
धर्म एवं नीति की एक रूपता
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मनुष्य की योग्यता, बुद्धिमत्ता, क्षमता, समर्थता एवं सम्पन्नता में अभिवृद्धि होनी चाहिए। भौतिक प्रगति की इस आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता। किन्तु यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि प्रगति एकांगी न हो उसके साथ सज्जनता, शालीनता एवं उदार परमार्थ परायणता जैसे तत्वों को भी जुड़ा रहना चाहिए। भौतिक और आत्मिक प्रगति का सन्तुलन एवं समन्वय ही श्रेयस्कर हो सकता है। खाली बोरा सीधा खड़ा नहीं रहता और भूखा भड़ियाई पर उतारू होता है यह सही है। ‘विभुक्षितं किन्नकरोति पापम्’ की उक्ति झुठलाई नहीं जा सकती। अस्तु आर्थिक, बौद्धिक एवं अन्यान्य प्रकार की सम्पन्नताएं उपार्जित करने के लिए भरपूर प्रयत्न होना चाहिए। किन्तु ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि एकांगी प्रगति असन्तुलन उत्पन्न करती है और उसमें लाभ के स्थान पर हानि होती है। सम्पत्ति बढ़े किन्तु शालीनता गये-गुजरे स्तर की ही बनी रहे तो उस वैभव का अनुपयुक्त उपयोग होगा। फलतः प्रत्यक्षतः दीखने वाली सम्पत्ति परोक्ष रूप से विपत्ति का सृजन करेगी।
गाड़ी का एक पहिया ऊंचा, दूसरा नीचा हो। एक पैर पतला, दूसरा मोटा हो। एक हाथ लम्बा, दूसरा छोटा हो तो कुरूपता दीखेगी और कार्यक्षमता में भी गड़बड़ी पड़ेगी। दोनों में समता रहनी चाहिए। समृद्धि के साथ सदाशयता का बढ़ना आवश्यक है। सुख को मिल बांटकर खाया जाय तभी वह हजम होगा। एकाकी उपार्जन में हर्ज नहीं, पर उसके उपयोग में उन्हें भी सम्मिलित करना चाहिए जो अपने बलबूते सम्मानित मानव कहलाने की स्थिति में कारणवश पहुंच नहीं सके हैं। अपनी कमाई आप ही खा जाने से हानिकारक अपच उत्पन्न होता है। उद्धत उपयोग और अनावश्यक संचय की स्वार्थपरता लगती तो चतुरता जैसी है, पर उस संकीर्णता के जो दुष्परिणाम निकलते हैं उसे देखते हुए लगता है उस नीति को अपनाते समय लाभ दीखता भर था, उससे अन्ततः हानि ही अधिक हुई। स्वार्थी के प्रति दूसरों का ईर्ष्या-द्वेष बढ़ता है। यह अपेक्षा किया जाना उचित है कि जिन्हें ईश्वर अधिक बढ़ाये वे अधिक उदार बनें और अपनी उपलब्धियों का अधिक लाभ समाज को पहुंचाने में उदारता का परिचय दें। जो ऐसा न करके संकीर्ण स्वार्थपरता में ही निमग्न रहते हैं वे मोटी दृष्टि से दोषी, अपराधी न होते हुए भी सृष्टि के उस सार्वभौम नियम को तोड़ते हैं जिसमें अधिक समृद्ध को अधिक उपयोगी बनने का प्रयत्न करने की अपेक्षा की जाती है।
धर्म धारणा का प्रमुख आधार है व्यक्ति का अपने आप में संयमी होना, सादगी बरतना, नम्र बना। साथ ही अपनी उपलब्धियों से दूसरों को यथासम्भव अधिकाधिक लाभान्वित करना। धर्म निष्ठा की प्रकृति मनुष्य को इसी दिशा में प्रशिक्षित, प्रोत्साहित एवं परिपक्व करती है। फलतः धार्मिक व्यक्ति अपने और दूसरों के लिए हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होता है। इसमें व्यक्ति की गरिमा बढ़ती है। दूसरों को उसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है। जिनके साथ सम्पर्क होता है उन्हें सुविधा, सहायता एवं प्रसन्नता मिलती है। समाज में उपयोगी वातावरण बनता है। शान्ति, स्थिरता एवं प्रगति की सम्भावनाएं विकसित होती हैं। इसके विपरीत स्वार्थान्ध व्यक्ति नीति मर्यादाओं का अतिक्रमण करके अपने और दूसरों के लिए संकट ही उत्पन्न करता है।
स्वार्थ को पाप का आधार और परमार्थ को पुण्य का कारण माना गया है। इसका कारण यह है कि स्वार्थान्ध व्यक्ति अपने सीमित लाभ में इतना निरत रहता है कि उसे सार्वजनिक हित की बात सूझती ही नहीं और बहुत करके निजी लाभ के लिए नीति मर्यादाओं को तोड़ने में लोकहित को चोट पहुंचाने में उसे कोई हिचक नहीं होती। इसके विपरीत परमार्थ परायण व्यक्ति सार्वजनिक हित को प्रधानता देता है और अपना निजी लाभ उसी हद तक स्वीकार करता है जितने में सामाजिक सुव्यवस्था को किसी प्रकार की हानि न होती हो। यह दृष्टिकोण का अन्तर ही है, जिसके कारण कार्य का स्तर उत्कृष्ट एवं निकृष्ट बनता है।
स्वार्थ के लिए पहलवान बनने वाला व्यक्ति कुश्ती लड़ने दंगल जीतने, दूसरे को डराने—धमकाने अथवा अधिक उपार्जन करने जैसे कार्यों में उस बल का उपयोग करेगा। आन्तरिक संकीर्णता इससे आगे की कोई बात उसे सोचने ही न देगी। स्वार्थपरता का स्तर यदि अधिक उभरा रहा तो फिर चोरी डकैती, गुण्डागर्दी जैसे दुष्कर्मों में उसे बलिष्ठता का उपयोग होने लगेगा। इसके विपरीत यदि परमार्थ का दृष्टिकोण रखकर पहलवान बना गया है तो उस शारीरिक शक्ति से असमर्थों की सेवा, अनीति पीड़ितों को सुरक्षा, व्यायाम शिक्षा, शान्ति रक्षा की गारण्टी जैसे उपयोगी कार्यों की व्यवस्था बनती रहेगी।
यही बात विद्या, धन आदि के सम्बन्ध में है। स्वार्थी विद्वान अपने ज्ञान की एक-एक बूंद बेचेगा। मुफ्त में किसी को इसका रत्ती भर भी लाभ न लेने देगा, बन पड़ा तो उसी चतुरता से कोई जाल खड़ा करके दूसरों को बहकाने और अपना उल्लू सीधा करने में भी हिचकेगा नहीं। विद्वान बनना अच्छा है या बुरा इसका फैसला करने से पूर्व यह देखना पड़ेगा कि विद्याध्ययन किस उद्देश्य को लेकर किया जा रहा है।
दृष्टिकोण जितना संकुचित होगा, उपार्जन का उपयोग उतने ही तुच्छ प्रयोजनों के लिए किया जायेगा। स्वार्थी मनुष्य जो कमाता है उसे अपनी विलासिता में तथा परिवार के लोगों को ही अधिक सम्पन्न बनाने में खर्च करता है। समाज में कितनी अशिक्षा, बीमारी, बेकारी, गरीबी आदि कुप्रथाओं को कम करने में खर्च करते उससे बन नहीं पड़ेगा। किसी दबाव से, यश लिप्सा से किसी प्रकार अनखते हुए कुछ दे दिया जाय तो बात दूसरी है। इसके विपरीत यदि परमार्थ प्रयोजन की दृष्टि रखकर धन कमाया गया है तो उसमें से नितान्त आवश्यक भाग परिवार निर्वाह के लिए रखकर स्वेच्छापूर्वक उस ईश्वरीय अमानत को सत्प्रयोजनों के लिए वापिस लौटा देने में उत्साह उमगेगा। परमार्थी मनुष्य सार्वजनिक हित के लिए स्वयं घाटा उठाने और कष्ट सहने को तैयार रहेगा। इसके विपरीत स्वार्थी को अपना स्वार्थ सर्वोपरि लगेगा और लोकहित की असीम क्षति होने में भी उसे कोई झिझक अनुभव न होगी। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए स्वार्थ की निन्दा और परमार्थ की प्रशंसा की जाती है।
स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए ही सब कुछ सोचता और चाहता है। स्त्री, बच्चों को ही वह स्वार्थ साधन के निमित्त देखता है और इसी से उनका भरण-पोषण करता है। पत्नी की शारीरिक सेवाओं का—सन्तान से पिण्डदान अथवा कमाई का लाभ मिलने की आशा रहती है। बेटे को इसी लिए प्यार किया जाता है कि उसके विवाह में दहेज मिलेगा और बड़ा होने पर कमाई खिलावेगा। बेटी से घाटा दीखता है इसलिए हेय लगती है। स्त्री भी यदि कुरूप, रुग्ण, वन्ध्या आदि होने के कारण पसन्द न आई तो उसका त्याग करने में भी कोई संकोच न होगा। ऐसे लोग बेटी बेचने, बहिन का धन अपहरण करने जैसे कुकृत्यों में भी हिचकते नहीं। ऐसे ही लोग जीभ के स्वाद के लिए पशु-पक्षियों का नृशंस वध करते हुए खिन्न नहीं होते। अनैतिक आचरण एवं अपराध वर्ग के कुकर्म और कुछ नहीं मात्र स्वार्थपरता का उभरा हुआ रूप है।
संसार के महामानवों में से प्रत्येक परमार्थी रहा है। उसके लिए अपनी शक्तियों का अधिकाधिक भाग लगाया खपाया है। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर स्वयं कष्टसाध्य जीवन जीते हुए जिनने परमार्थ प्रयोजनों में अपने आपको जिस मात्रा में संलग्न रखा है वे उतने ही अंशों में महामानव माने जाते रहे हैं और उनकी विरुदावलि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित की जाती रही है। साधु-ब्राह्मणों को पृथ्वी के देवता इसी लिए कहा जाता है कि वे निजी स्वार्थों को पैरों तले कुचल कर लोकहित की पुण्य प्रक्रिया अपनाये रहने का व्रत धारण करते हैं। देवमानवों की सदा से यही नीति रही है।
उपभोग की प्रसन्नता तुच्छ स्तर के लोगों को होती है। उदात्त मनुष्य अपने साधनों को लोकहित में प्रयुक्त करते हैं और निजी उपभोग की अपेक्षा परमार्थ प्रयोजनों में उनका सदुपयोग होते देखकर अधिक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होते हैं। व्यक्ति का गौरव इसी में है कि उसका दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप अधिकाधिक परमार्थ परायण बने। समाज का हित इसी में है कि उसके सदस्यों में से अधिकांश को परमार्थ रत होने का सम्मान प्राप्त हो। किसी देश, धर्म, समाज या संस्कृति की गरिमा इसी आधार पर आंकी जा सकती है कि उसके सदस्यों में परमार्थ परायणता के तत्व कितनी मात्रा में हैं और वे कितने उत्साहपूर्वक क्रियान्वित होते हैं।
समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्तों में व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की भर्त्सना की गई है और उस पर कठोर अंकुश लगाने की व्यवस्था रखी गई है। अध्यात्मवाद के सिद्धान्त भी जहां तक भौतिक उपयोग से सम्बन्ध है, समाजवाद स्तर के ही हैं। जमाखोरी को समाज में पाप माना गया है और परिग्रह को अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुसार निन्दनीय ठहराया गया है।
सौ हाथों से हम कमायें अवश्य, पर हजारों हाथों से उसे बांट देने का सत्साहस भी एकत्रित करें। दूसरों का दुःख बंटा लेने की और अपना सुख दूसरों में बांट देने की प्रवृत्ति जिसमें जितनी प्रखर है उसे उसी स्तर का सुविकसित अध्यात्मवादी कहा जाना चाहिए। उपासना यदि उदारता से विकसित हो सके तो यह समझा जाना चाहिए कि रोपा गया पौधा बढ़ा, फला-फूला और अपने अस्तित्व को सार्थक बना सकने में समर्थ हुआ।
देश भक्ति एवं राष्ट्रीयता की शिक्षा आदर्शवाद के रूप में दी जाती है। सेना में भर्ती होकर देश की सुरक्षा के लिए अपने शौर्य, साहस का परिचय देने की अपील की जाती है। समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार व्यक्ति को समाज के हित में अधिक श्रम करने और अपना निर्वाह औसत देशवासी के स्तर का रखने के लिए कहा जाता है। सज्जनता की परिभाषा सादा जीवन उच्च विचार के रूप में की जाती है। सरकार टैक्स लगा कर अधिक उपार्जन को लोकहित में वापिस देने के लिए विवश करती है। धर्म प्रयोजनों में दानवृत्ति को पुण्य परोपकार को प्रोत्साहित किया जाता है। यह सब व्यक्तिवाद पर अंकुश और उदार परमार्थ प्रयोजन को प्रोत्साहन है। धर्म का तत्व यही है। इसी के अवलम्बन पर व्यक्ति और समाज की गरिमा और सुख-शान्ति टिकी हुई है।
गाड़ी का एक पहिया ऊंचा, दूसरा नीचा हो। एक पैर पतला, दूसरा मोटा हो। एक हाथ लम्बा, दूसरा छोटा हो तो कुरूपता दीखेगी और कार्यक्षमता में भी गड़बड़ी पड़ेगी। दोनों में समता रहनी चाहिए। समृद्धि के साथ सदाशयता का बढ़ना आवश्यक है। सुख को मिल बांटकर खाया जाय तभी वह हजम होगा। एकाकी उपार्जन में हर्ज नहीं, पर उसके उपयोग में उन्हें भी सम्मिलित करना चाहिए जो अपने बलबूते सम्मानित मानव कहलाने की स्थिति में कारणवश पहुंच नहीं सके हैं। अपनी कमाई आप ही खा जाने से हानिकारक अपच उत्पन्न होता है। उद्धत उपयोग और अनावश्यक संचय की स्वार्थपरता लगती तो चतुरता जैसी है, पर उस संकीर्णता के जो दुष्परिणाम निकलते हैं उसे देखते हुए लगता है उस नीति को अपनाते समय लाभ दीखता भर था, उससे अन्ततः हानि ही अधिक हुई। स्वार्थी के प्रति दूसरों का ईर्ष्या-द्वेष बढ़ता है। यह अपेक्षा किया जाना उचित है कि जिन्हें ईश्वर अधिक बढ़ाये वे अधिक उदार बनें और अपनी उपलब्धियों का अधिक लाभ समाज को पहुंचाने में उदारता का परिचय दें। जो ऐसा न करके संकीर्ण स्वार्थपरता में ही निमग्न रहते हैं वे मोटी दृष्टि से दोषी, अपराधी न होते हुए भी सृष्टि के उस सार्वभौम नियम को तोड़ते हैं जिसमें अधिक समृद्ध को अधिक उपयोगी बनने का प्रयत्न करने की अपेक्षा की जाती है।
धर्म धारणा का प्रमुख आधार है व्यक्ति का अपने आप में संयमी होना, सादगी बरतना, नम्र बना। साथ ही अपनी उपलब्धियों से दूसरों को यथासम्भव अधिकाधिक लाभान्वित करना। धर्म निष्ठा की प्रकृति मनुष्य को इसी दिशा में प्रशिक्षित, प्रोत्साहित एवं परिपक्व करती है। फलतः धार्मिक व्यक्ति अपने और दूसरों के लिए हर दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होता है। इसमें व्यक्ति की गरिमा बढ़ती है। दूसरों को उसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है। जिनके साथ सम्पर्क होता है उन्हें सुविधा, सहायता एवं प्रसन्नता मिलती है। समाज में उपयोगी वातावरण बनता है। शान्ति, स्थिरता एवं प्रगति की सम्भावनाएं विकसित होती हैं। इसके विपरीत स्वार्थान्ध व्यक्ति नीति मर्यादाओं का अतिक्रमण करके अपने और दूसरों के लिए संकट ही उत्पन्न करता है।
स्वार्थ को पाप का आधार और परमार्थ को पुण्य का कारण माना गया है। इसका कारण यह है कि स्वार्थान्ध व्यक्ति अपने सीमित लाभ में इतना निरत रहता है कि उसे सार्वजनिक हित की बात सूझती ही नहीं और बहुत करके निजी लाभ के लिए नीति मर्यादाओं को तोड़ने में लोकहित को चोट पहुंचाने में उसे कोई हिचक नहीं होती। इसके विपरीत परमार्थ परायण व्यक्ति सार्वजनिक हित को प्रधानता देता है और अपना निजी लाभ उसी हद तक स्वीकार करता है जितने में सामाजिक सुव्यवस्था को किसी प्रकार की हानि न होती हो। यह दृष्टिकोण का अन्तर ही है, जिसके कारण कार्य का स्तर उत्कृष्ट एवं निकृष्ट बनता है।
स्वार्थ के लिए पहलवान बनने वाला व्यक्ति कुश्ती लड़ने दंगल जीतने, दूसरे को डराने—धमकाने अथवा अधिक उपार्जन करने जैसे कार्यों में उस बल का उपयोग करेगा। आन्तरिक संकीर्णता इससे आगे की कोई बात उसे सोचने ही न देगी। स्वार्थपरता का स्तर यदि अधिक उभरा रहा तो फिर चोरी डकैती, गुण्डागर्दी जैसे दुष्कर्मों में उसे बलिष्ठता का उपयोग होने लगेगा। इसके विपरीत यदि परमार्थ का दृष्टिकोण रखकर पहलवान बना गया है तो उस शारीरिक शक्ति से असमर्थों की सेवा, अनीति पीड़ितों को सुरक्षा, व्यायाम शिक्षा, शान्ति रक्षा की गारण्टी जैसे उपयोगी कार्यों की व्यवस्था बनती रहेगी।
यही बात विद्या, धन आदि के सम्बन्ध में है। स्वार्थी विद्वान अपने ज्ञान की एक-एक बूंद बेचेगा। मुफ्त में किसी को इसका रत्ती भर भी लाभ न लेने देगा, बन पड़ा तो उसी चतुरता से कोई जाल खड़ा करके दूसरों को बहकाने और अपना उल्लू सीधा करने में भी हिचकेगा नहीं। विद्वान बनना अच्छा है या बुरा इसका फैसला करने से पूर्व यह देखना पड़ेगा कि विद्याध्ययन किस उद्देश्य को लेकर किया जा रहा है।
दृष्टिकोण जितना संकुचित होगा, उपार्जन का उपयोग उतने ही तुच्छ प्रयोजनों के लिए किया जायेगा। स्वार्थी मनुष्य जो कमाता है उसे अपनी विलासिता में तथा परिवार के लोगों को ही अधिक सम्पन्न बनाने में खर्च करता है। समाज में कितनी अशिक्षा, बीमारी, बेकारी, गरीबी आदि कुप्रथाओं को कम करने में खर्च करते उससे बन नहीं पड़ेगा। किसी दबाव से, यश लिप्सा से किसी प्रकार अनखते हुए कुछ दे दिया जाय तो बात दूसरी है। इसके विपरीत यदि परमार्थ प्रयोजन की दृष्टि रखकर धन कमाया गया है तो उसमें से नितान्त आवश्यक भाग परिवार निर्वाह के लिए रखकर स्वेच्छापूर्वक उस ईश्वरीय अमानत को सत्प्रयोजनों के लिए वापिस लौटा देने में उत्साह उमगेगा। परमार्थी मनुष्य सार्वजनिक हित के लिए स्वयं घाटा उठाने और कष्ट सहने को तैयार रहेगा। इसके विपरीत स्वार्थी को अपना स्वार्थ सर्वोपरि लगेगा और लोकहित की असीम क्षति होने में भी उसे कोई झिझक अनुभव न होगी। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए स्वार्थ की निन्दा और परमार्थ की प्रशंसा की जाती है।
स्वार्थी व्यक्ति अपने लिए ही सब कुछ सोचता और चाहता है। स्त्री, बच्चों को ही वह स्वार्थ साधन के निमित्त देखता है और इसी से उनका भरण-पोषण करता है। पत्नी की शारीरिक सेवाओं का—सन्तान से पिण्डदान अथवा कमाई का लाभ मिलने की आशा रहती है। बेटे को इसी लिए प्यार किया जाता है कि उसके विवाह में दहेज मिलेगा और बड़ा होने पर कमाई खिलावेगा। बेटी से घाटा दीखता है इसलिए हेय लगती है। स्त्री भी यदि कुरूप, रुग्ण, वन्ध्या आदि होने के कारण पसन्द न आई तो उसका त्याग करने में भी कोई संकोच न होगा। ऐसे लोग बेटी बेचने, बहिन का धन अपहरण करने जैसे कुकृत्यों में भी हिचकते नहीं। ऐसे ही लोग जीभ के स्वाद के लिए पशु-पक्षियों का नृशंस वध करते हुए खिन्न नहीं होते। अनैतिक आचरण एवं अपराध वर्ग के कुकर्म और कुछ नहीं मात्र स्वार्थपरता का उभरा हुआ रूप है।
संसार के महामानवों में से प्रत्येक परमार्थी रहा है। उसके लिए अपनी शक्तियों का अधिकाधिक भाग लगाया खपाया है। व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर स्वयं कष्टसाध्य जीवन जीते हुए जिनने परमार्थ प्रयोजनों में अपने आपको जिस मात्रा में संलग्न रखा है वे उतने ही अंशों में महामानव माने जाते रहे हैं और उनकी विरुदावलि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित की जाती रही है। साधु-ब्राह्मणों को पृथ्वी के देवता इसी लिए कहा जाता है कि वे निजी स्वार्थों को पैरों तले कुचल कर लोकहित की पुण्य प्रक्रिया अपनाये रहने का व्रत धारण करते हैं। देवमानवों की सदा से यही नीति रही है।
उपभोग की प्रसन्नता तुच्छ स्तर के लोगों को होती है। उदात्त मनुष्य अपने साधनों को लोकहित में प्रयुक्त करते हैं और निजी उपभोग की अपेक्षा परमार्थ प्रयोजनों में उनका सदुपयोग होते देखकर अधिक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होते हैं। व्यक्ति का गौरव इसी में है कि उसका दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप अधिकाधिक परमार्थ परायण बने। समाज का हित इसी में है कि उसके सदस्यों में से अधिकांश को परमार्थ रत होने का सम्मान प्राप्त हो। किसी देश, धर्म, समाज या संस्कृति की गरिमा इसी आधार पर आंकी जा सकती है कि उसके सदस्यों में परमार्थ परायणता के तत्व कितनी मात्रा में हैं और वे कितने उत्साहपूर्वक क्रियान्वित होते हैं।
समाजवाद और साम्यवाद के सिद्धान्तों में व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की भर्त्सना की गई है और उस पर कठोर अंकुश लगाने की व्यवस्था रखी गई है। अध्यात्मवाद के सिद्धान्त भी जहां तक भौतिक उपयोग से सम्बन्ध है, समाजवाद स्तर के ही हैं। जमाखोरी को समाज में पाप माना गया है और परिग्रह को अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुसार निन्दनीय ठहराया गया है।
सौ हाथों से हम कमायें अवश्य, पर हजारों हाथों से उसे बांट देने का सत्साहस भी एकत्रित करें। दूसरों का दुःख बंटा लेने की और अपना सुख दूसरों में बांट देने की प्रवृत्ति जिसमें जितनी प्रखर है उसे उसी स्तर का सुविकसित अध्यात्मवादी कहा जाना चाहिए। उपासना यदि उदारता से विकसित हो सके तो यह समझा जाना चाहिए कि रोपा गया पौधा बढ़ा, फला-फूला और अपने अस्तित्व को सार्थक बना सकने में समर्थ हुआ।
देश भक्ति एवं राष्ट्रीयता की शिक्षा आदर्शवाद के रूप में दी जाती है। सेना में भर्ती होकर देश की सुरक्षा के लिए अपने शौर्य, साहस का परिचय देने की अपील की जाती है। समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार व्यक्ति को समाज के हित में अधिक श्रम करने और अपना निर्वाह औसत देशवासी के स्तर का रखने के लिए कहा जाता है। सज्जनता की परिभाषा सादा जीवन उच्च विचार के रूप में की जाती है। सरकार टैक्स लगा कर अधिक उपार्जन को लोकहित में वापिस देने के लिए विवश करती है। धर्म प्रयोजनों में दानवृत्ति को पुण्य परोपकार को प्रोत्साहित किया जाता है। यह सब व्यक्तिवाद पर अंकुश और उदार परमार्थ प्रयोजन को प्रोत्साहन है। धर्म का तत्व यही है। इसी के अवलम्बन पर व्यक्ति और समाज की गरिमा और सुख-शान्ति टिकी हुई है।