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Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान

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Language: HINDI
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परोक्ष की महत्ता एवं वातावरण संशोधन की अनिवार्यता

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यह जगत दो हिस्सों में बंटा हुआ है। एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष। दृश्य पदार्थों के भीतर एक प्रेरक शक्ति काम करती है जिसे आंखों से नहीं देखा जाता, उसकी क्षमता एवं गति को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि प्रकृति के अन्तराल में शब्द, ताप और प्रकाश की तरंगें काम करती हैं उन्हें परोक्ष ही कहा जा सकता है। शरीर सारे काम करता है, पर उसके भीतर चेतना की परोक्ष प्राण शक्ति काम करती है। भूमण्डल के सम्बन्ध में भी यही बात है। वह जल, थल और नभ के तीन भागों में विभक्त है। किन्तु उसका थोड़ा-सा भाग ही दृष्टिगोचर होता है। भूगर्भ में क्या हलचलें चल रही हैं—समुद्र तल में क्या हो रहा है—आकाश में कितना पदार्थ वायुभूत होकर उड़ रहा है इसकी जानकारी सामान्य बुद्धि या साधनों से प्राप्त नहीं होती वह सभी एक प्रकार से परोक्ष या अदृश्य है।प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में ही हमें हलकी-फुलकी जानकारी होती है। इतने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की क्षमता असंख्य गुनी है। एक चुटकी धूल का कोई महत्व नहीं किन्तु एक परमाणु की परोक्ष शक्ति का विस्फोट गजब ढा देता है। समुद्र के खारे जल में ज्वारभाटे मात्र उठते हैं पर इसे बहुत कम लोग जानते हैं कि धरातल के कोने-कोने में जल पहुंचाने के लिए उसकी अदृश्य प्रकृति एवं हलचल ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यही बात आकाश के सम्बन्ध में भी है। वह पोला, खाली दृष्टिगोचर होता है किन्तु पवन, पर्जन्य, प्राण जैसे अति महत्वपूर्ण तत्व प्रचुर मात्रा में उसी में भरे पड़े हैं। यदि उनका लाभ प्राणियों को न मिले तो किसी का भी जीवन शकट आगे न बढ़े।चर्चा परोक्ष जगत की हो रही है। प्रत्येक प्रयोजन के लिए यों हमें प्रत्यक्ष से ही पाला पड़ता है और उसी को सब कुछ मानने तथा बढ़ाने-बदलने का अभ्यास रहता है फिर भी विचारशील यह भी भूलते नहीं कि परोक्ष की सत्ता असाधारण है और उसकी उपेक्षा करके खिलौने में खेलने की तरह मात्र छोटे बच्चों जैसी स्थिति हमारी बनी रहती है। एक अविकसित बनवासी मात्र घास-पात की संपदा पर ही निर्भर रहता है किन्तु एक वैज्ञानिक प्रकृति पर आधिपत्य जमाता और असीम शक्ति का अधिष्ठाता बनता है। इसे परोक्ष सामर्थ्य की जानकारी एवं उपलब्धि का चमत्कार ही कह सकते हैं।यहां चर्चा अदृश्य जगत् की हो रही है। धरातल के पदार्थों प्राणियों की हलचलों, सम्पदाओं, सुविधाओं को हम देखते हैं। उस क्षेत्र की प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने के लिए प्रयत्न भी करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि प्रत्यक्ष के पीछे परोक्ष कारण भी महत्वपूर्ण भूमिका संपन्न कर रहे होते हैं और उन्हें समझने और निपटने के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए। इस भूल का परिणाम है कि प्रयत्न करने पर भी समस्यायें सुलझने में नहीं आतीं और श्रम निरोधक चला जाता है। थकान, निराशा और खीज ही पल्ले पड़ती है। हमें गहराई में उतरने की आदत डालनी चाहिए और समझना चाहिये कि मोती बटोरने के लिए गहरी डुबकी लगाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। किनारे पर भटकते रहने से सीप और घोंघों के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ सकता।रोग प्रत्यक्ष है और औषधि भी। दोनों आपस में सुलझते समझते भी रहते हैं। एक दूसरे को चुनौती चिरकाल से देते आ रहे हैं किन्तु औषधियां हारती और बीमारी जीतती चली आ रही हैं। यह क्रम तब तक चलता ही रहेगा जब तक कि असंयम से शक्तियों के अपव्यय और विषाक्तता के उद्भव अदृश्य का कारण न समझा जाय और उसके निवारण के लिये चटोरेपन की आदत का परिमार्जन न किया जाय। यह बात अर्थ संकट, मानसिक तनाव, परिवार विग्रह, समाज विक्षोभ जैसी समस्याओं के सम्बन्ध में भी लागू होती है।परोक्ष जगत की परिधि में मानवी आस्था को महत्व तो दिया जा सकता है। फिर भी वह समग्र नहीं है। दृश्य जगत की पीठ पर एक अदृश्य जगत भी है और उसमें चल रही हलचलों और गतिविधियों से प्रत्यक्ष जगत पूरी तरह प्रभावित होता है। देखना यह भी है कि अदृश्य जगत में कहीं अवांछनीय तत्व तो नहीं घुस पड़े हैं और उनके प्रभाव से प्रत्यक्ष जगत का वातावरण तो विषाक्त नहीं हो रहा है।ऋतुओं के प्रभाव को सर्दी, गर्मी, नमी के रूप में अनुभव किया जाता है किन्तु वस्तुतः वे सूर्य और पृथ्वी के परिभ्रमण से उत्पन्न होने वाली परिणतियां भर हैं। इसे समझे बिना ऋतु परिवर्तन के रहस्य से अपरिचित ही बने रहना पड़ता है। अन्तरिक्ष से इतना कुछ बरसता है जिसे जल और थल की संयुक्त उपलब्धियों की तुलना में कहीं अधिक कहा जा सके। अदृश्य की शक्ति पर कभी तथाकथित प्रत्यक्षवादी अविश्वास करते थे पर बढ़ते हुए विज्ञान का समूचा आधार ही अप्रत्यक्ष को समझने और हस्तगत करने में केन्द्रीभूत हो रहा है।उथल-पुथल इन दिनों न केवल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में हो रही है वरन् समाज व्यवस्थायें भी बदल रही है। लोगों की आकांक्षायें और आदतें भी। मनःस्थिति में अनेक कारणों से उलट-पुलट हुई है। फलतः उसकी प्रतिक्रिया और परिस्थितियों में भी चकित कर देने वाला परिवर्तन हुआ है।प्रकृति क्षेत्र एवं धरती का वातावरण भी इससे अछूता नहीं रहा है। मनुष्य का भविष्य अधर में झूल रहा है। भविष्य की सम्भावना चौराहे पर खड़ी है वह उत्कर्ष या विनाश की किसी भी दिशा में कदम बढ़ा सकती है। यह बात पृथ्वी के सम्बन्ध में भी लागू होती है। वह ऐसे सन्धिकाल में होकर गुजर रही है जिसमें अपने इस धरातल को विषम विपत्ति में भी फंसना पड़ सकता है।अन्तर्ग्रहीय परिस्थितियों, हलचलों तथा परिवर्तनों का अध्ययन करने वाले खगोल शास्त्रियों तथा ज्योतिर्विदों का मत है कि विगत कुछ दशकों से अन्तरिक्ष जगत में असन्तुलन बढ़ता जा रहा है, जिसकी प्रतिक्रियायें अनेकों प्रकार से प्रकट हो रही हैं। यह स्थिति यथावत बनी रही तो अगले दिनों प्राकृतिक विपदाओं, प्रकोपों तथा भयंकर विक्षोभों की महाविभीषिका प्रस्तुत हो सकती है। सम्भव है उसकी चपेट में समस्त संसार को आना पड़े तथा अपना अस्तित्व गंवाना पड़े। उस स्थिति के स्मरण मात्र से रोमांच हो उठता है।भू वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के चुम्बकत्व में परिवर्तन से संसार में ऐतिहासिक उलट-पुलट हुए हैं। असंभव जान पड़ते हुए भी जब उन्हें विदित हुआ कि पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव भी आपस में बदलते रहते हैं, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, कितनी ही बार उत्तरी चुम्बकीय ध्रुव दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव में तथा दक्षिणी चुम्बकीय ध्रुव उत्तरी में परिवर्तित होता रहा है, उनके साथ कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएं भी घटी हैं। शोध करने वाले विशेषज्ञों का मत है कि 25 हजार वर्ष पहले से आज की भू चुम्बकत्व तीव्रता 50 प्रतिशत कम है। कम होने की रफ्तार बनी रही तो अगली कुछ सदियों में महाप्रलय का सामना करना पड़ा सकता है।न्यूयार्क स्टेट यूनिवर्सिटी के प्रो. रिचर्ड यूफेन का विश्वास है कि ध्रुव परिवर्तन के समय चुम्बकीय यल क्षेत्र इतना कम हो जाता है उस समय अन्तरिक्ष में स्थित वाल ऐलेन बेल्ट्स से सुरक्षा नहीं हो सकती। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का गोलार्द्ध अन्तरिक्ष में बहुत दूर तक फैला हुआ है। यह चुम्बकीय क्षेत्र ब्रह्माण्डीय घातक किरणों को परिवर्तित कर देता है। उस समय जीवधारी और आंधियों तथा ब्रह्माण्डीय किरणों की दशा पर निर्भर रहते हैं। ध्रुव परिवर्तन से जलवायु व मौसम में भी भयंकर परिवर्तन हो जाते हैं। उसकी चरम परिणति हिमयुगों जैसे संकटों के रूप में भी हो सकती है। भूगर्भ शास्त्रियों ने अपने शोध निष्कर्षों में पाया है कि विगत कुछ दशकों से भू चुम्बकत्व की तीव्रता में लगातार गिरावट आ रही है। ऐसा कहा जाने लगा है कि आगामी 200 वर्षों में चुम्बकीय क्षेत्र पूरी तरह समाप्त भी हो सकता है। जिससे प्रलय अथवा महाप्रलय जैसे संकट भी आ खड़े हो सकते हैं।ध्रुव क्षेत्र के विशेष एच.एन. ब्राउन का अनुसंधान है कि इन दिनों दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का भार निरन्तर बढ़ रहा है। यह ऐसे ही बढ़ता रहा तो कुछ ही समय में पृथ्वी की धुरी बदल जायगी और कहीं से कहीं जा पहुंचेगी। वर्तमान धुरी सात हजार वर्ष पहले बनी थी। अब हिम भार में असन्तुलन उत्पन्न होने के कारण सन् 2000 के आस-पास फिर परिवर्तित हो सकती है। चार्ल्स हैपवुड ने भी इस मत का समर्थन किया है। ध्रुव स्थान बदलते हैं तो उसके कारण धरती की क्रम व्यवस्था में भारी परिवर्तन होता है। अब तक तीन बार ऐसा हो चुका है। इन दिनों ध्रुवों के खिसकने की गति में तेजी आई है। सन् 2000 तक इनकी स्थिति ऐसी हो सकती है जिसका प्रभाव पृथ्वी की धुरी बदलने के रूप में सामने आये और उसके फलस्वरूप भारी उथल-पुथल मचे।धुरी में राई रत्ती हेर-फेर होने पर भयानक भूकम्पों जैसी स्थिति बनती है। जिन्हें भूकम्पों का इतिहास विदित है वे जानते हैं कि इस आधार पर पिछले दिनों कैसे विचित्र दृश्य उपस्थित हुए हैं। चिली भूकम्प ने समुद्रतल 1000 फुट ऊंचा उठा दिया था। 1950 में हिमालय क्षेत्र में जो भूकम्प आया था उससे चोटियां 200 फुट तक ऊंची हो गई थीं। पृथ्वी का सन्तुलन बनाये रहने के लिए हिमालय की चोटियों को जिस सीमा में रहना चाहिए उससे वे 600 फुट अधिक ऊंची हो गयी0/हैं। यदि भूकम्पों ने उन्हें और भी ऊंचा उठाया तो पृथ्वी का संतुलन डगमगा सकता है और महाद्वीपों को स्थान परिवर्तन करना पड़ सकता है। ऐसे अवसरों पर खण्ड प्रलय जैसे दृश्य उपस्थित होते हैं।सन् 1982-83 में जितनी सर्दी पड़ी है उतनी पिछले सौ वर्षों में कभी भी नहीं पड़ी। सम्भावनायें हैं कि ऐसी अनियमित अव्यवस्थाओं का दौर आगे भी चलता रहेगा और मौसम अपने सामान्य विधि-व्यवस्था का व्यतिक्रमण करके उछल-कूद की उलट-पुलट की नीति अपनाता रहेगा।इसका कारण खोजने वालों ने कई प्रकार के अनुमान लगाये और कारणों का पर्यवेक्षण करते हुए कई कतिपय निष्कर्ष निकाले हैं। कैलीफोर्निया जेट प्रोपल्सन लेबोरेटरी के मौसम विशेषज्ञ रिचर्ड विलसन का अभिमत है कि सूर्य कलंकों की वर्तमान स्थिति इसके लिए जिम्मेदार है। सन् 1979 से इस संदर्भ में एक विसंगति क्रम चला है और वह 1986 तक इसी प्रकार बेतुके ढंग से चलता रहेगा। इस कारण सूर्य की गर्मी प्रायः एक प्रतिशत धरती पर कम आई और उस कारण सर्दी बढ़ी है।पिछले दो ढाई सौ वर्ष पूर्व भी ऐसा हो चुका है। सन् 1645 से 1715 तक भी इसी कारण योरोप और अमेरिका में भयानक ठण्ड पड़ी थी और उन दिनों उसे मिनी हिमयुग कहा जाने लगा था। बिगड़ा सन्तुलन उस समय तो सध गया था। पर जब भूत ने घर देख लिया तो फिर कभी भी छप्पर से कूदकर आंगन में आ धमक सकता है।1982 के मार्च, अप्रैल महीनों में मैक्सिको का अलचिनोन ज्वालामुखी फटा था। इसका मलवा असाधारण था वह आसमान में 30 किलोमीटर ऊंचा उछल गया। इतनी ऊंचाई पर चलने वाली हवाओं ने उसे पकड़ लिया और उत्तरी गोलार्ध के एक बड़े भाग पर उस धूलि को बखेर दिया उससे धूप के पृथ्वी तक आने में रुकावट उत्पन्न हुई। उस कमी के कारण ठण्ड का अनुपात बढ़ गया। माउन्टेन न्यू के नासा अनुसंधान केन्द्र के विज्ञानी ब्रायन ट्रन का कथन है कि यह प्रभाव अभी देर तक बना रहेगा।ठीक ऐसा ही घटनाक्रम अब से 150 वर्ष पूर्व और भी घटित हो चुका है। सन् 1816 में योरोप में ठंडे मौसम के कारण फसल को पाला मार गया था और उत्तर पूर्व अमेरिका में जून से अगस्त तक बर्फ गिरी थी जबकि उन दिनों क्षेत्र में गर्मी पड़ा करती है। विशेषज्ञों के अनुसार इसका कारण उन दिनों इन्डोनेशिया के तंवोरा ज्वालामुखी से हुआ भयंकर विस्फोट था। उस शताब्दी का यह अपने ढंग का अनोखा विस्फोट था। उसमें भी ऐसी ही धूलि उछाली थी। फलतः सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आसमान लाल दीखता था। चन्द्रमा पीले के स्थान पर नीला दीखने लगा था।अमेरिका की नेशनल एकेडमी आफ साइन्सेज ने इस बदलते मौसम का एक और कारण बताया है। उसने एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उसके विशेषज्ञों का कथन है कि जिस प्रकार पृथ्वी और सूर्य के परिक्रमा चक्र में दूरी और समीपता के कारण सर्दी-गर्मी का मौसम बदलता है ठीक उसी प्रकार अपना सूर्य भी महासूर्य के इर्द-गिर्द परिक्रमा करता है उसकी कक्षा भी पृथ्वी जैसी चपटी है। इस कारण इसी में अन्तर पड़ता है। इसका सौर मण्डल के ग्रहों पर प्रभाव पड़ता है। पिछले 5000 वर्षों में पृथ्वी समेत सौर-मण्डल अन्तर्ग्रही परिभ्रमण पथ की उष्णता परिधि में रह रहा था अब वह सर्दी के दौर में प्रवेश कर रहा है। फलतः ठण्डक बढ़ रही है।इन दिनों सूर्य की क्रियाशीलता अधिकतम है। इन्हीं दिनों पृथ्वी के वातावरण में धूमकेतुओं का प्रवेश हो रहा है। इन परिस्थितियों का धरातल पर मनुष्य आदि प्राणियों पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। खगोलविद् फ्रेडहाइल ने पुरातन अनुसंधानों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जब कभी ऐसी परिस्थितियां आई हैं तब महामारियां फैली हैं। धूमकेतुओं की समीपता से पृथ्वी के वातावरण में भारी परिवर्तन होता है।प्रकाश की लम्बी रेखा बुहारी की तरह पूंछ वाला एक तारा कभी आकाश में दिखाई दे जाता है तो भारतवर्ष ही नहीं, सारे विश्व में बेचैनी फैल जाती है। यह तारा जिसे धूमकेतु या पुच्छल तारा कहते हैं, अशुभ और अनिष्ट का सूचक समझा जाता है। जब भी यह निकलता है, लोग युद्ध, अकाल, मारामारी जैसी आशंकाओं से भयभीत हो उठते हैं। पुच्छल तारा मानव जाति के लिए व्याधि और विनाश का ही प्रतीक माना जाता है।यह पुच्छल तारा साधारण मनुष्यों के लिये ही भय और आश्चर्य का विषय नहीं रहा, वैज्ञानिकों ने भी उसे बड़े कौतूहल की दृष्टि से देखा है। अनेक वैज्ञानिक उसकी विशद जानकारी करने के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। प्रसिद्ध खगोलविद् न्यूटन, जिनका मस्तिष्क पिण्डीय जगत में सदैव भ्रमण किया करता था—गुरुत्वाकर्षण जैसा सिद्धांत उन्होंने ही बनाया था—ने धूमकेतुओं के अनेक आश्चर्यों की खोज की। टाइकोब्राहे और डा. हेली ने धूमकेतु ताराओं का विशेष अध्ययन किया और कहा—प्रकृति के अनेक रहस्यपूर्ण करतबों में से एक यह धूमकेतु भी है। इसकी आकृति, प्रकृति, गुण, कर्म और निवास-विश्राम के ऊपर वैज्ञानिकों ने काफी कार्य किया है एवं अलग-अलग रूपों में अपने निष्कर्ष दिए हैं।पुच्छल तारों को उनकी शानदार पूंछ के कारण धूमकेतु कहते हैं। जब धूमकेतु सूर्य के निकट पहुंचता है तब उनकी पूंछ प्रकट होती है। प्राचीन काल में वैज्ञानिक धूमकेतुओं की ध्रुवीय प्रकाश, बादल और बिजली की तरह वायुमण्डल की घटनायें समझते थे। अधिकांश वैज्ञानिक इसे हानिकारक वाष्प का बादल मान बैठे थे।समय-समय पर वैज्ञानिक जैसे डेनिश, केपलर आदि इसका अध्ययन करते रहे, किन्तु पूर्णतया अपने अभियान में सफल नहीं रहे। आकाश में धूमकेतुओं के प्रकट होने की पुरानी सूची का अध्ययन करते हुए वैज्ञानिक एडमण्ड हैली ने सबसे प्रथम समझा कि धूमकेतु सौर मण्डल के स्थाई निवासी हैं। उन्होंने कहा कि धूमकेतुओं के प्रकट होने की अवधि लगभग एक समान अर्थात् 76 वर्ष है। अस्तु उन्हीं के सम्मान में इसका नाम हैली दे दिया गया। हैली का धूमकेतु ज्योतिर्विज्ञान से ज्ञात इतिहास में 1758, 1834 तथा 1910 में दिखाई पड़ा था। अब अगला 1986 में दिखाई देने की सम्भावना है। इसका अध्ययन करने के लिए अभी से उपग्रह छोड़ दिए गए हैं।बैंगलोर में स्थित भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के वैज्ञानिक डा. जे.सी. भट्टाचार्य के अनुसार संस्थान के केन्द्र ‘कैवलट’ में 30 इंच का एक दूरवीक्षण यन्त्र लगाया जायेगा। 24 इंच का मिडट टेलिस्कोप, स्मिडट टेलिस्कोप आदि यंत्रों द्वारा स्पक्ट्रोस्कोपिक और पैस्वेक्ट्रो-कोटोमिटरिक प्रणाली का प्रयोग कर प्रक्षेणात्मक अध्ययन किया जायेगा। कोड़ाईकेनाल वेधशाला में उच्च क्षमता वाले वर्ण क्रमाभापी का उपयोग कर धूमकेतु के सिर का अध्ययन किया जायेगा। नियमित फोटोग्राफी लेकर धूमकेतु के दैनिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जा सकेगा। यह 1984 मई माह से ही खगोल विदों की प्रेक्षण सीमा में आ गया है।धूमकेतु की बाह्य रेखायें स्पष्ट न होकर धुंधली होती हैं। उसके भीतर ठोस नाभिक होता है। तथा नाभिक गैसों के आवरण द्वारा घिरा रहता है। धूमकेतु का सिर यही गैस युक्त आवरण होता है। धूमकेतु का ठोस भाग अर्थात् नाभिक अवाष्प शील पदार्थ तथा हिम खण्डों से विनिर्मित होता है। इन हिम खण्डों में जमी हुई गैसें जैसे कार्बन सायनाइड कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन तथा अन्य विषैले पदार्थ धूम्रावस्था में रहते हैं।धूमकेतुओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अभी दुनिया के वैज्ञानिक एक मत नहीं हैं। सुप्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक अरस्तू का कहना है कि जो गैसीय पदार्थ पृथ्वी से निकलकर समस्त वायु मंडल में फैल जाता है, वही धूमकेतु की आकृति धारण कर लेता है। एक और तथ्य की जानकारी वैज्ञानिकों को हुई है, कि धूमकेतु स्वयं में कोई प्रकाश नहीं रखता अपितु चन्द्रमा की भांति सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होता है। इन धूमकेतुओं के बनने के और भी अनेकानेक कारण पाये गये हैं।सर्वप्रथम 1577 में डेन्मार्क के नामी खगोलज्ञ टाइको ब्राहे ने बताया कि धूमकेतु करोड़ों मील के विस्तार से सौर मंडल में प्रवेश करते हैं। एक और विशेष आर.ए. लिटलटन का मत है, कि जब सूर्य अन्तर ताराकीय धूलि तथा गैस में से निकलता है, तो उनके संघनन से धूमकेतु का निर्माण होने लगता है।श्री जे.एच. ऊर्ट, जो हालैंड की लेइडन वेधशाला में कार्यरत हैं, का अभिमत रहा है कि किसी समय मंगल और बृहस्पति के परिक्रमा मार्ग में एक ग्रह था। किन्हीं बाह्य शक्तियों के दबाव के कारण तीतर बितर हो गया। उसके पांच प्रतिशत टुकड़े सौर मंडल की ओर चलते बने। इन्हीं ने धूमकेतु का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। वर्तमान में धूमकेतुओं की संख्या 1014 (दस नील) की आंकी गयी है।धूमकेतुओं के उदय का अभिप्राय होता है—किसी महान घटना का पूर्वाभास। घटनायें शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार की हो सकती हैं। कुछ धूमकेतु तो वास्तव में शुभ घटनाओं के ही प्रतीक चिन्ह के रूप में चमकते हैं। ‘बेतुलहम का सितारा’ ईसा मसीह के जन्म के समय प्रकट हुआ था। इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध नाटककार शेक्सपियर ने ‘जूलियस सीजर’ नामक नाटक में धूमकेतुओं की चर्चा करते हुये बताया है ये किसी भिखारी की मृत्यु पर नहीं वरन् महान सम्राट की मृत्यु पर ही आकाश में चमकते हैं। वैज्ञानिकों की दृष्टि में तो इनके कुप्रभाव ही अधिक दृष्टिगोचर हुये हैं।डेनियल डिफो की ‘जनरल आफ इयर’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें वर्ष 1965-66 में लन्दन में प्लेग और आग लगने की घटना का मुख्य कारण पुच्छलतारों के चमकने को ही माना है। ऐसी अनेकों दुर्घटनाओं का विस्तृत विवरण पुस्तक में छपा है जो धूमकेतुओं के प्रकटीकरण के कारण ही हुई।यों धूमकेतु कोई ऐसा दानव नहीं, जो मनुष्यों की तरह मार-काट मचाता हो। यह भी गैस, खनिज चट्टानों तथा हिमकणों से बने विचित्र प्रकार का तारा ही है। सबसे आश्चर्य जनक इसकी पूंछ है, जिसकी लम्बाई लाखों करोड़ों मील तक नापी गई है। 1811 में धूमकेतु दिखाई दिया था, उसकी पूंछ 10 करोड़ मील लम्बी थी जब कि 1843 में जो धूमकेतु दिखाई दिया था खगोल शास्त्रियों के अनुसार उसकी पूंछ की लम्बाई 15 करोड़ मील से भी बड़ी थी।कई धूमकेतु कई पूंछ वाले भी होते हैं। आकाश में इतनी दूर तक फैली हुई पूंछ को बीच से फाड़कर पृथ्वी और दूसरे ग्रह अपनी परिक्रमायें करते रहते हैं। ऐसा अनुमान है कि पूंछ में पाई जाने वाली गैसें अदृश्य रूप से लोगों के मस्तिष्क और शरीर में ऐसी प्रतिक्रियायें उत्पन्न करती हैं जिनसे शरीर और सामाजिक जीवन में दूषित तत्वों की अभिवृद्धि होती हो और उसी से यह अनिष्टकारक समझे जाते हों पर ऐसा कोई कारण दिखाई नहीं देता जो बलात् मनुष्य की इच्छा शक्ति को मोड़ सकता हो या विध्वंस उपस्थित कर सकता हो। इसकी आकृति ही भयंकर होती है। भार तो बहुत ही कम होता है।खगोल शास्त्रियों ने अनुमान लगाकर बताया है कि एक कमरे की एक घन इंच हवा में जितना पदार्थ होता है धूमकेतु की पूंछ में उतना पदार्थ एक घन मील में होता है। चमक तो गैसों की होती है। इसका सिर भी उतने भार का नहीं होता, जितना दिखाई पड़ता है। यह छोटी-छोटी गोली के आकार जैसे धूल-कणों से बना होता है और यह टुकड़े भी एक घन मील में कोई सौ-पचास की ही संख्या में होते हैं।इतिहास में हर धूमकेतु के प्रकट होने की कहानी कुछ विपत्तियों के अग्रदूत के रूप में लिखी है। जब जब वे आये हैं कोई न कोई मानवता के लिए संकट ही लेकर आये हैं। 1066 में रूस के इतिहास में आये धूमकेतु के बारे में इस प्रकार लिखा है।‘‘इस समय पश्चिम में एक संकेत हुआ। वहां एक बहुत बड़ा तारा था। उसकी किरणें अधिक थीं, सूर्यास्त होने के बाद वह सायंकाल को ऊपर उठता था और सात दिन तक नजर आता रहा। इसके बाद भीतरी युद्ध होते हुए, और रूसी भूमिका पर दुश्मनों के कबीलों का आक्रमण हुआ। खूनी तारा जब भी प्रकट होता है, सदा ही रक्तपात का अग्रदूत होता है।’’कुछ शताब्दियों बाद 1811 ई. में पुनः धूमकेतु दीख पड़ा तब 1932 में नेपोलियन बोनापार्ट अपनी सेना लेकर रूस पर चढ़ आया। फलतः युद्ध में मास्को शहर जलकर खाक हो गया।धूमकेतु केवल सूर्य की सन्तान हो, ऐसी बात नहीं नवग्रहों में कई के पास यह संतानें हैं। शनि धूमकेतुओं की संख्या 6, नेपच्यून की 8 है। इसी प्रकार बृहस्पति के घन में अनुमानतः 18 पुच्छल तारे चक्कर काटते रहते हैं।कभी-कभी दिखाई देने वाले इन धूमकेतुओं की संख्या कम नहीं हजारों की संख्या में है तथा सूर्य के आस-पास और सौर मण्डल के बाहर भी चक्कर काटते रहते हैं। हमें जो धूमकेतु दिखाई देते हैं वह सब शंकर की जटाओं से एकाएक प्रादुर्भूत पुत्रों की तरह सूर्य सन्तानें हैं। वह किस तरह पैदा हो जाते हैं, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित जानकारी नहीं है पर अब सूर्य के ऐसे 32 प्रकाश पुत्रों का पता चला है। आज्ञाकारी पुत्र की तरह यह भी सूर्य की ही परिक्रमा लम्बे वृत्त में किया करते हैं। हेली, फाये, ओल्वेरस, ब्रोरसेन, इन्के टूटल आदि धूमकेतु 3 वर्ष से लेकर 100 वर्ष तक में सूर्य की परिक्रमा पूरी करते हैं। जब कभी ये पृथ्वी के वायु मण्डल में आ जाते हैं हमें दिखाई देने लगते हैं। हेली एक धूमकेतु जो सर एडमण्ड हैली के नाम से इस रूप में प्रसिद्ध है, जो हर 76 वर्ष बाद आता रहता है। अनुमान है कि अब एक वर्ष बाद 1986 में फिर उदित होगा। इससे पहले वह 1910 में आया था। प्रथम विश्व युद्ध की तैयारियां तभी हुई थीं। इसी से लोग अनुमान लगाते हैं कि अगले दिनों तृतीय विश्वयुद्ध की तैयारियां हों तो कुछ आश्चर्य नहीं। सम्भव है तब मानव जाति पर बड़े संकट आयें, पर यदि ऐसा हुआ ही तो आगे का संसार एक नये अध्याय से ही प्रारम्भ होगा, युग सन्धि के इस संक्रमण काल में घट रहे कुछ घटनाक्रमों की जो झांकी अभी से नजर आ रही है, उसे देखते हुए भी वैज्ञानिकों का यह अनुमान खगोलज्ञों की परिकल्पना भर नहीं, सही प्रतीत होने लगा है। अब तृतीय विश्व युद्ध के आसार, नजर आ रहे हैं। शीत युद्ध की इस वेला में ऐसा सुनिश्चित लगने लगा है कि 1985-86 में दो महाशक्तियां आपस में टकराएंगी।सन् 1843 में जो धूमकेतु दिखाई दिया था वह सूर्य के 49 हजार मील पास तक चला गया था। इससे पहले 3 करोड़ मील की दूरी तक ही वह आ पाया था। धूमकेतु जब सूर्य के पास आता है तभी उसकी पूंछ चमकती और लम्बी होती दिखाई देती है। सूर्य का प्रकाश पड़ने के कारण ही ऐसा होता है। जैसे-जैसे वह दूर हटता है पूंछ छोटी होती हुई बाजीगर के खेल की तरह सिर में ही लुप्त हो जाती हैं। धूमकेतु जब सूर्य के नजदीक आते हैं तब सूर्य के प्रतिकर्षण बल द्वारा पीछे ढकेली गैसों के उड़ने से दुम का निर्माण होता है। जैसे-जैसे धूमकेतु सूर्य के नजदीक आता जाता है उसकी पूंछ की लम्बाई बढ़ती जाती है यहां तक कि एक धूमकेतु की दुम की लम्बाई 90 करोड़ किलो मीटर लम्बी तक आंकी गयी है।जिसके साथ धुंए की पताका जुड़ी हो संस्कृत भाषा में उसे ही धूमकेतु के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी का ‘कॉमेट’ शब्द यूनानी भाषा के ‘कोमेटेस’ के नाम से बना है इसका अर्थ होता है—लम्बे बालों वाला तारा।धूमकेतुओं के प्रकटीकरण की चर्चा बहुत पुरानी है। विभिन्न प्रकार के धूमकेतुओं की खोज का माहौल सर्वत्र बना हुआ है। हैम्वर्ग (प. जर्मनी) की खगोलीय वेधशाला में कार्यरत चेकोस्लोवाकिया के डा. लूबोस कोहौटेक ने एक ऐसे धूमकेतु की खोज की है जिसे 20वी शताब्दी में अब तक चमके धूमकेतुओं से अधिक प्रकाशवान समझा गया है। चूंकि 18 मार्च, 1973 को डा. कोहौटेक्र ने इस धूमकेतु को विशालकाय दूरबीनों की सहायता से ढूंढ़ा इसीलिए इसका नाम भी ‘कोहौटेक’ ही रखा गया है। पृथ्वी से इसकी निकटतम दूरी साढ़े तीन करोड़ मील तथा गति 50 मील प्रति सेकेंड की थी।अब तक दिखने वाले धूमकेतुओं में ‘कोहौटेक’ पहला धूमकेतु है जिसे पृथ्वी के बाहर से भी देख सकना संभव हुआ है। कोहौटेक के प्रभावों के अध्ययन हेतु विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में प्रयोगशालायें स्थापित की गयी हैं। अमेरिका में राष्ट्रीय वैमानिक नभीय प्रशासन (नासा) के मार्ग दर्शन में ‘आपरेशन कोहौटेक’ को आज क्रियाशील होते स्पष्ट देखा जा सकता है।अभी हाल ही में एक विशालकाय पुच्छल तारे का वैज्ञानिकों को पता चला है। इसका नाम इरास अराफी अलकोक है। यह नाम उन दो प्रसिद्ध अमरीकी वैज्ञानिकों के नाम पर रखा गया, जिनने इसकी खोज की। धीरे-धीरे यह धूमकेतु पृथ्वी के और निकट पहुंचता जा रहा है। कुछ समय पहले तक यह पृथ्वी से 50 लाख किलोमीटर दूर था। वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले 200 वर्षों में कोई भी पुच्छलतारा पृथ्वी के इतना निकट नहीं आया था। यह उसके अतिरिक्त है जिसके लिए दुनिया अभी से भयभीत है एवं ‘‘विवेयर, हैली इज कमिंग’’ नाम से जिस पर लिखी किताबें धड़ल्ले से बिक रही हैं।यह एक आश्चर्य की बात है कि जब भी कभी आकाश में धूमकेतु तारे उदित होते हैं तो मनुष्य जाति किसी भयंकर विस्फोट की आशंका से भयभीत हो उठती है। पर हम यह नहीं जानते कि सूर्य के भण्डार में ऐसे क्षुद्र ग्रह जिन्हें ‘एस्टरायड’ कहते हैं असंख्य मात्रा में भरे हैं वे भले ही छोटी-छोटी आंखों से दिखाई न देते हों पर दूरबीनों ने उनकी उपस्थिति को असंदिग्ध सिद्ध कर दिया है और इस तरह एक प्रलय का खतरा हर क्षण हमारे मस्तिष्क पर मंडराया करता है।पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक के बाद एक कवचों की परतें लिपटी हुई हैं। उनसे टकराकर अन्तरिक्षीय उल्का पिण्डों से हो सकने वाली क्षति बची रहती है। उल्का पिण्ड धरती पर आक्रमण करते हैं वायु मण्डल में प्रवेश करते-करते जल-भुनकर राख होते रहते हैं। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि खतरा बिलकुल टल गया। ढाल इतनी मजबूत नहीं है जिसे कोई भी हथियार बेध न सके। पृथ्वी पर अन्तरिक्षीय विघातक आक्रमण का खतरा बना रहता है। इतना ही नहीं इन दिनों तो उन आशंकाओं का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है।विशाल ब्रह्माण्ड में विद्यमान ग्रह नक्षत्रों के विशाल समुदाय में अपनी पृथ्वी का आकार एक धूलि कण के समान है। अन्तरिक्ष में कितने ही नये तारकों का उद्भव एवं पुरानों का समापन होता रहता है। इस जन्म-मरण की प्रक्रिया में कई बार बड़े टकराव ही निमित्त कारण होते हैं। पृथ्वी की आयु बीस करोड़ वर्ष मानी जाती है। यह ब्रह्माण्ड काल के आयुष्य को देखते हुए चुटकी बजाने जितनी स्वल्प है। फिर भी इसे सौभाग्य ही कहना चाहिए कि उसे किसी अन्तरिक्षीय दुर्घटना का अब तक शिकार नहीं होना पड़ा। तथापि यह नहीं समझा जाना चाहिए कि खतरे की कोई आशंका नहीं है। वह सिर पर मंडराता ही रहता है। कई बार तो वह और भी अधिक सघन होता देखा गया है। अपने समय को ऐसी ही आशंकाओं से घिरा समझा जाय तो उसे अत्युक्ति नहीं कहा जायगा।अन्तरिक्ष विज्ञानी बताते हैं कि कई हजार वर्ष पूर्व शुक्र और पृथ्वी की टक्कर होते-होते किसी प्रकार बच गई। दोनों के प्रभाव क्षेत्र इतने समीप आ गये थे कि टकरा जाने जैसा माहौल बन गया था। विपत्ति तो टल गई पर पृथ्वी की धुरी 23 अंश एक ओर झुक गई और इससे मौसम में असाधारण परिवर्तन हुए।अन्तरिक्ष में आवारागर्दी करने वाली ये उल्काएं अपनी दुस्साहसिकता के कारण स्वयं को तो क्षति पहुंचाती ही है, पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों को भी उथल-पुथल से भर देती हैं, इन उद्दण्ड उल्काओं की आवारागर्दी की गाथाएं दुनिया भर के पौराणिक साहित्य में रोचक ढंग से वर्णित हैं।यूनान की पौराणिक गाथाओं में ‘इकोरस’ नाम के एक युवक की कथा है। यह सूर्य से मिलने की महत्वाकांक्षा रख, नकली पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थे।अधिक ऊंचे जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख नीचे गिर पड़े, ‘इकोरस’ भी औंधे मुंह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया।पिछले दिनों इसी युवक की तरह का एक दुस्साहसी उल्का पिंड भी देखा गया। इसका नाम भी ‘इकोरस’ ही रखा गया। यह ‘इकोरस’ उल्कापिंड कभी सूर्य के अधिक निकट जा पहुंचा है, इतना कि बस थोड़ा और पास जाए, तो भर्ता ही बन जाए। कभी लगता है वह बुध से कभी मंगल और कभी शुक्र से अब टकराया, तब टकराया। सूर्य के अति निकट पहुंच कर वह आग का गोला ही बन जाता है। तो कभी सूर्य से इतनी दूर जा पहुंचता है कि शीत की अति ही हो जाती है।जून 1968 में इस उद्दण्ड क्षुद्र ग्रह की पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से टकराने की संभावना बढ़ गई थी। यदि खगोल शास्त्रियों की वह आशंका सत्य सिद्ध होती, तो पृथ्वी में भीषण हिम तूफान आते, समुद्र उफनकर दुनिया का थल-भाग अपनी चपेट में ले लेता, साथ ही लाखों वर्ग मील भूमि में गहरा गड्ढा हो जाने की संभावना थी, जहां यह उफनता समुद्री जल भर जाता वहां कुल मिलाकर करोड़ों मनुष्यों का सफाया हो जाता। सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास की एक उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी, तो वहां अणुबम विस्फोट जैसे हो गये थे। इकोरस तो उस उल्का से हजारों गुना बड़ा है, अतः परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।सौभाग्यवश इकोरस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया और एक भीषण दुर्घटना टल गई। सौर-मण्डल में ऐसे अनेक क्षुद्र ग्रह हिडालगो, इरोस, अलवर्ट, अतिण्डा एयोर, सहसा टकराकर कभी भी धरती के जीवन में उथल-पुथल मचा सकते हैं।आज से अड़तालीस वर्ष पूर्व 1937 में एक बार ऐसा ही तहलका मचा था। तब इकोरस का ही एक दूसरा भाई हर्मेस अपनी आंखें लाल करके दौड़ा था। खगोलशास्त्रियों ने निश्चित आशंका व्यक्त की थी कि वह भी पृथ्वी से टकरा सकता है यदि तब वह घटना घटित हो गई होती तो आज पृथ्वी की कुल आबादी एक और दस हजार के बीच होती। एक नये इतिहास की प्रस्तावना इन दिनों चल रही होती। पर बेचारा हर्मेस पृथ्वी से पांच लाख मील पास तक ही आया और जब उसने देखा पृथ्वी वासी बहुत डर गये तो उसे भी दया आ गई और उसने अपना मार्ग बदल दिया। पृथ्वीवासियों ने सन्तोष की सांस ली। अभी इन उल्कापिण्डों की आंख मिचौनी चल रही है। सन् 1983 में इकोरस एक बार फिर लौटा था। किन्तु टकराने जैसी परिस्थिति नहीं बनी। परिधि का स्पर्श करते हुए दूसरी ओर चला गया। इसकी आंख मिचौनी समाप्त नहीं हुई है। कभी आ टकराया तो 20 करोड़ मेगाटन के परमाणु बम फटने जैसा विस्फोट उत्पन्न करेगा और जहां कहीं टकरायेगा वहां का स्वरूप ही बदल देगा। सारी पृथ्वी उससे प्रभावित होगी।इकोरस का साथी एक और उल्का पिण्ड है—तोरो। यह आकार में छोटा है तो भी ऐसा है कि टकराने पर कोई भयानक दुर्घटना खड़ी कर सके। यह पांच किलो मीटर व्यास का है, तो भी तेजी से गिरने पर पृथ्वी की धुरी तक को हिला सकता है और उतने भर से जल, थल का वर्तमान नक्शा बदल सकता है। मौसम चक्र में असाधारण परिवर्तन हो सकता है।भूतकाल में ऐसी 8 उल्कायें समय-समय पर पृथ्वी से टकरा कर उसे भारी क्षति पहुंचा चुकी हैं। हडसन की खाड़ी के किनारे का प्रख्यात गोल गड्डा, जर्मन में 17 मील चौड़ा राइन केसल का गड्ढा इन उल्काओं से उत्पन्न हो सकने वाली विभीषिकाओं का परिचय देते हैं। यदि ऐसी उल्कायें ध्रुवीय क्षेत्र पर गिर पड़े तो पृथ्वी का सत्यानाश ही हो जायेगा। ध्रुवों की सतह पिघल पड़ेगी और समुद्र में बाढ़ आने से धरती के अनेक भागों में जल प्रलय का दृश्य उपस्थित होगा। चन्द्रमा पर वायुमण्डल झीना है इसलिए वहां उल्कायें आसानी से गिरती रहती हैं अस्तु उन्होंने सुन्दर चन्द्रमा को खाड़ खड्डों वाला बना दिया है।यदि पृथ्वी सर्वनाश के लिये ही बनायी गयी होगी तो विधाता ने इसे इतना सुन्दर, प्रकृति के सौन्दर्य से अभिपूरित जीव धारियों से लदा ग्रह न बनाया होता। यहां भी जीवन न होता। इतनी उल्काएं व क्षुद्र ग्रह, धूमकेतु आते व जाते रहे हैं। इनके अन्तर्ग्रही प्रभाव धरती पर अवश्य पड़ते हैं। ज्योतिर्विज्ञान की चिरपुरातन विधा में इन्हीं से आत्म रक्षा की व्यवस्था की चर्चा होती है। मनुष्य को डरने घबराने के स्थान पर सुरक्षा के उपाय करना चाहिए।पदार्थ विज्ञान के साथ अध्यात्म विज्ञान को जोड़ने से ही समग्र तत्व ज्ञान का सृजन होता है। उसी समन्वय के आधार पर जो जानने योग्य है उसे जाना जा सकता है और जो पाने योग्य है उसे पाया जा सकता है। इन दिनों की विकट समस्याओं में यदि परोक्ष जगत की विकृतियों को समझने सुधारने का प्रयत्न किया जाय तो उसे दूरदर्शी विवेकशीलता ही कहा जायगा। फुन्सियां अच्छी न हो रही हों तो रक्त विकार खोजने तक दृष्टि दौड़नी चाहिए। मच्छरों को भगाते न बन रहा हो तो सड़ी कीचड़ के खोजने और हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। पतन और पराभव वस्तुतः भ्रान्तियों और विकृतियों की परोक्ष गड़बड़ का ही प्रतिफल होता है।जिनकी परोक्ष पर, अदृश्य पर विश्वास कर सकने योग्य समझ मिल सकी है उन्हें वर्तमान की न सुलझाने योग्य गुत्थियों के पीछे अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता खोजनी होगी। इसी का प्रभाव है कि लोक चिन्तन में अवांछनीयता बढ़ रही है और प्रकृति प्रकोपों का दौर चल पड़ा है। वर्षा होती है तो धरती पर हरी चादर बिछती है। जल जंगल एक होते हैं। सर्दी का पतझड़ और गर्मी की जलन का सामना करते समय उनका कारण अदृश्य में ही खोजना पड़ता है। दृश्य के प्रत्यक्ष से निपटने की सामर्थ्य जब कुण्ठित हो चले तो परोक्ष की ओर दृष्टि डालनी चाहिए। रिसते नासूर के मूल में घुसे हुये कांटे का कुरेदना चाहिए। कठपुतली स्वयं कहां नाचती है। उनसे कौतूहल कराने में बाजीगर की उंगलियां ही चमत्कार दिखाती रहती हैं।इन दिनों के प्रकृति प्रकोप एवं पतन-पराभव, विनाश-विग्रह के पीछे अदृश्य जगत को स्थिति को समझने का प्रयत्न होना चाहिए। साथ ही उसे सुधारने सन्तुलित करने का भी व्यक्ति का स्तर और सृष्टि का भविष्य जिस प्रकार चिन्तनीय बनता जा रहा है, उसे महामारी प्रवाह की तरह किसी अदृश्य विष वमन का परिणाम समझा जा सकता है। अच्छा हो प्रत्यक्ष को ही सब कुछ न समझकर परोक्ष की ओर भी दृष्टि दौड़ाई जाय और उस क्षेत्र में संव्याप्त अशुभ से निपटने तथा शुभ का परिपोषण करने के लिए उपाय सोचे और प्रयास किये जायं। न सुलझने वाली गुत्थियों को सुलझाने के लिए हमारा ध्यान परोक्ष की ओर मुड़े और अदृश्य के सन्तुलन का प्रयास चले तो उसे यथार्थ को अवलम्बन ही लेना होगा।***
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