के उच्च स्थान से घसीट कर वैश्या जैसे नारकीय स्तर का चित्रित किया गया। कामिनी और रमणी मात्र उसे रहने दिया गया। कला के नाम पर केवल घृणित वासना की प्रतिमूर्ति नारी को संजोया गया। गीत, काव्य, चित्र, मूर्ति, अभिनय, नृत्य, साहित्य आदि कला के जितने भी स्वर थे सब ने मिल कर नारी को यौन लिप्सा की पूर्ति में प्रयुक्त होने वाली भोग सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया। मस्तिष्क उसी सांचे में ढलते चले गये। और नारी का स्वाभाविक वेष विन्यास ऐसा अभ्यस्त करा दिया गया। जिससे वासना भड़काना ही उसका एक मात्र लक्ष्य दीखने लगे। नारी को जिस कुरुचि पूर्ण साज-सज्जा में अलंकृत आज सर्वत्र देखा जाता है उसके पीछे सामन्तवादी युग की बनी दुरभिसंधि काम कर रही है। यों तत्वतः नारी का यह घोर अपमान है कि वह नर की वासना भड़काने वाली साज-सज्जा को स्वीकार करले। कोई दिन ऐसा जरूर आवेगा जब वह अपने ऊपर चढ़ाये गये इन आवरणों के प्रति विद्रोह करेगी और नर-नारी की समान वेष-भूषा का साज-सज्जा का प्रचलन होगा। जब नर, नारी को प्रलोभित करने की दृष्टि से सज-धज नहीं बनाव, शृंगार साधन नहीं जुटाता तो नारी ही भड़कीली सज्जा अपना कर अपनी हीनता का परिचय क्यों दे? भोग्या होने का प्रदर्शन वह क्यों न अपने व्यक्तित्व का अपमान समझे? एक दिन यह भाव जागेंगे ही-और या तो नर स्वयं समझेगा या फिर जागृत नारी उन समस्त बौद्धिक दुरभि संधियों को-कला के नाम पर बुने गये मकड़ी के जाले को तोड़ कर रख देगी जो उसे हेय, हीन, घृणित, भोग्या, रमणी, कामिनी जैसे लांछनों से तिरस्कृत करते हैं।

नारी का जो स्वाभाविक स्थान है वह उसे मिलना ही चाहिए। समाज में उसे पुरुष का पूरक बन कर रहना चाहिए, नारी की अछूत अस्पर्श की स्थिति जो इन दिनों बनी हुई है उसका एक मात्र कारण वह रुग्ण मनोवृत्ति है जिसके अनुसार नारी का अस्तित्व काम-सेवन भर मान लिया गया है। यदि उसे बहिन, बेटी, मां, सखा और पूरक मान लिया जाय, तो जिस प्रकार दो पुरुषों के सान्निध्य से काम-प्रवृत्ति भड़कने का कोई डर नहीं रहता उसी प्रकार नर-नारी के बीच भी अकारण कलुष कषाय उत्पन्न न हो। वासना या विकार के लिए न नर का अस्तित्व दोषी है न नारी का। केवल मनोवृत्ति दोषी है जो अवांछनीय तत्वों में मौजूद भ्रम-जंजाल के रूप में कागज के रावण की तरह बनाकर खड़ी कर दी गई है।

आज अपने समाज में नारी को नर से सर्वथा दूर रखा जाता है। दोनों कभी कहीं मिल रहे हों बात कर रहे हों, हंस रहे हों तो उसे मात्र व्यभिचार का प्रयोजन सोचा जायगा चाहे प्रसंग कितना ही पवित्र क्यों न चल रहा हो। यह हमारी तुच्छता का घृणित तम स्वरूप है। नारी बिना हेय प्रयोजन के नर से अन्य किसी प्रसंग पर बात ही नहीं कर सकती, उसके मन में कुत्सा के अतिरिक्त और कुछ रहता ही नहीं, यह सोच कर पर्दे जैसे कठोर प्रतिबन्ध की जंजीरों में कसना निस्संदेह अति घृणित और अति ओछी मनोवृत्ति का परिचय देना है। हम इसी दुर्बुद्धि में फंस गये हैं। भारतीय समाज में पर्दा प्रथा का अभी तक बने रहना अपने चारित्रिक पिछड़े पन को ही प्रदर्शित करता है। इससे लाभ रत्ती भर नहीं हानि अपार है। नारी में हीनता की भावना जम गई, उसका साहस चला गया, परावलम्बी बन गई, पग-पग पर झिझक सवार है, प्रगति की दिशा में साहस नहीं कर पाती, स्वावलम्बन की बात सोचते डरती है। इस स्थिति ने उसके व्यक्तित्व को इतना दुर्बल बना दिया कि पग-पग पर पददलित होती है। उच्च वर्ण के हिन्दू लड़की का विवाह तब करते हैं जब लड़की के साथ मोटी रकम भी दहेज में दी जाय। बिना मूल्य नारी की उपलब्धि नर का असामान्य-सौभाग्य है। इस सौभाग्य का कुछ भी मूल्य न समझा जाय और उसे अति तुच्छ समझ कर दहेज मिलने पर ही स्वीकार किया जाय यह नारी का दयनीय और हृदय विदारक दुर्दशा का दुर्भाग्य पूर्ण चित्र है। इसका दोष उस मनोवृत्ति को है जिसने नारी को भोग्या समझा और अन्य भोग सामग्रियों की तरह अपने लिए संग्रह करने की दृष्टि से प्रतिबंधित किया। इस बन्धन ने नारी को इतनी दुर्बल बना दिया कि वह समाज के लिए—परिवार के लिए—अपने लिए केवल भार भूत बनकर रह रही है।

इस स्थिति का अन्त किया जाना चाहिए और सर्व साधारण को यह समझाया जाना चाहिए कि नारी न भोग्या है न रमणी न कामिनी। यह भी मनुष्य ही है, अगणित विभूतियों की धनी है। नर की पूरक है। दोनों हिल-मिल कर सहयोगी सहचर की तरह रहें यही स्वाभाविक, उचित और न्याय संगत है। प्रतिबन्धों के पीछे जिस व्यभिचार पर नियन्त्रण की बात सोची जाती है, वह सर्वथा निरर्थक है। व्यभिचार मात्र क्रिया नहीं है वस्तुतः वह दूषित दृष्टि ही है, जिसमें दृष्टि दोष भरा पड़ा है वह अविवाहित भी व्यभिचार का दण्ड भुगतेगा और जिसकी भावनाएं पवित्र हैं वह विवाहित रहते हुए भी ब्रह्मचारी है। हमें इसी प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए और रमणी कामिनी की भाषा में सोचना बन्द कर देना चाहिए। कला के नाम पर जिन दुष्ट दुरात्माओं ने नारी को वैश्या का स्थान देने की ठान-ठानी है, उन्हें अपराधियों की पंक्ति में खड़ा करना चाहिए। नारी भी नर की भांति मात्र मनुष्य है और मनुष्य को मनुष्य से सहयोग सम्पर्क रखने की छूट होनी ही चाहिए। यह मानवीय और सामाजिक न्याय की मांग है जिसे अधिक दिन तक बेरहमी के साथ दबाया नहीं जाना चाहिए। परस्पर पूरक रह कर सहयोग और सद्भाव की स्नेह और सौजन्य की—भावनाओं का विकास करते हुए ही हम वांछनीय एवं स्वाभाविक स्थिति का समाज विनिर्मित कर सकते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से तो यह नितान्त आवश्यक है। प्राण और रयि की समीपता बिना आन्तरिक-उल्लास के उद्भव ही न हो सकेगा। माना कि बिना पत्नी के सरसता, बहिन के बिना सौहार्द्र, पुत्री के बिना स्नेह की धाराएं सूखी ही पड़ी रहेंगी और नारी को अछूत मानने वाला नर मरघट में रहने वाले प्रेत पिशाच की तरह एकाकीपन की आग में जलता रहेगा। इसी प्रकार प्रति बंधित नारी भी मणि-विहीन सर्प की तरह खोई-खोई भूली भटकी सी अशांत उद्विग्न और अविकसित बनी रहेगी। इस अवांछनीय स्थिति को जिस गर्हित काम-विज्ञान ने उत्पन्न किया है उसे बहिष्कृत परिष्कृत करना ही होगा। अन्यथा ब्रह्म भी प्रकृति के सान्निध्य की तरह नर-नारी का स्नेह सद्भाव बढ़ने से सृष्टि का मानव-समाज का-सौन्दर्य और प्रकाश बढ़ेगा ही घटेगा नहीं।

यौन सम्पर्क एक विशेष प्रक्रिया है। उसके पीछे अग्नि और सोम के मिलन से उत्पन्न एक विद्युत संचार की विशेष प्रक्रिया सन्निहित है इसलिए इसकी उपयुक्तता और पवित्रता पर अधिकतम ध्यान रखा जा सकता है। पर वह प्रयोजन अनावश्यक प्रतिबन्धों से न हो सकेगा। यह प्रतिबन्ध तो उस दुष्ट मान्यता को ही बल देंगे जिसके अनुसार व्यभिचार के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए नर-नारी चर्चा ही नहीं कर सकते। वर्तमान प्रतिबन्धों की वांछनीयता समझी जानी चाहिए और उन्हें इस दृष्टि से शिथिल एवं समाप्त किया जाना चाहिए कि नर और नारी स्वेच्छा से सद्भाव की महत्ता स्वीकार कर सकें और अधिकतम पवित्रता के साथ सहयोग और सौजन्य के साथ रह सकें और प्रगति की दिशा में एक दूसरे के पूरक बन कर साहस पूर्ण कदम बढ़ा सके।

नारी को कामिनी और रमणी न बनाया जाय

दो पहिये बिना गाड़ी नहीं चल सकती। नर और नारी के घनिष्ठ सहयोग बिना सृष्टि का व्यवस्था क्रम नहीं चल सकता। दोनों का मिलन काम-तृप्ति एवं प्रजनन जैसे पशु प्रयोजन के लिए नहीं होता वरन् घर बसाने से लेकर व्यक्तित्वों के विकास और सामाजिक प्रगति तक समस्त सत्प्रवृत्तियों का ढांचा दोनों के सहयोग से ही संभव होता है। यह घनिष्ठता जितनी प्रगाढ़ होगी विकास और उल्लास की प्रक्रिया उतनी ही सघन होती चली जायगी।

कुछ समय से नर-नारी के सान्निध्य का प्रश्न अतिवाद के दो अन्तिम सिरों के साथ जोड़ दिया गया है। एक ओर तो नारी को इतनी आकर्षण चित्रित किया गया कि उसकी मांसलता को ही सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति सिद्ध कर दिया गया। कला ने नारी के अंग-प्रत्यंग की सुडौलता को इतना सराहा कि सामान्य भावुक व्यक्ति यह सोचने के लिए विवश हो गया कि ऐसी सुन्दरता को काम-तृप्ति के लिए प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। गीत, काव्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र, मूर्ति आदि कला के समस्त अंग जब नारी की मांसलता और कामुकता को ही आकाश तक पहुंचाने में जुट जायें तो बेचारी लोक-वृत्ति को उधर मुड़ना ही पड़ेगा। इस कुचेष्टा का घातक दुष्परिणाम सामने आया। यौन प्रवृत्तियां भड़की, नर-नारी के बीच का सौजन्य चला गया और एक दूसरे के लिए अहितकर बन गये। यौन रोगों की बाढ़ आई, शरीर और मन जर्जर हो गया, पीढ़ियां दुर्बल से दुर्बलतर होती चली गईं, मनःस्थिति उस कुचेष्टा के चिन्तन में तल्लीन होने के कारण कुछ महत्वपूर्ण चिन्तन कर सकने में असमर्थ हो गयी। तेज ओज—व्यक्तित्व, प्रतिभा, मेधा शौर्य और वर्चस्व—जो कुछ महान् था वह सब कुछ इसी कुचेष्टा की वेदी पर बलि हो गया। दुर्बल काया और मनःस्थिति को लेकर मनुष्य दीन-हीन और पतित, पापी ही बन सकता था सो बनता चला गया। नारी को रमणी सिद्ध करके तुच्छ सा मनोरंजन भले पाया हो पर उससे जो हानि हुई उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। जितने भी मानवीय प्रवृत्तियों को इस पतनोन्मुख दिशा में मोड़ने के लिये प्रयत्न किया है वस्तुतः एक दिन वे मानवीय विवेक और ईश्वरीय न्याय की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किये जायेंगे।

जो लोग फ्रायड जैसे मनो वैज्ञानिकों का नाम लेकर इस कुत्सा को भड़काने के लिये आज कला प्रयोजनों को पूरी तरह इस स्वच्छन्दता के पैरों में डाल दिया है वे भले ही कहने को बुद्धि जीवी और विचारशील क्यों न हों उन्हें मानवीय सभ्यता पर कलंक लगाने वाला ही कहा जायेगा। न तो मनोविज्ञान की दृष्टि से और न ही विज्ञान की दृष्टि से काम वासना मनुष्य के लिये नितान्त आवश्यक नहीं है उसकी अति तो सर्वथा संकट भारी परिणाम ही प्रस्तुत कर सकती है कर रही है इस आत्म प्रवंचना से बचा जाना चाहिए।

लन्दन के एक अन्य मनोविज्ञान शास्त्री ने तो इस सिद्धान्त की नींव ही हिला कर रखदी। लिसैस्टर विश्व विद्यालय के मनोविज्ञान के प्राध्यापक श्री डैविड राइट ने अनेक बन्दी-शिविरों, फौजी संस्थानों, खेल-कूद और पर्वतारोहण जैसी सामाजिक सामुदायिक और राष्ट्रीय सन्धि के कार्यों में भाग लेने वालों के जीवन विस्तृत अध्ययन करने के बाद पाया कि उनमें से अधिकांश सामान्य परिस्थितियों में ही सम्भोग का आनन्द लेते रहे। उन्हें अपने अभियान अथवा उसके बाद विषय-भोग की कभी भी इच्छा नहीं होती जब तक कि वे या तो स्वयं भूतकालीन सम्भोग का स्मरण नहीं करते या उनके सामने इस तरह की चर्चा के विषय नहीं आते। यदि वे इच्छा न करें अथवा उनके सामने कामुकता भड़काने वाली प्रवृत्तियां न आयें तो वे काम-वासना के लिये कभी परेशान नहीं होंगे वरन् उनमें मनो-विनोद आह्लाद के स्वभाव का विकास ही होने लगता है। श्री डैविड राइट ने द्वितीय महायुद्ध के दौरान बन्दी बनाये गये जापानियों, साइबेरिया शिविर में बन्दी लोगों तथा अस्पतालों के उन लोगों से जाकर भेंट की जो लम्बे समय से किसी बीमारी से आक्रान्त पड़े थे। उनसे बात-चीत करते समय उन्होंने पाया कि उनमें काम-वासना की कोई इच्छा नहीं रह गई थी तो भी वे न तो अशान्त थे न उद्विग्न वरन् उनके अन्तःकरण से एक प्रकार की शान्ति और आत्म-विश्वास की झलक देखने को मिलती थी। यह आत्म-विश्वास अच्छे अर्थों में था—कि यदि इन परिस्थितियों से मुक्ति मिले तो अमुक-अमुक अच्छे काम करें।’’

श्री डैविड राइट के इस कथन की और भी पुष्टि वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा मिल जाती है और इस तरह के सिद्धान्त का लगभग अन्त ही हो जाता है। आने वाले समय में लोग फ्रायड के सिद्धान्त को तूल देकर अपना न तो मस्तिष्क खराब करेंगे और न शरीर की शक्तियां बरबाद करेंगे वरन् शक्तियों के संचय से जीवन की अनेक ऐसी धाराओं का विकास करने में समर्थ होंगे, जिनका सम्बन्ध आध्यात्मिक तत्वों से है और जो यथार्थ में मनुष्य के लक्ष्य हैं। ईश्वर, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म जैसे आध्यात्मिक सत्यों की शोध में ब्रह्मचर्य सबसे अधिक सहायक है आगे की पीढ़ी का ध्यान ब्रह्मचर्य द्वारा शक्ति संयम और उससे जीवन की प्रसन्नता के लिये नई-नई विधाओं की खोज की ओर कहीं अधिक होगा।

मेरीलैण्ड (अमरीका) के नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ चाइल्ड हेल्थ एण्ड ह्यूमन डेवलपमेन्ट (अमरीका की एक राष्ट्रीय संस्था जो बच्चों के स्वास्थ्य और मानव-विकास की आवश्यकताओं की शोध और शिक्षण करती है।) ने एक खोज में बताया कि मनुष्य शरीर की कोशिकाओं में गुणसूत्रों (क्रोमोसोम्स-अर्थात् व्यक्ति के शरीर स्वभाव आदि का निर्धारण करने वाले तत्व) के तेईस जोड़े रहते हैं। प्रत्येक जोड़े में 1 गुणसूत्र पिता का एक माता का होता है। 22 जोड़े ऐसे होते हैं जिनका काम वासना सम्बन्धी गुणों व विकास से कोई सम्बन्ध नहीं होता। अधिकतम 1 ही जोड़ा काम-वासना का रहता है इसी से काम वासना की प्रवृत्ति का व्यक्ति में निर्धारण होता है किन्तु कुछ मामलों में यह भी देखा गया कि उस एक जोड़े में भी एक गुणसूत्र या तो माता की ओर का या पिता की ओर का था ही नहीं सारे 23 समूहों में केवल एक ही गुणसूत्र था ऐसे व्यक्तियों में सेक्स अंगों का विकास तो असामान्य होता है किन्तु उनके स्वभाव में काम-वासना सम्बन्धी कोई विशेष रुचि नहीं होती वरन् कई बातों में वे असाधारण प्रतिभा वाले सिद्ध हुये। बेशक! कुछ एक ऐसे भी उदाहरण आये जबकि बाईस जोड़े अलिंगी गुणसूत्रों (आटोसपल क्रोमोसोम) की जगह 21 जोड़े ही रह गये शेष दो में से 1 तो पूरा ही जोड़ा काम-सम्बन्धी गुणसूत्र का था जबकि दूसरे में भी एक गुणसूत्र काम-वासना वाला था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इस अतिरिक्त काम-वासना के गुणसूत्र वाले सभी व्यक्ति लम्पट क्रोधी असामाजिक और खूंखार थे। तात्पर्य यह कि काम-वासना पर नियन्त्रण न होना व्यक्ति के लिये सुविधा का नहीं पतन का ही कारण हो सकता है। अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वैश्या आदि बना कर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा यह है कि उसे पर्दे घूंघट की कठोर जंजीरों में जकड़ कर अपंग सदृश बना दिया गया। उस पर इतने प्रतिबन्ध लगाये गये जितने बन्दी और पशु भी सहन नहीं कर सकते। जेल के कैदियों को थोड़ी घूमने फिरने की—हंसने बोलने की आजादी रहती है। पर घर की छोटी-सी कोठरी में कैद नव वधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालों के सामने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालों से तो उसे पर्दा ही करना चाहिए। न उनके सामने मुंह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पर्दा सो पर्दा—प्रथा सो प्रथा—प्रतिबन्ध सो प्रतिबन्ध इससे न्याय औचित्य और विवेक के लिए क्यों गुंजाइश छोड़ी जाय? पशु को मुंह पर नकाब लगाकर नहीं रहना पड़ता। वे दूसरों के चेहरे देख सकते हैं और अपने दिखा सकते हैं। जब मर्जी हो चाहे जिसके सामने अपनी टूटी-फूटी वाणी बोल सकते हैं। पर नारी को इतने अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।

इस अमानवीय प्रतिबन्ध की प्रतिक्रिया बुरी हुई। नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई। भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रन्थियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन-हीन अपराधिन की तरह वह यहां वहां लुढ़कती छिपती देखी जा सकती है अन्याय अत्याचार और अपमान पग-पग पर सहते सहते—क्रमशः अपनी सभी मौलिक विशेषताएं खोती चली गई। आज औसत नारी उस नीबू की तरह है जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है। नव-यौवन के दो चार वर्ष ही उनकी उपयोगिता प्रेमी पतिदेव की आंखों में रहती है। अनाचार की वेदी पर जैसे ही उस सौन्दर्य की बलि चढ़ी कि वह दासी मात्र शेष रह जाती है। आकर्षण की तलाश में भौंरे फिर नये-नये फूलों की खोज में निकलते और इधर-उधर मंडराते दीखते हैं। जीवन की लाश का भार ढोती हुई—गोदी के बच्चों के लिए वह किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करती है। जो था वह दो-चार वर्ष में जुट गया अब बेचारी को कठोर परिश्रम के बदले पेट भरने के लिए रोटी और पहनने को कपड़े भर पाने का अधिकार है। बन्दिनी का अन्तःकरण इस स्थिति के विरुद्ध भीतर ही भीतर कितना ही विद्रोही बना बैठा रहे प्रत्यक्षतः वह कुछ न कर सकने की परिस्थितियों में ही जकड़ी होती है सो गर्म खाने और आंसू पीने के अतिरिक्त उसके पास कुछ चारा नहीं रह जाता।

ऐसी विषय स्थिति में पड़ी हुई नारी का व्यक्तित्व उसके अपने लिए—परिवार के लिए—बच्चों के लिए—कुछ अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। जो खुद ही मर रहा है वह दूसरों को जीवन क्या देगा? समाज की कैसी विडम्बना है कि एक ओर जहां नारी को आकर्षण केन्द्र मानकर उसके गुणानुवाद गाने में सारी भावुकता जुटा दी। दूसरी ओर उसे इतना पद-दलित, पीड़ित प्रतिबन्धित करने की नृशंसता अपनाई। यह दोनों अतिवादी सिरे ऐसे हैं जिनका समन्वय कर सकना कठिन है।

तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के मंच से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष दुर्गुणों की पाप पतन की जड़ है इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या-क्या गढ़ंत गढ़कर खड़ी कर दी गईं। लोग घर छोड़कर भागने में—स्त्री, बच्चों को बिलखता छोड़कर भीख मांगने और दर-दर भटकने के लिये निकट पड़े। समझ गया इसी तरह योग साधना होती होगी इसी तरह स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि मिलती होगी। पर देखा ठीक उलटा गया। आन्तरिक अतृप्ति ने उनकी मनोभूमि को सर्वथा विकृत कर दिया और वे तथाकथित संत महात्मा सामान्य नागरिकों की अपेक्षा भी गई गुजरी मनःस्थिति के दलदल में फंस गये। विरक्ति का जितना ही ढोंग उनने बनाया अनुरक्ति की प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती चली गई। उनका अन्तरंग यदि कोई पढ़ सकता हो तो प्रतीत होगा कि मनोविकारों ने उन्हें कितना जर्जर कर रखा है। स्वाभाविक की उपेक्षा करके अस्वाभाविक के जाल जंजाल में बुरी तरह जकड़ गये हैं। ऐसे कम ही विरक्त मिलेंगे जिनने बाह्य जीवन में जैसे नारी के प्रति घृणा व्यक्त की है वैसे ही अन्तरंग में भी उसे विस्मृत करने में सफल हो पाये हों। सच्चाई यह है कि विरक्ति का दम्भ अनुरक्ति को हजार गुना बढ़ा देता है। ‘बन्दर का चिन्तन न करेंगे’ ऐसी प्रतिज्ञा करते ही बरवश बन्दर स्मृति पटल पर आकर उछल कूद मचाने लगता है। यों स्वाभाविक रूप में बन्दर के बारे में कुछ न सोचा जाता तो शायद वर्षों उसका स्मरण न आता पर अब जब कि बन्दर का स्मरण ही नरक में गिराने वाला बता दिया गया तो उसका स्मरण करने से मन को रोक पाना असम्भव है। इस तथाकथित वैराग्य में नारी को पतन का कारण बताकर कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं किया गया। पर्दे के पीछे जो होता रहता है वह दयनीय है। अतिवाद कभी भी उपयोगी नहीं रहा। काम तो मध्यम मार्ग से चलता है उसी को अपनाकर कोई श्रेयाधिकारी बन सकता है।

आध्यात्मिक काम विज्ञान का प्रतिपादन यह है कि अतिवाद की भारी दीवारें गिरा दी जायं और नारी को नर की ही भांति सामान्य और स्वाभाविक स्थिति पर रहने दिया जाय। इससे एक बड़ी अनीति का अन्त हो जायगा। अतिवाद के दोनों ही पक्ष नारी के वर्चस्व पर भारी चोट पहुंचाते हैं और उसे दुर्बल जर्जर एवं अनुपयोग बनाते हैं। इसलिए इन जाल-जंजालों से उसे मुक्त करने के लिए उग्र और समर्थ प्रयत्न किये जायं।

प्रयत्न होना चाहिए कि नारी की मांसलता की अवांछनीय अभिव्यक्तियां उभारने वालों से अनुरोध किया जाय कि वे अपने विष बुझे तीर कृपाकर तरकस में बन्द करलें। फिल्म वाले इस दिशा में बहुत आगे बढ़ गये हैं। उनने बन्दर के हाथ तलवार लगने पर जैसी कुचेष्टा की आशंका की वैसी ही करतूतें आरम्भ कर दी हैं। आग लगा देना सरल है बुझाना कठिन। मनुष्य की पशु प्रवृत्तियों को यौन उद्वेग और काम विकारों को भड़का देना सरल है पर उस उभार से जो सर्वनाश हो सकता है उससे बचाव की तरकीब ढूंढ़ना कठिन है। ना-समझ लड़के लड़कियों पर आज का सिनेमा क्या प्रभाव डाल रहा है और उनकी मनोदिशा को किधर घसीटे लिये जा रहा है इस पर बारीकी से दृष्टि डालने वाला दुःखी हुए बिना न रहेगा। कला के अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले विभूतिवानों से करबद्ध प्रार्थना की जाय कि वे नारी को पददलित करने के पाप पूर्ण अभियान में जितना कुछ कर चुके उतना ही पर्याप्त मान लें आगे की ओर निशाने न साधें। कवि लोग ऐसे गीत न लिखें जिनसे विकारोत्तेजक प्रवृत्तियां भड़के। साहित्यकार—उपन्यासकार—कलम से नारी के गोपनीय सन्दर्भों पर भड़काने वाली चर्चा छोड़कर सरस्वती की साधना को अगणित धाराओं में प्रयुक्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दें। गायक विकारोत्तेजना और श्रृंगार रस को कुछ दिन तक विश्राम कर लेने दें। सामन्तवादी अन्धकार युग के दिनों उसे ही तो एक छत्र राज्य मिला है। गायन का अर्थ ही पिछले दिनों कामेन्द्रिय रहा है। राज्य दरबारों से लेकर मनचले आवारा हिप्पियों तक उसी को मांगा जाता रहा है। अब कुछ दिन से गान विश्राम ले लें और दूसरे रसों को भी जीवित रहने का अवसर मिल जाय तो क्या हर्ज है? कुछ दिन तक घुंघरू न बजे, पायल न खनकें तो भी कला जीवित रहेगी। चित्रकार नव यौवन की शालीनता पर पर्दा पड़ा रहने दें, पतित दुःशासन द्वारा द्रौपदी को नंगी करने की कुचेष्टा न करें तो भी उनकी चित्रकारिता सराही जा सकती है। चित्रकला के दूसरे पक्ष भी हैं क्यों न कुशल चित्रकार सुरुचि उत्पन्न करने वाले चित्र बनायें। मूर्तिकार क्यों न मानवीय अन्तर्वेदना को उभारने वाली प्रतिमायें बनायें। इन महारथी कलाकारों से कहा जाय कि सौजन्य का बालक अभिमन्यु इस बुरी तरह न मारा जाय। महाभारत का बहु कुकृत्य महारथियों के माथे पर कलंक का टीका ही लगा गया। अब फिर कलाकार महारथियों के चक्रव्यूह में फंसा शालीनता का अभिमन्यु उसी तरह फिर मारा गया तो यह भारत—महाभारत—समस्त संसार की दृष्टि में आदर्शवादिता और आध्यात्मिकता का ढिंढोरा पीटने वाला दम्भी ही माना जायेगा। जिस देश के कलाकार तक अपना उत्तरदायित्व न समझें—न निवाहें उस देश के सामान्य नागरिकों से कोई क्या आशा करेगा? यदि उनके विष बुझे तीर इसी क्रम से चलते रहे तो संसार भर में भारत से जिस नव युग निर्माण के प्रकाश की आशा की जाती है उसका दीपक बुझ ही जायेगा। कलाकारों को कहा जाना चाहिए कि वे कृपाकर अपने कदम पीछे हटालें। उनके इस अनुग्रह के बिना नारी की शालीनता, पवित्रता, उत्कृष्टता और समर्थता को बचाया न जा सकेगा।

नारी के प्रति हमारा चिन्तन सखा, सहचर और मित्र जैसा सरल स्वाभाविक होना चाहिए। उसे सामान्य मनुष्य से न अधिक माना जाय न कम। पुरुष और पुरुष स्त्रियां और स्त्रियां जब मिलते हैं तो उनके असंख्य प्रयोजन होते हैं, काम सेवन जैसी बात वे सोचते भी नहीं। ऐसे ही नर-नारी का मिलन भी स्वाभाविक सरल और सौम्य बनाया जाना चाहिए। यह स्थिति निश्चित रूप से आ सकती है क्योंकि वही प्राकृतिक है। इसी प्रकार रूढ़ि वादियों से कहा जाना चाहिए कि प्रतिबन्धों से व्यभिचार रुकेगा नहीं-बढ़ेगा। जिस स्त्री का मुंह ढका होता है उसे देखने को मन चलेगा पर मुंह खोले सड़क पर हजारों लाखों स्त्रियों में से किसी की ओर नजर गढ़ाने की इच्छा नहीं होती चाहे वे रूपवान हों या कुरूप। पर्दा यह मान्यता मजबूत करता है कि नारी-नर का सम्पर्क वासना के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिए हो ही नहीं सकता। यह विचारणा बहुत ही कलुषित, हेय और निकृष्ट स्तर की है। हमें अपनी बहिन, बेटी, माता और पत्नी पर इतना विश्वास करना ही चाहिए कि वे बिना किसी प्रतिबन्ध के स्वेच्छा पूर्वक अपनी शालीनता अक्षुण्ण रख सकने में समर्थ हैं। जब शासक, सामान्य निरीह प्रजा की बहिन बेटियों की इज्जत लूटने के लिए भेड़ियों की तरह गली कूचों में फिरते रहते थे वह जमाना बहुत पीछे रह गया। अब हम आत्म रक्षा के लिए उपयुक्त परिस्थितियों के बीच जी रहे हैं। इसलिए आक्रांता और आततायियों के डर से नारी को प्रतिबन्धित करने की भी कोई आवश्यकता नहीं रही। फिर क्यों हम घूंघट, पर्दा, प्रतिबन्ध के बन्धनों में उसे जकड़े और क्यों उसके स्वाभाविक जीवन का ईश्वर प्रदत्त सुविधा को छीनने का पाप कमायें? इसी प्रकार अध्यात्मवाद के नाम पर नारी तिरस्कार और बहिष्कार की बेवक्त शहनाई बन्द कर देनी चाहिए। जिन भगवान की हम उपासना करते हैं और जिनसे स्वर्ग मुक्ति सिद्धि मांगते हैं वे स्वयं सपत्नीक हैं। एकाकी भगवान एक भी नहीं। राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि किसी भी देवता को लें सभी विवाहित हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली जैसी देवियों तक को दाम्पत्य जीवन स्वीकार रहा है। हर भगवान और हर देवता के साथ उनकी पत्नियां विराजमान हैं फिर उनके मनों को अपने इष्ट देवों से भी आगे निकल जाने की बात क्यों सोचनी चाहिए?

सप्त ऋषियों में सातों के सातों विवाहित थे और उनके साधना काल की तपश्चर्या अवधि में भी पत्नियां उनके साथ रहीं। इससे उनके कार्य में बाधा रत्ती भर नहीं पहुंची वरन् सहायता ही मिली। प्राचीन काल में जब विवेकपूर्ण अध्यात्म जीवित था तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि आत्मिक प्रगति में नारी के कारण कोई बाधा उत्पन्न होगी। राम कृष्ण परमहंस को विवाह की आवश्यकता अनुभव हुई और उनने उस व्यवस्था को तब जुटाया, जब वे आत्मिक प्रगति के ऊंचे स्तर पर पहुंच चुके थे। काम-सेवन और नारी सान्निध्य एक बात नहीं है। इसके अन्तर को भली-भांति समझा जाना चाहिए। योगी अरविन्द घोष की साधना का स्तर कितना ऊंचा था उनमें सन्देह करने की कोई गुंजाइश नहीं है। उनके एकाकी जीवन की पूरी पूरी साज संभाल ‘‘माताजी’’ करती रहीं। इस सम्पर्क से दोनों की आत्मिक महत्ता बढ़ी ही घटी नहीं। प्रातःस्मरणीय माताजी ने अरविन्द के सम्पर्क से भारी प्रकाश पाया और योगिराज को यह सान्निध्य गंगा के समान पुण्य फलदायक सिद्ध हुआ। प्राचीन काल का ऋषि इतिहास तो आदि से अन्त तक इस सरल स्वाभाविकता की सिद्धि करता चला आया है। तपस्वी ऋषि सपत्नीक स्थिति में रहते थे। जब जरूरत पड़ती प्रजनन की व्यवस्था बनाते अन्यथा आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भी नारी सान्निध्य की व्यवस्था बनाये रखते। यह उनके विवेक पर निर्भर रहता था प्रतिबन्ध ऐसा कुछ नहीं था। यह स्थिति आज भी उपयोगी रह सकती है। सन्त लोग अपना व्यक्तिगत जीवन विवाहित या अविवाहित जैसा भी चाहे बितायें, पर कम से कम उन्हें इस अतिवाद का ढिंढोरा पीटना तो बन्द ही कर देना चाहिए जिसके अनुसार नारी को नरक की खान कहा जाता है। यदि ऐसा वस्तुतः होता तो गांधी जी जैसे संत नारी त्याग की बात सोचते। कोई अधिक सेवा सुविधा की दृष्टि से या उत्तरदायित्व हलके रखने की दृष्टि से अविवाहित रहे तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ये भी कोई प्रतिबन्ध हो सकता है या होना चाहिए। सच तो यह है कि सन्त लोग यदि सपत्नीक सेवा कार्य में जुटें तो वे अपना आदर्श लोगों के सामने प्रस्तुत करके उच्चस्तरीय गृहस्थ जीवन की सम्भावना प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रस्तुत कर सकते हैं।

काम अर्थ विनोद, उल्लास और आनन्द है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। काम क्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य या माध्यम हो सकता है पर वह कोई निरन्तर की वस्तु तो है नहीं। यदाकदा ही उसकी उपयोगिता होती है। इसलिए मैथुन को एक कोने पर रखकर—उपेक्षणीय मानकर भी काम लाभ किया जाता है। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्च स्तरीय अभिव्यक्तियां जिस परिधि में आती हैं उसे ‘आध्यात्मिक काम’ कह सकते हैं। यह छोटे बालकों से लेकर वृद्धों तक एक समान प्रयुक्त हो सकता है। नारी और नर को भी इस भाव प्रवाह से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। घर में बहिन, बेटी, माता, भावज, चाची, दादी, बुआ, भतीजी आदि के साथ रहकर उनके साथ प्यार दुलार के पवित्र सम्बन्धों सहित आनन्दित जीवन जिया जा सकता है तो घर से बाहर की परिधि में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? हम पड़ौसी के परिवार में भी अपने ही घर परिवार की तरह बिना नर नारी का भेदभाव किये प्यार दुलार क्यों नहीं बिखेर सकते?

नर नारी के बीच व्यापक सद्भाव—सहयोग की—सम्पर्क की स्थिति में व्यक्ति और समाज का विकास ही सम्भव है। उससे हानि रत्ती भर भी नहीं। स्मरण रखा जाय पाप या व्यभिचार का सृजन सम्पर्क से नहीं दुर्बुद्धि से होता है। पुरुष डॉक्टर नारी के प्रजनन अवयवों तक का आवश्यकतानुसार आपरेशन करते हैं। उसमें न पाप है, न अश्लील न अनर्थ। रेलगाड़ी की भीड़ में नर-नारियों के शरीर भिंचे रहते हैं। जहां पाप वृत्ति न हो वहां शरीर का स्पर्श दूषित कैसे होगा? हम अपनी युवा पुत्री के शिर और पीठ पर स्नेह का हाथ फिराते हैं तो पाप कहां लगता है। सान्निध्य पाप नहीं है। पाप तो एक अलग ही छूत की बीमारी है जो तस्वीरें देखकर भी चित्त को उद्विग्न कर सकने में समर्थ हैं। इलाज इस बीमारी का किया जाना चाहिए। हमारी कुत्सा का दण्ड बेचारी नारी को भुगतना पड़े यह सरासर अन्याय है। इस अनीति को जब तक बरता जाता रहेगा, नारी की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी और इस पाप का फल व्यक्ति और समाज को असंख्य अभिशापों के रूप में बराबर भुगतना पड़ेगा।

भगवान वह शुभ दिन जल्दी ही लाये जब नर-नारी स्नेही सहयोगी की तरह—मित्र और सखा की तरह—एक दूसरे के पूरक बनकर सरल स्वाभाविक नागरिकता का आनन्द लेते हुए जीवनयापन कर सकने की मनःस्थिति प्राप्त कर लें। हम विकारों को रोकें—सान्निध्य को नहीं। सान्निध्य रोककर विकारों पर नियन्त्रण पा सकना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें उन स्रोतों को बन्द करना पड़ेगा जो विकार और व्यभिचार भड़काने में उत्तरदायी हैं। अग्नि और सोम, प्राण और रयि, ऋण और धन विद्युत प्रवाहों का समन्वय इस सृष्टि के संचरण और उल्लास को अग्रगामी बनाता चला आ रहा है। नर-नारी का सौम्य सम्पर्क बढ़ा कर हमें खोना कुछ नहीं—पाना अपार है।
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