
बुद्धि पर धर्म का अंकुश रखा जाय
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चेतना के क्षेत्र में मन और बुद्धि का एक क्षेत्र है और श्रद्धा एवं सुसंस्कारिता का दूसरा। मन भौतिक साधनों के सहारे इन्द्रिय तृप्ति तथा अहंता की पूर्ति चाहता है। अर्थ संचय तथा बड़प्पन प्रदर्शित करने वाले दूसरे प्रसंग मन के प्रिय विषय हैं। बुद्धि यदि सामान्य स्तर की है और नर पशुओं जैसी है तो फिर उसे मन की इच्छाएं पूरी करने में ही अभिरुचि होगी, वह उसी का तर्क प्रमाण ढूंढ़कर समर्थन करेगी तथा उन कामनाओं की पूर्ति का ताना-बाना बुनेगी। क्षुद्र प्राणियों में न धर्म होता है न आदर्श। शरीर यात्रा एवं सुख साधनों के लिए जो भी मार्ग सरल दीखता है—सामने होता है, उसी को वे अपना लेते हैं। मनुष्य शरीर में भी पशु स्तर की अविकसित चेतना रहती है। बन मनुष्य इस स्तर के होते हैं।
मानव शरीर में मनुष्य स्तर की चेतना विकसित हो सके तो उसे उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता कहते हैं। इनका समन्वित चिन्तन, दृष्टिकोण, अध्यात्म कहलाता है और इनकी प्रेरणा से अपनाया गया क्रिया-कलाप धर्म कहलाता है। मानवी गरिमा को धर्म संस्कृति के आधार पर परखा जाता है। इसका विकास होने पर व्यक्ति आदर्शों की बात सोचता है। कर्त्तव्य को समझता है और शालीनता की जीवन नीति अपनाने के लिए तत्पर होता है। स्पष्टतः श्रेष्ठता का मार्ग अपनाने में उन लोगों की तुलना में घाटा ही रहता है जो नीति-अनीति का भेद किये बिना जो कुछ भी सुखद प्रतीत होता है उसी को कर गुजरते हैं। अन्तिम परिणाम की बात दूसरी है। वह प्रत्यक्ष तो होता नहीं और तत्काल मिलता भी नहीं है। बीज को वृक्ष बनने में देर लगती है। उसी प्रकार सदाचरण के सत्परिणाम भी समय साध्य होते हैं। उनका अनुमान लगाना दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने पर ही सम्भव होता है।
आवश्यक नहीं कि जिसमें तत्काल का लाभ दीखता है वह कुछ समय उपरान्त भी वैसा ही सुखद बना रहे जैसा कि तुरन्त के उपयोग में दीखता है। इसी प्रकार यह भी निश्चित नहीं कि जो इस समय कष्टकर लगता है वह कुछ समय बाद भी वैसा ही बना रहे। ऐसा कभी-कभी ही होता है जो आरम्भ और अन्त में एक जैसा बना रहे। बहुत करके तात्कालिक लाभ जिसमें प्रतीत होता है वे अपनी प्रतिक्रिया दुःखद उपस्थित करते हैं और अनेक बार आरम्भ में कठिनाई सहने पर पोडडडड उसके सत्परिणाम चिरकाल तक उपलब्ध होते रहते हैं। मडडडड अदूरदर्शी है। वह तत्काल के लाभ पर मचलता है। बुद्धि डडडड अन्धा पक्षपात करने वाले वकील की उपमा दी जाती है। सनक की ललक और लिप्सा—वासना और तृष्णा—पूरी करने के लिए उपाय सोचना और सरंजाम जुटाना वह तत्काल आरम्भ कर देती है। अवांछनीयता के विरोध में भीतर से या बाहर से विरोध हो तो वह ऐसे-ऐसे तर्क गढ़ती है कि अपने निश्चय और प्रयत्न को किसी न किसी प्रकार सही सिद्ध किया जा सके। विवादों में प्रायः यही होता है। न उनका अन्त आता है न कोई निर्णय होता है। प्रतिपक्षी वर्गों में से कोई हार मानने को तैयार नहीं होता। शास्त्रार्थ होते रहे हैं। उनसे चिढ़ भर बढ़ती है। आक्रमण प्रत्याक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है और मतभेद बढ़कर विद्वेष और आक्रमण का रूप धारण कर लेता है। भले से भले और बुरे से बुरे कार्य एवं विचार के पक्ष में कोई चतुर व्यक्ति इतने तर्क और प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है कि सामान्य व्यक्ति हतप्रभ होकर रह जाय उसे यह निर्णय करते ही न बने कि दोनों में से कौन पक्ष सही है। वकीलों के बुद्धि कौशल का चमत्कार इसी स्तर का देखा जा सकता है। एक वकील के पास एक ही तरह के दो मुकदमे हैं। दोनों की स्थिति बिलकुल एक जैसी हो। उसे एक में वादी की—दूसरे में प्रतिवादी की पैरवी करनी पड़े तो वह एक पक्ष में एक प्रकार के—दूसरे के पक्ष में दूसरे प्रकार के तर्क एवं प्रमाण उपस्थित करता है। दोनों अवसरों पर उसके जो दो प्रकार के प्रतिपादन होते हैं उससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन होता है कि सही क्या और गलत क्या है? तर्क के आधार पर यदि निर्णय निकल सके होते तो अब तक शास्त्रों के आधार पर धार्मिक, दार्शनिक, एवं सामाजिक समस्याएं कब की सुलझ गई होतीं। तब राजनैतिक एवं दूसरे विवाद भी सहज ही हल हो जाया करते। तर्क से जो जिसको परास्त कर देता वही विजयी बन जाया करता।
यहां तर्क का प्रतिवाद नहीं किया जा रहा है और न उसे निरर्थक बताने की बात चल रही है। उसकी उपयोगिता आवश्यकता तो रहेगी ही। उसकी सहायता के बिना तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही सम्भव न होगा जहां तो यह कहा जा रहा है कि शुष्क तर्क मात्र से तात्कालिक लाभ के पक्ष में जो आतुरता उत्पन्न होती है उससे आवेश की रोकथाम नहीं हो सकती। उसकी रोकथाम के लिए न केवल विवेक की वरन् आदर्शों के प्रति श्रद्धा की भी आवश्यकता पड़ती है। उसका अभाव हो तो भी तात्कालिक लाभ ही सर्वोच्च हित साधन प्रतीत होगा और उसी की पूर्ति में सर्वोपरि, बुद्धिमानी प्रतीत होगी। अनैतिक आचरणों में—विलासिता के असंयम में यही मनःस्थिति रहती है। स्वार्थी और अपराधी प्रकृति के मनुष्यों पर तात्कालिक लाभ ही छाया रहता है। अवांछनीय मार्ग पर चलने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ सकता है, यह बात वे जानते हैं, पर क्षेत्र में दूरदर्शी, विवेक और नीति पक्षी धर्म का प्रभाव कम रहने से किया वहीं जाता रहता है जिसमें तत्काल लाभ मिले। पीछे उसका परिणाम भले ही हानिकारक बनता रहे। तर्क के साथ नीति का जुड़े रहना आवश्यक है। बुद्धि का उपयोग किया जाय, पर उसके पीछे मानवी आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा का समावेश हो। यदि ऐसा न हो सका तो निरंकुश बुद्धि भी उतनी ही हानिकारक होगी जितनी कि दुष्ट के हाथ में पहुंचने पर धन, शस्त्र, अधिकार आदि का दुरुपयोग होता है और उससे करने वाले तथा भुगतने वालों को समान रूप से कष्ट सहना पड़ता है। इसलिए मनीषियों ने मन और बुद्धि की उपयोगिता स्वीकार करते हुए भी विवेक एवं धर्म का उन पर अंकुश रखने के लिए कहा है।
शुष्क तर्क की दृष्टि से प्रत्येक आदर्शवादी कार्य हानिकारक प्रतीत होता है। पुण्य परमार्थ में प्रत्यक्षतः कोई लाभ नहीं; उलटे समय, श्रम, धन की हानि ही होती है। संयम बरतने में मन मारना पड़ता है और असुविधाएं सहनी पड़ती हैं। दूसरों को सुखी बनाने के लिए सेवा धर्म अपनाने में स्वयं को कष्ट सहना पड़ेगा। अनीति कर्त्ताओं का असहयोग करने पर अपने ऊपर आक्रमण होने का भय रहता है। इस प्रत्यक्ष को देखते हुए कोई सदाशयता क्यों अपनाये? तर्क के आधार पर बूढ़े बैल को कसाई के हाथों बेचने से स्थान और चारे की बचत तथा नकद पैसा मिलने का लाभ प्रत्यक्ष है। उसकी पुरानी सेवा का ध्यान रखते हुए—पेन्शन के रूप में जीवित रहने तक चारा देते रहने में कोई लाभ नहीं। हर तर्क की दृष्टि से कसाई के हाथों बेचने में ही समझदारी प्रतीत होती है। ठीक इसी तर्क के आधार पर बूढ़े माता, पिता से भी इसी प्रकार पिण्ड छुड़ाने के पक्ष में अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हुए दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन हो सकता है। इसी दृष्टि को अपनालें तो फिर कोई नारी प्रसव वेदना सहने और बच्चे के पालन में यौवन का क्षरण एवं सुविधाओं में अड़चन पड़ने की बात को स्वीकार क्यों करेगी? उसमें उसे प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है।
मानवी उत्कर्ष के पीछे आदर्शवादी सिद्धान्त ही काम करते रहे हैं। यदि वे न होते तो आपस में लड़ते-मरते रहने वाले हिंस्र पशुओं की तरह ही मनुष्य भी स्वार्थ संघर्ष में एक दूसरे पर घात प्रतिघात चलाते हुए कब के मर-खप कर समाप्त हो गये होंगे। स्नेह, सहयोग, सद्भाव, सेवा, उदारता, संयम जैसे आदर्शवादी सिद्धान्तों को अपनाने वाले आरम्भ में थोड़े घाटे में रहते हैं, पर प्रकारान्तर से उन्हें उस सज्जनता का लाभ असंख्य गुना होकर मिल जाता है। इस तथ्य को हृदयंगम कराने के लिए आदर्शवादी नीतिमत्ता की—धर्मनिष्ठा की—आवश्यकता पड़ेगी। इसका समर्थन तात्कालिक लाभ पर आधारित शुष्क तर्क नहीं कर सकते। संकीर्ण बुद्धि उसकी पक्षधर नहीं हो सकती है। क्षुद्र मन और क्षुद्र बुद्धि अपनाये रहकर मनुष्य नर पशुओं के स्तर का ही बना रहेगा। उसकी चतुरता कौए और शृंगाल के स्तर की ओछी एवं कुटिल ही बनी रहेगी। तात्कालिक लाभ के लिए ललचाने वाले तर्क आरम्भ में अति मधुर लगते हुए भी अन्ततः नितान्त अहितकर सिद्ध होंगे।
मन को दसवीं इन्द्रिय माना गया है। बुद्धि उसी का एक अंग है। शरीर में जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भौतिक जानकारियां देने, अनुभूतियां कराने तथा साधन जुटाने के काम आती हैं उसी प्रकार मन का कार्य भी भौतिक क्षेत्र की व्यवस्था जुटाना ही होता है। शरीर और मन पंच भौतिक हैं। उनकी आवश्यकता, अभिरुचि एवं चेष्टा अपने सजातीय भौतिक क्षेत्र में ही सीमित रह सकती है। चेतना का अंश इससे ऊंचा है। आत्मा की आवश्यकता साधनों तक सीमित नहीं है। उसका सन्तोष अपने स्तर की उपलब्धियों पर अवलम्बित है। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से ही उसका समाधान एवं उत्कर्ष होता है। इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा उमंग एवं साहसिकता उत्पन्न करने की क्षमता मात्र धर्म धारणा में ही है। धर्म का तात्पर्य यहां अध्यात्म से है—साम्प्रदायिक प्रचलन से नहीं। उसे अपनाकर ही मनुष्य सच्चे अर्थों में बुद्धिमान सिद्ध होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा ही मानवी उत्कृष्टता का समर्थन करती और आत्मा को परमात्मा के स्तर तक पहुंचाती है। क्षुद्र बुद्धि से नहीं हमारा वास्तविक हित साधन प्रज्ञा युक्त श्रद्धा के सहारे ही सम्भव हो सकता है। शुष्क तर्क भरे विकृत बुद्धिवाद को अपनाकर हम चतुर भर बन सकते हैं किन्तु वह चतुरता दाने के लोभ में जाल में फंसकर जान गंवाने वाले पक्षी की तरह अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होती है।
विज्ञान बुद्धि से हम चित्र की लम्बाई-चौड़ाई नाप सकते हैं, उसमें लगे रंगों का विश्लेषण कर सकते हैं। यहीं उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। चित्र में जो सौन्दर्य है, जो भाव-अभिव्यंजना है—उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत कर सकने का कोई माप-दण्ड विज्ञान के पास नहीं है। ऐसी दशा में चित्रों का मूल्यांकन—क्या उसमें प्रयुक्त हुए पदार्थों को नाप-तौल कर करना ही ठीक रहेगा?
आंसुओं के पानी का वैज्ञानिक विश्लेषण पानी, खनिज, श्लेष्मा, क्षार, प्रोटीन का सम्मिश्रण भर किया जा सकता है। प्रयोगशालाएं आंसुओं का स्वरूप इतना ही बता सकेंगी। ऐसी दशा में क्या उनके साथ जुड़ हुए—स्नेह, ममता, करुणा, व्यथा, वेदना आदि के अस्तित्व से इन्कार कर दिया जाय? अथवा इन सम्वेदनाओं को इसलिए अमान्य ठहरा दिया जाय, क्योंकि उसका कोई प्रमाण पदार्थ विश्लेषण द्वारा उपलब्ध नहीं हो सका।
मनुष्य का शरीर, विज्ञान की दृष्टि से कुछ रासायनिक पदार्थों का सम्मिश्रण मात्र है। उसकी गतिविधियों का आधार अन्न, जल और वायु से मिलने वाली ऊर्जा है। मस्तिष्कीय चिन्तन को शरीरगत सम्वेदनाओं से प्रभावित आवेश मात्र कहकर विज्ञान दूर जा बैठता है। आत्मा का, निष्ठा का, भाव सम्वेदना का, आदर्शों के लिए कष्ट सहने का, त्याग करने की उमंगों का, विज्ञान के पास कोई समाधान नहीं? ऐसी दशा में क्या मनुष्य को, आत्मा और भावना से रहित एक रासायनिक यन्त्र कहकर सन्तोष कर लिया जाय?
देहात के अशिक्षित लोग अपेक्षाकृत सुखी, सन्तुष्ट और निश्चिन्त पाये जाते हैं, जब कि शिक्षित और सम्पन्न वर्ग के लोग अधिक चिंतन, उद्विग्न और असन्तुष्ट रहते हैं। इसका कारण बुद्धि का एकांगी विकास है। उसके ऊपर से आस्थाओं का आवरण हट जाने से मानसिक उच्छृंखलता न केवल अचिन्त्य-चिन्तन के आधार प्रस्तुत करती है, वरन् उन दुष्कर्मों को करने के लिए भी छूट देती है, जो मनुष्य के गौरव और समाजगत अनुशासन को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देते हैं। उद्धत महत्वाकांक्षाएं मनुष्य को एक प्रकार से ऐसा अर्ध-विक्षिप्त बना देती हैं, जो कामना पूर्ति के लिए उचित-अनुचित का भेद त्याग कर कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पर हो जाता है। असीम उपभोग की ललक सीमित क्षमता और सामान्य परिस्थिति में पूर्ण नहीं हो सकती। असीम उपलब्धि के साधन नहीं जुटते, ऐसी दशा में हर समय मनुष्य पर खीज चढ़ी रहती है और उसकी अभिवृद्धि से मनःक्षेत्र विषाक्त हो जाता है। ऐसे लोग अपराध-कृत्यों में निरत, उद्धत, अशान्त और हत्या अथवा आत्म-हत्या के लिए उतारू दीखते हैं, उन्हें अपने चारों ओर का वातावरण प्रतिकूल दीखता है। प्रतिकूलता को पचा सकने का सन्तुलन भी आध्यात्मिक विवेक-दृष्टि से ही बनता है, चूंकि दर्शन को पहले ही तिलांजलि दी जा चुकी थी। इसलिए तथाकथित मरघट के प्रेत-पिशाचों से भी गई-गुजरी मनःस्थिति में लोगों को अपने दिन गुजारने पड़ते हैं। शिक्षा, धन, पद, वैभव और परिवार की उपलब्धियां निरर्थक सिद्ध होती हैं, उनसे कोई समाधान नहीं निकलता। आकांक्षाओं के तूफान में उपलब्धियों के तिनके अस्त-व्यस्त छितराये उड़ते-फिरते हैं। मनुष्य पर अभाव और असन्तोष ही छाया रहता है। हर घड़ी बेचैनी अनुभव होती है।
शान्ति, सन्तोष और विश्वास की छाया यदि देखनी हो तो पिछड़े अशिक्षित, देहाती और निर्धन क्षेत्र में किसी न किसी मात्रा में अवश्य मिल जायगी, किन्तु सुसम्पन्न वर्ग में उसके दर्शन भी दुर्लभ होंगे। मित्रता के नाम पर चापलूसी ही बिखरी दिखाई देगी। क्या गहन घनिष्ठता, आत्मीयता एवं सघन निष्ठा के दर्शन दुर्लभ होंगे। परिवार एवं मित्र-मण्डली में मित्रता के चोंचले तो बहुत चल रहे होंगे, पर जिस वफादारी में एक दूसरे के लिए मर-मिटता है—उसका कहीं पता भी न होगा। यह बात आन्तरिक स्थिति के बारे में निश्चिन्त और निर्द्वन्द मनोभूमि कदाचित ही किसी को मिलेगी। मनोविकारों के तूफान उठ रहे होंगे और उनकी जलन से उद्विग्नता इस कदर बढ़ी हुई होगी कि जीवन का रस उसमें जल-भुनकर नष्ट ही हो चलेगा।
इसमें निर्धनता को श्रेय और सम्पन्नता को निकृष्ट होना कारण नहीं है, वरन् यह है कि तथाकथित पिछड़े वर्ग ने अपने विश्वासों में उन तत्वों का किसी कदर समावेश करके रखा, जिन्हें अध्यात्म के वर्ग में रखा जा सकता है। भाग्यवाद, ईश्वर पर विश्वास, सन्तोष, वचन का पालन, वफादारी का निर्वाह जैसी आस्थाएं तथाकथित विज्ञ-समाज में दकियानूसी कही जा सकती है, पर जिनने उन्हें हृदयंगम किया है—वे अज्ञ इन विज्ञों की अपेक्षा अधिक हर्षोल्लास लेकर जा रहे होंगे। दूसरी ओर सम्पन्नता का लाभ केवल शरीर पाता है। वे सुविधा साधनों का उपयोग अधिक कर लेते हैं, इससे शारीरिक-सुविधा में कमी नहीं रहती, फिर भी अन्तःकरण अतृप्त और क्षुब्ध ही बना रहता है, क्योंकि उसे आस्थाओं का आहार नहीं मिल सका। प्यार और विश्वास के अभाव में मनःस्थिति मरघट जैसी वीभत्स ही बनी रहेगी। बहिरंग सुविधा-साधन उस अभाव की पूर्ति न कर सकेंगे, भले ही वे कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों न हों।
देखते हैं कि आस्था खोकर सम्पन्न वर्ग ने कुछ नहीं पाया, जब कि आस्था को अपनाये रहकर तथाकथित पिछड़ा वर्ग लाभ में रहा। आस्थाएं गंवाकर भटकाव और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। वैभव अपने साथ जो उत्तेजनाएं लेकर आता है, उनके कारण उपलब्ध होने वाले दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों की बहुलता—न शरीर को स्वस्थ रहने देती है और न मन को सन्तुलित। चढ़ाव-उतार और प्रतिस्पर्धा की जटिल प्रतिक्रियाएं इतनी दुर्धर्ष होती हैं कि उनके सामने हर्षोल्लास का वह वातावरण भी नहीं टिक पाता, जिसे सरल और सौम्य प्रकृति का सामान्य मनुष्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध करता हुआ अपने पिछड़ेपन को भी सराहता रहता है। सम्पन्नता और सुशिक्षा लोक और परलोक दोनों ही गंवा बैठती है, जब कि वैभव रहित व्यक्ति कम से कम एक को तो हथियाये ही रहते हैं। हत्या और आत्म-हत्या जैसे कुकृत्य अनास्था के बूचरखाने में ही होते हैं। आस्थावान् सहन भी कर लेता है और भविष्य के प्रति विश्वासी भी रहता है, पर जिसने इन निष्ठाओं को उखाड़ फेंका है—उनके लिए मन को समाधान कर सकने वाला सम्बल ही हाथ से निकल जाता है। संयम और सत्कर्म के लिए—औचित्य और विवेक के लिए उन्हीं के जीवन में स्थान रहता है, जिन्होंने आस्थाओं को मजबूती से पकड़ कर रखा है। अनात्मवान् ‘‘खाओ-पियो, मजा करो’’ से आगे की कोई बात सोच ही नहीं सकता। ऐसा वर्ग जिस समाज में बढ़ता है, उसका भविष्य अन्धकारमय बनकर ही रहेगा। संशय और अविश्वास की मनोभूमि में विक्षोभ के विष-वृक्ष ही उगते हैं।
स्थिरता तभी तक रहेगी—जब तक बुद्धि और धर्म का समन्वय रहेगा। बुद्धि से शक्ति अर्जित की जाय और धर्म का परामर्श लेकर उसका उपयोग किया जाय तो ही दुरुपयोग से बचा जा सकता है और तज्जनित दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। बुद्धि पर से धर्म का नियन्त्रण हट जाने से ऐसी भयावह उच्छृंखलता उत्पन्न होती है, जिसके सामने बुद्धि के सुखद उपार्जन का कोई महत्व ही नहीं रह जाता। विज्ञान, शिक्षा, कला, तकनीकी शिल्प आदि के क्षेत्र में इन दिनों भारी प्रगति हुई है, किन्तु उससे मानवी सुख-शान्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई। आन्तरिक स्तर तनिक भी नहीं बढ़ा, वरन् आदिम-युग की जंगली-सभ्यता की ओर लौट पड़ा। जब कि बढ़े हुए सुविधा-साधनों के सहारे व्यक्ति और समाज को अधिक परिष्कृत स्थिति का लाभ मिलना चाहिए था। बौद्धिक-विकास और तज्जनित उपलब्धियों का परिवार भस्मासुर की तरह सर्वनाश का आयोजन करने में जुटा हुआ है। परमाणु को तोड़कर प्रचंड शक्ति को हस्तगत तो कर लिया गया, पर अब वही मनुष्य के अस्तित्व को चुनौती देने पर तुल गई है। बुद्धि पर धर्म का नियन्त्रण रहना इन परिस्थितियों में अनिवार्य हो गया है। निरंकुश स्वेच्छाचार तो हमें नष्ट करके ही छोड़ेगा।
बुद्धि का महत्व कितना ही क्यों न हो वह चेतना के स्वरूप को समझाने और उसकी समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ ही रहेगी। बुद्धि से तात्पर्य यहां उस मस्तिष्कीय चेतना से है जो शरीर की आवश्यकताएं तथा मन की लालसाएं पूरी करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती है। उसके माध्यम से प्रकृति की गहराई में उतर सकना सम्भव है। पदार्थ के उपयोग एवं उपभोग में भी बुद्धि का भरपूर प्रयोग हो सकता है। व्यावहारिक जीवन की क्रिया कुशलता का लाभदायक स्वरूप क्या हो सकता है इस सम्बन्ध में मस्तिष्कीय चेतना का बुद्धि पक्ष अपना काम ठीक तरह पूरा कर सकता है, पर मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए—आत्मा की प्रखरता, तुष्टि एवं प्रगतिशीलता के लिए जिस दृष्टिकोण का अपनाया जाना आवश्यक है उसके सम्बन्ध में सामान्य बुद्धि का विशेष उपयोग नहीं है। शरीर और आत्मा दोनों साथ-साथ गुंथे हुए हैं फिर भी दोनों का स्वरूप और स्तर भिन्न है। ठीक इसी प्रकार जानकारी करने वाली लौकिक बुद्धि और उत्कृष्टता का उद्देश्य पूरा कराने वाली विवेक बुद्धि का अन्तर भी स्पष्ट है। विवेक के साथ उत्कृष्टता की भाव सम्वेदना मिल जाने पर जो समझदारी जागृत होती है, उसी को प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा ही धर्म बुद्धि है। उसी का उदय मनुष्य का सौभाग्य माना गया है। ईश्वरीय अनुकम्पा का आविर्भाव इसी ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होता है। यही है वह उपलब्धि जिसके लिए गायत्री मन्त्र के रूप में आत्मा ने परमात्मा से भाव-भरी प्रार्थना एवं याचना की है।
ज्ञान ही नहीं मनुष्य को धर्म भी चाहिए
आत्मा है या नहीं? इसका उत्तर हां और ना में दोनों ही तरह दिया जा सकता है। हां, उनके लिए ठीक है जो ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकने और निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हैं। ना, उनके लिए जो मात्र इन्द्रियों के सहारे ही चेतन सत्ता का दर्शन करना चाहते हैं। चेतन सूक्ष्म है। वह चेतन सत्ता की ज्ञानानुभूति के द्वारा समझा और देखा जा सकता है।
सूर्य की रोशनी और फूल की शोभा की अनुभूति उन्हीं को हो सकती है जिनकी आंखें सही हों। यदि दृष्टि समाप्त हो जाय तो अपने लिए संसार के सभी दृश्य समाप्त हो जायेंगे; भले ही वे अन्य लोगों के लिए यथावत् बने रहें। दृश्यों की अनुभूति में जितना महत्व पदार्थों के अस्तित्व का है उससे अधिक अपनी दृष्टि का है। यह ज्ञान ही है जो हमें दृश्य या श्रव्य के स्थूल रूप की तुलना में असंख्य गुने रहस्यमय मर्मों से हमें परिचित कराता है।
ज्ञान के दो पक्ष हैं—एक विचारणा, दूसरा सम्वेदना। विचार मस्तिष्क की देन हैं वे बाहर से आते हैं, प्रशिक्षण एवं अनुभव के सहारे। भाव भीतर से उठते हैं, वे अन्तःकरण के उत्पादन है। विचारों से जानकारी बढ़ती है और बुद्धि में परिपक्वता आती है। पर उनका प्रभाव अन्तस् पर नहीं के बराबर पड़ता। बहुत पढ़ने और बहुत सुनने से भी आंतरिक उत्कृष्टता उभरने का कोई निश्चय नहीं। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके कान सत्संग सुनते-सुनते पक गये और आंखें स्वाध्याय करते-करते थक गईं, फिर भी उनकी मूल प्रवृत्तियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया। लोभ, मोह से उन्हें रत्ती भर भी विरति नहीं हुई। काम, क्रोध के आवेश घटे नहीं। धर्मोपदेशकों में धर्म धारणा और नेताओं में देश-भक्ति प्रायः प्रसंग चर्चा की कलाकारिता जितनी ही दिखाई पड़ती है। दूसरों को जिन तर्कों से वे प्रभावित कर लेते हैं उससे अपने आपको प्रभावित नहीं कर पाते। क्योंकि वे बाहर से आये आगन्तुक हैं। अपने गृह सदस्य नहीं। अन्तस् तो भावों का भाण्डागार है। वहां से निसृत होते हैं और वहीं के चुम्बकत्व से उन्हें वाह्य जगत् में से आकर्षित एवं ग्रहण किया जाता है। विचार की गति तर्क और तथ्य के सहारे होती है और वे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान का स्वरूप धारण कर लेते हैं। विचार के आधार पर यह संसार पदार्थ गुच्छक या गुलदस्ता मात्र है। अथवा विभिन्न प्रकार की तरंग प्रवाहों का अन्धड़ क्षेत्र उसे कह सकते हैं। वैज्ञानिक व्याख्या के अनुसार विद्युत चुम्बकीय लहरों से भरा-पूरा समुद्र भर यह संसार रह जाता है। ऐसे ही कुछ नाम और भी दिये जा सकते हैं। मस्तिष्कीय, चेतना पदार्थ ज्ञान पर अवलम्बित है और वह अपनी सीमा उसी परिधि के अन्तर्गत रखती है। यही उसकी मर्यादा है। उससे आगे की कोई बात मस्तिष्क के आधार पर नहीं जानी या पाई जा सकती जो हृदय से, अन्तस् से सम्बन्धित है। भाव-सम्वेदना, अन्तस् का उत्पादन है। भावुक व्यक्ति ही दूसरों की व्यथा वेदनाओं को अनुभव कर सकता है। पाषाण हृदय व्यक्ति पर किसी की करुणाजनक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह दूसरों के रुदन और चीत्कार तक को स्थिति प्रज्ञ की तरह निर्मम होकर देखता रहता है, कई बार तो उनसे विनोद करता और रस लेता भी देखा गया है।
धर्म को सम्वेदना का उद्गम स्रोत कह सकते हैं। वह उपदेश नहीं उपचार है जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी हुई धुन्ध को दूर किया जा सकता है। उस धुन्ध के हटने पर पदार्थ के अन्तराल में संव्याप्त सत्ता को देखा जाता है। उसी के सहारे उस ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतना की अनुभूति होती है जिसे विश्वात्मा कहा जाता है और जिसका एक घटक आत्मा है। विचार से पदार्थ के गुण, धर्म, स्वभाव और उपयोग को जाना जाता है। धर्म से आत्मा का साक्षात्कार होता है और जीवन को आत्मा के अनुशासन में चलाने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाता है।
यों ज्ञान की मोटी परिभाषा जानकारी है। शिक्षा द्वारा उसी का संचय सम्वर्धन होता है। मन की कल्पना शक्ति और बुद्धि भी निर्णय शक्ति के संयुक्त परिणाम को बुद्धि कौशल कहते हैं। सूझ-बूझ, समझदारी, विद्वता और विशेषज्ञता इसी की परिणिति है। इतने पर भी सम्वेदना पर इस सारी बुद्धिमत्ता का कोई असर नहीं है। धर्म अग्नि है जिसका उद्गम आत्मा है। आत्मा के अन्तराल से जो ज्योति प्रस्फुटित होती है जिसका आलोक अन्तः ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है। आत्मबोध यही है। इसी का प्रकट होना और आत्मसत्ता के समूचे क्षेत्र को प्रकाशवान कर देना यही आत्म-साक्षात्कार है। विचार क्षेत्र शिक्षा कहलाता है। अन्तः सम्वेदनाओं के ऊहापोह को विद्या एवं ब्रह्म-विद्या कहते हैं। यह इन्द्रियातीत है इसलिए उसकी अनुभूतियां भी अतीन्द्रिय कहलाती हैं। दया, करुणा, प्रेम, सेवा, उदारता, त्याग, बलिदान, संयम, आत्मानुशासन जैसी दिव्य सम्वेदनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य खुशी खुशी कष्ट सहते हैं। अपने लाभों का परित्याग करते हैं और भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्षतः घाटा उठाते हैं। आदर्शवादियों के निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह की हानि पहुंचाई जाती है। उदार व्यवहार में भी वे कुछ त्याग ही करते हैं। देश भक्तों और तपस्वियों को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है और कई बार तो उन्हें प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। बुद्धिमानी का भौतिक मापदण्ड इनमें घाटा ही घाटा देखता है। प्रत्यक्ष लाभ जैसी कोई बात इस मार्ग पर चलने से नहीं मिलती। फिर भी समझदारी की सीमाओं का उल्लंघन करके वे कदम उठाये जाते हैं जिसे व्यवहार बुद्धि अपने भौतिकवादी गणित के सहारे मूर्खता ही सिद्ध करेगी। इतने पर भी सारे तर्कों का उल्लंघन करके कोई आन्तरिक उमंग ऐसी उठती है और उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना की भूख बुझाने के लिए त्याग, बलिदान की मांग करती है और अनेकों सद्भाव सम्पन्न उसकी पूर्ति भी करते हैं।
यह सम्वेदना ही अग्नि है। जब वह आदर्शों को अपनाये रहने की परिपक्वावस्था में होती है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। इसका सुनिश्चित निर्धारण विश्वास कहलाता है। श्रद्धा को भवानी की और विश्वास को शंकर की उपमा दी गई है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों की सहायता से अन्तरात्मा में ओत-प्रोत परमात्मा का दिव्य-दर्शन होता है। आदर्शवादी सम्वेदनाओं की यह समूची परिधि धर्म क्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी की उमंगें कर्मक्षेत्र पर छाई रहती हैं। आस्थाओं की प्रेरणा से विचार तन्त्र को दिशा मिलती है और विचारों की कर्म के रूप में परिणित होती है। इसी क्षेत्र में जब प्रखरता आती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान जागृत होता है और दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन, भावी सम्भावनाएं जैसी वे जानकारियां मिलती हैं जो सामान्य इन्द्रिय क्षमता की पकड़ से बाहर हैं।
अन्तःसंस्थान के शान्ति, सुस्थिर एवं परिष्कृत करने की विधि-व्यवस्थता का नाम योग है। योगाभ्यास में जिस समाधि की चर्चा की जाती है वह मस्तिष्क की घुड़-दौड़ शान्त करके अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं को उभारने की प्रक्रिया है। चित्त वृत्तियों का निरोध इसी को कहा गया है।यह स्थिति प्राप्त होने पर अपने अस्तित्व में आत्मा की उपस्थिति अनुभव होती है और उसके अनुशासन को स्वीकार करने की सहज स्वीकृति जागृत होती है। आत्म-समर्पण के क्षण इन्हीं भावनाओं से भरे होते हैं। दिव्यत्व में अन्तःकरण का लीन हो जाना इतना आनन्द युक्त होता है कि उसे ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में किये गये समस्त वर्णन यथार्थता के रूप में अनुभव होते हैं।
धर्म को भीरुता से जोड़ा जाता है, जीवन संघर्ष से कतराने वाले धर्माडम्बरों में उलझे रहते हैं यह कहा जाता है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। यह साहसी शूरवीरों का मार्ग है। मन और अन्तःकरण का संघर्ष स्पष्ट है। मन सुविधाओं में रमता है और अन्तःकरण को वे भाव सम्वेदनाएं चाहिए जो उत्कृष्टता अपनाने के मूल्य पर ही उपलब्ध होती हैं। लोक-प्रवाह और अपने संचित संस्कार मनोकामनाओं की पूर्ति की दिशा में खींचते और मनमानी करने के लिए उकसाते हैं इसके ठीक विपरीत वह क्षेत्र है जिसे आत्मा की पुकार कहते हैं। यहां सब कुछ दूसरे ही तरह का है। यहां वैभव बेचकर सन्तोष खरीदा जाता है। इतना बड़ा सौदा करना जुआरी द्वारा अपना सर्वस्व ऐसी बाजी पर लगा देने जैसा है जिसमें प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है। ऐसा बड़ा कदम उठाना सती शूरमाओं जैसा दुस्साहस है जिसमें प्रत्यक्ष का उत्सर्ग करके परोक्ष के उपलब्ध होने का सुनिश्चित विश्वास आवेश की तरह अन्तराल के कण-कण में छाया होता है। भावनाओं के परिपोषण में कामनाओं की बलि चढ़ा देना जिनसे बन पड़ता है वस्तुतः वे ही धर्मात्मा हैं। कहा जाता है कि—धार्मिकता स्वर्ग के लालचियों और नरक से भयभीत लोगों को छिपाये रहने वाली मांद भर है। पर बात ऐसी है नहीं। कुछ उथले धर्माडम्बरियों या धर्म भीरुओं के लिए यह बात भले ही लागू होती हो, पर वस्तुतः धर्म एक सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है जिसमें अन्तरात्मा को सर्वोपरि माना जाता है और उत्कृष्टता भरी भाव सम्वेदनाओं के समर्थन की सुख-सुविधाओं से लेकर स्वजनों को रुष्ट करने तक का ऐसा साहस प्रदर्शित किया जाता है जिसे अलौकिक एवं असाधारण कहा जा सके।
मानव शरीर में मनुष्य स्तर की चेतना विकसित हो सके तो उसे उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता कहते हैं। इनका समन्वित चिन्तन, दृष्टिकोण, अध्यात्म कहलाता है और इनकी प्रेरणा से अपनाया गया क्रिया-कलाप धर्म कहलाता है। मानवी गरिमा को धर्म संस्कृति के आधार पर परखा जाता है। इसका विकास होने पर व्यक्ति आदर्शों की बात सोचता है। कर्त्तव्य को समझता है और शालीनता की जीवन नीति अपनाने के लिए तत्पर होता है। स्पष्टतः श्रेष्ठता का मार्ग अपनाने में उन लोगों की तुलना में घाटा ही रहता है जो नीति-अनीति का भेद किये बिना जो कुछ भी सुखद प्रतीत होता है उसी को कर गुजरते हैं। अन्तिम परिणाम की बात दूसरी है। वह प्रत्यक्ष तो होता नहीं और तत्काल मिलता भी नहीं है। बीज को वृक्ष बनने में देर लगती है। उसी प्रकार सदाचरण के सत्परिणाम भी समय साध्य होते हैं। उनका अनुमान लगाना दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने पर ही सम्भव होता है।
आवश्यक नहीं कि जिसमें तत्काल का लाभ दीखता है वह कुछ समय उपरान्त भी वैसा ही सुखद बना रहे जैसा कि तुरन्त के उपयोग में दीखता है। इसी प्रकार यह भी निश्चित नहीं कि जो इस समय कष्टकर लगता है वह कुछ समय बाद भी वैसा ही बना रहे। ऐसा कभी-कभी ही होता है जो आरम्भ और अन्त में एक जैसा बना रहे। बहुत करके तात्कालिक लाभ जिसमें प्रतीत होता है वे अपनी प्रतिक्रिया दुःखद उपस्थित करते हैं और अनेक बार आरम्भ में कठिनाई सहने पर पोडडडड उसके सत्परिणाम चिरकाल तक उपलब्ध होते रहते हैं। मडडडड अदूरदर्शी है। वह तत्काल के लाभ पर मचलता है। बुद्धि डडडड अन्धा पक्षपात करने वाले वकील की उपमा दी जाती है। सनक की ललक और लिप्सा—वासना और तृष्णा—पूरी करने के लिए उपाय सोचना और सरंजाम जुटाना वह तत्काल आरम्भ कर देती है। अवांछनीयता के विरोध में भीतर से या बाहर से विरोध हो तो वह ऐसे-ऐसे तर्क गढ़ती है कि अपने निश्चय और प्रयत्न को किसी न किसी प्रकार सही सिद्ध किया जा सके। विवादों में प्रायः यही होता है। न उनका अन्त आता है न कोई निर्णय होता है। प्रतिपक्षी वर्गों में से कोई हार मानने को तैयार नहीं होता। शास्त्रार्थ होते रहे हैं। उनसे चिढ़ भर बढ़ती है। आक्रमण प्रत्याक्रमण का सिलसिला चल पड़ता है और मतभेद बढ़कर विद्वेष और आक्रमण का रूप धारण कर लेता है। भले से भले और बुरे से बुरे कार्य एवं विचार के पक्ष में कोई चतुर व्यक्ति इतने तर्क और प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है कि सामान्य व्यक्ति हतप्रभ होकर रह जाय उसे यह निर्णय करते ही न बने कि दोनों में से कौन पक्ष सही है। वकीलों के बुद्धि कौशल का चमत्कार इसी स्तर का देखा जा सकता है। एक वकील के पास एक ही तरह के दो मुकदमे हैं। दोनों की स्थिति बिलकुल एक जैसी हो। उसे एक में वादी की—दूसरे में प्रतिवादी की पैरवी करनी पड़े तो वह एक पक्ष में एक प्रकार के—दूसरे के पक्ष में दूसरे प्रकार के तर्क एवं प्रमाण उपस्थित करता है। दोनों अवसरों पर उसके जो दो प्रकार के प्रतिपादन होते हैं उससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन होता है कि सही क्या और गलत क्या है? तर्क के आधार पर यदि निर्णय निकल सके होते तो अब तक शास्त्रों के आधार पर धार्मिक, दार्शनिक, एवं सामाजिक समस्याएं कब की सुलझ गई होतीं। तब राजनैतिक एवं दूसरे विवाद भी सहज ही हल हो जाया करते। तर्क से जो जिसको परास्त कर देता वही विजयी बन जाया करता।
यहां तर्क का प्रतिवाद नहीं किया जा रहा है और न उसे निरर्थक बताने की बात चल रही है। उसकी उपयोगिता आवश्यकता तो रहेगी ही। उसकी सहायता के बिना तो किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ही सम्भव न होगा जहां तो यह कहा जा रहा है कि शुष्क तर्क मात्र से तात्कालिक लाभ के पक्ष में जो आतुरता उत्पन्न होती है उससे आवेश की रोकथाम नहीं हो सकती। उसकी रोकथाम के लिए न केवल विवेक की वरन् आदर्शों के प्रति श्रद्धा की भी आवश्यकता पड़ती है। उसका अभाव हो तो भी तात्कालिक लाभ ही सर्वोच्च हित साधन प्रतीत होगा और उसी की पूर्ति में सर्वोपरि, बुद्धिमानी प्रतीत होगी। अनैतिक आचरणों में—विलासिता के असंयम में यही मनःस्थिति रहती है। स्वार्थी और अपराधी प्रकृति के मनुष्यों पर तात्कालिक लाभ ही छाया रहता है। अवांछनीय मार्ग पर चलने से पीछे पश्चात्ताप करना पड़ सकता है, यह बात वे जानते हैं, पर क्षेत्र में दूरदर्शी, विवेक और नीति पक्षी धर्म का प्रभाव कम रहने से किया वहीं जाता रहता है जिसमें तत्काल लाभ मिले। पीछे उसका परिणाम भले ही हानिकारक बनता रहे। तर्क के साथ नीति का जुड़े रहना आवश्यक है। बुद्धि का उपयोग किया जाय, पर उसके पीछे मानवी आदर्शों के प्रति सघन श्रद्धा का समावेश हो। यदि ऐसा न हो सका तो निरंकुश बुद्धि भी उतनी ही हानिकारक होगी जितनी कि दुष्ट के हाथ में पहुंचने पर धन, शस्त्र, अधिकार आदि का दुरुपयोग होता है और उससे करने वाले तथा भुगतने वालों को समान रूप से कष्ट सहना पड़ता है। इसलिए मनीषियों ने मन और बुद्धि की उपयोगिता स्वीकार करते हुए भी विवेक एवं धर्म का उन पर अंकुश रखने के लिए कहा है।
शुष्क तर्क की दृष्टि से प्रत्येक आदर्शवादी कार्य हानिकारक प्रतीत होता है। पुण्य परमार्थ में प्रत्यक्षतः कोई लाभ नहीं; उलटे समय, श्रम, धन की हानि ही होती है। संयम बरतने में मन मारना पड़ता है और असुविधाएं सहनी पड़ती हैं। दूसरों को सुखी बनाने के लिए सेवा धर्म अपनाने में स्वयं को कष्ट सहना पड़ेगा। अनीति कर्त्ताओं का असहयोग करने पर अपने ऊपर आक्रमण होने का भय रहता है। इस प्रत्यक्ष को देखते हुए कोई सदाशयता क्यों अपनाये? तर्क के आधार पर बूढ़े बैल को कसाई के हाथों बेचने से स्थान और चारे की बचत तथा नकद पैसा मिलने का लाभ प्रत्यक्ष है। उसकी पुरानी सेवा का ध्यान रखते हुए—पेन्शन के रूप में जीवित रहने तक चारा देते रहने में कोई लाभ नहीं। हर तर्क की दृष्टि से कसाई के हाथों बेचने में ही समझदारी प्रतीत होती है। ठीक इसी तर्क के आधार पर बूढ़े माता, पिता से भी इसी प्रकार पिण्ड छुड़ाने के पक्ष में अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों को प्रस्तुत करते हुए दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन हो सकता है। इसी दृष्टि को अपनालें तो फिर कोई नारी प्रसव वेदना सहने और बच्चे के पालन में यौवन का क्षरण एवं सुविधाओं में अड़चन पड़ने की बात को स्वीकार क्यों करेगी? उसमें उसे प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है।
मानवी उत्कर्ष के पीछे आदर्शवादी सिद्धान्त ही काम करते रहे हैं। यदि वे न होते तो आपस में लड़ते-मरते रहने वाले हिंस्र पशुओं की तरह ही मनुष्य भी स्वार्थ संघर्ष में एक दूसरे पर घात प्रतिघात चलाते हुए कब के मर-खप कर समाप्त हो गये होंगे। स्नेह, सहयोग, सद्भाव, सेवा, उदारता, संयम जैसे आदर्शवादी सिद्धान्तों को अपनाने वाले आरम्भ में थोड़े घाटे में रहते हैं, पर प्रकारान्तर से उन्हें उस सज्जनता का लाभ असंख्य गुना होकर मिल जाता है। इस तथ्य को हृदयंगम कराने के लिए आदर्शवादी नीतिमत्ता की—धर्मनिष्ठा की—आवश्यकता पड़ेगी। इसका समर्थन तात्कालिक लाभ पर आधारित शुष्क तर्क नहीं कर सकते। संकीर्ण बुद्धि उसकी पक्षधर नहीं हो सकती है। क्षुद्र मन और क्षुद्र बुद्धि अपनाये रहकर मनुष्य नर पशुओं के स्तर का ही बना रहेगा। उसकी चतुरता कौए और शृंगाल के स्तर की ओछी एवं कुटिल ही बनी रहेगी। तात्कालिक लाभ के लिए ललचाने वाले तर्क आरम्भ में अति मधुर लगते हुए भी अन्ततः नितान्त अहितकर सिद्ध होंगे।
मन को दसवीं इन्द्रिय माना गया है। बुद्धि उसी का एक अंग है। शरीर में जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भौतिक जानकारियां देने, अनुभूतियां कराने तथा साधन जुटाने के काम आती हैं उसी प्रकार मन का कार्य भी भौतिक क्षेत्र की व्यवस्था जुटाना ही होता है। शरीर और मन पंच भौतिक हैं। उनकी आवश्यकता, अभिरुचि एवं चेष्टा अपने सजातीय भौतिक क्षेत्र में ही सीमित रह सकती है। चेतना का अंश इससे ऊंचा है। आत्मा की आवश्यकता साधनों तक सीमित नहीं है। उसका सन्तोष अपने स्तर की उपलब्धियों पर अवलम्बित है। उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से ही उसका समाधान एवं उत्कर्ष होता है। इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा उमंग एवं साहसिकता उत्पन्न करने की क्षमता मात्र धर्म धारणा में ही है। धर्म का तात्पर्य यहां अध्यात्म से है—साम्प्रदायिक प्रचलन से नहीं। उसे अपनाकर ही मनुष्य सच्चे अर्थों में बुद्धिमान सिद्ध होता है। ऋतम्भरा प्रज्ञा ही मानवी उत्कृष्टता का समर्थन करती और आत्मा को परमात्मा के स्तर तक पहुंचाती है। क्षुद्र बुद्धि से नहीं हमारा वास्तविक हित साधन प्रज्ञा युक्त श्रद्धा के सहारे ही सम्भव हो सकता है। शुष्क तर्क भरे विकृत बुद्धिवाद को अपनाकर हम चतुर भर बन सकते हैं किन्तु वह चतुरता दाने के लोभ में जाल में फंसकर जान गंवाने वाले पक्षी की तरह अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होती है।
विज्ञान बुद्धि से हम चित्र की लम्बाई-चौड़ाई नाप सकते हैं, उसमें लगे रंगों का विश्लेषण कर सकते हैं। यहीं उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। चित्र में जो सौन्दर्य है, जो भाव-अभिव्यंजना है—उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत कर सकने का कोई माप-दण्ड विज्ञान के पास नहीं है। ऐसी दशा में चित्रों का मूल्यांकन—क्या उसमें प्रयुक्त हुए पदार्थों को नाप-तौल कर करना ही ठीक रहेगा?
आंसुओं के पानी का वैज्ञानिक विश्लेषण पानी, खनिज, श्लेष्मा, क्षार, प्रोटीन का सम्मिश्रण भर किया जा सकता है। प्रयोगशालाएं आंसुओं का स्वरूप इतना ही बता सकेंगी। ऐसी दशा में क्या उनके साथ जुड़ हुए—स्नेह, ममता, करुणा, व्यथा, वेदना आदि के अस्तित्व से इन्कार कर दिया जाय? अथवा इन सम्वेदनाओं को इसलिए अमान्य ठहरा दिया जाय, क्योंकि उसका कोई प्रमाण पदार्थ विश्लेषण द्वारा उपलब्ध नहीं हो सका।
मनुष्य का शरीर, विज्ञान की दृष्टि से कुछ रासायनिक पदार्थों का सम्मिश्रण मात्र है। उसकी गतिविधियों का आधार अन्न, जल और वायु से मिलने वाली ऊर्जा है। मस्तिष्कीय चिन्तन को शरीरगत सम्वेदनाओं से प्रभावित आवेश मात्र कहकर विज्ञान दूर जा बैठता है। आत्मा का, निष्ठा का, भाव सम्वेदना का, आदर्शों के लिए कष्ट सहने का, त्याग करने की उमंगों का, विज्ञान के पास कोई समाधान नहीं? ऐसी दशा में क्या मनुष्य को, आत्मा और भावना से रहित एक रासायनिक यन्त्र कहकर सन्तोष कर लिया जाय?
देहात के अशिक्षित लोग अपेक्षाकृत सुखी, सन्तुष्ट और निश्चिन्त पाये जाते हैं, जब कि शिक्षित और सम्पन्न वर्ग के लोग अधिक चिंतन, उद्विग्न और असन्तुष्ट रहते हैं। इसका कारण बुद्धि का एकांगी विकास है। उसके ऊपर से आस्थाओं का आवरण हट जाने से मानसिक उच्छृंखलता न केवल अचिन्त्य-चिन्तन के आधार प्रस्तुत करती है, वरन् उन दुष्कर्मों को करने के लिए भी छूट देती है, जो मनुष्य के गौरव और समाजगत अनुशासन को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देते हैं। उद्धत महत्वाकांक्षाएं मनुष्य को एक प्रकार से ऐसा अर्ध-विक्षिप्त बना देती हैं, जो कामना पूर्ति के लिए उचित-अनुचित का भेद त्याग कर कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पर हो जाता है। असीम उपभोग की ललक सीमित क्षमता और सामान्य परिस्थिति में पूर्ण नहीं हो सकती। असीम उपलब्धि के साधन नहीं जुटते, ऐसी दशा में हर समय मनुष्य पर खीज चढ़ी रहती है और उसकी अभिवृद्धि से मनःक्षेत्र विषाक्त हो जाता है। ऐसे लोग अपराध-कृत्यों में निरत, उद्धत, अशान्त और हत्या अथवा आत्म-हत्या के लिए उतारू दीखते हैं, उन्हें अपने चारों ओर का वातावरण प्रतिकूल दीखता है। प्रतिकूलता को पचा सकने का सन्तुलन भी आध्यात्मिक विवेक-दृष्टि से ही बनता है, चूंकि दर्शन को पहले ही तिलांजलि दी जा चुकी थी। इसलिए तथाकथित मरघट के प्रेत-पिशाचों से भी गई-गुजरी मनःस्थिति में लोगों को अपने दिन गुजारने पड़ते हैं। शिक्षा, धन, पद, वैभव और परिवार की उपलब्धियां निरर्थक सिद्ध होती हैं, उनसे कोई समाधान नहीं निकलता। आकांक्षाओं के तूफान में उपलब्धियों के तिनके अस्त-व्यस्त छितराये उड़ते-फिरते हैं। मनुष्य पर अभाव और असन्तोष ही छाया रहता है। हर घड़ी बेचैनी अनुभव होती है।
शान्ति, सन्तोष और विश्वास की छाया यदि देखनी हो तो पिछड़े अशिक्षित, देहाती और निर्धन क्षेत्र में किसी न किसी मात्रा में अवश्य मिल जायगी, किन्तु सुसम्पन्न वर्ग में उसके दर्शन भी दुर्लभ होंगे। मित्रता के नाम पर चापलूसी ही बिखरी दिखाई देगी। क्या गहन घनिष्ठता, आत्मीयता एवं सघन निष्ठा के दर्शन दुर्लभ होंगे। परिवार एवं मित्र-मण्डली में मित्रता के चोंचले तो बहुत चल रहे होंगे, पर जिस वफादारी में एक दूसरे के लिए मर-मिटता है—उसका कहीं पता भी न होगा। यह बात आन्तरिक स्थिति के बारे में निश्चिन्त और निर्द्वन्द मनोभूमि कदाचित ही किसी को मिलेगी। मनोविकारों के तूफान उठ रहे होंगे और उनकी जलन से उद्विग्नता इस कदर बढ़ी हुई होगी कि जीवन का रस उसमें जल-भुनकर नष्ट ही हो चलेगा।
इसमें निर्धनता को श्रेय और सम्पन्नता को निकृष्ट होना कारण नहीं है, वरन् यह है कि तथाकथित पिछड़े वर्ग ने अपने विश्वासों में उन तत्वों का किसी कदर समावेश करके रखा, जिन्हें अध्यात्म के वर्ग में रखा जा सकता है। भाग्यवाद, ईश्वर पर विश्वास, सन्तोष, वचन का पालन, वफादारी का निर्वाह जैसी आस्थाएं तथाकथित विज्ञ-समाज में दकियानूसी कही जा सकती है, पर जिनने उन्हें हृदयंगम किया है—वे अज्ञ इन विज्ञों की अपेक्षा अधिक हर्षोल्लास लेकर जा रहे होंगे। दूसरी ओर सम्पन्नता का लाभ केवल शरीर पाता है। वे सुविधा साधनों का उपयोग अधिक कर लेते हैं, इससे शारीरिक-सुविधा में कमी नहीं रहती, फिर भी अन्तःकरण अतृप्त और क्षुब्ध ही बना रहता है, क्योंकि उसे आस्थाओं का आहार नहीं मिल सका। प्यार और विश्वास के अभाव में मनःस्थिति मरघट जैसी वीभत्स ही बनी रहेगी। बहिरंग सुविधा-साधन उस अभाव की पूर्ति न कर सकेंगे, भले ही वे कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों न हों।
देखते हैं कि आस्था खोकर सम्पन्न वर्ग ने कुछ नहीं पाया, जब कि आस्था को अपनाये रहकर तथाकथित पिछड़ा वर्ग लाभ में रहा। आस्थाएं गंवाकर भटकाव और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। वैभव अपने साथ जो उत्तेजनाएं लेकर आता है, उनके कारण उपलब्ध होने वाले दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों की बहुलता—न शरीर को स्वस्थ रहने देती है और न मन को सन्तुलित। चढ़ाव-उतार और प्रतिस्पर्धा की जटिल प्रतिक्रियाएं इतनी दुर्धर्ष होती हैं कि उनके सामने हर्षोल्लास का वह वातावरण भी नहीं टिक पाता, जिसे सरल और सौम्य प्रकृति का सामान्य मनुष्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध करता हुआ अपने पिछड़ेपन को भी सराहता रहता है। सम्पन्नता और सुशिक्षा लोक और परलोक दोनों ही गंवा बैठती है, जब कि वैभव रहित व्यक्ति कम से कम एक को तो हथियाये ही रहते हैं। हत्या और आत्म-हत्या जैसे कुकृत्य अनास्था के बूचरखाने में ही होते हैं। आस्थावान् सहन भी कर लेता है और भविष्य के प्रति विश्वासी भी रहता है, पर जिसने इन निष्ठाओं को उखाड़ फेंका है—उनके लिए मन को समाधान कर सकने वाला सम्बल ही हाथ से निकल जाता है। संयम और सत्कर्म के लिए—औचित्य और विवेक के लिए उन्हीं के जीवन में स्थान रहता है, जिन्होंने आस्थाओं को मजबूती से पकड़ कर रखा है। अनात्मवान् ‘‘खाओ-पियो, मजा करो’’ से आगे की कोई बात सोच ही नहीं सकता। ऐसा वर्ग जिस समाज में बढ़ता है, उसका भविष्य अन्धकारमय बनकर ही रहेगा। संशय और अविश्वास की मनोभूमि में विक्षोभ के विष-वृक्ष ही उगते हैं।
स्थिरता तभी तक रहेगी—जब तक बुद्धि और धर्म का समन्वय रहेगा। बुद्धि से शक्ति अर्जित की जाय और धर्म का परामर्श लेकर उसका उपयोग किया जाय तो ही दुरुपयोग से बचा जा सकता है और तज्जनित दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। बुद्धि पर से धर्म का नियन्त्रण हट जाने से ऐसी भयावह उच्छृंखलता उत्पन्न होती है, जिसके सामने बुद्धि के सुखद उपार्जन का कोई महत्व ही नहीं रह जाता। विज्ञान, शिक्षा, कला, तकनीकी शिल्प आदि के क्षेत्र में इन दिनों भारी प्रगति हुई है, किन्तु उससे मानवी सुख-शान्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई। आन्तरिक स्तर तनिक भी नहीं बढ़ा, वरन् आदिम-युग की जंगली-सभ्यता की ओर लौट पड़ा। जब कि बढ़े हुए सुविधा-साधनों के सहारे व्यक्ति और समाज को अधिक परिष्कृत स्थिति का लाभ मिलना चाहिए था। बौद्धिक-विकास और तज्जनित उपलब्धियों का परिवार भस्मासुर की तरह सर्वनाश का आयोजन करने में जुटा हुआ है। परमाणु को तोड़कर प्रचंड शक्ति को हस्तगत तो कर लिया गया, पर अब वही मनुष्य के अस्तित्व को चुनौती देने पर तुल गई है। बुद्धि पर धर्म का नियन्त्रण रहना इन परिस्थितियों में अनिवार्य हो गया है। निरंकुश स्वेच्छाचार तो हमें नष्ट करके ही छोड़ेगा।
बुद्धि का महत्व कितना ही क्यों न हो वह चेतना के स्वरूप को समझाने और उसकी समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ ही रहेगी। बुद्धि से तात्पर्य यहां उस मस्तिष्कीय चेतना से है जो शरीर की आवश्यकताएं तथा मन की लालसाएं पूरी करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती है। उसके माध्यम से प्रकृति की गहराई में उतर सकना सम्भव है। पदार्थ के उपयोग एवं उपभोग में भी बुद्धि का भरपूर प्रयोग हो सकता है। व्यावहारिक जीवन की क्रिया कुशलता का लाभदायक स्वरूप क्या हो सकता है इस सम्बन्ध में मस्तिष्कीय चेतना का बुद्धि पक्ष अपना काम ठीक तरह पूरा कर सकता है, पर मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए—आत्मा की प्रखरता, तुष्टि एवं प्रगतिशीलता के लिए जिस दृष्टिकोण का अपनाया जाना आवश्यक है उसके सम्बन्ध में सामान्य बुद्धि का विशेष उपयोग नहीं है। शरीर और आत्मा दोनों साथ-साथ गुंथे हुए हैं फिर भी दोनों का स्वरूप और स्तर भिन्न है। ठीक इसी प्रकार जानकारी करने वाली लौकिक बुद्धि और उत्कृष्टता का उद्देश्य पूरा कराने वाली विवेक बुद्धि का अन्तर भी स्पष्ट है। विवेक के साथ उत्कृष्टता की भाव सम्वेदना मिल जाने पर जो समझदारी जागृत होती है, उसी को प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा ही धर्म बुद्धि है। उसी का उदय मनुष्य का सौभाग्य माना गया है। ईश्वरीय अनुकम्पा का आविर्भाव इसी ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में होता है। यही है वह उपलब्धि जिसके लिए गायत्री मन्त्र के रूप में आत्मा ने परमात्मा से भाव-भरी प्रार्थना एवं याचना की है।
ज्ञान ही नहीं मनुष्य को धर्म भी चाहिए
आत्मा है या नहीं? इसका उत्तर हां और ना में दोनों ही तरह दिया जा सकता है। हां, उनके लिए ठीक है जो ज्ञान के आधार पर सूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकने और निष्कर्ष निकाल सकने में समर्थ हैं। ना, उनके लिए जो मात्र इन्द्रियों के सहारे ही चेतन सत्ता का दर्शन करना चाहते हैं। चेतन सूक्ष्म है। वह चेतन सत्ता की ज्ञानानुभूति के द्वारा समझा और देखा जा सकता है।
सूर्य की रोशनी और फूल की शोभा की अनुभूति उन्हीं को हो सकती है जिनकी आंखें सही हों। यदि दृष्टि समाप्त हो जाय तो अपने लिए संसार के सभी दृश्य समाप्त हो जायेंगे; भले ही वे अन्य लोगों के लिए यथावत् बने रहें। दृश्यों की अनुभूति में जितना महत्व पदार्थों के अस्तित्व का है उससे अधिक अपनी दृष्टि का है। यह ज्ञान ही है जो हमें दृश्य या श्रव्य के स्थूल रूप की तुलना में असंख्य गुने रहस्यमय मर्मों से हमें परिचित कराता है।
ज्ञान के दो पक्ष हैं—एक विचारणा, दूसरा सम्वेदना। विचार मस्तिष्क की देन हैं वे बाहर से आते हैं, प्रशिक्षण एवं अनुभव के सहारे। भाव भीतर से उठते हैं, वे अन्तःकरण के उत्पादन है। विचारों से जानकारी बढ़ती है और बुद्धि में परिपक्वता आती है। पर उनका प्रभाव अन्तस् पर नहीं के बराबर पड़ता। बहुत पढ़ने और बहुत सुनने से भी आंतरिक उत्कृष्टता उभरने का कोई निश्चय नहीं। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके कान सत्संग सुनते-सुनते पक गये और आंखें स्वाध्याय करते-करते थक गईं, फिर भी उनकी मूल प्रवृत्तियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया। लोभ, मोह से उन्हें रत्ती भर भी विरति नहीं हुई। काम, क्रोध के आवेश घटे नहीं। धर्मोपदेशकों में धर्म धारणा और नेताओं में देश-भक्ति प्रायः प्रसंग चर्चा की कलाकारिता जितनी ही दिखाई पड़ती है। दूसरों को जिन तर्कों से वे प्रभावित कर लेते हैं उससे अपने आपको प्रभावित नहीं कर पाते। क्योंकि वे बाहर से आये आगन्तुक हैं। अपने गृह सदस्य नहीं। अन्तस् तो भावों का भाण्डागार है। वहां से निसृत होते हैं और वहीं के चुम्बकत्व से उन्हें वाह्य जगत् में से आकर्षित एवं ग्रहण किया जाता है। विचार की गति तर्क और तथ्य के सहारे होती है और वे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान का स्वरूप धारण कर लेते हैं। विचार के आधार पर यह संसार पदार्थ गुच्छक या गुलदस्ता मात्र है। अथवा विभिन्न प्रकार की तरंग प्रवाहों का अन्धड़ क्षेत्र उसे कह सकते हैं। वैज्ञानिक व्याख्या के अनुसार विद्युत चुम्बकीय लहरों से भरा-पूरा समुद्र भर यह संसार रह जाता है। ऐसे ही कुछ नाम और भी दिये जा सकते हैं। मस्तिष्कीय, चेतना पदार्थ ज्ञान पर अवलम्बित है और वह अपनी सीमा उसी परिधि के अन्तर्गत रखती है। यही उसकी मर्यादा है। उससे आगे की कोई बात मस्तिष्क के आधार पर नहीं जानी या पाई जा सकती जो हृदय से, अन्तस् से सम्बन्धित है। भाव-सम्वेदना, अन्तस् का उत्पादन है। भावुक व्यक्ति ही दूसरों की व्यथा वेदनाओं को अनुभव कर सकता है। पाषाण हृदय व्यक्ति पर किसी की करुणाजनक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह दूसरों के रुदन और चीत्कार तक को स्थिति प्रज्ञ की तरह निर्मम होकर देखता रहता है, कई बार तो उनसे विनोद करता और रस लेता भी देखा गया है।
धर्म को सम्वेदना का उद्गम स्रोत कह सकते हैं। वह उपदेश नहीं उपचार है जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी हुई धुन्ध को दूर किया जा सकता है। उस धुन्ध के हटने पर पदार्थ के अन्तराल में संव्याप्त सत्ता को देखा जाता है। उसी के सहारे उस ब्रह्माण्ड-व्यापी चेतना की अनुभूति होती है जिसे विश्वात्मा कहा जाता है और जिसका एक घटक आत्मा है। विचार से पदार्थ के गुण, धर्म, स्वभाव और उपयोग को जाना जाता है। धर्म से आत्मा का साक्षात्कार होता है और जीवन को आत्मा के अनुशासन में चलाने के लिए प्रशिक्षित अभ्यस्त किया जाता है।
यों ज्ञान की मोटी परिभाषा जानकारी है। शिक्षा द्वारा उसी का संचय सम्वर्धन होता है। मन की कल्पना शक्ति और बुद्धि भी निर्णय शक्ति के संयुक्त परिणाम को बुद्धि कौशल कहते हैं। सूझ-बूझ, समझदारी, विद्वता और विशेषज्ञता इसी की परिणिति है। इतने पर भी सम्वेदना पर इस सारी बुद्धिमत्ता का कोई असर नहीं है। धर्म अग्नि है जिसका उद्गम आत्मा है। आत्मा के अन्तराल से जो ज्योति प्रस्फुटित होती है जिसका आलोक अन्तः ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है। आत्मबोध यही है। इसी का प्रकट होना और आत्मसत्ता के समूचे क्षेत्र को प्रकाशवान कर देना यही आत्म-साक्षात्कार है। विचार क्षेत्र शिक्षा कहलाता है। अन्तः सम्वेदनाओं के ऊहापोह को विद्या एवं ब्रह्म-विद्या कहते हैं। यह इन्द्रियातीत है इसलिए उसकी अनुभूतियां भी अतीन्द्रिय कहलाती हैं। दया, करुणा, प्रेम, सेवा, उदारता, त्याग, बलिदान, संयम, आत्मानुशासन जैसी दिव्य सम्वेदनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य खुशी खुशी कष्ट सहते हैं। अपने लाभों का परित्याग करते हैं और भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्षतः घाटा उठाते हैं। आदर्शवादियों के निहित स्वार्थों द्वारा तरह-तरह की हानि पहुंचाई जाती है। उदार व्यवहार में भी वे कुछ त्याग ही करते हैं। देश भक्तों और तपस्वियों को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है और कई बार तो उन्हें प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। बुद्धिमानी का भौतिक मापदण्ड इनमें घाटा ही घाटा देखता है। प्रत्यक्ष लाभ जैसी कोई बात इस मार्ग पर चलने से नहीं मिलती। फिर भी समझदारी की सीमाओं का उल्लंघन करके वे कदम उठाये जाते हैं जिसे व्यवहार बुद्धि अपने भौतिकवादी गणित के सहारे मूर्खता ही सिद्ध करेगी। इतने पर भी सारे तर्कों का उल्लंघन करके कोई आन्तरिक उमंग ऐसी उठती है और उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना की भूख बुझाने के लिए त्याग, बलिदान की मांग करती है और अनेकों सद्भाव सम्पन्न उसकी पूर्ति भी करते हैं।
यह सम्वेदना ही अग्नि है। जब वह आदर्शों को अपनाये रहने की परिपक्वावस्था में होती है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। इसका सुनिश्चित निर्धारण विश्वास कहलाता है। श्रद्धा को भवानी की और विश्वास को शंकर की उपमा दी गई है और कहा गया है कि इन्हीं दोनों की सहायता से अन्तरात्मा में ओत-प्रोत परमात्मा का दिव्य-दर्शन होता है। आदर्शवादी सम्वेदनाओं की यह समूची परिधि धर्म क्षेत्र के नाम से जानी जाती है। इसी की उमंगें कर्मक्षेत्र पर छाई रहती हैं। आस्थाओं की प्रेरणा से विचार तन्त्र को दिशा मिलती है और विचारों की कर्म के रूप में परिणित होती है। इसी क्षेत्र में जब प्रखरता आती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान जागृत होता है और दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन, भावी सम्भावनाएं जैसी वे जानकारियां मिलती हैं जो सामान्य इन्द्रिय क्षमता की पकड़ से बाहर हैं।
अन्तःसंस्थान के शान्ति, सुस्थिर एवं परिष्कृत करने की विधि-व्यवस्थता का नाम योग है। योगाभ्यास में जिस समाधि की चर्चा की जाती है वह मस्तिष्क की घुड़-दौड़ शान्त करके अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं को उभारने की प्रक्रिया है। चित्त वृत्तियों का निरोध इसी को कहा गया है।यह स्थिति प्राप्त होने पर अपने अस्तित्व में आत्मा की उपस्थिति अनुभव होती है और उसके अनुशासन को स्वीकार करने की सहज स्वीकृति जागृत होती है। आत्म-समर्पण के क्षण इन्हीं भावनाओं से भरे होते हैं। दिव्यत्व में अन्तःकरण का लीन हो जाना इतना आनन्द युक्त होता है कि उसे ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में किये गये समस्त वर्णन यथार्थता के रूप में अनुभव होते हैं।
धर्म को भीरुता से जोड़ा जाता है, जीवन संघर्ष से कतराने वाले धर्माडम्बरों में उलझे रहते हैं यह कहा जाता है, पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं। यह साहसी शूरवीरों का मार्ग है। मन और अन्तःकरण का संघर्ष स्पष्ट है। मन सुविधाओं में रमता है और अन्तःकरण को वे भाव सम्वेदनाएं चाहिए जो उत्कृष्टता अपनाने के मूल्य पर ही उपलब्ध होती हैं। लोक-प्रवाह और अपने संचित संस्कार मनोकामनाओं की पूर्ति की दिशा में खींचते और मनमानी करने के लिए उकसाते हैं इसके ठीक विपरीत वह क्षेत्र है जिसे आत्मा की पुकार कहते हैं। यहां सब कुछ दूसरे ही तरह का है। यहां वैभव बेचकर सन्तोष खरीदा जाता है। इतना बड़ा सौदा करना जुआरी द्वारा अपना सर्वस्व ऐसी बाजी पर लगा देने जैसा है जिसमें प्रत्यक्षतः घाटा ही घाटा है। ऐसा बड़ा कदम उठाना सती शूरमाओं जैसा दुस्साहस है जिसमें प्रत्यक्ष का उत्सर्ग करके परोक्ष के उपलब्ध होने का सुनिश्चित विश्वास आवेश की तरह अन्तराल के कण-कण में छाया होता है। भावनाओं के परिपोषण में कामनाओं की बलि चढ़ा देना जिनसे बन पड़ता है वस्तुतः वे ही धर्मात्मा हैं। कहा जाता है कि—धार्मिकता स्वर्ग के लालचियों और नरक से भयभीत लोगों को छिपाये रहने वाली मांद भर है। पर बात ऐसी है नहीं। कुछ उथले धर्माडम्बरियों या धर्म भीरुओं के लिए यह बात भले ही लागू होती हो, पर वस्तुतः धर्म एक सत्साहस और प्रबल पुरुषार्थ है जिसमें अन्तरात्मा को सर्वोपरि माना जाता है और उत्कृष्टता भरी भाव सम्वेदनाओं के समर्थन की सुख-सुविधाओं से लेकर स्वजनों को रुष्ट करने तक का ऐसा साहस प्रदर्शित किया जाता है जिसे अलौकिक एवं असाधारण कहा जा सके।