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Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान

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ज्योतिर्विज्ञान एवं भौतिकी का समन्वय हो

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शरीर के किसी भाग पर आघात पहुंचता है तो उसकी प्रतिक्रिया से शरीर का रोम-रोम कांप उठता है। मन और मस्तिष्क भी उद्विग्न हो उठते हैं। समूचा ध्यान शारीरिक पीड़ा पर केन्द्रित हो जाता है। मनःसंस्थान असन्तुलित हो तो शरीर भी स्वस्थ एवं नीरोग नहीं रह पाता। शरीर का प्रत्येक अवयव, मनःसंस्थान परस्पर एक-दूसरे की स्थिति से प्रभावित होते हैं। यह शरीर की चैतन्यता एवं एकता के प्रमाण हैं। दृश्य और अदृश्य प्रकृति—समूचा ब्रह्माण्ड भी इसी प्रकार एक चेतन पिण्ड है जिसके सभी घटक परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जिसके एक सिरे पर जो कुछ भी घटित होता है तो अन्यान्य स्थानों पर उसकी प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है।इस तथ्य को प्रतिपादित करने एवं रहस्योद्घाटन करने का विज्ञान, भारत में प्राचीन काल से प्रचलित ज्योतिष विज्ञान के नाम से जाना जाता रहा है। इसका लक्ष्य था अन्तर्ग्रही सम्बन्धों को वैज्ञानिक विवेचना करना तथा एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों से अवगत कराना। फलतः इस विद्या के सहारे पृथ्वी से इतर ग्रह-नक्षत्रों के अनुदानों से लाभ उठा सकना एवं दुष्प्रभावों से बचाव कर पाना सुलभ था जो आज विकसित भौतिक विज्ञान द्वारा भी सम्भव नहीं है। कालान्तर में यह विज्ञान विलुप्त होता गया और उसका स्थान फलित ज्योतिष की मूढ़-मान्यताओं एवं भ्रान्तियों ने ले लिया। जिसे देखकर विज्ञजनों द्वारा इस विद्या की उपेक्षा हुई।इसके बावजूद भी विज्ञान ने जब से प्रौढ़ता की ओर कदम रखा है उसका ध्यान अन्तरिक्ष की खोजबीन की ओर आकर्षित हुआ है। साथ ही ग्रह-नक्षत्रों सौर-मण्डल की गतिविधियों, आपसी सम्बन्धों एवं परस्पर एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए छुटपुट प्रयास भी चल रहे हैं। प्रकारान्तर से भौतिक विज्ञान अब उन्हीं निष्कर्षों पर पहुंच रहा है जिस पर सदियों पूर्व तत्ववेत्ता ऋषि जो ज्योतिर्विज्ञान के मर्मज्ञ भी थे पहुंच चुके थे।ज्योतिर्विज्ञान के आचार्यों ने सौर-मण्डल के ग्रह-नक्षत्रों को देवशक्तियों के रूप में प्रतिष्ठापित किया था। नौ ग्रहों की नौ देवताओं के रूप में प्रतिष्ठापना की गई है। ज्योतिर्विज्ञान की यह मान्यता सदियों से चली आ रही है कि सौर-मण्डल का अधिपति सूर्य मात्र अग्नि का धधकता पिण्ड नहीं अपितु जीवन, प्राण और सक्रिय अग्नि का पुंज है। जो पल-प्रतिपल अपने सौर-मण्डल के सदस्यों को अपनी गतिविधियों से प्रभावित करता है। न केवल सूर्य बल्कि मंगल, बृहस्पति, बुध आदि भी पृथ्वी के वातावरण को प्रभावित करते हैं।इस तथ्य को विश्व के प्रसिद्ध भौतिकविद् भी स्वीकार करने लगे हैं कि सौर-मण्डल की गतिविधियां पृथ्वी के वातावरण एवं परिस्थितियों पर प्रभाव डालती हैं। यूगोस्लाविया के नाभिकीय भौतिकविद् प्रो. ‘स्टीवेन डेडीजर’ जैसे विद्वानों का कहना है कि विज्ञान को अपनी अन्तरिक्षीय खोज की सफलता के लिए प्राचीन ज्योतिर्विज्ञान का अवलम्बन लेना होगा। प्राकृतिक घटनाओं को अभी भी कितनी ही गुत्थियां ऐसी हैं जिनको सुलझा पाने में आज का विकसित विज्ञान भी असमर्थ है। आधुनिक विज्ञान अन्तरिक्ष एवं सब्न्यूक्लियर क्षेत्र में अपनी शानदार सफलता के बावजूद भी ब्रह्माण्ड सम्बन्धी घटनाओं की व्याख्या कर पाने में अपनी अक्षमता व्यक्त कर रहा है, क्योंकि उसका क्षेत्र सीमित है। इसके विपरीत ज्योतिष विज्ञजन का ब्रह्माण्डीय ज्ञान अन्तरिक्षीय रहस्यों को उद्घाटन करने में पूर्णतया सक्षम है।भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तानुसार हर पदार्थ कण इस ब्रह्माण्ड में एक-दूसरे के सापेक्ष गतिशील है। वे अपना स्थान भी परिवर्तित करते रहते हैं। फलतः जिस पर्यावरण में वे गतिशील रहते हैं, वह बदलता रहता है और एक अविच्छिन्न ब्रह्माण्डीय श्रृंखलता में बंधे होने के कारण कणों का सन्दोह विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है। जो अन्यान्य ग्रहों तथा पृथ्वी, चर, अचर पदार्थों एवं खगोलीय पिण्डों को प्रभावित करता है। इस तथ्य से परिचित होते हुए भी विज्ञान ग्रह-नक्षत्रों की गति-स्थिति और प्रभावों की स्पष्ट जानकारी देने में असमर्थ है। उपरोक्त टिप्पणी देते हुए भौतिक विद् ‘स्टीवेन्ड डेडीजर’ का कहना है कि समग्र जानकारियों के लिये ज्योतिर्विज्ञान के विलुप्त ज्ञान को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।प्रख्यात आस्ट्रियाई वैज्ञानिक एरनेस्ट मैक का मत है कि ब्रह्मांड के अनन्त कण एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तथा उनमें घना सम्बन्ध है। सौर लपटें जो कि ग्रहों की निकटता एवं चन्द्रमा की गति से किसी न किसी प्रकार सम्बन्धित हैं, पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के व्यतिरेक उत्पन्न करती हैं। ग्रहों योग पृथ्वी एवं जैविकीय चुम्बकत्व पर अपना प्रभाव डालते हैं। ग्रहों के असन्तुलन से उत्पन्न होने वाली चुम्बकीय आधी प्रकृति प्रकोपों एवं पृथ्वी के जीवधारियों में अनेकों प्रकार के मानसिक एवं नर्वस सिस्टम के रोग उत्पन्न करती है। भू चुम्बकत्व में होने वाले हेर-फेर से मानवी आचरण और स्वभाव भी अछूता नहीं रहता है।ब्रह्माण्ड रसायन शास्त्री प्रोफेसर ब्राउन का मत है कि पृथ्वी सौर मण्डल की ही एक सदस्य है और चन्द्रमा उसका ही एक उपग्रह। वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी और चन्द्र की उत्पत्ति सूर्य से हुई है। न केवल चन्द्र और सूर्य वरन् मंगल, बृहस्पति शुक्र और शनि की युतियों भी पृथ्वी को प्रभावित करती हैं। उन्होंने अन्तर्ग्रही प्रभावों को ‘समानुभूति’ नाम दिया है।पिछले दिनों अहमदाबाद में तीसरी अन्तर्राष्ट्रीय विषुवतीय आयुर्विज्ञान गोष्ठी का उद्घाटन हुआ। अहमदाबाद भौतिक अनुसंधान शाला के दो वैज्ञानिकों, प्रो. के. आर. रामनाथन और डा. एस. अनन्त कृष्णन ने यह घोषणा की है कि पृथ्वी सौर मण्डल की अभिन्न घटक हैं। आकाशीय पिण्डों के स्पन्दन धरती को भी व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं। अपनी एक खोज में इन वैज्ञानिकों ने पाया कि वायु मण्डल के ‘डी’ क्षेत्र में शक्तिशाली एक्सकिरणों के स्रोत स्कोपिओ 11 के गुजरने से वनस्पति एवं जीव जगत की हलचलें बढ़ जाती तथा उनका हानिकारक प्रभाव पड़ता है।परमाणु शक्ति आयोग के भूतपूर्व अध्यक्ष और विश्व विख्यात भौतिकविद् डा. सारा भाई ने विभिन्न देशों से आये वैज्ञानिकों की एक गोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि सूर्य के अतिरिक्त भी अन्य आकाशीय पिण्डों का प्रेक्षीय प्रभाव धरती पर आता है यदि ज्योतिर्विज्ञान के सूत्रों को ढूंढ़ा जा सके और अन्तरिक्षीय ज्ञान में प्रयुक्त किया जा सके तो अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियां हाथ लग सकती हैं।रूसी वैज्ञानिक ब्लादीमीर देस्यातोव ने इस संबंध में व्यापक शोध कार्य किया है उनका कहना है कि पृथ्वी पर समय-समय पर आने वाले चुम्बकीय तूफानों से धरती के निवासियों में स्नायविक एवं मनोरोगों की बहुलता देखी जाती है। धरती पर चुम्बकीय क्षेत्र की तीव्रता या फ्रीक्वेन्सी बदलना आकाशीय पिण्डों के ऊर्जा प्रवाह के परिणाम हैं। अपनी आरम्भिक खोजों में ब्लादीमीर ने यह पाया था कि जब सूर्य पर एक विशेष प्रकार के ज्वाला प्रकोप (फ्लेयर) फूटते हैं तो धरत ीपर प्रचण्ड चुम्बकीय तूफान आते हैं जिनसे प्रभावित तो सभी होते हैं, पर कमजोर मनःस्थिति वाले व्यक्तियों पर उनकी प्रतिक्रिया अत्यधिक दिखाई पड़ती है। आत्महत्याएं हत्याएं, एवं असन्तुलन के फलस्वरूप सड़क दुघटनाएं अधिक होती हैं। इसी आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि मस्तिष्कीय क्रिया-क्षमता का मूलभूत स्रोत अल्फाइनर्जी धरती के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और भू-चुम्बकत्व का सीधा सम्बन्ध आकाशीय पिण्डों से है। इसलिए मानवी जीवन अन्तरिक्षीय घटनाक्रमों एवं शक्ति से विलक्षण रूप से सम्बन्धित है। अस्तु अंतरिक्ष में पैदा होने वाली हर हलचल पृथ्वी, मानवी प्रकृति, मन, बुद्धि एवं चेतना को प्रभावित करती है।प्रसिद्ध खगोल शास्त्री पास्कल का कहना है कि सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा आरोपित सशक्त खिंचाव से सभी परिचित हैं जो समुद्रों-सागरों में ज्वार भाटे उत्पन्न करते हैं। ये जीवधारियों पर भी अपना प्रभाव छोड़ते हैं। पास्कल के अनुसार समस्त जीवधारी कम्पायमान समष्टिगत ऊर्जा के एक विशाल समुद्र में निवास करते हैं फिर विभिन्न ग्रहों से उत्सर्जित होने वाली ऊर्जा तरंगों से अप्रभावित कैसे रह सकते हैं। भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में यह तथ्य अगले दिनों सप्रमाण पुष्ट होगा कि पृथ्वी पर विद्यमान जीवन का अन्तरिक्ष के ग्रह-नक्षत्रों से घना सम्बन्ध है और अविज्ञान होते हुए भी सूक्ष्म आदान प्रदान का क्रम चलता रहता है।प्रौढ़ता को प्राप्त करता हुआ विज्ञान अब उन्हीं निष्कर्षों पर पहुंच रहा है जिन पर सदियों पूर्व भारतीय तत्ववेत्ता ज्योतिर्विद् पहुंच चुके थे। समूचा ब्रह्माण्ड एक ही चैतन्य शरीर है जिसका प्रत्येक स्पन्दन हर घटक को प्रभावित करता है जिसमें पृथ्वी और सम्बन्धित वातावरण वनस्पति एवं जीवधारी भी सम्मिलित हैं। प्राचीन काल में ज्योतिष विज्ञान इसी दिशा में अनुसंधान करने, प्रमाण जुटाने और अन्तर्ग्रही तथ्यों को खोजबीन करने में सचेष्ट था, जिसकी अनेकानेक उपलब्धियों से समय समय पर मानव जाति लाभान्वित होती रहती थी।चिर पुरातन ज्योतिर्विद् यह भली भांति जानते थे कि ग्रह नक्षत्रों, सौर मण्डल की गतिविधियों, उनके आपसी सम्बन्धों और परस्पर एक दूसरे पर, पृथ्वी के वातावरण, वृक्ष, वनस्पति एवं जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी देने के अतिरिक्त भी ज्योतिष विज्ञान का एक पक्ष है—सूक्ष्म अन्तरिक्ष में चलने वाले चैतन्य प्रवाह और उनकी भली-बुरी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराना। एकांगी सौर गतिविधियों की जानकारी तो आज के विकसित खगोल शास्त्र और सम्बन्धित आधुनिकतम यन्त्रों द्वारा भी मिल जाती है। सशक्त रेडियो टेलिस्कोपों से लेकर अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित स्थापित कृत्रिम सेटेलाइट्स हजारों की संख्या में अन्तरिक्ष की विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए यह सीमित प्रयोजन पूरा कर ही रहे हैं? ग्रह, नक्षत्रों, तारा पिण्डों के स्वरूप, स्थिति एवं गति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ज्ञान दिन-प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है और कितने ही नवीन तथ्यों का आविष्कार हो रहा है। यह ज्ञान उपयोगी और मानवी प्रयास प्रशंसनीय है।इतने पर भी ज्ञान का वह पक्ष अभी भी अछूता है जिसके सहारे सूक्ष्म अन्तरिक्षीय चैतन्य प्रवाहों की जानकारी मिलती थी। उपयोगी प्रवाह को पकड़ने, लाभ उठाने और हानिकारक से बचाव करने की बात सोची जाती थी। यह महत्वपूर्ण प्रयोजन भी ज्योतिर्विद्या में प्राचीन काल में भलीभांति समाहित था, जिसका चेतना विज्ञान खगोल जानकारियों की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान और मनुष्य जाति के लिए उपयोगी था, जिसके सहारे प्रकृति की हलचलों में भी हेर-फेर की बात सोची और सामूहिक आध्यात्मिक उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती थी।प्रगति की ओर आगे बढ़ते हुए विज्ञान कल नहीं तो परसों वहां पहुंचने वाला है, जिसके सहारे भावी अन्तरिक्षीय घटनाक्रमों के विषय में पूर्व ज्ञान प्राप्त कर सकें। कई बार भविष्य विज्ञानियों के प्रगति विक्षोभों के सम्बन्ध में कथन सही भी उतरते हैं। संभव है अगले दिनों वे और भी यथार्थता के निकट पहुंचें। पर इतने पर भी मूलभूत समस्या का समाधान नहीं निकलता। कहने का आशय यह है कि अन्तर्ग्रही असन्तुलनों के कारण जानने एवं निवारण के लिए उपचारों के अभाव में अन्तर्ग्रही जानकारी मात्र होने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। अस्तु वैज्ञानिक प्रयास उत्साहवर्धक एवं सराहनीय होते हुए भी एकांगी और अपूर्ण हैं।आये दिन भूकम्प, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन, बाढ़, ज्वालामुखियों का फटना जैसी प्रकृति की विभीषिकाएं अपनी विनाश-लीला पृथ्वी पर चल जाती हैं। मनुष्य मूक असहाय बना उन्हें देखता और अपनी बेबसी पर आंसू बहाता है। आंकड़े एकत्रित किए जायें तो पता चलेगा कि प्रतिवर्ष विश्व भर में युद्धों—बीमारियों से मरने वालों की तुलना में प्रकृति प्रकोपों से जान गंवाने वालों की संख्या कहीं अधिक होती है। भौतिक सम्पदा का एक बड़ा भाग प्रकृति विक्षोभ लील जाते हैं और मानवी पुरुषार्थ पर निर्दयता पूर्वक पानी फेर जाते हैं। जितनी संपदा प्रकृति विक्षोभों के कारण नष्ट हो जाती है वह किसी प्रकार सुरक्षित रहती तो उससे प्रगति में भारी योगदान मिल सकता था। प्रस्तुत होने वाली विभीषिकाओं की यदि किसी प्रकार विज्ञान द्वारा जानकारी मिल जाय तो भी उन्हें रोक सकने—सूक्ष्म अन्तरिक्ष में पक रही घटनाओं में हेर-फेर कर पाने में भौतिक विज्ञान अभी भी असमर्थ है। वह तकनीक अभी तक विकसित नहीं हो पाई है जिसके माध्यम से यह प्रयोजन पूरा हो सके।प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान के आचार्य न केवल अन्तर्ग्रही गतिविधियों के ज्ञाता होते थे वरन् आत्म-विज्ञान-चेतना विज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी पहुंच होती थी। फलतः सौर मण्डल की जानकारियां प्राप्त करने के साथ-साथ उनमें अभीष्ट हेर-फेर करने के आध्यात्मिक उपचारों से परिचित होने से समय-समय पर इस प्रकार के प्रयोग परीक्षण भी किए जाते थे। ऐसे कितने ही उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं जिनमें मंत्र शक्ति का प्रयोग प्रकृति विप्लवों को रोकने—वर्षा कराने—असन्तुलनों के निवारण में समय-समय पर किया जाता रहा है। सूर्य-सविता की उपासना किसी समय घर-घर प्रचलित थी। भारत ही नहीं जापान, चीन, इंग्लैंड, रोम, जर्मनी आदि स्थानों पर भी सूर्य उपासना के प्रचलन का उल्लेख विविध ग्रन्थों में मिलता है। सूर्य सौर मण्डल के सदस्यों का मुखिया है। पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रभाव भी उसी का पड़ता है। अन्यान्य ग्रह सूर्य के साथ मिलकर अपनी प्रतिक्रियाएं पृथ्वी पर प्रकट करते हैं। अस्तु सूर्य उपासना विज्ञान सम्मत और विविध प्रयोजनों के लिए विविध रूपों में प्रचलित थी। मन्त्र शक्ति यज्ञोपचार आदि द्वारा वर्षा पर नियन्त्रण प्राप्त करने, प्राण तत्व को धरती पर उतारने जैसे प्रयोग सुलभ थे।चेतना की सामर्थ्य जड़ की तुलना में कई गुना अधिक है। जड़ प्रकृति पर नियमन नियंत्रण ही नहीं उसमें हेर-फेर करने में भी वह सक्षम है। अन्तर्ग्रही चैतन्य प्रवाह को उलटना-पलटना हो तो चेतना की सामर्थ्य का ही उपयोग करना होगा। अन्तर्ग्रही शक्तियों की विशालता और प्रचण्डता अद्भुत और विलक्षण है। इतने पर भी चेतन की प्राण शक्ति द्वारा सुव्यवस्थित साधना क्रम को अपनाकर प्राण प्रहार द्वारा उसे प्रवाह में परिवर्तन कर सकना सम्भव है। ऐसे परिवर्तन जो पृथ्वी के जीवधारियों के लिए उत्पन्न अविज्ञात कठिनाइयों को रोकने और अदृश्य अनुदानों को बढ़ाने में समर्थ हो सके। खगोल विज्ञान की पूर्णता ज्योतिर्विज्ञान में है जो अपने में चेतना विज्ञान की सामर्थ्य को भी समाहित किए हुए हैं। कुशल चिकित्सक रोग का निदान ही पर्याप्त नहीं समझते रुग्णता हटाने और आरोग्य हटाने का उपचार भी सोचते हैं। ज्योतिर्विज्ञान केवल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति से ही अवगत नहीं कराता अपितु अदृश्य प्रभावों के अनुकूलन का भी प्रबन्ध करता है।इस सन्दर्भ में एक बात और समझने योग्य है कि सौर मण्डल के ग्रह उपग्रह भौतिक दृष्टि से रासायनिक तत्वों से बने और बड़े आकार के गतिशील पिण्ड मात्र नहीं हैं। आत्म वैज्ञानिकों का मत है कि प्रत्येक जड़ सत्ता का एक चेतन अभियान होता है। उसी के नियन्त्रण से इन घटकों को अपनी गतिविधियां चलाने का अवसर मिलता है। नवग्रहों को ज्योतिर्विज्ञान में न देवता माना गया है। जबकि खगोल शास्त्री इनकी चेतन विशेषताओं से अपरिचित होने के कारण मात्र पदार्थ पिण्ड मानते हैं। आत्मवेत्ताओं ने तैंतीस कोटि देवता गिनाए हैं। यहां कोटि का अर्थ करोड़ से नहीं श्रेणी से है। इस समुदाय में ग्रह पिण्ड, नीहारिकाएं पंच तत्व, पंचप्राण, देवदूत, जीवनमुक्त, पितर जैसी सूक्ष्म अदृश्य दिव्य सत्ताओं को गिना जा सकता है, जो सृष्टि के सुसंचालन में हिस्सा बंटाती हैं।भूमण्डल का विस्तार सीमित है—अन्तरिक्ष का अनन्त। जितनी सम्पदा पृथ्वी तथा इसके निकटवर्ती वातावरण में है उससे असंख्यों गुना अधिक अन्तरिक्षीय परिकर, परिसर में संव्याप्त है। जिसमें पदार्थ भी है और चेतना भी। पितरों से लेकर देव समुदाय के सूक्ष्म शरीर धारी तथा महाप्राण की शक्तियां इसी विस्तृत अन्तरिक्ष में निवास करती है। इस प्रत्यक्ष और परोक्ष जड़ और चेतन की शक्तियों का तारतम्य न मिल पाने से कितने ही अनुदानों से वंचित रहना पड़ता है और मात्र प्रकृति प्रवाह जो सहज ही मिल जाता है उतने भर से पृथ्वी वासियों को सन्तुष्ट रहना पड़ता है।सूक्ष्म के अन्तराल में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे ग्रहण करने की विद्या से यदि मानव परिचित हो तो स्वयं भी लाभान्वित हो सकता है एवं समष्टिगत हलचलों को भी प्रभावित कर सकने में समर्थ हो सकता है। ज्ञान और विज्ञान के संगम से अदृश्य जगत के सूक्ष्म स्पन्दनों का ग्रहण कर सकना भली भांति संभव है। चिर पुरातन ज्योतिर्विज्ञान इसी विद्या का प्रतिपादन करता आया है।ज्योतिर्विज्ञान को समन्वित किए बिना अंतर्ग्रही टोह एवं अन्तरिक्षीय खोज बीन करने में विज्ञान उतना सक्षम नहीं है। इस दिशा में प्राचीन भारतीय ज्ञान सहायक सिद्ध हो सकता है। इस विषय पर भारतीय प्राचीन ज्योतिर्विदों ने गहन अनुसंधान किए एवं निष्कर्ष निकाले हैं। आर्यभट्ट का ज्योतिष सिद्धान्त, कालक्रियापाद, गोलपाद, सूर्य सिद्धान्त और उस पर नारदेव, ब्रह्मगुप्त के संशोधन, परिवर्धन, भास्कर स्वामी का महाभास्करीय आदि दुर्लभ और अमूल्य ग्रन्थ अनेकानेक रहस्यों एवं निष्कर्षों से भरे पड़े हैं। ज्योतिष सिद्धान्त पुस्तक के प्रथम पाद में अंक-गणित बीजगणित और रेखागणित के सिद्धान्त समझाये गये हैं। मात्र तीस श्लोकों में दशमलव, वर्ग क्षेत्रफल, घनमूल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल निकालने जैसे महत्वपूर्ण विषयों की जानकारी सूत्र रूप में आबद्ध है। कालक्रियापाद में खगोलशास्त्र का विशद वर्णन है। इसी तरह उसका अन्तिम पाद 50 श्लोकों का अध्याय ‘गोलपाद’ अपने में ज्योतिष विज्ञान के महत्वपूर्ण रहस्यों पर प्रकाश डालता है। अपने पंच सिद्धान्तिक में वाराह मिहिर ने पौलिश, रोमक, वाशिष्ट, सौर और पितामह नामक पांच ज्योर्तिसिद्धान्तों का वर्णन किया है जो ज्योतिर्विज्ञान पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं। ज्योतिर्विज्ञान के शोधकर्ताओं के लिए अतीत के महान ज्योतिर्विदों द्वारा संग्रहीत किया गया यह ज्ञान पथ प्रदर्शन कर सकता है।यह तथ्य निर्विवाद है कि पुरातन और नवीन का समन्वय बिना किसी पूर्वाग्रहों के यदि संभव हो सके तो उस समुद्र मंथन के नवनीत से अनेकों लाभ उठाए जा सकते हैं। इस प्रकार ज्योतिर्विज्ञान पर समग्र शोध के साथ कितनी ही उपयोगी सम्भावनाएं भी जुड़ी हुई है। इससे मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं के पीछे विद्यमान अदृश्य कारणों को ढूंढ़ने व उनके निवारण करने में सहयोग मिलेगा। साथ ही दैवी चैतन्य प्रवाह से अनुकूल लाभ पा सकना भी सम्भव हो सकेगा।
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