
धनवान् नहीं चरित्रवान् होने की बात सोचिए
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ऋग्वेद का ऋषि परमात्मा से प्रार्थना करता है—
‘‘प्राता रत्नं प्रतारित्वा दधाति तं
चिकित्वान्प्रति गृह्यानिधत्ते ।
तेन प्रजां वर्धयमान् आयू
रायस्पोषेण सचते सुवीरः।।’’
जो निरालस्य पूर्वक धर्माचरण द्वारा धन उपार्जित करता है, तथा दूसरों के हित में भी उसी प्रकार लगाता है वह व्यक्ति इस संसार में सदा सुखी रहें।
ऐसे ईमानदार और सदाचारी व्यक्ति संसार में सुखी न रहें ऐसा सम्भव नहीं। निश्चय ही वे सुखी रहे हैं, आज भी होंगे और आगे भी सुखी होते रहेंगे। ऐसे सत्पुरुषों के लिये दुःख दारिद्रय अथवा कष्ट क्लेशों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। दुःख दारिद्रय एवं कष्ट क्लेश तो कुमार्गगामियों एवं मिथ्यावादियों के दाय भाग हैं। वह तो उनका ही अधिकार है वह किसी अन्य को किस प्रकार प्राप्त हो सकता है?
जो किसी का अहित नहीं करता, किसी को प्रवंचित अथवा प्रताड़ित नहीं करता, अनुचित उपार्जन से दूर रहता है, धर्माचरण द्वारा धन कमाकर उसी में सन्तुष्ट रहता है, स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को महत्त्व देता है, प्रसन्नता, सुख, शांति, स्थिरता एवं सन्तुलन उसे ही प्राप्त होता है। ऐसा ईमानदार व्यक्ति आत्माह्लाद के अतिरिक्त दूसरे व्यक्तियों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा का भी पात्र बन जाता है।
अपने सदाचरण से जिसने दूसरों के हृदय में अपने लिए सम्मान, सद्भाव एवं आदर उत्पन्न किया है तो दूसरों की वे भावनायें अदृश्य रूप में ऐसी सुशीतल, शांतिदायक तथा आनन्दमयी विद्युत् तरंगों को उत्पन्न करेंगी जो मानसिक स्वास्थ्य बनकर उस तक उसी प्रकार पहुंचती रहेंगी जिस प्रकार चन्दन-वन के निकट खड़े व्यक्ति के पास शीतल मंद सुगंध समीरण आता रहता है। उस स्वास्थ्यप्रद वातावरण में सदाचारी को जो सुख शांति एवं आह्लाद प्राप्त होगा वह किसी स्वर्गीय आनन्द से कम न होगा। पृथ्वी का परमानन्द पाने के लिए मनुष्य को ईमानदार, सन्मार्गगामी तथा सदाचारी बनना ही चाहिये।
मनुष्य की शोभा तुच्छ, तिरस्कृत अथवा अपमानित होने में नहीं है। उसकी शोभा है उच्च, सदाशयी, प्रतिष्ठित एवं भावनापूर्ण बनने में। यदि आप मनुष्यता के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं, मनुष्यों के योग्य आदर पाना चाहते हैं तो उसके लिए सर्वमान्य, सरल तथा समुचित उपाय है ईमानदार एवं सदाचारी बनना। समाज में सच्चा व्यवहार करिये, उचित लाभ उठाइये, वचन देकर भंग न करिए, जो कुछ मुंह से कहिए उसे पूरा करने का प्रयत्न कीजिए, विश्वास देकर घात न कीजिये। देखिए आप समाज की श्रद्धा एवं आदर के पात्र बनते हैं या नहीं, फिर भले ही आप धन से अभावग्रस्त ही क्यों न हों। धन का न्यूनाधिक्य किसी को आदर अनादर का पात्र नहीं बनाता यह मनुष्य का सदा सद् आचरण व्यवहार है जो उसे उठाता-गिराता है। चरित्र-धन की तुलना में अन्य सारे धन धूल के समान ही माने गए हैं। विद्वानों का कहना है कि—‘जिसका धन चला गया, कुछ गया, किन्तु यदि चरित्र चला गया साख मिट गई तो मानो सर्वस्व चला गया।’’
जीवन को सम्माननीय स्थिति में रखना सबसे अधिक सुखद अवस्था है। जिस प्रकार तिरस्कार अपयश अथवा अनादर को विष बतलाया गया है उसी प्रकार विज्ञों ने सच्चे सम्मान को अमृतवत् कहा। लांछित व्यक्ति जीता हुआ भी मृतक के समान होता है। तेजहीन एवं तिरस्कृत जीवन भी कोई जीवन है? इस प्रकार की लांछना एवं घृणापूर्ण जिन्दगी किसी निकृष्ट पशु को ही सहन हो सकती है, किसी आत्म-सम्मान के धनी मनुष्य को नहीं।
जो व्यक्ति मन, वचन, कर्म से सच्चाई का व्यवहार करता है। नम्रता, उदारता, सज्जनता एवं सत्य जिसके स्वभाव की शोभा है वह व्यक्ति स्वयं भी अपनी दृष्टि में सम्मानित रहता है। जो अपनी दृष्टि में स्वयं सम्मानित है, उठा हुआ है उसका दूसरों की दृष्टि में उठा रहना स्वाभाविक है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य का जो मूल्यांकन अपनी खुद की दृष्टि में होता है, वही मूल्य उसका दूसरों की दृष्टि में भी हुआ करता है। अपनी दृष्टि में स्वयं सम्मानित व्यक्ति केवल वही हो सकता है जो कभी किसी को धोखा नहीं देता है। किसी के धन पर दृष्टि डालना पाप समझता है। जो लोभ लालच तथा स्वार्थ की भावना से पीड़ित नहीं है, उसे अपने प्रति यह विश्वास ही आत्म सम्मान का आधार होता है वह समाज में यथोचित सत्य एवं ईमानदारी का व्यवहार करता है।
आत्म सम्मान में एक अनिवर्चनीय सुख सन्तोष एवं गौरव ही रहता हो ऐसी बात नहीं। यह अमृत आत्मा के लिए एक आध्यात्मिक आहार है। जिसे पाकर आत्मा पुष्ट, सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं स्फुरित होती है, जिससे मनुष्य कल्याण के मार्ग पर वेग से बढ़ता चला जाता है।
आत्म-अनादर वह मारक विष है जिसका स्पर्श होते ही आत्मा मुरझा जाती है, मन मलीन हो जाता है और मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों तेज प्रशमित हो जाते हैं। जिससे उसमें भय भीरुता, भ्रम एवं भ्रांतियों का न जाने कितना सघन अन्धकार घर कर लेता है। आत्मविश्वास के अभाव और निराशा के भय से उसका सारा जीवन ही लड़खड़ा जाता है। यह विषमयी यातना उसे अवश्य ही भोगनी पड़ती है जो वंचक है, विश्वासघाती है और कुकर्मों से संकोच नहीं करता। इन नारकीय स्थिति से बचने और अमृत पद पाने के लिये मनुष्य को पराकाष्ठा तक ईमानदार एवं सत्याचारी रहना चाहिये। सत्य स्वयं एक प्रकाश है, ईश्वर की तेजोमयी अनुभूति है। जिससे मन वचन कर्म में सत्य का समावेश होगा उसके पास किसी प्रकार का अन्धकार नहीं आ सकता। एक अकेले सत्य के बल पर महात्मा गांधी ने बिना किसी शस्त्र प्रयोग अथवा हिंसा किये बिना ही सर्व शक्तिमान माने जाने वाले अंग्रेजों से बात की बात में भारत खाली करा लिया। उस कीर्तिमान् महापुरुष ने स्वयं का आचरण कर अपनी सहनशीलता से अंग्रेजों को बार-बार असत्यवादन एवं आचरण का अवसर इतना जीर्ण कर दिया कि उसकी ‘भारत छोड़ो’ की एक दहाड़ को अंग्रेज सरकार सहन न कर पाई उसे भागते ही बना। यह सत्य सर्वशक्तिमान् की ही अभिव्यक्ति है। जिसने इसका आंचल पकड़ लिया मानो उसने सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ही हाथ थाम लिया।
सत्य एवं असत्य का यह प्रभाव आज किसी से छिपा नहीं है। जहां सत्याचारी ईमानदार लोग सत्य का सुख एवं सम्मान प्राप्त करते और असत्याचारी गैर ईमानदार लोग देखते हैं। वहां असत्याचारी बेईमान लोग उसका दण्ड भोगते हैं और सत्याचारी, ईमानदार लोग देखते हैं। इस प्रकार दानों ही प्रकार के व्यक्ति देखते और उसके परिणामों से अवगत होते हैं। किन्तु खेद है कि परिणाम एवं फलों को देखते हुये भी आज समाज में गैर ईमानदारों की संख्या ही अधिक देखने में आ रही है।
यह धन-पूजा का ही कुपरिणाम है कि आज अध्यात्मवादी भारतवासी लोग देश, राष्ट्र, समाज मनुष्यता एवं आत्मा तक को भूल कर धर्म के पीछे भाग रहा है। उसे मात्र यह विचार करने की फुरसत नहीं दीखती कि कुधन-धान्य का संचय एवं प्रयोग करने वाले की आत्मा का पतन हो जाता है और उसके लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। धन के नशे ने जिन्हें उन्मत्त बना दिया है वे भला इस आर्ष सिद्धान्त के महत्व को क्यों समझने लगे कि धन देकर परिवार और परिवार देकर आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। आत्म संसार में सर्वोपरि तत्त्व है, जिसका यह तत्व नष्ट हो गया—समझना चाहिये कि उसकी जीवित ही मृत्यु हो गई।
जिस भारत का सत्य, ईमानदारी और सदाचरण विश्वविख्यात था और जिसे देखने, समझने और सीखने के लिये संसार के कोने-कोने से लोग आते थे प्रसाद पाकर कृतार्थ हो जाते थे। संसार ने जिन भारतवासियों से सभ्यता, संस्कृति और सुशीलता का पाठ सीखा, सत्य एवं सदाचार का स्वरूप समझा उन्हीं भारतवासियों की ऐसी दशा हो गई है कि वे भ्रष्टाचार, मिथ्याचार, चोरबाजारी, कालाबाज़ारी, तस्कर व्यापार, मिलावट तथा नकलीपन में आकण्ठ निमग्न हो गये हैं। संसार में उनके आचरण पर थू-थू हो रही है। राष्ट्रीय का आर्थिक, स्वास्थिक एवं आत्मिक पतन हो रहा है, राष्ट्र विनाश की ओर बढ़ रहा है किन्तु आज के अर्थ-पिशाचों को पैसे के सिवाय और कुछ नहीं दीखता। ऐसे ही स्वार्थी एवं निकृष्ट व्यक्तियों के लिये ‘भारत-भारती’ कार ने कहा है—‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’ निःसंदेह जिसे अपने राष्ट्र के सम्मान, आत्मा की महानता तथा सभ्यता-संस्कृति का विचार नहीं वह अधम और मृतक ही है।
इस आर्थिक व्यभिचार को प्रोत्साहन देने में न केवल अर्थ-लिप्सुओं का ही हाथ है, उन अज्ञानियों का भी हाथ समझना चाहिए जो गुणों के स्थान पर धन को आदर देने की भूल करते हैं। आज जिसके पास अधिक धन-सम्पत्ति है समाज के लोग उसको ही आदर-प्रतिष्ठा देने लगते हैं। वे यह देखना नहीं चाहते हैं कि इस धनवान् ने जो प्रचुर मात्रा में धन-सम्पत्ति एकत्र की है वह किस मार्ग और उपायों से की है? बेईमानीपूर्वक धन कमा लेने पर जब अवमानता के स्थान पर सम्मान ही होता है तो कोई वैसा करने में संकोच ही क्यों करे? इस आर्थिक व्यभिचार को कम करने का एक उपाय यह भी है कि धन के स्थान पर गुणों का आदर किया जाये। ऐसे आदमियों का अभिनन्दन एवं सार्वजनिक सम्मान किया जाये जिन्होंने अपनी ईमानदारी तथा सदाचरण का प्रमाण दिया हो, फिर चाहे वह धन के सम्बन्ध में दरिद्री ही क्यों न हो। उस धन कुबेर, जिसने कि भ्रष्टाचार से धन कमाया है, से उसका वह दरबान अधिक सम्मान्य है जो अपनी छोटी-सी तनख्वाह में सन्तोषपूर्वक गुजर करता है और धन की लिप्सा में न तो किसी को धोखा देता है और न झूठ बोलता है। यदि धनधारियों के स्थान पर चरित्रधारियों की पूजा-प्रतिष्ठा होने लगे तो निश्चय ही धन का महत्व घट जाये और लोग प्रतिष्ठा के लिए धन के स्थान पर सदाचरण सिद्ध करने का ही प्रयत्न करने लगें। न जाने अध्यात्मवादी भारतीय समाज में कब इस प्रकार की बुद्धि आयेगी और यह ऋषियों की सन्तानें कब समझ पायेंगी कि अधोपाप से उपार्जित धन कुल को कलंकित तथा आत्मा को विनष्ट कर देता है। किन्तु यह सत्य है कि जिस क्षण से भारतवासियों में यह सद्बुद्धि आ जायेगी उसी क्षण से देश, राष्ट्र एवं समाज के शुभ दिन फिरने लगेंगे।
‘‘प्राता रत्नं प्रतारित्वा दधाति तं
चिकित्वान्प्रति गृह्यानिधत्ते ।
तेन प्रजां वर्धयमान् आयू
रायस्पोषेण सचते सुवीरः।।’’
जो निरालस्य पूर्वक धर्माचरण द्वारा धन उपार्जित करता है, तथा दूसरों के हित में भी उसी प्रकार लगाता है वह व्यक्ति इस संसार में सदा सुखी रहें।
ऐसे ईमानदार और सदाचारी व्यक्ति संसार में सुखी न रहें ऐसा सम्भव नहीं। निश्चय ही वे सुखी रहे हैं, आज भी होंगे और आगे भी सुखी होते रहेंगे। ऐसे सत्पुरुषों के लिये दुःख दारिद्रय अथवा कष्ट क्लेशों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। दुःख दारिद्रय एवं कष्ट क्लेश तो कुमार्गगामियों एवं मिथ्यावादियों के दाय भाग हैं। वह तो उनका ही अधिकार है वह किसी अन्य को किस प्रकार प्राप्त हो सकता है?
जो किसी का अहित नहीं करता, किसी को प्रवंचित अथवा प्रताड़ित नहीं करता, अनुचित उपार्जन से दूर रहता है, धर्माचरण द्वारा धन कमाकर उसी में सन्तुष्ट रहता है, स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ को महत्त्व देता है, प्रसन्नता, सुख, शांति, स्थिरता एवं सन्तुलन उसे ही प्राप्त होता है। ऐसा ईमानदार व्यक्ति आत्माह्लाद के अतिरिक्त दूसरे व्यक्तियों के सम्मान एवं प्रतिष्ठा का भी पात्र बन जाता है।
अपने सदाचरण से जिसने दूसरों के हृदय में अपने लिए सम्मान, सद्भाव एवं आदर उत्पन्न किया है तो दूसरों की वे भावनायें अदृश्य रूप में ऐसी सुशीतल, शांतिदायक तथा आनन्दमयी विद्युत् तरंगों को उत्पन्न करेंगी जो मानसिक स्वास्थ्य बनकर उस तक उसी प्रकार पहुंचती रहेंगी जिस प्रकार चन्दन-वन के निकट खड़े व्यक्ति के पास शीतल मंद सुगंध समीरण आता रहता है। उस स्वास्थ्यप्रद वातावरण में सदाचारी को जो सुख शांति एवं आह्लाद प्राप्त होगा वह किसी स्वर्गीय आनन्द से कम न होगा। पृथ्वी का परमानन्द पाने के लिए मनुष्य को ईमानदार, सन्मार्गगामी तथा सदाचारी बनना ही चाहिये।
मनुष्य की शोभा तुच्छ, तिरस्कृत अथवा अपमानित होने में नहीं है। उसकी शोभा है उच्च, सदाशयी, प्रतिष्ठित एवं भावनापूर्ण बनने में। यदि आप मनुष्यता के गौरव की रक्षा करना चाहते हैं, मनुष्यों के योग्य आदर पाना चाहते हैं तो उसके लिए सर्वमान्य, सरल तथा समुचित उपाय है ईमानदार एवं सदाचारी बनना। समाज में सच्चा व्यवहार करिये, उचित लाभ उठाइये, वचन देकर भंग न करिए, जो कुछ मुंह से कहिए उसे पूरा करने का प्रयत्न कीजिए, विश्वास देकर घात न कीजिये। देखिए आप समाज की श्रद्धा एवं आदर के पात्र बनते हैं या नहीं, फिर भले ही आप धन से अभावग्रस्त ही क्यों न हों। धन का न्यूनाधिक्य किसी को आदर अनादर का पात्र नहीं बनाता यह मनुष्य का सदा सद् आचरण व्यवहार है जो उसे उठाता-गिराता है। चरित्र-धन की तुलना में अन्य सारे धन धूल के समान ही माने गए हैं। विद्वानों का कहना है कि—‘जिसका धन चला गया, कुछ गया, किन्तु यदि चरित्र चला गया साख मिट गई तो मानो सर्वस्व चला गया।’’
जीवन को सम्माननीय स्थिति में रखना सबसे अधिक सुखद अवस्था है। जिस प्रकार तिरस्कार अपयश अथवा अनादर को विष बतलाया गया है उसी प्रकार विज्ञों ने सच्चे सम्मान को अमृतवत् कहा। लांछित व्यक्ति जीता हुआ भी मृतक के समान होता है। तेजहीन एवं तिरस्कृत जीवन भी कोई जीवन है? इस प्रकार की लांछना एवं घृणापूर्ण जिन्दगी किसी निकृष्ट पशु को ही सहन हो सकती है, किसी आत्म-सम्मान के धनी मनुष्य को नहीं।
जो व्यक्ति मन, वचन, कर्म से सच्चाई का व्यवहार करता है। नम्रता, उदारता, सज्जनता एवं सत्य जिसके स्वभाव की शोभा है वह व्यक्ति स्वयं भी अपनी दृष्टि में सम्मानित रहता है। जो अपनी दृष्टि में स्वयं सम्मानित है, उठा हुआ है उसका दूसरों की दृष्टि में उठा रहना स्वाभाविक है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य का जो मूल्यांकन अपनी खुद की दृष्टि में होता है, वही मूल्य उसका दूसरों की दृष्टि में भी हुआ करता है। अपनी दृष्टि में स्वयं सम्मानित व्यक्ति केवल वही हो सकता है जो कभी किसी को धोखा नहीं देता है। किसी के धन पर दृष्टि डालना पाप समझता है। जो लोभ लालच तथा स्वार्थ की भावना से पीड़ित नहीं है, उसे अपने प्रति यह विश्वास ही आत्म सम्मान का आधार होता है वह समाज में यथोचित सत्य एवं ईमानदारी का व्यवहार करता है।
आत्म सम्मान में एक अनिवर्चनीय सुख सन्तोष एवं गौरव ही रहता हो ऐसी बात नहीं। यह अमृत आत्मा के लिए एक आध्यात्मिक आहार है। जिसे पाकर आत्मा पुष्ट, सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं स्फुरित होती है, जिससे मनुष्य कल्याण के मार्ग पर वेग से बढ़ता चला जाता है।
आत्म-अनादर वह मारक विष है जिसका स्पर्श होते ही आत्मा मुरझा जाती है, मन मलीन हो जाता है और मनुष्य के बाह्य एवं आन्तरिक दोनों तेज प्रशमित हो जाते हैं। जिससे उसमें भय भीरुता, भ्रम एवं भ्रांतियों का न जाने कितना सघन अन्धकार घर कर लेता है। आत्मविश्वास के अभाव और निराशा के भय से उसका सारा जीवन ही लड़खड़ा जाता है। यह विषमयी यातना उसे अवश्य ही भोगनी पड़ती है जो वंचक है, विश्वासघाती है और कुकर्मों से संकोच नहीं करता। इन नारकीय स्थिति से बचने और अमृत पद पाने के लिये मनुष्य को पराकाष्ठा तक ईमानदार एवं सत्याचारी रहना चाहिये। सत्य स्वयं एक प्रकाश है, ईश्वर की तेजोमयी अनुभूति है। जिससे मन वचन कर्म में सत्य का समावेश होगा उसके पास किसी प्रकार का अन्धकार नहीं आ सकता। एक अकेले सत्य के बल पर महात्मा गांधी ने बिना किसी शस्त्र प्रयोग अथवा हिंसा किये बिना ही सर्व शक्तिमान माने जाने वाले अंग्रेजों से बात की बात में भारत खाली करा लिया। उस कीर्तिमान् महापुरुष ने स्वयं का आचरण कर अपनी सहनशीलता से अंग्रेजों को बार-बार असत्यवादन एवं आचरण का अवसर इतना जीर्ण कर दिया कि उसकी ‘भारत छोड़ो’ की एक दहाड़ को अंग्रेज सरकार सहन न कर पाई उसे भागते ही बना। यह सत्य सर्वशक्तिमान् की ही अभिव्यक्ति है। जिसने इसका आंचल पकड़ लिया मानो उसने सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ही हाथ थाम लिया।
सत्य एवं असत्य का यह प्रभाव आज किसी से छिपा नहीं है। जहां सत्याचारी ईमानदार लोग सत्य का सुख एवं सम्मान प्राप्त करते और असत्याचारी गैर ईमानदार लोग देखते हैं। वहां असत्याचारी बेईमान लोग उसका दण्ड भोगते हैं और सत्याचारी, ईमानदार लोग देखते हैं। इस प्रकार दानों ही प्रकार के व्यक्ति देखते और उसके परिणामों से अवगत होते हैं। किन्तु खेद है कि परिणाम एवं फलों को देखते हुये भी आज समाज में गैर ईमानदारों की संख्या ही अधिक देखने में आ रही है।
यह धन-पूजा का ही कुपरिणाम है कि आज अध्यात्मवादी भारतवासी लोग देश, राष्ट्र, समाज मनुष्यता एवं आत्मा तक को भूल कर धर्म के पीछे भाग रहा है। उसे मात्र यह विचार करने की फुरसत नहीं दीखती कि कुधन-धान्य का संचय एवं प्रयोग करने वाले की आत्मा का पतन हो जाता है और उसके लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। धन के नशे ने जिन्हें उन्मत्त बना दिया है वे भला इस आर्ष सिद्धान्त के महत्व को क्यों समझने लगे कि धन देकर परिवार और परिवार देकर आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। आत्म संसार में सर्वोपरि तत्त्व है, जिसका यह तत्व नष्ट हो गया—समझना चाहिये कि उसकी जीवित ही मृत्यु हो गई।
जिस भारत का सत्य, ईमानदारी और सदाचरण विश्वविख्यात था और जिसे देखने, समझने और सीखने के लिये संसार के कोने-कोने से लोग आते थे प्रसाद पाकर कृतार्थ हो जाते थे। संसार ने जिन भारतवासियों से सभ्यता, संस्कृति और सुशीलता का पाठ सीखा, सत्य एवं सदाचार का स्वरूप समझा उन्हीं भारतवासियों की ऐसी दशा हो गई है कि वे भ्रष्टाचार, मिथ्याचार, चोरबाजारी, कालाबाज़ारी, तस्कर व्यापार, मिलावट तथा नकलीपन में आकण्ठ निमग्न हो गये हैं। संसार में उनके आचरण पर थू-थू हो रही है। राष्ट्रीय का आर्थिक, स्वास्थिक एवं आत्मिक पतन हो रहा है, राष्ट्र विनाश की ओर बढ़ रहा है किन्तु आज के अर्थ-पिशाचों को पैसे के सिवाय और कुछ नहीं दीखता। ऐसे ही स्वार्थी एवं निकृष्ट व्यक्तियों के लिये ‘भारत-भारती’ कार ने कहा है—‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश पर अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।’ निःसंदेह जिसे अपने राष्ट्र के सम्मान, आत्मा की महानता तथा सभ्यता-संस्कृति का विचार नहीं वह अधम और मृतक ही है।
इस आर्थिक व्यभिचार को प्रोत्साहन देने में न केवल अर्थ-लिप्सुओं का ही हाथ है, उन अज्ञानियों का भी हाथ समझना चाहिए जो गुणों के स्थान पर धन को आदर देने की भूल करते हैं। आज जिसके पास अधिक धन-सम्पत्ति है समाज के लोग उसको ही आदर-प्रतिष्ठा देने लगते हैं। वे यह देखना नहीं चाहते हैं कि इस धनवान् ने जो प्रचुर मात्रा में धन-सम्पत्ति एकत्र की है वह किस मार्ग और उपायों से की है? बेईमानीपूर्वक धन कमा लेने पर जब अवमानता के स्थान पर सम्मान ही होता है तो कोई वैसा करने में संकोच ही क्यों करे? इस आर्थिक व्यभिचार को कम करने का एक उपाय यह भी है कि धन के स्थान पर गुणों का आदर किया जाये। ऐसे आदमियों का अभिनन्दन एवं सार्वजनिक सम्मान किया जाये जिन्होंने अपनी ईमानदारी तथा सदाचरण का प्रमाण दिया हो, फिर चाहे वह धन के सम्बन्ध में दरिद्री ही क्यों न हो। उस धन कुबेर, जिसने कि भ्रष्टाचार से धन कमाया है, से उसका वह दरबान अधिक सम्मान्य है जो अपनी छोटी-सी तनख्वाह में सन्तोषपूर्वक गुजर करता है और धन की लिप्सा में न तो किसी को धोखा देता है और न झूठ बोलता है। यदि धनधारियों के स्थान पर चरित्रधारियों की पूजा-प्रतिष्ठा होने लगे तो निश्चय ही धन का महत्व घट जाये और लोग प्रतिष्ठा के लिए धन के स्थान पर सदाचरण सिद्ध करने का ही प्रयत्न करने लगें। न जाने अध्यात्मवादी भारतीय समाज में कब इस प्रकार की बुद्धि आयेगी और यह ऋषियों की सन्तानें कब समझ पायेंगी कि अधोपाप से उपार्जित धन कुल को कलंकित तथा आत्मा को विनष्ट कर देता है। किन्तु यह सत्य है कि जिस क्षण से भारतवासियों में यह सद्बुद्धि आ जायेगी उसी क्षण से देश, राष्ट्र एवं समाज के शुभ दिन फिरने लगेंगे।