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Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

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ईश्वर है या नहीं ?

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नास्तिकवाद का कथन यह है कि- ''इस संसार में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं ।। क्योंकि उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष उपकरणों से सिद्ध नहीं होता ।। अनीश्वदवादियों की मान्यता है कि जो कुछ प्रत्यक्ष है, जो कुछ विज्ञान- सम्मत है केवल वही सत्य है ।। चूँकि वैज्ञानिक आधार पर ईश्वर की सत्ता का प्रमाण नहीं मिलता इसलिए उसे क्यों मानें?

इस प्रतिपादन पर विचार करत हुए हमें यह सोचना होगा कि अब तक जितना वैज्ञानिक विकास हुआ है क्या वह पूर्ण है? क्या उसने सृष्टि के समस्त रहस्यों का पता लगा लिया है? यदि विज्ञान को पूर्णता प्राप्त हो गई होती तो शोध कार्यों में दिन- रात माथापच्ची करने की वैज्ञानिकों को क्या आवश्यकता रह गई होती?

सब बात यह है कि विज्ञान का अभी अत्यल्प विकास हुआ है ।। उसे अभी बहुत कुछ जानना बाकी है ।। कुछ समय पहले तक भाप, बिजली, पेट्रोल, एटम, ईथर आदि की शक्तियों का कौन जानता था, पर जैसे- जैसे विज्ञान में प्रौढ़ता आती गई यह शक्तियाँ खोज निकाली गईं ।। यही जड़ जगत की खोज है । चेतन जगत सम्बन्धी खोज तो अभी प्रारंभिक अवस्था में ही है ।। बाह्य मन और अन्तर्मन की गतिविधियों को शोध से ही अभी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं है ।। यदि हम अधीर न हों तो आगे चलकर जब चेतन जगत के मूल- तत्त्वों पर विचार कर सकने की क्षमता मिलेगी तो आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व भी प्रामाणिक होगा ।। ईश्वर अप्रामाणिक नहीं है ।। हमारे साधन ही स्वल्प हैं जिनके आधार पर अभी उस तत्व का प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है ।।

पचास वर्ष पूर्व जब साम्यवादी विचारधारा का जन्म हुआ था तब वैज्ञानिक विकास बहुत स्वल्प मात्रा में हो पाया था ।। उन दिनों सृष्टि के अंतराल में काम करने वाली चेतन सत्ता का प्रमाण पा सकना अविकसित विज्ञान के लिए कठिन था ।। पर अब तो बादल बहुत कुछ साफ हो गये हैं ।। वैज्ञानिक प्रगति के साथ- साथ मनीषियों के लिए चेतन- सत्ता का प्रतिपादन कुछ कठिन नहीं रहा था ।। आधुनिक विज्ञानवेत्ता ऐसी संभावना प्रकट करने लगे हैं कि निकट भविष्य में ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक आधार पर भी प्रामाणिक हो सकेगा ।। जो आधार विज्ञान को अभी प्राप्त हो सके हैं वे अपनी अपूर्णता के कारण आज ईश्वर का प्रतिपादन कर सकने में समर्थ भले ही न हों पर उनकी सम्भावना से इंकार कर सकना उनके लिए भी शक्य नहीं है ।।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक रिचार्डन से लिखा है- ''विश्व की अगणित समस्याओं तथा मानव की मानसिक प्रतिक्रियाएँ वैज्ञानिक साधनों, गणित तथा यन्त्रों के आधार पर हल नहीं होतीं।। भौतिक विज्ञान से बाहर भी एक अत्यन्त विशाल दुरूह अज्ञात क्षेत्र रह जाता है जिसे खोजने के लिए कोई दूसरा साधन प्रयुक्त करना पड़ेगा ।। भले उसे अध्यात्म कहा जाय या कुछ और ।''

वैज्ञानिक मैकब्राइट का कथन है- इस विश्व के परोक्ष में किसी ऐसी सत्ता के होने की पूरी सम्भावना है जो ज्ञान और इच्छायुक्त हो ।। विज्ञान की वर्तमान इस मान्यता का बदलने के लिए हमें जल्दी ही बाध्य होगा पड़ेगा कि- ''विश्व की गतिविधि अनियात्रिक और अनिश्चित रूप से स्वयमेव चल रही है ।''
विज्ञान डॉ. मर्डेल ने लिखा है- ''विभिन्न धर्म, सम्प्रदायों में ईश्वर का जैसा चित्रण किया गया है वैसा तो विज्ञान नहीं मानता ।। पर ऐसी सम्भावना अवश्य है कि अणु- जगत् के पीछे कोई चिंतन शक्ति काम कर रही है ।। अणु- शक्ति उसे चलाने वाली एक प्रेरणा शक्ति का अस्तित्व प्रतीत होता है ।। इस सम्भावना के सत्य सिद्ध होने से ईश्वर का अस्तित्व भी प्रामाणित हो सकता है ।''

विख्यात विज्ञानी इंगोल्ड का कथन है कि- '' जो चेतना इस सृष्टि में काम कर रही है उसका वास्तविक स्वरूप समझने में अभी हम असमर्थ हैं ।। इस सम्बन्ध में हमारी वर्तमान मान्यताएँ अधूरी अप्रामाणिक और असंतोषजनक है ।। अचेतन अणुओं के अमुक प्रकार मिश्रण से चेतन प्राणियों के काम करने वाली चेतना उत्पन्न हो जाती है यह मान्यता संदेहास्पद ही रहेगी ।''

विज्ञान अब धीरे- धीरे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने की स्थिति में पहुँचता जा रहा है ।। जान अटुअर्ट मिल का कथन सचाई के बहुत निकट है कि- ''विश्व की रचना में प्रयुक्त हुई नियमबद्धता और बुद्धिमत्ता को देखते हुए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जा सकती है ।'' कान्ट, मिल, हेल्स, होल्टज, लाँग, हक्सले, कम्टे आदि वैज्ञानिकों ने ईश्वर की असिद्धि के बारे में जो कुछ लिखा है वह बहुत पुराना हो गया, उनकी ये युक्तियाँ जिनके आधार पर ईश्वर का खण्डन किया जाया करता था अब असामयिक होती जाती हैं ।। डॉ. पिलन्ट ने अपनी पुस्तक 'थीइज्म' में इन युक्तियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण में ही खण्डन करके रख दिया है ।।

भौतिक विज्ञान का विकास आज आशाजनक मात्रा में हो चुका है ।। यदि विज्ञान की यह मान्यता सत्य होती कि- ''अमुक प्रकार के अणुओं के अमुक मात्रा में मिलने से चेतना उत्पन्न होती है ।'' तो उसे प्रयोग- शालाओं में प्रामाणित किया गया होता ।। कोई कृत्रिम चेतन प्राणी अवश्य पैदा कर लिया गया होता अथवा मृत शरीरों को जीवित कर लिया गया होता ।। यदि वस्तुतः अणुओं के सम्मिश्रण पर ही चेतना का आधार रहा होता तो मृत्यु पर नियंत्रण करना मनुष्य के वश से बाहर की बात न होती ।। शरीरों में अमुक प्रकार के अणुओं को प्रवेश कर देना तो विज्ञान के लिए कोई बड़ी बात नहीं है ।। यदि नया शरीर न भी बन सके तो जीवित शरीरों का मरने से बच्चा सकना तो अणु विशेषज्ञों के लिए सरल होना ही चाहिए था?

विज्ञान का क्रमिक विकास हो रहा है ।। उसे अपनी मान्यताओं को समय- समय पर बदलना पड़ता है ।। कुछ दिन पहले तक वैज्ञानिक लोग पृथ्वी की आयु केवल सात लाख वर्ष मानते थे और भारतीय ज्योतिर्विदो की उस उक्ति का उपहास उड़ाते थे जिसके अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब ६७ करोड़ वर्ष मानी गई है ।। अब रेडियम धातु तथा यूरेनियम नामक पदार्थ के आधार पर जो शोध हुई है उससे पृथ्वी की आयु लगभग दो अरब वर्ष सिद्ध हो रही है और वैज्ञानिकों को अपनी पूर्व मान्यताओं को बदलना पड़ रहा है ।।

 विज्ञान ने सृष्टि के कुछ क्रिया- कलापों का पता लगा लिया है ।। क्या हो रहा है इसकी कुछ जानकारी उन्हें मिली है ।। पर कैसे हो रहा है? यह रहस्य अभी भी अज्ञात बना हुआ है ।। प्रकृति के कुछ परमाणुओं क मिलने से प्रोटोप्लाज्म- जीवन तत्व बनता ही है, पर उस बनने के पीछे कौन नियम काम करते हैं, इसका पता नहीं चल पा रहा है ।। इस असमर्थता की खोज को यह कहकर आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि- संसार में चेतन सत्ता कुछ नहीं है ।।

जार्ज डार्विन ने कहा है- ''जीवन की पहेली आज भी उतनी ही रहस्यमय है जितनी पहले कभी थी ।'' प्रो.जे.ए.टामसन ने लिखा है- ''हमें यह नहीं मालूम कि मनुष्य कहाँ से आया? कैसे आया? और क्यों आया? और क्यों गया? इसके प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होते और न यह आशा ही है कि विज्ञान इस सम्बन्ध में किसी निश्चयात्मक परिणाम पर पहुँच सकेगा ।''

''आन दी नेचर, आफ दी फिजीकर वल्र्र्ड'' नामक ग्रन्थ में वैज्ञानिक एडिंगटन न लिखा है- '' हम इस भौतिक जगत से परे किसी सत्ता के बारे में ठीक तरह कुछ जान जगत से बाहर भी कोई अज्ञात सत्ता कुछ रहस्यमय कार्य करती रहती है ।''

विज्ञानवादी इतना कह सकते हैं कि जो स्वल्प साधन अभी उन्हें प्राप्त हैं उनके आधार पर ईश्वर की सत्ता का परिचय वे प्रान्त नहीं कर सके पर इतना तो उन्हें भी स्वीकार करना पड़ना है कि जितना जाना जा सकता उससे असंख्य गुना रहस्य अभी छिपा पड़ा है ।। उसी रहस्य में एक ईश्वर की सत्ता भी है ।। नवीनतम वैज्ञानिक उसकी सम्भावना स्वीकार करते हैं ।। वह दिन भी दूर नहीं जब उन्हें उस रहस्य के उद्घाटन का अवसर भी मिलेगा ।। अध्यात्म भी विज्ञान का ही अंग है और उसके आधार पर आत्मा- परमात्मा तथा अन्य अनेकों अज्ञात व्यक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर सकना भी सम्भव होगा ।।

ईश्वर दिखाई नहीं देता इसलिए उसे न माना जाय यह कोई युक्ति नहीं है ।। अनेकों वस्तुएँ ऐसी हैं जो आँख से नहीं दिखती फिर भी उन्हें आधारों से अनुभव करते और मानते हैं।। कोई वस्तु बहुत दूर होने से दिखाई नहीं पड़ती, पक्षी जब आकाश में बहुत ऊँचा उड़ जाता है तो दीखता नहीं ।। कोई वस्तु नेत्रों के बहुत समीप हो तो भी वह नहीं दीखती ।। अपने पलक या आँखों में लगा हुआ काजल अपने को कहाँ दीखता है? यह नेत्र न हों, कोई व्यक्ति अन्धा हो तो भी उसे वस्तुएँ हैं या नहीं ।। चित्त उद्विग्न हो, मन कहीं दूसरी जगह पड़ा हो, किसी समस्या से चिंतन में लगा हो तो आँख के आगे से कोई चीज गुजर जाने पर भी वह दिखाई नहीं देती ।। बहुत सूक्ष्म वस्तुएँ भी कहाँ दिखाई देती हैं? परमाणु या रोग कीटाणु बिना सूक्ष्मदर्शक यंत्र के दीखते नहीं ।। किसी पर्दे की आड़ में रखी हुई, जमीन में गढ़ी हुई वस्तुओं को भी आँख कहाँ देख पाती है? सूर्य के प्रकाश के कारण दिन में तारे नहीं दीखते ।। पानी में नमक घुल जाता है तो फिर नमक दीखता नहीं, फिर भी पानी में उसका अस्तित्व तो रहता ही है।।

दूध में यद्यपि मक्खन की सत्ता होती है, परन्तु वह दिखाई नहीं पड़ता ।। जल में नमक घुल जाता है तो दिखलाई नहीं पड़ता ।। परन्तु जल में उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा नहीं कहा सकता ।। मित्र के घर जाने पर यदि वहाँ मित्र नहीं मिलता तो हम उसका अभाव नहीं मानते ।। इसी प्रकार वस्तु के प्रत्यक्षतः प्राप्त न होने से ही उसका सर्वथा अभाव नहीं मानना चाहिए ।।

ईश्वर के अस्तित्व से केवल इसलिए मना करना कि वह प्रत्यक्ष प्रमाण तथा आज के अविकसित विज्ञान के आधार पर सिद्ध नहीं होता, कोई महत्त्वपूर्ण कारण नहीं है ।। मानव- जीवन से सम्बन्धित अनेकों प्रश्नों का उत्तर पदार्थ- विज्ञान से नहीं अपितु उस अध्यात्म- विज्ञान से सुलझता है, जिसे आज हम पदार्थवादी बनकर विस्मृत करते जा रहे हैं ।। ईश्वर का अस्तित्व भी अध्यात्म- विज्ञान से ही सिद्ध होता है ।। तपःपूत ऋषिजन अपनी दिव्य दृष्टि से उस दिव्य तत्व की अनुभूति करते हैं ।।

इस नाना नाम रूपान्तर सृष्टि को बनाने वाला परमपिता परमेश्वर है ।। बिना कर्त्ता के क्रिया हो ही नहीं सकती ।। रंग, बु्रश आदि सभी उपकरण उपस्थित रहने पर भी क्या बिना चित्रकार के चित्र बनेगा? सृष्टि के जड़ पदार्थों में चेतना करने वाला तथा कोटि- कोटि जीवों को बनाने वाला यह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिशाली कारीगर ही है ।। सारी प्रकृति उससे व्याप्त है ।। प्राणियों की चेतना उस विशाल चेतना का ही अंश है ।। विश्व की सुन्दरता और सौम्यता उसकी ही सुन्दरता और सौम्यता है ।। सृष्टि के कण- कण में वह किसी न किसी रूप में विद्यमान है, जिस प्रकार रजकण और पृथ्वी में कोई विभेद नहीं होता, वह उसका ही अंश होता है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा में भी कोई अन्तर नहीं ।। आत्मा, परमात्मा का ही अंश है ।। परन्तु जिस प्रकार बादल दल से सूरज का प्रकाश अप्रतिहत हो जाता है उसी प्रकार अज्ञान से अप्रतिहत होने के कारण हम आत्मतत्त्व को, अपने आपको भूल जाते हैं और लक्ष्य विमुख होकर भटकते रहते हैं ।।

संसार में हम देखते हैं कि कोई प्राणी तो स्वर्गोपम जीवन व्यतीत करता है परन्तु कोई नारकीय यंत्रणाओं में फँसा तिलमिलाता है ।। सुख प्राप्ति की प्राणिमात्र की स्वाभाविक इच्छा होती है परन्तु ईश्वर ही उसे दुःख भोगने को विवश करता है ।। समाज की आँखों में, पुलिस की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है परन्तु उस घट- घटवासी परमेश्वर की दृष्टि से हमारा कोई कार्य छिप नहीं सकता ।। हमारे कर्मों का अच्छा या बुरा फल वह हमें असम्भाव्य रूप से देता है ।। कर्मफल के आधार पर भी ईश्वर की सत्ता सिद्ध होती है।।

तपोनिष्ठ आर्य मुनियों न मानव- जीवन में आस्तिकता को जो महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, वह उनकी दूरदर्शिता का परिचायक है ।। उनकी सूक्ष्म ग्राहिणी बुद्धि ने यह अनुमान लगा लिया था कि मनुष्य एक दिन अपनी बुद्धि एवं प्रकृति का दुरुपयोग कर कुमार्गगामी बन सकता है तथा शांति एवं सुव्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है ।। इस पथ- भ्रष्टता से बचाने के लिए ही उन्होंने आस्तिकता का जीवन का प्रथम आधार बनाया ।। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, उसकी दृष्टि से हमारा कोई भी कार्य छिप नहीं सकता, उसकी न्याय- व्यवस्था हर किसी के लिए समान है, ये मान्यतायें पापों से बचाती हैं तथा सदाचार और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्द्धन में सहायक बनती हैं ।। ईश्वरीय नियमों में विश्वास रखकर ही अब तक की मानव जाति की प्रगति सम्भव हुई है ।।


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