
भारतीय संस्कृति की विशेषता
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भारतीय सांस्कृतिक के अनुसार व्यक्ति का दृष्टिकोण ऊँचा रहना चाहिए ।। हमारे यहाँ अन्तरात्मा को प्रधानता दी गई है ।। हिन्दू तत्त्वदर्शियों ने संसार की व्यवहार वस्तुओं और व्यक्तिगत जीवन- यापन के ढँग और मूलभूत सिद्धांतों में परमार्थिक दृष्टिकोण से विचार किया है ।। क्षुद्र सांसारिक सुखोपभोग से ऊँचा उठकर, वासनामय इन्द्रिय सम्बन्धी साधारण सुखों से ऊपर उठ आत्म- भाव विकसित कर परमार्थिक रूप से जीवन- यापन को प्रधानता दी गई है ।। नैतिकता की रक्षा को दृष्टि में रखकर हमारे यहाँ मान्यताएँ निर्धारित की गई है ।
भारतीय संस्कृति कहती है ''हे मनुष्यों! अपने हृदय में विश्व- प्रेम की ज्योति जला दो ।। सबसे प्रेम करो ।। अपनी भुजाएँ पसार कर प्राणिमात्र को प्रेम के पाश में बाँध लो ।। विश्व की कण- कण को अपने प्रेम की सरिता से सींच दो ।। विश्व प्रेम वह रहस्यमय दिव्य रस है, जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है ।। यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं ।। जीना आदर्श और उद्देश्य के लिये जीना है ।। जब तक जिओ विश्व- हित के लिए जिओ ।। अपने पिता की सम्पत्ति को सम्हालो ।। यह सब तुम्हारे पिता की है ।। सबको अपना समझो और अपनी वस्तु की तरह विश्व की समस्त वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखों । सबको आत्म- भाव और आत्म- दृष्टि से देखो ।''
१. सुख का केन्द्र आन्तरिक श्रेष्ठता-
भारतीय ऋषियों ने खोज की थी कि मनुष्य की चिंतन अभिलाषा, सुख- शान्ति की उपलब्धि इस बाह्य संसार या प्रकृति की भौतिक सामिग्री से वासना या इन्दि्यों के विषयों को तृप्त करने से नहीं हो सकती ।। पार्थिव संसार हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है ।। एक के बाद एक नई- नई सांसारिक वस्तुओं की इच्छाएँ और तृष्णाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं ।। एक वासना पूरी नहीं होती कि नई वासना उत्पन्न हो जाती है ।। मनुष्य अपार धन संग्राह करता है, अनियन्त्रित काम- क्रीड़ा में सुख ढूँढ़ता है, लूट, खसोट और स्वार्थ- साधन से दूसरों को ठगता है ।। धोखाधड़ी, छलप्रपंच, नान प्रकार के षड्यंत्र करता है , विलासिता नशेबाजी, ईष्र्या- द्वेष में प्रवृत्त होता है, पर स्थायी सुख और आनन्द नहीं पाता ।। एक प्रकार की मृगतृष्णा मात्र में अपना जीवन नष्ट कर देता है ।
२. अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता-
भारतीय संस्कृति में अपनी इन्द्रियों के ऊपर कठोर नियंत्रण का विधान है ।। जो व्यक्ति अपनी वासनाओं और इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण कर सकेगा, वही वास्तव में दूसरों के सेवा- कार्य में हाथ बँटा सकता है, जिससे स्वयं अपना शरीर, इच्छाएँ वासनाएँ आदतें ही नहीं सम्भलती हे, वह क्या तो अपना हित क्या लोकहित करेगा ।।
''हरन्ति दोषजानानि नरमिन्दि्रयकिंकरम्'' (महाभारत अनु. प.५१,१६)
''जो मनुष्य इन्द्रियों (और अपने मनोविकारों) का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं ।''
''बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वंसमति कर्षति ।'' (मनु. २- १५)
''इन्दि्याँ बहुत बलवान हैं ।। ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती हैं ।''
३. सद्भावों का विकास-
अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित एवं चरितार्थ करना हमारी संस्कृति का तत्त्व है ।।
भारतीय संस्कृति मनुष्य की अन्तरात्मा में सन्निहित सद्भावों के विकास पर अधिक जोर देती है ।। ''शीलं हि शरमं सौम्य'' (अश्वघोष) सत् स्वभाव ही मनुष्य का रक्षक है ।। उसी से अच्छे समाज और अच्छे नागरिक का निर्माण होता है ।। अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित करना- हमारा मूल मन्त्र रहा है ।। हमारे यहाँ कहा गया हैः-
''तीर्थनां हृदयं तीर्थ शुचीनां हृदयं शुचिः'' (म.भा.शा.प.१९१- १८)
''सब तीर्थों में हृदय (अन्तरात्मा)ही परम तीर्थ है ।। सब पवित्रताओं में अन्तरात्मा की पवित्रता ही मुख्य है ।''
हम यह मानकर चलते रहे हैं कि हमारी अन्तरात्मा में जीवन और समाज को आगे बढ़ाने और सन्मार्ग पर ले जाने वाले सभी महत्त्वपूर्ण विचारों के कारण, हमारी आत्मा में साक्षात् भगवान् का निवास होता है ।। जिस प्रकार मकड़ी तारों के ऊपर की ओर जाती है तथा जैसे अग्नि अनेकों शुद्ध चिनगारियाँ उड़ाती है, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लेख, समस्त देवगण और समस्त प्राणी मार्ग- दर्शन और शुभ सन्देह पाते हैं ।। सत्य तो यह है कि यह आत्मा ही उपदेशक है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.१.१४)
भारतीय संस्कृति कहती है ''हे मनुष्यों! अपने हृदय में विश्व- प्रेम की ज्योति जला दो ।। सबसे प्रेम करो ।। अपनी भुजाएँ पसार कर प्राणिमात्र को प्रेम के पाश में बाँध लो ।। विश्व की कण- कण को अपने प्रेम की सरिता से सींच दो ।। विश्व प्रेम वह रहस्यमय दिव्य रस है, जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है ।। यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जाते हैं ।। जीना आदर्श और उद्देश्य के लिये जीना है ।। जब तक जिओ विश्व- हित के लिए जिओ ।। अपने पिता की सम्पत्ति को सम्हालो ।। यह सब तुम्हारे पिता की है ।। सबको अपना समझो और अपनी वस्तु की तरह विश्व की समस्त वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखों । सबको आत्म- भाव और आत्म- दृष्टि से देखो ।''
१. सुख का केन्द्र आन्तरिक श्रेष्ठता-
भारतीय ऋषियों ने खोज की थी कि मनुष्य की चिंतन अभिलाषा, सुख- शान्ति की उपलब्धि इस बाह्य संसार या प्रकृति की भौतिक सामिग्री से वासना या इन्दि्यों के विषयों को तृप्त करने से नहीं हो सकती ।। पार्थिव संसार हमारी तृष्णाओं को बढ़ाने वाला है ।। एक के बाद एक नई- नई सांसारिक वस्तुओं की इच्छाएँ और तृष्णाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं ।। एक वासना पूरी नहीं होती कि नई वासना उत्पन्न हो जाती है ।। मनुष्य अपार धन संग्राह करता है, अनियन्त्रित काम- क्रीड़ा में सुख ढूँढ़ता है, लूट, खसोट और स्वार्थ- साधन से दूसरों को ठगता है ।। धोखाधड़ी, छलप्रपंच, नान प्रकार के षड्यंत्र करता है , विलासिता नशेबाजी, ईष्र्या- द्वेष में प्रवृत्त होता है, पर स्थायी सुख और आनन्द नहीं पाता ।। एक प्रकार की मृगतृष्णा मात्र में अपना जीवन नष्ट कर देता है ।
२. अपने साथ कड़ाई और दूसरों के साथ उदारता-
भारतीय संस्कृति में अपनी इन्द्रियों के ऊपर कठोर नियंत्रण का विधान है ।। जो व्यक्ति अपनी वासनाओं और इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण कर सकेगा, वही वास्तव में दूसरों के सेवा- कार्य में हाथ बँटा सकता है, जिससे स्वयं अपना शरीर, इच्छाएँ वासनाएँ आदतें ही नहीं सम्भलती हे, वह क्या तो अपना हित क्या लोकहित करेगा ।।
''हरन्ति दोषजानानि नरमिन्दि्रयकिंकरम्'' (महाभारत अनु. प.५१,१६)
''जो मनुष्य इन्द्रियों (और अपने मनोविकारों) का दास है, उसे दोष अपनी ओर खींच लेते हैं ।''
''बलवानिन्द्रयग्रामो विद्वंसमति कर्षति ।'' (मनु. २- १५)
''इन्दि्याँ बहुत बलवान हैं ।। ये विद्वान को भी अपनी ओर बलात् खींच लेती हैं ।''
३. सद्भावों का विकास-
अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित एवं चरितार्थ करना हमारी संस्कृति का तत्त्व है ।।
भारतीय संस्कृति मनुष्य की अन्तरात्मा में सन्निहित सद्भावों के विकास पर अधिक जोर देती है ।। ''शीलं हि शरमं सौम्य'' (अश्वघोष) सत् स्वभाव ही मनुष्य का रक्षक है ।। उसी से अच्छे समाज और अच्छे नागरिक का निर्माण होता है ।। अन्तरात्मा में छिपे हुए व्यापार और सद्भाव को दूसरों के साथ अधिकाधिक विकसित करना- हमारा मूल मन्त्र रहा है ।। हमारे यहाँ कहा गया हैः-
''तीर्थनां हृदयं तीर्थ शुचीनां हृदयं शुचिः'' (म.भा.शा.प.१९१- १८)
''सब तीर्थों में हृदय (अन्तरात्मा)ही परम तीर्थ है ।। सब पवित्रताओं में अन्तरात्मा की पवित्रता ही मुख्य है ।''
हम यह मानकर चलते रहे हैं कि हमारी अन्तरात्मा में जीवन और समाज को आगे बढ़ाने और सन्मार्ग पर ले जाने वाले सभी महत्त्वपूर्ण विचारों के कारण, हमारी आत्मा में साक्षात् भगवान् का निवास होता है ।। जिस प्रकार मकड़ी तारों के ऊपर की ओर जाती है तथा जैसे अग्नि अनेकों शुद्ध चिनगारियाँ उड़ाती है, उसी प्रकार इस आत्मा से समस्त प्राण, समस्त लेख, समस्त देवगण और समस्त प्राणी मार्ग- दर्शन और शुभ सन्देह पाते हैं ।। सत्य तो यह है कि यह आत्मा ही उपदेशक है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.१.१४)