
कल्प के पूर्व कुछ अनिवार्य ज्ञातव्य
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कल्प साधना एवं चिर पुरातन कल्प चिकित्सा में कुछ अन्तर है। कल्प एक साधना भी है चिकित्सा एक प्राकृतिकोपचार।
कल्प चिकित्सा के लिए औषधि का प्रयोग करने के पहले शरीर की शुद्धि एक परमावश्यक बात है। क्योंकि जब तक शरीर में मल की अधिकता रहेगी उस पर औषधियों का ठीक प्रभाव नहीं पड़ सकता। साथ ही यह भी सम्भव है कि कल्प के प्रभाव से मल उमड़कर कोई नया उपद्रव खड़ा कर दे। इसलिए आयुर्वेद के ग्रन्थों में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि कल्प की औषधियां सेवन करने से पूर्व स्नेहन, वमन, विरेचन आदि पंच कर्मों के द्वारा शरीर में संचित दूषित मल को भली प्रकार निकाल डालना चाहिए ताकि वह औषधियों के प्रभाव को शीघ्र ग्रहण करने में समर्थ हो सके। इन पंच कर्मों में यद्यपि वमन और विरेचन को प्रधान माना गया है, पर जो मल शारीरिक अंगों में चिपटा रहता है उसे सुगमता से निकालने के लिए स्नेहन और स्वेदन आवश्यक है। जैसे साबुन लगाकर मैले को फुला दिया जाता है, उसी प्रकार स्नेहन तथा स्वेदन कर लेने से वमन-विरेचन में सहायता मिलती है।
स्नेहन प्रक्रिया के लिए वसा प्रधान पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। स्थावर जो वनस्पतियों से मिलते हैं तथा जंगम जो प्राणियों से घी, वसा के रूप में प्राप्त होते हैं। कल्प चिकित्सा में घी और तेल को ही प्रधानता देते हैं। इनका प्रयोग पीने, वस्ति, शिरोवस्ति, नस्य, मालिश एवं भोजन आदि के द्वारा किया जा सकता है।
स्वेदन प्रक्रिया का अर्थ किसी प्रकार से काया को गर्मी पहुंचाकर पसीना लाना है। इसके माध्यम से शरीरगत दोषों को बाहर निकलने में सहायता मिलती है। प्राकृतिक चिकित्सा के ढंग से भाप प्रक्रिया द्वारा ऊपर कम्बल व नीचे अंगीठी रखकर पसीना लाया जा सकता है। इससे रोम कूप खुलते हैं और मल निष्कासन की प्रक्रिया तेज होती है। आजकल इस कार्य के लिए बिजली का, इन्फारेड किरणों का भी प्रयोग किया जाता है।
वमन प्रक्रिया के पीछे सिद्धांत है—संचित मलों को आमाशय में एकत्र हो जाने पर उन्हें निकाल बाहर करना। यदि वमन प्रक्रिया ठीक प्रकार से विशेषज्ञ मार्गदर्शन में की जा सके तो शरीर वस्तुतः हल्का होकर कल्प के योग्य हो जाता है। यह संचित कफ को निकाल देने की प्रक्रिया है। विरेचन इसीलिए वमन के बाद कराया जाता है ताकि ऊपर का कफ आंतों में कष्ट न उत्पन्न करे।
विरेचन में किस प्रकृति के व्यक्ति के लिए क्या श्रेष्ठ औषधि हो यह उसकी प्रकृति पर निर्भर है। आयुर्वेद के निष्णात इसका निर्धारण करते हैं एवं पित्त से मृदु, वात कफ से क्रूर तथा समदोष वाले व्यक्ति के लिए विरेचन की प्रक्रिया का स्वरूप बनाते हैं।
अन्तिम प्रक्रिया है वस्ति। जहां वमन और विरेचन मात्र आमाशय और पित्ताशय की शुद्धि करते हैं, वहीं वस्ति से मलाशय तथा पक्वाशय के विकारों का निष्कासन किया जाता है। एनिमा इसका एक आधुनिक स्वरूप है। आयुर्वेद में इसी प्रयोग हेतु विभिन्न मन्त्रों से मूत्राशय, महिलाओं के योनि मार्ग तथा मलाशय की शुद्धि का विधान है। औषधियुक्त तेल, साबुन मिश्रित जल अथवा ग्लिसरीन आदि अन्दर पहुंचाकर संचित मल को इससे निकाल बाहर किया जाता है।
यह तो संक्षेप में उन पंचकर्मों की चर्चा हुई, जिन्हें कल्प के पूर्व किए जाने का शास्त्रोक्त विधान है। शरीर का शोधन करने के लिए इनसे श्रेष्ठ कोई उपचार नहीं। परन्तु आजकल ऐसे सुदृढ़ मनःस्थिति के व्यक्ति मिलते नहीं जो इस पूरे प्रकरण को धैर्यपूर्वक निभा सकें। आध्यात्मिक-भाव-कल्प में इसी कारण पहले मन को मजबूत बनाने के लिए प्रायश्चित प्रक्रिया तथा आहार में सीमा बन्धन जैसे छोटे प्रयोगों से शुभारम्भ किया जाता है। इतना बन पड़ने पर आगे वह पृष्ठभूमि बन जाती है, जिसके आधार पर और भी क्ल्ष्टि प्रयोग कायाकल्प के किये जा सकें।