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Books - धन का उपार्जन और उपयोग

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Language: HINDI
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धन का उपार्जन एवं उपयोग

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पैसे में रचनात्मक शक्ति है। उसके द्वारा कितने ही उपयोगी कार्य हो सकते हैं और सदुद्देश्यों की पूर्ति में सहायता मिल सकती है। पर साथ ही यह भी न भूल जाना चाहिए कि उसकी मारक शक्ति उससे भी बढ़ी-चढ़ी है।

धन का महत्व तभी है जब वह नीतिपूर्वक कमाया गया हो और सदुद्देश्यों के लिए उचित मात्रा में खर्च किया गया हो। अनीति से कमाया तो जा सकता है, पर जिन लोगों के द्वारा वह कमाया गया है, जिनका शोषण या उत्पीड़न हुआ है, उनका विक्षोभ सारी मानव-सभ्यता के लिए घातक परिणाम उत्पन्न करता है। शोषित एवं उत्पीड़ित व्यक्ति जब देखते हैं कि उन्हें ठगा या सताया गया है और जिसने सताया या ठगा है वह मौज कर रहा है तो उनका मन आस्तिकता एवं नैतिकता के प्रति विद्रोह भावना से भर जाता है।

यह विक्षोभ धर्म और ईश्वर पर से विश्वास डिगा सकता है और उस स्थिति में पड़ा हुआ मनुष्य अपने ढंग से—अपने से छोटों के साथ दुर्व्यवहार आरम्भ कर सकता है। इस प्रकार बुराई की बेल बढ़ती है और उसके विषैले फल संसार में अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम पैदा करते हैं। इस प्रकार फैली हुई दुष्प्रवृत्तियों का कोई परिणाम उस पर भी हो सकता है जिसने अनीतिपूर्वक किसी का शोषण किया था।

बुराई से केवल बुराई बढ़ती है। धन यदि बुरे माध्यम से कमाया गया है तो उसका खर्च भी उचित रीति से नहीं हो सकता है। जिसने पसीना बहा कर गाढ़ी कमाई से पैसा कमाया है, उसे खर्च करते समय दर्द लगेगा और बार-बार सोचेगा कि इसे किस कार्य के लिए कितनी मात्रा में खर्च करना उचित है? किंतु जिसने बिना परिश्रम, धूर्ततापूर्वक कमाया है उसके लिए निरर्थक कामों में बहुत कुछ खर्च कर डालना भी बुरा न लगेगा। सच बात तो यह है कि हराम की कमाई आडम्बर बनाने, ढोंग रचने और विलासिता के प्रसाधन जमा करने में ही खर्च होती है। अनेकों व्यसन ऐसे लोगों के पीछे पड़ जाते है जिनमें वह धन तो बर्बाद होता ही है, साथ ही शरीर और मन को अस्त-व्यस्त कर देने वाली अनेकों बुराइयां भी अपने भीतर पैदा हो जाती हैं जिनके कारण अनेकों विपत्तियों और व्यथाओं का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार वह अनुचित कमाई अपना क्षणिक चमत्कार दिखाकर अन्ततः मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली ही सिद्ध होती है।

धन कमाने के लिए उचित प्रयत्न करना सराहनीय है। उपार्जन और उत्पादन के लिए प्रयत्नशील रहने से व्यक्ति और समाज की क्षमता बढ़ती है। प्रगति का पथ प्रशस्त करने वाले साधनों में एक महत्वपूर्ण वस्तु धन भी है। इस धन के उपार्जन का प्रयत्न करने में बुराई भी नहीं प्रशंसा की बात है। इससे राष्ट्र की आर्थिक क्षमता बढ़ती है और उसमें भौतिक उन्नति की संभावना बढ़ती है। भौतिक उन्नति भी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती है। दरिद्रता ही मनुष्य की कोमल भावनाओं और मानवोचित आकांक्षाओं को कुण्ठित ही करती रहती है। इसलिए दरिद्रता को सदा हेय ठहराया जाता है। धन को लक्ष्मी मानकर उसकी पूजा करने की प्रथा से ही यह स्पष्ट है कि वह स्वागत योग्य है—घृणास्पद नहीं।

धन की विधायक शक्ति सर्वविदित है। इसलिए गृही-विरक्त सभी धन प्राप्ति की आकांक्षा मन में धारण किए रहते हैं और उसके लिए अपने-अपने ढंग से प्रयत्न भी करते रहते हैं। धन पाकर बाल-वृद्ध सभी को प्रसन्नता होती है। यह उचित भी है, क्योंकि सभी श्रेणी के व्यक्ति अपनी-अपनी सुख सुविधा के प्रसाधन धन द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं। विचारणीय प्रश्न इतना ही है कि वह धन अनीतिपूर्वक कमाया हुआ न हों। यदि यह अनुचित, अन्यायोपार्जित होगा, बिना परिश्रम के अनायास ही प्राप्त कर लिया गया होगा, तो वह कमाई किसी के लिए भी श्रेयष्कर न होगी। वरन् जिससे कमाया गया है उसे और जिसने कमाया है उसे शोक-सन्ताप देती हुई अन्ततः खेदजनक परिणाम प्रस्तुत करती हुई विनष्ट होगी।

अनुचित मार्ग से आया हुआ धन मौज-मजा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है। उस मार्ग पर थोड़ा भी झुकाव होने से बड़ी से बड़ी पूंजी कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाती है। खर्च करने के अगणित साधन फैले पड़े हैं। उनमें कुछ ही समय में चाहे जितना पैसा उड़ाया जा सकता है। विलास प्रसाधनों में अपव्यय की आदत जिन्हें पड़ जाती है उन्हें वह भी एक आवश्यकता जैसी ही प्रतीत होने लगती है और फिर उस आदत को पूरा करने के लिए बहुत धन की आवश्यकता बनी रहती है। ऐसे लोग कर्ज लेकर, दूसरों को धोखा देकर या जीवन को सुव्यवस्थित रखने वाली छोटी संचित पूंजी को नोच-नोचकर अपनी उड़ाऊ आदत को पूरा करते हैं और धीरे-धीरे अपराधी प्रवृत्तियां अपनाकर ऐसे दुष्कर्म करने पर उतर आते हैं जिनका परिणाम सर्वनाश के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता।

आज मनुष्य का मूल्यांकन उसके धन से किया जाता है। किसी व्यक्ति का परिचय पूछने पर आमतौर से लोग उसकी कमाई और सम्पत्ति का वर्णन करते हैं और उसी आधार पर किसी का छोटा या बड़ा होना माना जाता है। यह दृष्टिकोण गलत है। इस गलती का एक परिणाम यह भी होता है कि लोग किसी भी प्रकार धनी बनना चाहते हैं और उसके लिए अनुचित तरीके अपनाने में भी नहीं हिचकते। कितने ही व्यक्ति जो वस्तुतः धनी नहीं हैं, दूसरों की आंखों में धनी प्रतीत होने के लिए आडम्बर बनाते हैं और उन खर्चीले आडम्बरों में बेचारों की आर्थिक कमर ही टूट जाती हैं। भेद खुलने पर उपहास होता है सो अलग।

कंजूसी अपने ढंग की दुष्प्रवृत्ति है। पैसे को रोककर, दाबकर रखना, उसके लाभ से समाज को वंचित करने के समान है। सड़क चलने के लिए कोई व्यक्ति उसे रोककर बैठ जाय तो दूसरे को इससे असुविधा ही होगी। नदी में बहने वाला जल अनेकों का हित साधन करता है पर यदि कोई उस प्रवाह को रोक डाले तो उससे कहीं सूखा पड़ने और कहीं बाढ़ आने का खतरा रहेगा। इसी प्रकार रुका हुआ धन अनेकों की आजीविका का मार्ग बन्द कर देता है और जहां रुकता है वहां बाढ़ जैसी बर्बादी उत्पन्न होती है। कंजूस उसे न अपने काम में लाता है और न दूसरों के काम में आने देता है। ऐसी दशा में वह संचय एक प्रकार का दुर्भाग्य एवं अभिशाप ही सिद्ध होता है। चोर-डाकुओं की उत्पत्ति का एक कारण कंजूसों का लालचीपन भी होता है। मधुमक्खी की तरह उन्हें अपनी कमाई दूसरों के हाथ गंवाने का ही पश्चाताप हाथ लगता है।

विद्वानों का कथन है कि मनुष्य की श्रेष्ठता और निष्कृष्टता दो कसौटियों पर परखी जा सकती है और वे हैं— (1) धन (2) नारी। इन दो के संबंध में जिनका दृष्टिकोण धर्मबुद्धि से संचालित होता है, जो इन दो प्रलोभनों के आगे ईमानदार बने रहते हैं वस्तुतः वे ही खरे आदमी हैं। जो परीक्षा की अग्नि में तपकर खरा सिद्ध हो सके उसी को प्रमाणिक माना जाता है। धर्मात्मा और सज्जन वही व्यक्ति कहा जा सकता है जिसने अनीति से उपार्जित, बिना परिश्रम का पैसा छुआ न हो। जिसे ईमानदारी की कमाई में ही संतोष है उसे संत कहा जा सकता है। जिसकी आंखें युवा नारी में अपनी वयस्क बहिन या पुत्री की छाया देखती हैं और नर-नारी की आत्मा में जिसे अंतर नहीं दीखता उसी को ब्रह्मचारी या विरागी कह सकते हैं।

धन का जहां जीवन के भौतिक विकास में महत्वपूर्ण उपयोग है वहां आध्यात्मिक जीवन में भी एक भारी उपयोग है कि वह मनुष्य की वास्तविकता को परखकर रख देता है। लोभ को पाप का फल माना गया है। अनीति की कमाई एवं अनुपयुक्त अपव्यय, किसी भी मनुष्य के घृणित एवं पतित होने का सबसे बड़ा प्रमाण ही हो सकता है, भले ही वह लोगों की आंखों को झुठलाने के लिए कितना ही बड़ा आडम्बर ओढ़े क्यों न बैठा हो? धर्मात्मा की प्रथम परीक्षा यह है कि वह परिश्रम की कमाई पर संतोष करे, एक-एक पाई का सदुपयोग करे और जो बचे उसे लोकहित के लिए लगाता रह कर स्वयं अपरिग्रही बना रहे।

पैसा जहां रुकता है वहां सड़ता है। उसकी बदबू चारों ओर फैलती है। कीचड़ या गंदी चीजों का ढेर लगने से उसमें सड़न पैदा होती है और उस गन्दगी की दुर्गन्ध समीपवर्ती सब लोगों को दुःख देती है। संग्रही व्यक्ति भले ही अमीर या पूंजीपति के नाम से पुकारे जायें वस्तुतः वे समाज के सम्मुख एक बुरा उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं। उनकी नकल करने की घुड़दौड़ में कितने दुर्बल बुद्धि मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और किसी प्रकार अमीर बनकर उन तथाकथित बड़े आदमियों जैसा ऐश्वर्य भोगना चाहते हैं। इस अवांछनीय घुड़दौड़ को जन्म देने वाले वे लोग हैं जो अपना व्यक्तिगत वैभव बढ़ाकर सर्वसाधारण की आंखों में चकाचौंध पैदा करते हैं और जल्दी अमीर बनने या असीम सुख-साधन भोगने की कामनाओं को भड़काते हैं। उदाहरण सबसे बड़ी शिक्षा-पद्धति मानी गई है। अमीरी का ठाठ-बाठ प्रकारान्तर से लोगों को यही सिखाता है कि उन्हें भी इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इस घुड़दौड़ में शामिल हो जाना चाहिए। अविकसित लोग सही तरीके से उतना उपार्जन करने की स्थिति में नहीं होते, उन्हें उतना धैर्य भी नहीं होता। इसलिए आमतौर से धन और ऐश्वर्य की लालसा में निमग्न व्यक्तियों को अनीति का मार्ग ही अपनाना पड़ता है। आज यही घुड़दौड़ मची हुई है और हमारा नैतिक स्तर बुरी तरह गिरता हुआ चला जा रहा है।

जो अधिक उपार्जन कर सकते हैं उनका उत्तरदायित्व है कि सामान्य सामाजिक स्तर से बढ़-चढ़कर आडम्बर न बनावें, सादगी से रहें और उसी प्रकार का जीवन यापन करें जैसा कि उस देश के सामान्य नागरिकों को बिताना पड़ता है। थोड़ा अंतर रह सकता है पर वह उतना ही होना चाहिये जितना हाथ की पांचों उंगलियों की लम्बाई में थोड़ा-सा अंतर रहता है। बहुत भारी राजा और रंक जैसा अंतर सामाजिक रहन-सहन में रहना केवल विद्वेष की आग ही भड़का सकता है और उससे अनाचार ही उत्पन्न हो सकता है।

अधिक उपार्जन की क्षमता की सार्थकता एवं प्रशंसा इस बात में है कि उसका उपयोग अपने से पिछड़े हुए लोगों को ऊंचा उठाने में किया जाय। दान उन लोगों का एक नैतिक कर्त्तव्य है जो अपने आवश्यक खर्चों के अतिरिक्त कुछ अधिक कमा या बचा सकते हैं। अपरिग्रह एक धर्म-कर्त्तव्य माना गया है। जितनी अनिवार्य आवश्यकता है उतने से अधिक का संचय परिग्रह रूपी पाप की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। किसे कितनी आवश्यकता है उसका निर्णय उस समाज की मध्यम श्रेणी के स्तर के आधार पर किया जाना चाहिए। अन्यथा कोई व्यक्ति अपनी विलासिता को भी ‘आवश्यकता’ सिद्ध करने लगेगा।
आर्थिक उपार्जन की क्षमता का होना प्रशंसनीय है। पर उस प्रशंसा की सार्थकता तभी है जब वह व्यक्तिगत विलासिता बढ़ाने की अपेक्षा लोक-कल्याण के काम आवें। धन को शक्ति का प्रतीक माना गया है, उसकी लक्ष्मी के रूप में पूजा भी की जाती है। यह मान्यताएं तभी सत्य मानी जा सकती हैं जब उसके उपार्जन एवं व्यय पर धर्मबुद्धि का समुचित नियंत्रण बना रहे। अनियंत्रित उपार्जन एवं खर्च दोनों ही पतन का कारण बनते हैं, उसके कारण व्यक्ति का नाश और समाज का पतन होता है। धन विधायक शक्ति अवश्य है पर उसकी विनाशक शक्ति और भी प्रचंड है। धन का अनियंत्रित उपयोग किसी भी समाज का सर्वनाश करने के लिए एक भयंकर संहारक अस्त्र सिद्ध हो सकता है।
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