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Books - धन का उपार्जन और उपयोग

Media: TEXT
Language: HINDI
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खर्च करना भी सीखिये

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कहावत है—‘‘धन कमाना सरल है, किन्तु खर्च करना कठिन है।’’ साधारण अर्थ में तो यह कहावत हास्यास्पद मालूम पड़ती है। कोई भी कह उठेगा—‘‘खर्च करने में क्या है, लाओ चाहे जितना पैसा दे दो, मैं कुछ ही समय में खर्च कर दूंगा, कमाना ही कठिन है।’’ लेकिन बात ऐसी नहीं है, यह कहावत अपने आप में अर्थशास्त्र का महत्त्वपूर्ण सूत्र है।

हमारी आर्थिक समस्याओं के पीछे कमाने का इतना दोष नहीं है, जितना खर्च करने का। थोड़ा-बहुत अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार कमाते तो सभी हैं। बहुत कम व्यक्ति ऐसे मिलेंगे, जो कुछ न कमाते हों। हमारी खर्च प्रणाली ही आर्थिक समस्याओं की जड़ में मुख्य होती है। हम नहीं जानते कि हमें किस तरह खर्च करना चाहिये। जहां खर्च नहीं करना चाहिये वहां हम पानी की तरह पैसा बहाते हैं और जहां आवश्यकता पड़ती है, वहां हम रीते हो जाते हैं। या खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं। खर्च करने की इस दोषयुक्त प्रणाली के कारण ही हमारे सामने आर्थिक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं। हम उपयुक्त आमदनी होते हुए भी सुखी नहीं हो पाते। खर्च की विषम व्यवस्था के कारण कम आमदनी से लेकर अधिक आमदनी वालों को भी पूछ लिया जाय, सभी खर्च न चलने की शिकायत करते मिलेंगे, चाहेंगे और आमदनी बढ़ जाय। लेकिन आमदनी बढ़ जाती है फिर भी हमारी शिकायत बन्द नहीं होती, वह बनी रहती है—‘‘खर्च नहीं चलता।’’

इसमें कोई सन्देह नहीं कि पर्याप्त धनोपार्जन करते हुए भी यह खर्च करने की विधि नहीं जानते और अपनी आमदनी से सही अर्थों में सुखी नहीं हो पाते हैं।

खर्च की प्रणाली में सबसे बड़ा दोष है—खर्चे का बजट अपनी आमदनी से अधिक रखना। जिस व्यक्ति का खर्च आय से अधिक होगा, उसका जीवन सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकता। न वह ईमानदारी पर ही अधिक दिन तक टिक सकता है। क्योंकि फिर बढ़े हुए खर्चे की पूर्ति के लिए वह अनैतिक ढंग से कमाने के मार्ग अपनायेगा। अधिक धन कमाने से आधिक सुख नहीं मिलता, वरन् ठीक-ठीक ढंग से खर्च करने पर ही सुखी और सन्तुष्ट जीवन बिताया जा सकता है। जो व्यक्ति सौ रुपये कमाता है, और खर्चा डेढ़ सौ का बना रखा है, वह अपनी आवश्यकताओं के लिए उधार कर्ज लेगा या बेईमानी से धन कमायेगा। दोनों ही रास्ते उसकी आन्तरिक शान्ति के लिए गलत हैं। फिर कमाई से अधिक खर्च करने की आदत के कारण आय बढ़ने के साथ-साथ अधिक खर्च करने का स्वभाव-सा बन जाता है और मनुष्य अपनी आर्थिक समस्याओं में उलझा रहता है। चाणक्य ने कहा है—‘‘अपार धनशाली कुबेर भी यदि अपनी आमदनी से अधिक खर्च करेगा तो एक दिन वह भी कंगाल हो जायेगा।’’

अपनी आमदनी को देखकर खर्च की व्यवस्था इस तरह करनी चाहिए कि आमदनी का कुछ अंश बचाया भी जा सके, जो कठिनाई पड़ने पर काम आवे। स्मरण रहे खर्च की नियमित व्यवस्था मर्यादा के लिए हमें किसी दूसरे का अनुकरण नहीं करना चाहिए। एक सौ रुपये कमाने वाला व्यक्ति तीन-सौ रुपये कमाने वाले से खर्च की नकल न करे। वह अपनी आर्थिक स्थिति को देखे और उसी में से कुछ बचत रखकर खर्च करे।

कोई वस्तु इसलिए न खरीदे कि वह सस्ती है, क्योंकि सस्ती चीज अधिक मात्रा में खरीद लेने पर उसे खर्च करने की इच्छा भी बढ़ती है और अधिक खर्च हो जाता है। इससे वह अपने औसत मूल्य से भी महंगी पड़ती है।

अपव्यय की तरह ही खर्च करने में कंजूसी भी बहुत बड़ा दोष है। बहुत से लोग जीवन-भर कमाते-कमाते मर जाते हैं, किन्तु वे अपने या दूसरों के लिए आवश्यक खर्च भी नहीं करते। अपने बच्चों को योग्य बनाने में, उनकी शिक्षा-दीक्षा में बहुत-से लोग कंजूसी करते हैं। कई लोगों को पैसे से इतना मोह होता है कि वे हारी-बीमारी में भी दवा-दारु के लिए पैसा खर्च नहीं करते और मर तक जाते हैं। नजर कमजोर होती है, लेकिन चश्मा नहीं लगाते और धीरे-धीरे अन्धे तक हो जाते हैं। पैसा होते हुए भी बहुत से लोग खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहन- सहन में इतनी कंजूसी करते हैं कि वो दरिद्र-से लगते हैं। वे एक दिन मर जाते हैं और उनकी जीवन भर की संजोयी हुई सम्पत्ति यों ही जमीन में गढ़ी रह जाती है या बच्चों द्वारा फिजूल-खर्ची में फूंक दी जाती है।

खर्च करने के सम्बन्ध में फिजूल-खर्ची या कंजूसी दोनों ही बुरे हैं। आमदनी से अधिक और अनाप-शनाप खर्चे करना जहां कई कठिनाइयों को जन्म देता है, वहां अपनी नियमित आवश्यकताओं को पूरा न करके उनमें कंजूसी करना और भी बुरा है, इससे जीवन केवल धन के लिए नष्ट हो जाता है। धन जीवन को सुरक्षित और समृद्ध बनाने के काम नहीं आता। अपव्यय और कंजूसी दोनों ही अर्थ व्यवस्था के असंगत मार्ग हैं। किफायत भी करनी चाहिए, लेकिन परेशानी उठाकर, शरीर को नष्ट करके, कष्ट झेलकर, केवल धन को संग्रह करते रहने के नाम पर की जाने वाली बचत बुरी है, त्याज्य है।

खर्च करने में मध्यम मार्ग ही अपेक्षित है। एक अर्थशास्त्री ने कहा है—‘‘खर्च तो गंगाजी के प्रवाह की तरह है। जल गतिशील रहता है। धन है तो खर्च भी होना ही चाहिए। हां बरसाती नदी की तरह इसमें बाढ़ नहीं आनी चाहिए।’’

यही मितव्ययिता का मध्यम मार्ग ही खर्च करने की सही आधार-शिला है। नियमित आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त अपनी आमदनी को ध्यान में रखकर खर्च करना बुरा नहीं है। धन का खर्च करना न कहकर उसका सदुपयोग करना ही मितव्ययिता है। रोके रहने से धन उपयोगिता, उर्वरक क्षमता ही नष्ट हो जाती है और फिजूल-खर्ची से वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है। चर-प्रवाहिनी नदी की धारा की तरह धन का संचय और सदुपयोग करते रहना चाहिए।

मितव्ययिता जहां अर्थ-व्यवस्था के लिए एक उत्कृष्ट मार्ग है, वहां इससे मनुष्य में नैतिक सद्गुणों की भी वृद्धि होती है। अर्थ के माध्यम से रुपये पैसों के द्वारा तो इसकी साधना का अभ्यास किया जाता है। आर्थिक क्षेत्र में मितव्ययिता के अभ्यास से मनुष्य जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी विभिन्न शक्तियों का सदुपयोग करता है। यह ध्रुव सत्य है कि आर्थिक क्षेत्र में अपव्ययी स्वभाव वाला व्यक्ति आध्यात्मिक, नैतिक, धार्मिक क्षेत्रों में भी संयमी और अपनी शक्तियों का सदुपयोग करने वाला रहे, इसकी सम्भावना कम ही है। मितव्ययिता जहां हमारी आर्थिक व्यवस्था को दृढ़, समर्थ बनाती है, वहां हमारे मानस पटल पर भी ऐसे संस्कार छोड़ती है, जिसके द्वारा हम सर्वत्र ही अपने जीवन धन का, अपनी शक्तियों का सही-सही उपयोग कर सकें—

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