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Books - आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान

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कल्पकाल की त्रिविध अनिवार्य साधनाएं

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ब्रह्मवर्चस की कल्प तपश्चर्या में दो साधना क्रम ऐसे हैं जिन्हें अनिवार्य रूप से किया जाता है—त्राटक-ज्योति अवतरण की बिन्दुयोग साधना तथा नादयोग अर्थात् अनाहत नाद-ब्रह्म की साधना। ये दोनों ही ध्यानपरक अन्तःउत्कर्ष की फलदायी साधनाएं हैं। तीसरी साधना है—दर्पण के माध्यम से देवाधिदेव आत्म देव की साधना। तीनों ही साधनाएं सभी साधक अपने कक्ष में एकाकी करते हैं। इन तीनों ही साधनाओं में जिस चिन्तन को प्रमुखता देनी है उसका विवेचन संक्षिप्त रूप से इन पंक्तियों में है। जिन्हें विस्तार से जानना हो या कुछ अन्य शंकाएं हो वे मार्गदर्शक से समाधान कर सकते हैं।

(1) त्राटक-साधना — चित्र या प्रतिमा पर ध्यान की साकार उपासना से ऊंचे उठने पर प्रकाश का ध्यान करना पड़ता है, इसे त्राटक कहते हैं। इसे केन्द्रीभूत करके अन्तर्जगत में दिव्य आलोक का आविर्भाव करना। त्राटक साधना इस योग का प्रथम पाठ है। जब इस ध्यान धारणा का विकास उच्चतर स्थिति में होता है तो यही प्रक्रिया आत्मज्योति एवं ब्रह्मदर्शन में परिणत हो जाती है। फिर त्राटक के लिए किसी प्रकाशोत्पादक दीपक, भौतिक उपकरणों की आवश्यकता नहीं रहती।

मानवी विद्युत का सर्वाधिक प्रवाह नेत्रों से ही होता है। इसी प्रवाह को दिशाविशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों की क्षण शक्ति को साधते हैं। त्राटक साधना का उद्देश्य यही है। अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न की जाय कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके, अन्तराल में जो अति महत्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने में समर्थ हो सके। त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि को ज्योतिर्मय मनाना है। इसी के आधार पर सूक्ष्म जगत् की झांकी की जा सकती है। अन्तःक्षेत्र में दबी रत्न-राशि को खोजा और पाया जा सकता है। देश, काल की सूक्ष्म सीमाओं को लांघकर अविज्ञात अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।

इस साधना में शरीर को ध्यान मुद्रा में शान्त एवं शिथिल करके बैठते हैं। सामने प्रकाश दीप रखा होता है। पांच सैकिण्ड खुली आंख से प्रकाश दीप को देखना, तत्पश्चात् आंखें बन्द करके भ्रूमध्य भाग में उसी प्रकाश आलोक को ज्योतिर्मय देखना। जब यह ध्यान आलोक शिथिल पड़ने लगता है तो फिर नेत्र खोलकर पांच सैकिण्ड प्रकाश दीप को देखना और फिर आंखें बन्द कर पूर्ववत् भ्रूमध्य भाग में उसी प्रज्वलित ज्योति का ध्यान करना। यही है त्राटक साधना का स्वरूप जो चान्द्रायण कल्प में किया जाता है। इतने समय में प्रायः स्थिति ऐसी बन जाती है जिसके आधार पर देर तक भ्रूमध्य भाग में प्रदीप्त किये गये प्रकाश की आभा को समस्त शरीर में विस्तृत एवं व्यापक हुआ अनुभव किया जा सके।

भ्रूमध्य भाग में आज्ञाचक्र अवस्थित है। इसी को तृतीय नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। पौराणिक आख्यान के अनुसार इसी नेत्र को खोलकर भगवान शिव ने विध्वंशकारी मनोविकार को—कामदेव को भस्म किया था। यह नेत्र प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है। पीचुटरी-पीनियल के रूप में स्थूल रूप में विराजमान इस स्थान विशेष की सूक्ष्म संरचना नेत्रों जैसी है। इससे प्रकट-अप्रकट, दृश्य-अदृश्य, भूत-भविष्य सभी कुछ देखा, जाना जा सकता है। इस नेत्र में ऐसी प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न करने की क्षमता है जिसके आधार पर अवांछनीयताओं को, अवरोधों को जलाकर भस्म किया जा सके। बिन्दुयोग की साधना त्राटक के माध्यम से की जाकर तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती है। इससे अग्नि-शिखा मनोविकारों को जलाकर भस्म कर डालती है। यह तो ऊपर शक्ति व्याख्या है। दार्शनिक दृष्टि से इसे विवेकशीलता-दूरदर्शिता का जागरण भी कहते हैं जिसके आधार पर लोभ, मोह, वासना, तृष्णा जैसे अगणित विग्रहों का सहज ही शमन किया जा सकता है। इस साधना में एकाग्रता का उतना नहीं जितना प्रवाहक्रम की प्रखरता का महत्व है। ज्योति अवतरण की प्रकाश साधना करने वालों को अपने कलेवर के हर रोम-रोम में ज्योति के साथ-साथ दिव्य भावनाओं के समावेश का चिन्तन करते रहना व सतत् उल्लास से भरी प्रसन्नता अनुभव करते रहना चाहिए।

(2) नादयोग साधना — दिव्य सत्ता आदान-प्रदान का एक माध्यम है अनाहत-नादब्रह्म की साधना। अनाहत ध्वनि प्रकृति के सतत् संयोग में निनादित हो रही है। यों सुनने में सप्तस्वर और उनके आरोह-अवरोह मात्र शब्द-ध्वनि का उतार चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य-गायन में प्रयुक्त होता भर लगता है, पर वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है। स्वर ब्रह्म अपने इन्हीं अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता और प्रवाहित करता रहता है।

ध्यानयोग के माध्यम से हमारा अन्तःकरण उन दिव्य ध्वनियों को सुन सकता है। इस योग प्रक्रिया में कानों को बाहरी ध्वनि से विलग कर शान्त वातावरण में एकाग्र करके यह प्रयास किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तः–चेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें कर्णेन्द्रिय रूपी तन्मात्रा का योगदान तो रहता है, पर वह श्रवण है उच्चस्तरीय चेतना जगत की ध्वनि लहरियां सुनने के लिए। इसे कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का एक सम्मिलित प्रयास भी कह सकते हैं।

चान्द्रायण सत्र में सप्ताह में 6 दिन नादयोग का अभ्यास कराया जाता है। प्रत्येक साधक के कक्ष में तो ध्वनि प्रवाह को एकाकी रूप में पहुंचाना सम्भव नहीं है। सभी साधक सामूहिक रूप से एक साथ बैठकर निर्देशों को जानने के उपरान्त सुमधुर ध्वनि प्रवाह सुनते हैं। चिन्तन की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए एवं साधक को अन्तः जागरण हेतु क्या करना चाहिए इसका उल्लेख इन पंक्तियों में है :—

शांति स्थिति से, ध्यान मुद्रा में और मन को साधकर साधक इस ध्वनि प्रवाह के साथ अपनी अन्तःचेतना को भावविभोर स्थिति में बहाने का प्रयत्न करें। जिस प्रकार सपेरे द्वारा बीन बजायी जाने पर सर्प बिल से निकलकर स्वर लहरी पर लहराने लगते हैं, उसी प्रकार इस संगीत ध्वनि के साथ-साथ साधक अपने मन को लहराने का प्रयत्न करे। आत्मा-परमात्मा के बीच आदान-प्रदान के भाव भरे अलंकारिक चित्रण रासलीला में किये गये हैं। इसमें गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य ही है—नादयोग की व्याख्या, विवेचन ही उसमें सन्निहित है। वस्तुतः वह ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए सांसारिक बन्धनों को छोड़कर चल पड़ने का संकेत है।

नादयोग में कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं। कई बार ये अति मन्द होती हैं, कई बार अति प्रखर। वंशी की ध्वनि से कई बार कुमार्गगामी मन-वासना, तृष्णा का विषपिण्ड यह मन-विषधर सर्प की तरह लहराने लगता है। सपेरा सर्प को पकड़कर पिटारे में बन्द कर देता है। ठीक उसी प्रकार मन के निग्रह में, प्राणों के निरोध में नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत ही सफल रहता है। सत्प्रवृत्तियों के साथ चल पड़ना और मन को कुमार्गगामी होने से रोककर निग्रहीत कर देना—नादयोग की विधि साधना है। सुनाई देने वाली ध्वनियों को संगीत साधक अपने चिन्तन-क्रम में इस प्रकार बिठा सकते हैं—‘भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं। भगवान शंकर अपना डमरू बजा रहे हैं और उससे प्रलय और मरण के संकेत आ रहे हैं। सुझाया जा रहा है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है। प्रमाद में न उलझा जाय। महाकाल के भैरवनाद का संदेश सुना जाय। युग परिवर्तन की पुकार गूंज रही है, कह रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाये जायें। अब अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए।’ यह ध्यान जितना पकेगा उतनी ही सूक्ष्म अनुभूतियां उससे करतलगत होंगी।

(3) आत्मदेव की उपासना-दर्पण साधना — इसे दर्पण में स्वयं का पर्यवेक्षण कह सकते हैं। इसे साधक अपने ही कक्ष में सम्पन्न करते हैं। देवाधिदेव परब्रह्म को अद्वैत तत्वविज्ञान ने आत्मदेव के रूप में देखा है। सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म जैसे सूत्रों में आत्मा, परमात्मा की अभिन्नता का ही प्रतिपादन किया गया है। जब तक मल-आवरण, विक्षेप, कल्मष अन्तःकरण पर चढ़े हैं, तभी तक जीव स्थिति है। जैसे-जैसे इन विकारों का शोधन होता है, आत्मा परमात्मा का रूप लेती जाती है।

दर्पण में अपने आप को दर्शन कर साधक यही चिंतन करते हैं कि ईश्वरीय महत्तायें बीज रूप में जीव में पूर्ण रूपेण विद्यमान हैं। यदि उन्हें विकसित किया जा सके तो नर में नारायण की झांकी तत्काल देखी जा सकती है। जो कुछ बहिरंग जगत में पाया जाता है उसकी ही बीज सत्ता अन्तरंग में मौजूद है। अस्तु काय कलेवर को तुच्छ नहीं मानना चाहिए वरन् इसमें श्रेष्ठतम की झांकी की जानी चाहिए। भौतिक सम्पदा का गर्व तो हेय है पर आत्मदेव का गौरव हर किसी को अनुभव करना चाहिए और इसी आत्मगौरव की रक्षा करने वाली, आत्म गरिमा को ज्योतिर्मय बनाने वाली रीति-नीति अपनानी चाहिए।

आत्मदेव की साधना का माहात्म्य विज्ञान में अत्यधिक है। निराकार साधना में अपने कण-कण को नीलवर्ण प्राण ज्योति से ज्योतिर्मय देखने का अभ्यास किया जाता है। भावना की जाती है कि समष्टि सत्ता की प्रकाशवान दिव्य, प्रखर किरणें शरीर के रोम-रोम में प्रवेश करके बलिष्ठता बढ़ा रही हैं, मन में प्रविष्ट हो मनस्विता को प्रखर कर रही हैं। वे अन्तरात्मा के भाव संस्थान में प्रवेश करके आत्मशक्ति को ज्वलन्त बना रही हैं। अपना सब कुछ ज्योतिर्मय हो रहा है। साकार आत्म साधना में तो स्वयं को, अपने शरीर को ही देव-स्थान पर प्रतिष्ठापित करते हैं। मानवी काया में पांच कोष पंच आवरण के रूप में विद्यमान हैं। इन पांचों को ही स्वतन्त्र चेतना के रूप में विकसित किया जा सकता है। पांच देव यही हैं। जो इन्हें जागृत कर सके, वह पांच सहायक छाया पुरुषों, सशक्त सहायकों की महत्वपूर्ण सहायता का लाभ निरन्तर उठा सकता है।

साकार आत्म साधना के लिए दर्पण का उपयोग करते हैं। दर्पण में अपना चेहरा, आधार शरीर ध्यानपूर्वक देखते हैं। उसे परिष्कृत स्तर का देवता मानकर उसका पूजन, स्तवन करते हैं। साथ ही यह आस्था भी जमाते हैं कि इस काय कलेवर में निवास करने वाली ‘दिव्य ज्योति’ यदि आत्म भाव की भूमिका में जागृत हो उठे, उसे अपनी गरिमा का भान हो सके तो वह निश्चिततः देवसत्ता सम्पन्न हो सकती है। विश्वबन्धु महामानवों की पंक्ति में उसे बैठने का अवसर मिल सकता है।

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