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Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान

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Language: HINDI
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विपत्तियों का उद्भव अदृश्य जगत से

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वर्तमान युग की समस्याओं के उत्पन्न होने के कारण बाहरी लगते हैं, परन्तु उनके मूल कारण बहुत गहरे हैं। पेड़ जितना बड़ा होता है उसकी जड़ें उतनी ही गहरी भी होती हैं। इन जड़ों से ही पेड़ के तने, शाखा और पल्लवों को खुराक मिलती है। वृक्ष पर लगे फल फूल बाहर वृक्ष के माथे पर लगे दीखते हैं लेकिन ये कहीं बाहर से आये या उतरे नहीं होते। वृक्ष का अस्तित्व, वैभव और विस्तार जड़ों के कारण ही बाहर बना फैला रहता है और जड़ों को आंखों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता, क्योंकि वे जमीन के अन्दर होती हैं।भगवान कृष्ण ने गीता में इस जगत को ऊर्ध्वमूल अधः शाखा वाला वृक्ष कहा है। जिसका अर्थ जड़ें ऊपर और पेड़ शाखाएं नीचे होती हैं। यह उक्ति विचित्र पहेली सी लगती है, पर विचारपूर्वक इसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि उक्ति यथार्थ है। बादल ऊपर बरसते और जमीन पर नमी तथा शीतलता बनाये रहते हैं। पृथ्वी पर दृश्यमान सम्पदा वास्तव में आकाश का ही अनुदान है। सृष्टि के आरम्भ में धरती आग का जलता हुआ प्रचण्ड गोला था। उस पर आच्छादित रही गैस मिलकर पानी बनीं और बरसीं। उसी से समुद्र बना तथा समुद्र का पानी भाप बनकर बादल बनने का सिलसिला चल पड़ा। पृथ्वी पर पाया जाने वाला यह जल ही प्रकारान्तर से प्राणियों के जीवन का आधार है। वह मिलता तो धरती पर ही है पर वास्तव में वह सृष्टि के आरम्भ से ही आकाश का वैभव था और अन्त तक भी उसी का अनुदान बना रहेगा।सूरज की सन्तुलित गर्मी पहुंचने से पृथ्वी पर जीवन का विकास आरम्भ हुआ। यह गर्मी ऊपर सूरज से उतरती है और उसी से पृथ्वी धधकती रहती है, छूने पर भी गरम लगती है, चूंकि पृथ्वी गरम लगती है अतः सामान्य बुद्धि गर्मी और प्रकाश को पृथ्वी की सम्पदा कह सकती है लेकिन वास्तविकता यह है कि व्याप्त ऊष्मा और ऊर्जा का स्रोत सूर्य ही है। उसी के अनुदान से पृथ्वी पर वनस्पति के रूप में जीवन उगता और प्राणियों के रूप में चलता फिरता दिखाई देता है। सूर्य किरणें यदि असन्तुलित हो उठें तो यह धरती अग्निपिंड या शीतपिण्ड बन कर पूरी तरह निर्जीव स्थिति में जा पहुंचेगी।पृथ्वी पर प्राप्त होने वाली अगणित प्रकार की संपदा क्षमता और विशेषताएं उसकी अपनी ही प्रतीत होती हैं लेकिन विशेषज्ञों का निष्कर्ष है कि यह सब दूसरे ग्रहों से मिला हुआ अनुदान है जो ध्रुवों के चुम्बकत्व से अर्जित और संग्रहीत किया जाता रहता है। यदि पृथ्वी को अन्तर्ग्रही अनुदान न मिले होते तो वह अन्य निर्जीव ग्रहों की भांति इस वैभव से शून्य और निस्तेज स्थिति में पड़ी रहती।फसल उगाने और वनस्पति के रूप में खाद्य पदार्थों का उपयोग करने की प्रक्रिया धरती की कृपा से ही सम्पन्न की गई लगती है। लेकिन सचाई कुछ और ही है। अन्न और जल से भी अधिक प्राणियों को जीवन निर्वाह के लिए वायु की आवश्यकता रहती है। अन्न और जल के बिना तो फिर भी कुछ समय तक जीवित रहा जा सकता है लेकिन हवा के बिना एक क्षण भी गुजारा नहीं। प्राणियों को खुराक के द्वारा जितना पोषण मिलता है उससे हजार गुना अधिक पोषण हवा से प्राप्त होता है। आंखों से हवा की आवश्यकता और महत्ता न दिखाई दे तो क्या हुआ वस्तुस्थिति तो यथावत् बनी ही रहती है।पिंड ब्रह्मांड का छोटा रूप है और परमाणु के अन्तःक्षेत्र में काम करने वाले घटकों के रूप में सौर मंडल की झांकी देखी जा सकती है। ब्रह्माण्ड से भरा चेतना परब्रह्म कहा जाता है, जीव उसी का छोटा घटक है। जीव और ब्रह्म के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान का क्रम जितना निर्वाध चलता रहता है उसी अनुपात से जीव धारी को समर्थ और शक्ति सम्पन्न पाया जा सकता है इसी श्रृंखला पर जीव का प्रगति क्रम अवलम्बित है। इसलिए जीव और ईश्वर के बीच आदान-प्रदान का द्वार खोल लेना, उस मार्ग के अवरोधों को हटा देना परम पुरुषार्थ माना गया है। यही कारण है कि इस दिशा में किये गये साधनात्मक प्रयासों को सर्वोच्च माना गया है। उद्योग व्यवसाय, शिल्पकला, साहित्य, शोध आदि के प्रयास निस्संदेह महत्वपूर्ण हैं पर आत्मा और परमात्मा के मध्य प्रभावी विनियोग स्थापित करने के प्रयोगों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। ऊर्ध्वमूल अधः शाखा वाले अश्वथ का यही रहस्य है जिसे देखने जानने वाले समझते और मानते थे तथा न देखने वाले अमान्य ठहराते हैं।पृथ्वी की सतह पर अपार वैभव बिखरा है और उस की परतों में अकूत सम्पदा बिखरी पड़ी है लेकिन अन्तरिक्ष में संव्याप्त अदृश्य जगत की सम्पन्नता और गरिमा के आगे उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर पदार्थ और ऊर्जा यही दो घटक प्रधान हैं। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में संव्याप्त समृद्धि को वायुमंडल और वातावरण इन दो रहस्यों में बांटा जा सकता है। वायुमंडल प्रकृति प्रधान है और वातावरण चेतनात्मक। वायु मंडल से वस्तुओं की मात्रा और स्तर की स्थिति का सम्बन्ध है तो वातावरण से मनुष्य की आकांक्षा और विचारणा प्रभावित होती हैं।मनुष्य को एक सीमा तक स्वतंत्र माना गया है। उसकी अपनी पुरुषार्थ परायणता ही उसे स्वतन्त्र बनाती और सिद्ध करती है, लेकिन वातावरण का दबाव आंधी तूफान की तरह पड़ता है और उसके आवेग से जनमानस अमुक दिशा में दौड़ता उड़ता दिखाई देता है। अंधड़ के साथ तिनके और पत्ते अपने आप उड़ते चले जाते हैं, पानी की धारा में हलका भारी सब कुछ बहने लगता है। उसी प्रकार अन्तरिक्ष में व्याप्त वातावरण का चेतनात्मक प्रभाव जनमानस को किसी दिशा विशेष में अनायास ही धकेलता और घसीटता चलता है।वातावरण के चेतनात्मक प्रभाव की तरह वायुमंडल के उतार चढ़ावों को भी विश्व की सम्पत्ति और परिस्थिति पर पड़ने वाले प्रभावों के रूप में आये दिन देखा जा सकता है। वायु मण्डल की असन्तुलित हलचलों के कारण ही उत्पन्न हुई अतिवृष्टि और अनावृष्टि से समस्त प्राणी जगत बुरी तरह प्रभावित होता रहता है। मौसम यदि प्रतिकूल हो तो उसका दुष्प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। उस स्थिति में दुर्बलता और रुग्णता का ऐसा दौर आता है कि स्वास्थ्य सम्भाले नहीं सम्भलता। मलेरिया, कालरा, मस्तिष्क ज्वर, आदि का ऐसा दौर चलता है कि रोके नहीं रुकता। लू लगने और निमोनिया होने जैसी बीमारियों में मनुष्य का कम दोष होता है मौसम की प्रतिकूलता अपेक्षाकृत अधिक कारण बनती है।प्रकृति की सहायता वायुमण्डल की अनुकूलता के रूप में प्राप्त होती है। कहा जाता है कि सतयुग में प्रकृति अनुकूल रहती थी और मनुष्य की आवश्यकता के अनुरूप वस्तुओं में कभी कोई कमी वेशी नहीं पड़ती थी। उस समय मौसम सन्तुलित रहता था, इससे प्रचुर मात्रा में आवश्यक पदार्थ उत्पन्न होते थे। खाद्य पदार्थों में पोषक तत्व प्रचुर परिमाण में भरे रहते थे। वर्षा सन्तुलित होती थी न अतिवृष्टि का डर था न अनावृष्टि की आशंका रहती थी। शीत और आतप में भी असन्तुलन नहीं होता था। श्वांस द्वारा ग्रहण की जाने वाली वायु में पोषक तत्वों का परिमाण और स्तर बढ़ा चढ़ा रहता था। ऐसी ऐसी अनेकानेक अनुकूलताएं रहने के कारण प्राणि स्वस्थ, हृष्ट पुष्ट, प्रखर और तेजस्वी रहते थे। यह समर्थता शरीर तक ही सीमित नहीं रहती थी वरन् उसके अन्तराल में रहने वाले मन मस्तिष्क को भी प्रभावित करती थी। कहा भी गया है स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निवास रहता है। शरीर रोगी और व्याधिग्रस्त हो तो मनः क्षेत्र में भी रुग्णता और दुर्बलता आयेगी ही।वायुमण्डल का स्वास्थ्य पर कितना अनुकूल और कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यह एक तथ्य से और अच्छी तरह समझा जा सकता है। संसार के विभिन्न भागों में बसे हुए मनुष्य तथा प्राणी स्वास्थ्य की दृष्टि से कहीं बहुत अच्छी तो कहीं बहुत बुरी दशा में रहते हैं। इसमें प्राणियों के पुरुषार्थ को श्रेय या दोष कम ही दिया जा सकता है, वायुमण्डल का प्रभाव ही इसमें अधिक जिम्मेदार है। भारत में पंजाब और बंगाल के निवासियों का यदि स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया जाय तो आकाश पाताल जितना अन्तर दिखाई देगा। उसके लिए इन क्षेत्रों के निवासी उतने अधिक दोषी या श्रेय भागी नहीं हैं जितना कि प्रकृति का प्रभाव उन्हें इन परिस्थितियों में रहने के लिए विवश करता है। आहार-विहार में थोड़ा बहुत अन्तर तो सर्वत्र पाया जाता है किन्तु किसी क्षेत्र का प्रखर और किसी क्षेत्र का दुर्बल होना दैवयोग ही कहा जायेगा।रूस के एक प्रान्त उज़्बेकिस्तान में संसार में सबसे अधिक आयु तक जीवित रहने वाले व्यक्ति रहते हैं। इन दिनों वहां के निवासियों की औसत आयु सौ वर्ष से अधिक है। बहुत से लोग तो डेढ़ सौ वर्ष की आयु को पार कर चुके हैं और अभी स्वस्थ हालत में हैं। कितनों के ही पुत्र पौत्रों और प्रपोत्रों की संख्या उनके जीवन काल में ही एक-सौ से अधिक जा पहुंची है। उनके आहार-विहार में क्या विशेषता है, जिसके कारण दीर्घायुष्य का यह सुअवसर उन्हें सामूहिक रूप से प्राप्त हुआ है। इस तथ्य की गहराई से खोजबीन करने पर भी ऐसी कोई बात सामने नहीं आई जिससे इसे चमत्कार का कारण कहा जा सके। वहां रहने वाले लोग भी अन्यत्र निवास करने वालों की तरह ही सामान्य जीवनयापन करते हैं। अन्य क्षेत्र के निवासियों जैसा ही उनका आहार-विहार है। नशेबाजी जैसे दोष उनमें भी मौजूद हैं। ऐसी दशा में पुरुषार्थ संयम आदि की गरिमा स्वीकार करते हुए भी मात्र उन्हें ही स्वास्थ्य उपलब्धि का एक मात्र कारण नहीं ठहराया जा सकता। समाधान के रूप में यही तथ्य सामने आता है कि प्रकृति का अनुदान ही कारण है। विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाने वाला वायु मण्डल ही उस क्षेत्र के सामूहिक स्वास्थ्य को निर्धारित करता है। भारत में बिहार, बंगाल और उड़ीसा प्रान्त के निवासियों की स्वास्थ्य स्थिति अन्य क्षेत्रों में निवास करने वालों की अपेक्षा बुरी है। इस भिन्नता के कारण ही वायु मण्डल की भिन्नता स्वीकार करनी ही पड़ती है। बड़े लोग अक्सर पहाड़ी या उपयुक्त स्थानों पर वायु सेवन के लिए जाते और ठहरते हैं। उसके कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाला प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।वायुमण्डल के अलावा मानवी काया पर सामूहिक रूप से वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अनुसन्धान करने पर और भी चौंकने वाले निष्कर्ष सामने आते हैं। सतयुग में मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों के शरीर विशालकाय भी होते थे और बलिष्ठ भी। पीछे उनमें गिरावट आती चली गई। इसका क्या कारण रहा? परिवर्तन के दिनों में प्राणियों ने क्या अच्छाई अपनाई और क्या बुराई? बढ़ाई? इसका अध्ययन करने पर प्रत्यक्ष तथ्यों की सहायता अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही मिलती है। दोष या श्रेय किसी को भी दिया जा सकता है, पर तथ्य यह है कि प्रकृति क्रम के नियोजित चक्र के सामने प्राणी असहाय ही प्रतीत होते हैं। लगता है उन्होंने भला-बुरा उगाया नहीं, प्रकृतितः उन पर शाप या वरदान अनायास ही लदते-बरसते रहे हैं।वस्तु स्थिति का विश्लेषण सूक्ष्म दर्शियों द्वारा ही सम्भव है। वे मानवीय पुरुषार्थ का महत्व स्वीकारते हैं, फिर भी अन्ततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वायुमण्डल का प्रभाव प्राणि जगत की प्रगति एवं अवगति के लिए बड़ी सीमा तक उत्तरदायी रहा है। प्राणि जगत की बलिष्ठता ही नहीं, वृक्ष वनस्पतियों, खनिज पदार्थों के आकार, स्तर एवं गुण धर्म पर भी वायुमण्डल के परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है। प्रागैतिहासिक काल में जो स्थिति थी वह पीछे नहीं रही। बीच-बीच में उत्थान पतन के दौर भी आते रहे। इसमें पदार्थों को, वनस्पतियों को जीवधारियों को निजी रूप से दोषी नहीं माना जा सकता है। परिस्थितियां ही कारण रही हैं और परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव में व्यापक प्रभाव उत्पन्न करने वाले अविज्ञात कारण ही मदारी की तरह उंगली हिलाते और कठपुतली नचाते रहे थे।यही बात वातावरण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। प्राचीनकाल में मानवी चिंतन का स्तर उच्चस्तरीय था। उनकी कामनाएं, रुचियां और महत्वाकांक्षाएं उच्चस्तरीय थीं। उस समय के लोग ऊंचा सोचते और ऊंचा चाहते थे। फलतः उनके क्रियाकलापों में भी पग-पग पर आदर्शों का पुट परिलक्षित होता था। ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव में शालीनता, चरित्र में सज्जनता और व्यवहार में उदारता का घुला रहना स्वाभाविक है। इसी स्तर के लोग धरती के देवता कहे जाते हैं। सम्भवतः ऐसे ही महामानवों, की देवताओं की परिकल्पना दिव्य लोकवासी देवताओं के रूप में की गई होगी, और पीछे इन्हीं देव मान्यताओं का दर्शन एक स्वतन्त्र शास्त्र बन गया होगा।जो भी हो, यह मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि भावना और आस्था की दृष्टि से सतयुग के मनुष्य अब की अपेक्षा कई गुनी उत्कृष्टता से सुसम्पन्न थे इसी कारण उनका स्वभाव, पारस्परिक व्यवहार और सामान्य क्रिया-कलाप ऐसा होता था कि उससे सर्वत्र सौजन्य और सौमनस्य भरा-पूरा बना रहा। इसी कारण भारत को देवभूमि कहा जाता रहा तथा उसे ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ बताया जाता रहा है। इस देश के निवासियों का उच्चस्तरीय व्यक्तित्व, चरित्र चिन्तन एवं क्रिया-कलाप ही इस देश को इस गौरव गरिमा के स्तर तक पहुंचाने में समर्थ रहा। प्राचीन भारत के देव-मानवों ने अपने आदर्श कर्तृत्व और उत्कृष्ट चिन्तन से न केवल अपने देश को समृद्ध, समर्थ और सुसंस्कृत बनाया वरन् अपने अनुदानों से विश्व के कोने-कोने में बसे मनुष्यों को भी नव-जीवन प्रदान किया। प्राचीनकाल की सुखद परिस्थितियों का कारण उस समय के लोगों की उत्कृष्ट मनःस्थिति ही कही जानी चाहिए।इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस ऐतिहासिक गौरव गरिमा का श्रेय तो उस समय के हर नागरिक को दिया जा सकता है, पर सचाई यह है कि उन दिनों समष्टिगत वातावरण ही कुछ ऐसा था जिसके प्रवाह में ऊंचा सोचने और ऊंचा करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। प्रवाह चीर कर उल्टा चलना कठिन होता है। आज निकृष्टता के प्रवाह में व्यक्ति विशेष को अपने निजी मनोबल के सहारे उत्कृष्टता अपनाना और उसे अन्त तक मजबूती के साथ पकड़े रहना अति कठिन पड़ता है। ऐसा पौरुष कोई अपवाद ही दिशा पाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्राचीन काल में भी भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण के लिए असाधारण दुस्साहस ही करना होता होगा, अन्यथा वातावरण के दबाव में सहज ही वैसा कुछ कर सकना सहज नहीं, अतीव दुष्कर ही था।इन दिनों आकांक्षाओं और विचारणाओं का प्रवाह मानवी आदर्शों की विपरीत दिशा में उद्दण्ड दिशाहीन अन्धड़ की तरह बह रहा है। इससे अनेकानेक परिष्कृत मस्तिष्क भी प्रभावित हो रहे हैं। अनुकरण के रूप में हिप्पीकट बाल और नट-नटनियों की-सी वेशभूषा लोकप्रिय हो रही है। नई पीढ़ी उसी फैशन को आंखें मूंदकर अपना रही है। आततायी उद्दण्डता को शौर्य साहस का परिचायक माना जाने लगा है। मर्यादाएं तोड़ने, नीति नियमों को भंग करने, आतंक फैलाने और विग्रह के लिए उकसाने वाले लोग रातों रात नेता बन जाते हैं। मात्र लेखनी और वाणी से ही दुष्प्रवृत्तियों का विरोध हो रहा है, व्यवहार में तो उनकी बढ़ोतरी ही होती जाती है। यह सब क्यों है? इसके लिए किन किन को दोषी ठहराया जाय? यह गणना करने का जिन्हें अवकाश हो वे वैसा कर भी सकते हैं, पर वास्तविकता जाननी हो तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि चिंतन की दिशाधारा को प्रभावित करने वाला अदृश्य वातावरण ही कुछ विचित्र है और उसी से निष्कृष्टता को बहुत कुछ परिपोषण मिल रहा है।इन विपन्नताओं के लिए वायुमण्डल को और विभीषिकाओं के लिए वातावरण में बढ़ते जाने वाले अवांछनीय तत्वों को कारण माना जाय और उसके निवारण का ठोस उपाय सोचा जाय, सही मार्ग निकाला जाय, तभी परिस्थितियों में बदलाव सम्भव हो सकेगा।
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