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Books - धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं पूरक हैं

Media: TEXT
Language: HINDI
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​​​धर्म और दर्शन की उत्क्रांति भी आवश्यक

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भावी पीढ़ी को मानसिक दिग्भ्रान्ति से बचाने के लिए यह प्रश्न सुलझाना आवश्यक है। धर्म के गिरते हुए मूल्य को देखकर ऐसा लगता है कि कहीं आने वाली पीढ़ियां पूर्णतया पदार्थवादी होकर अपनी आध्यात्मिक शक्तियां नष्ट न कर डालें।

हमारी तरह से ऐसे विचार दुनिया के अनेक मनीषियों के मस्तिष्क में आये और उन्होंने अपनी-अपनी तरह के विचार भी दिये। किसी भी ठोस निर्णय के लिए उनके विचारों का बड़ा भारी महत्व हो सकता है। एक अमरीकी स्नातक श्री हरोल्ड केशेलिंग के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न उठा था। उन्होंने ‘‘विज्ञान और धर्म में क्या सम्बन्ध है?’’ इस सम्बन्ध में विस्तृत अध्ययन किया और अपने निर्णयों को एक ‘‘थीसिस’’ के रूप में ‘‘साइन्स एण्ड रिलीजन’’ (विज्ञान और धर्म) के नाम से पेन्सिलवेनिया यूनीवर्सिटी को प्रस्तुत किया। थीसिस के मध्यपृष्ठों में श्री केशेलिंग ने भी चेतावनी देते हुए लिखा है कि—हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इस परिस्थिति की ओर सच्चे रूप में ध्यान देना होगा हमेशा के लिए यह तय करना होगा कि वास्तव में धर्म और विज्ञान में कोई समझौता हो सकता है या नहीं।’’

इसी संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुये उन्होंने आगे लिखा—‘‘कई धार्मिक संस्थाओं ने यह पहचान लिया है कि धर्म और विज्ञान की सम्मिलित प्रगति से मनुष्य जाति की यथार्थ प्रगति हो सकती है। इस ओर उन्होंने काम भी प्रारम्भ किया है इससे अनेक मानवीय समस्याओं के सही हल सामने आये हैं। विज्ञान की महत्वपूर्ण बातों में कई बातें ऐसी हैं जो धार्मिक संस्थाओं के लिए उचित हैं तथा उनकी स्वयम् की जानकारी का स्पष्टीकरण करती है। पिछले दिनों धर्म विज्ञान का संघर्ष मुख्य बातों में असहयोग के कारण होता था जो अब समाप्त होता जा रहा है। पहले जो बातें विरोधी लगती थीं, अब पूर्ण रूप से एक रूप और अनुरूप प्रतीत होती हैं।’’

यह विचार वस्तुतः मार्गदर्शक है। आइन्स्टीन, न्यूटन, गैलीलियो जैसे महान् वैज्ञानिकों को अन्ततः यह स्वीकार करना पड़ा कि सब कुछ पदार्थ ही नहीं है कुछ मानसिक और भावनात्मक सत्य भी संसार में है विज्ञान का दृष्टिकोण उनका स्पष्टीकरण करना है। इस तरह के कर्त्तव्यों के बाद ही रूढ़िवादी वैज्ञानिक और धार्मिक व्यक्तियों—दोनों को अपना हठ समझौते के लिए बदलना पड़ा। आज पाश्चात्य देशों में इसीलिए लोग विज्ञान की बातों की संगतियां आध्यात्मिक सत्यों से जोड़ने लगे। उसे उनकी समझदारी कहना चाहिए। विज्ञान कितना ही आगे बढ़ जाये हम मनुष्य जीवन के मूलभूत सत्यों यथा जन्म-मरण, परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल, परमात्मा आदि के अस्तित्व और मानव-मानव के बीच के सम्बन्धों को ठुकरा नहीं सकते। उनको सुलझाने के लिए हमें भावनात्मक आधार बनाना ही पड़ेगा और तब-तब धर्म की उपस्थिति अनिवार्य होगी ही। अलबर्ट आइन्स्टीन ने प्रिन्स्टन यूनिवर्सिटी में कहा था—‘‘संसार में ज्ञान और विश्वास दो वस्तुयें हैं। ज्ञान को विज्ञान और विश्वास को धर्म कहेंगे। इस युग में लोगों की मान्यता है कि ज्ञान बड़ा है, क्योंकि यह क्रमबद्ध है, स्कूलों में इसी का शिक्षण होता है, किन्तु यह मानव-जीवन के उद्देश्य को बहुत देर तक प्रयोग करके भी शायद ही बता सके, जबकि विश्वास में तार्किक चिन्तन और क्रमबद्ध ज्ञान (राशनल नालेज) दोनों ही आधार हैं, जो हमारा सम्बन्ध सीधे परम अवस्था या अपने मूलभूत उद्देश्य से जोड़ देते हैं।

विज्ञान किसी भी वस्तु (आब्जेक्टिव फील्ड) का वैज्ञानिक निर्णय और तार्किक चिन्तन (लॉजिकल थिंकिंग) सही दे सकता है, उदाहरण के लिए वह मौसम की जानकारी दे सकता है। बम विस्फोट से कितनी ऊर्जा (एनर्जी) पैदा होगी, यह बता सकता है, पृथ्वी से चन्द्रमा के बीच की दूरी नाप सकता है, किन्तु मानवीय व्यवहार और न्याय का एक क्षेत्र है, उसे विज्ञान अपनी तार्किक चिन्तन (लॉजिकल थिंकिंग) से बताये तो उसका निर्णय गलत बैठेगा। विज्ञान एक शक्तिशाली साधन है, पदार्थ के अध्ययन का, पर अन्तिम उद्देश्य केवल धर्म द्वारा ही निर्धारित किये जा सकते हैं। वैज्ञानिक शोधों का मूल्यांकन और उन्हें मानवीय जीवन में उतारना एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे केवल धर्म ही पूरा कर सकता है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक ब्वायल ने एक सिद्धान्त (ब्वायल्स ला) प्रतिपादित कर बताया कि यदि दबाव (प्रेशर) बढ़ाया जाय तो आयतन (वालूम) कम हो जायेगा। अर्थात् आयतन और दबाव दोनों एक दूसरे के विपरीत अनुपात (रेसीप्रोकल प्रपोर्शन) में हैं। हवा भर कर किसी गुब्बारे को एक निश्चित आयतन में फुला लें और फिर उसे दाबें तो जितना अधिक गुब्बारे को दबाते चलेंगे, उसका आकार उतना ही छोटा होता चला जायेगा।

धर्म और विज्ञान भी इसी प्रकार एक दूसरे के विपरीत अनुपात (रेसीप्रोकल प्रपोर्शन) में दिखाई देते हैं, जहां पर धर्म आ जाता है, वहां विज्ञान की आवश्यकता कम हो जाती है और जहां पर विज्ञान की मात्रा बढ़ जाती है, वहां धर्म को उतना स्थान छोड़ना पड़ता है। इस विपरीत अनुपाती सिद्धान्त के अनुसार ऐसा जान पड़ता है धर्म और विज्ञान में परस्पर विरोध है।

दबाव बढ़ाते जाने की भी एक सीमा है, उस सीमा के आगे गुब्बारा फट जाने की तरह उस वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है, उसी प्रकार आयतन बढ़ाते चलो तो एक अवस्था ऐसी आयेगी, जब भीतरी फैलाव ही उस वस्तु के अस्तित्व को फोड़कर नष्ट कर देगा। धर्म को इतना बढ़ाते चला जाये कि विज्ञान से कोई वास्ता ही न रहे तो धर्म, धर्म न रहकर अन्धविश्वास हो जायेगा।

विज्ञान के पीछे किसी सशक्त सत्ता का रहना आवश्यक है, अन्यथा उसकी उपयोगिता मारी जा सकती है। मानवता के लिए उसका उपयोग तभी सम्भव है। यह सत्ता केवल धर्म या विश्वास की ही हो सकती है। धार्मिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए भी यदि हम समय रखें तो साधनों का अभाव हमारे लिए कोई अभाव नहीं है। इसी तरह हम धार्मिक आधार पर मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य निर्धारित करें, किन्तु उसके पीछे वैज्ञानिक तर्कों का समावेश आवश्यक है।

ब्वायल के सिद्धान्त (ब्वायलस ला) के अनुसार विपरीत जान पड़ने वाले धर्म और विज्ञान वस्तुतः विरोधी होकर ही एक स्थान पर रहकर ही मानव-जीवन का कल्याण कर सकते हैं। चार्ल्स का सिद्धान्त (चार्ल्स ला) के अनुसार जैसे-जैसे ताप (टेम्परेचर) बढ़ेगा उसी अनुपात में आयतन (वाल्यूम) भी बढ़ेगा अर्थात् ताप और आयतन सीधे अनुपात (डाइरेक्टली प्रपोर्शन) में हैं। विज्ञान और धर्म का भी सम्बन्ध ऐसा ही है, जब धर्म बढ़ेगा उसकी रूढ़िवादिता और अन्ध-विश्वास को दूर करने के लिए विज्ञान का बढ़ना अनिवार्य हो जायेगा, उसी तरह अब जब कि विज्ञान अपनी चरम प्रगति पर बढ़ चुका है उसके एकाधिकार और निरंकुशता को समाप्त करने एवं मनुष्य जीवन का निश्चित लक्ष्य निर्धारित करने के लिये धर्म का विकास आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है।

इतिहास मर्मज्ञ डा. टायनवी से एक पत्रकार ने पूछा—निकट भविष्य में जब वैज्ञानिक प्रगति के कारण मनुष्य को सहज ही सस्ते मूल्य पर प्रचुर सुविधायें मिलने लगेंगी, तब वह बैठे ठाले अपना समय किस प्रकार बिताया करेगा? इस प्रश्न के उत्तर में टायनवी ने कहा—‘‘उसके पास काम करने का इतना बड़ा और इतना महत्व पूर्ण क्षेत्र खाली है, वह क्षेत्र ऐसा है जिसमें प्रगति होते हुए भी भौतिक सुविधायें उसके लिए सुखद न रह कर दुःखद बनती जायेंगी। यह उपेक्षित क्षेत्र अध्यात्म का है। चिन्तन को परिष्कृत बनाने वाला क्षेत्र भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की अपेक्षा बड़ा भी है और व्यापक भी। सुविधाओं की अभिवृद्धि के कारण जो समय बचेगा, उसे आगामी पीढ़ियां अध्यात्म उत्पादन में लगाया करेंगी। संगीत, साहित्य कला के माध्यम से विचारों का परिष्कार करने की आवश्यकता अनुभव की जायगी और भावनात्मक सहयोग एक के द्वारा दूसरे को मिलाता रहे, इसकी आवश्यकता अनुभव की जायगी। इसलिए मानवी अन्तरात्मा की भूख बुझाने के साधन जुटाने में अगली पीढ़ियों को लगना होगा। चैन करने और मौज उड़ाने की वर्तमान हविस की निरर्थकता सिद्ध होने पर मनुष्य को अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों के जागरण का अधिक उपयोगी प्रयास करने में जुटना पड़ेगा। बेकारी या शून्यता उत्पन्न नहीं होने पायेगी। विज्ञान की प्रगति की उपलब्धियों का उपयोग धर्म के क्षेत्र में ही हो सकेगा। अस्तु उन्हें एक दूसरे के पूरक बन कर रहना होगा।

दर्शन अन्तर्ज्ञान शक्ति ‘इन्टरनल पावर’ तर्क भाव सम्वेदन और दूरदर्शी विवेक पर अवलम्बित है और विज्ञान बौद्धिक शक्ति पर प्रयोगात्मक तथ्यों पर। इस प्रकार से उनके साधन तो पृथक-पृथक हैं पर सत्य के समीप तक पहुंचाने का दोनों का मूलभूत उद्देश्य एक है। ब्रिटिश विज्ञानी सर जेम्स जीन्स ने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स एण्ड फिलॉसफी’ में लिखा है—विज्ञान और दर्शन के परस्पर विरोध का झगड़ा अब मर चुका है। ज्ञान के विस्तार ने अब दोनों के बीच की सीमा-रेखा तोड़ कर फेंक दी है। दोनों क्षेत्र यह सोचते हैं कि एक दूसरे की सहायता के बिना किसी का भी प्रयोजन पूरा न हो सकेगा। दर्शन शास्त्री बिल ड्ररण्ट ने अपने ग्रन्थ ‘दी स्टोरी आफ फिलॉसफी’ में इसी से मिलते-जुलते विचार व्यक्त किये हैं। वे कहते हैं ‘विज्ञान का आरम्भ दर्शन में होता है और अन्त कला में। यदि विज्ञान में मानवी चेतना की सुसम्वेदना उत्पन्न करने की क्षमता न होती तो उसके लिए कठोर श्रम करने में किसी को भी उत्साह न होता। केवल कौतूहल के लिए विज्ञान की शोध थोड़े ही होती है। उसके पीछे मानवी सुख-शान्ति का जो उत्साह भरा लक्ष्य जुड़ा है, उसी ने विज्ञान की उन्नति का पथ प्रशस्त किया है। विद्वान केसर लिंग ने अपनी पुस्तक ‘क्रिएक्टिव अण्डर स्टोंडिंग’ में कहा है—ज्ञान की दो धाराएं विज्ञान और दर्शन अविच्छिन्न हैं। विज्ञान या दर्शन दोनों को मिलाकर एक शब्द वैज्ञानिक दर्शन अथवा दार्शनिक विज्ञान नाम दिया जाना इस युग के ज्ञान विस्तार को देखते हुए सब प्रकार उपयुक्त ही होगा। विज्ञान के अन्तर्गत जिस प्रकार रसायन शास्त्र, शरीर शास्त्र, यान्त्रिकी, तकनीकी आदि धाराएं आती हैं, उसी प्रकार ज्ञान मीमांसा, प्रमाण मीमांसा, मनोविज्ञान, तर्क शास्त्र और अध्यात्म जैसे दार्शनिक विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। दोनों के बीच परस्पर सहयोग से ही समग्र सत्य का दर्शन हो सकता है।

एफ.सी. नार्थरोम का कथन है—वैज्ञानिक सिद्धान्तों को जितना वास्तविक माना जाता है, उससे अधिक वे काल्पनिक हैं। किसी प्रयोग का सही उतरना इस बात की गारंटी नहीं है कि प्रयोग की जो व्याख्या विवेचना की गई है, उसके जो आधार कारण बताये गये हैं वे सही ही हैं। अक्सर ऐसा होता रहता है कि पुराने सिद्धान्त काट कर उनके स्थान पर नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जाता है। इस पर भी प्रयोग पूर्ववत सही ही बने रहते हैं। विज्ञानी करनर हाईसवर्ग ने अपने ग्रन्थ ‘भौतिक विज्ञान और दर्शन’ ग्रन्थ में अनिश्चितता के नियमों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है विज्ञान वस्तुतः दर्शन शास्त्र की स्थूल जाति का निरूपण करने की एक शैली मात्र है। सिद्धान्तों के हाथ लगने के बाद ही वैज्ञानिक प्रयोगों में पूर्णता आती है। उन्हें अणु विज्ञान को प्रयोगात्मक विज्ञान की परिधि में करना है और कहा है उसे समझ सकना गणित के गहन नियमों के साथ ही जुड़ा हुआ है।

डा. राधाकृष्ण ने ‘दर्शन’ की परिभाषा करते हुए उसे ‘‘सत्य को समझने का बौद्धिक प्रयास’’ कहा है—महर्षि अरविन्द इस निरन्तर चल-बदल रहे संसार में एक मात्र सत्य वैचारिक निष्ठा को ही माना है। भले ही वह सापेक्ष बनी रहे। वे कहते हैं—‘‘विचार ही जगत के निर्माता हैं। इसलिए वस्तुतः वे ही सत्य हैं। वस्तुओं अथवा व्यक्तियों के माध्यम से जो अनुभूतियां होती हैं, उनका मूल कारण विचारगत निष्ठा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कात्यायन ने ‘‘यथार्थता के मर्मस्थल तक पहुंच सकने वाली तीखी विवेक दृष्टि को दर्शन की संज्ञा दी है और कहा कि अध्यात्म अन्धता का निराकरण मात्र दार्शनिक दृष्टि मिलने पर ही हो सकता है।

दार्शनिक लिनयुतांग के विचार से ‘‘वस्तुओं के परखच्चे उधेड़ते रहने पर जगत का न तो स्वरूप समझ में आ सकता है और न उसका प्रयोजन स्पष्ट होता है। इसके लिए दर्शन का सहारा लिए बिना काम नहीं चल सकता। डा. राधाकृष्णन कहते हैं—विज्ञान के लिए बिना दर्शन की सहायता के विश्व का तात्विक स्वरूप समझ सकना अशक्य है। दार्शनिक जीन ‘डयूप्लेसिस’ का मत है—जगत का स्थूल स्वरूप ही विज्ञान हमें समझा सकता है और पदार्थों की प्रकृति पहचान कर उससे लाभ उठाना सम्भव कर सकता है। इसके आगे उसकी गति नहीं। जो है सो क्यों है? किसलिए है? कैसा है? इन प्रश्नों का उत्तर दर्शन के अतिरिक्त और किसी माध्यम से मिल ही नहीं सकता। आइन्स्टीन ने लिखा है—‘‘वैज्ञानिक चिन्तन के विस्तार से एक बात बिलकुल स्पष्ट हो गई है कि भौतिक जगत का कोई ऐसा रहस्य नहीं है जो अपने आगे भी किसी रहस्य की ओर इंगित न करता हो।

‘‘फिलॉसफी आफ फिजीकल साइन्स’’ के लेखक सर ए.एस. एडिंगटन ने अपनी मान्यता व्यक्त करते हुये लिखा है—‘‘विज्ञान के सिद्धान्तों का समझना और समझाना दर्शन शास्त्र के सिद्धान्तों के सहारे ही सम्भव हो सकता है।’’ ‘‘फ्रोम युक्लिड टू एडिंगटन’’ के लेखक सर एडमन्ड ह्वेटेकार ने लिखा है। प्राचीन दर्शन शास्त्र के विवादास्पद सिद्धान्तों को वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर अधिक प्रामाणित रीति से परखा और जाना जा सकता है। ‘‘दि फिलॉसफी आफ स्पेस एण्ड टाइम प्रिफेस’’ के लेखक हन्स राइसन वाच ने लिखा है—वह जमाना लद गया। जब विज्ञान और दर्शन को एक दूसरे से सर्वथा पृथक कहा जाता था, अब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दर्शन और विज्ञान की जोड़ी में से एक को हटा देने पर दूसरा लड़खड़ाने लगा है। थ्योरी आफ रिलोटिवटी तथा थ्योरी आफ सेट्स जैसे सिद्धान्तों की उपज दर्शन और विज्ञान को अन्योन्याश्रित मान कर ही हो सकती है। यूनान के सुकरात से भी पुराने दार्शनिक दर्शन का अर्थ—‘बहिर्जगत का अध्ययन’ करते रहे। ग्रीक के शब्द कोषों में ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट है कि प्राचीनकाल में दर्शन और विज्ञान की गणना एक स्तर पर ही होती है। अन्यान्य देशों के प्राचीन मनीषियों ने भी लगभग इसी स्तर की व्याख्या की है। इन दोनों क्षेत्रों का जब अधिक विस्तार हुआ, तभी बटवारे की बात सामने आई और अन्तरंग चिन्तन की धारा को दर्शन और बहिरंग हलचलों के ऊहापोह को विज्ञान कहा जाता रहा है। इतने होते हुए भी यह स्पष्ट है कि दोनों के मिलाये बिना न तो चिन्तन में स्पष्टता आती है और न वैज्ञानिक प्रगति का पथ प्रशस्त होता है।

अब दर्शन की बारी है उसे कुछ करने दिये जाये

विज्ञान का तात्पर्य प्रकृति के कुछ रहस्यों का उद्घाटन अथवा कुछ उपकरणों का निर्माण कर लेना मात्र नहीं है वरन् उसकी व्यापकता मानवी दृष्टिकोण को अधिक सुविस्तृत तथ्यपूर्ण एवं सत्यनिष्ठ बनाने तक चली जाती है विज्ञान का उपयोग भौतिक सुख-सुविधाओं के संवर्धन अथवा जानकारियों का क्षेत्र बढ़ाने तक सीमित नहीं है वरन् वास्तविक उपयोग यह है कि हम तथ्य और सत्य को प्रश्रय दें। परम्पराएं कितनी ही पुरानी अथवा बहुमान्य क्यों न हों यदि वे यथार्थता और उपयोगिता की कसौटी पर सही नहीं उतरतीं तो उन्हें बदलने के लिए सदा तत्पर रहें। नये या पुराने के झंझट में न पड़कर विज्ञानी सत्य की ही मान्यता प्रदान करता है।

विज्ञान न केवल एक प्रक्रिया है, वरन् एक प्रवृत्ति भी है। जिसका फलितार्थ है— साहसपूर्ण विवेचनात्मक एवं तथ्य समर्पित यथार्थवादी दृष्टिकोण। सत्य की खोज के लिए यह आवश्यक है कि हम तर्क और तथ्य की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता और परम्परा को कसें और उनमें से जो खरी उतरती हों उन्हीं को अंगीकार करें। विज्ञान के इस पक्ष को दर्शन कहा जाता रहा है। वस्तुतः दोनों के समन्वय से ही एक पूर्ण विज्ञान की प्रतिष्ठापना होती है।

मान्यता पुरानी है या नई। इस व्यामोह से निकाल कर जो तथ्य है उसी को स्वीकार करने की बात यदि मन में समा जाय तो समझना चाहिए कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण मिल गया। यथार्थवादी चिन्तन और औचित्य का अवलम्बन जिन्होंने अपनाया उन्हें विचार क्षेत्र का वैज्ञानिक ही कहना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे दार्शनिक भी कह सकते हैं। भौतिक विज्ञान की अपनी सीमा और उपयोगिता है वह पदार्थ की स्थिति और गति का विवेचन करता है और वस्तु की मूलभूत सूक्ष्म सत्ता का पता लगाता है। वह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम तक पहुंचने के लिए निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है और अधिकाधिक गहराई तक पहुंचने के लिए अधिकाधिक प्रयास करता है।

भावनात्मक क्षेत्र में भी दर्शन विज्ञान की गतिविधि इसी आधार पर अधिकाधिक कलात्मक और सौन्दर्योपासक बनती जाती है। किन व्यक्तियों और किन पदार्थों की कितनी उपयोगिता है इस स्थूल कसौटी की अपेक्षा वह उनकी स्थिति में सन्निहित महान् सम्वेदनाओं की गहराई तक पहुंचने का प्रयास करता है।

चेतना का सूक्ष्मतम स्तर है—सत्यं, शिवम्, सुन्दरम्। वस्तुओं में लोभ और व्यक्तियों में मोह का दृष्टिकोण बहुत ही स्थूल है। यह अहंता का आरोपण मात्र है। जिस सम्पत्ति को हम अपने अधिकार के अन्तर्गत मानते हैं वह हमें प्रिय लगती है और जिन व्यक्तियों को इसी अपने परिवार के मान लेते हैं उनमें आसक्ति बढ़ जाती है। इसी ‘प्रिय’ परिधि की समीपता सुहाती है और उसे बढ़ाने तथा रखाने की ललक लगी रहती है। आमतौर से सुख सन्तोष की परिधि उतने ही क्षेत्र में अवरुद्ध होकर रह जाती है। जो किया और चाहा जाता है वह उसी सीमा में बंधा रहता है यह अहंता की प्रतिध्वनि मात्र है इसमें वस्तु के मूल सौन्दर्य का दर्शन हो ही नहीं पाता और व्यक्ति लोभ और मोह के अंवर-डंवर देखता हुआ बाल कौतुकों में उलझा रहता है।

कला, काव्य एवं सौन्दर्य को भावनात्मक सम्वेदना तथा चिन्तन की सूक्ष्मतर परिधि कह सकते हैं। नृत्य गायन, कला नहीं, कला का आवरण है उस माध्यम से अन्तःकरण में उल्लास पूर्ण प्रस्फुरण उमगता है वह सम्वेदना ही कला है। काव्य किन्हीं तुकबंदी या छन्द विन्यास को नहीं कहते। शब्दों का आवरण उठा कर विशिष्ट स्तर के भावोद्रेक को सजाया भर जाता है। उन शब्दों के अन्तरंग में जो कोमलता झांकती है और चेतना में गुदगुदी पैदा करती है वही कविता है। सौन्दर्य, वस्तुओं की सज्जा, दृश्यों की शोभा एवं व्यक्तियों के अंग गठन पर निर्भर नहीं है वह तो प्रकृति की मृदुल एवं आत्मा की कोमल कान्त सम्वेदनशीलता को अपने अन्तरंग चित्रपट पर कलात्मक तूलिका के साथ चित्रण कर सकने की कलाकारिता है। सुन्दरता को दूसरे शब्दों में दिव्यानुभूति कह सकते हैं। जो भाव भरे अन्तःकरण में अपनी विशिष्टता के अनुरूप उमंगती, उभरती रहती है। उसका किसी के अंग संगठन से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।

द्रौपदी और लैला बिलकुल स्याह काले रंग की थीं साथ ही कुरूप भी, पर उनके प्रेमी प्राण-प्रिय मानते थे। इसमें विशेषता उन महिलाओं के अंग गठन की अथवा हाव-भावों की नहीं, आरोपण में श्रेय, देखने वाले के अपने दृष्टिकोण को जितना दिया जायेगा उतना प्रिय पात्र को नहीं।

भौतिक विज्ञान को असंस्कृत समझने का कोई कारण नहीं, क्योंकि उसका उद्देश्य न केवल अणु-सत्ता का विवेचन एवं उपयोग जानना है, वरन् चेतना के साथ जुड़ी हुई कोमल सम्वेदनाओं को उभार कर अन्तःकरण की भाव भरी रसानुभूति प्रदान करना भी है इन दोनों प्रयोजनों को साथ लेकर चलने से ही विज्ञान की पूर्णता बनती है। अन्यथा भौतिकी को ही विज्ञान मान लेने पर तो वह सचमुच ही असंस्कृत बन जायेगा। तब उसे लंगड़े, काने, कुबड़े, पंगे, नकटे, बूचे की संज्ञा दी जा सकेगी, वह वस्तुतः कुरूप एवं कर्कश ही बन जायेगा।

जीवन को जड़ और चेतन का समन्वय कह सकते हैं। हमें पदार्थों का भी उपयोग करना पड़ता है और चेतनता से भी वास्ता पड़ता है। हमारा शरीर स्वयं जड़ पदार्थों से बना है और अन्तःकरण में चेतना की सत्ता विद्यमान है। उभय-पक्षीय वस्तुस्थिति से अधिकाधिक आनन्द लेने के लिए उनकी सूक्ष्मता में प्रवेश करना आवश्यक है, ताकि जो अभी तक नहीं मिल सका वह आगे मिल सके। इस आवश्यकता की पूर्ति स्थूल जड़ जगत के क्षेत्र में भौतिकी द्वारा सम्भव होती है और चेतना के क्षेत्र में भाव संवेदना के अन्तराल में प्रवेश करके वह प्रयोजन सिद्ध किया जा सकता है।

विज्ञान और दर्शन का क्षेत्र पृथक रखा जाय तो दोनों ही अपूर्ण रह जायेंगे। वस्तुतः वे दोनों दो हैं भी नहीं। एक ही तथ्य के दो पूरक पक्ष हैं। भौतिक जड़ पक्ष को सम्भालता है और ब्रह्मविद्या चेतना को सुसंस्कृत बनाती है तथ्यों की उपेक्षा करके, मात्र चिन्तन की कलाबाजी का खेल खड़ा करते रहने वाला दर्शन भ्रान्तियों का भंडार बन जायेगा वह हमें अवास्तविक कल्पनाओं की उड़ान में उड़ते रहने वाला—दिवास्वप्न देखते रहने वाला—मात्र बना कर रख देगा। इसी प्रकार जड़ पदार्थों की क्षमता पर निर्भर होते-होते हम स्वयं हृदयहीन मशीनी मनुष्य मात्र बनकर रह जायेंगे। विज्ञान को दर्शन के साथ और दर्शन को विज्ञान के साथ अपना ताल-मेल बिठाना पड़ेगा। यद्यपि आज यह बहुत कठिन दीखता है पर कल इसकी अनिवार्यता अनुभव की जायगी। सत्य और तथ्य का समन्वय करने से ही सर्वतोमुखी प्रगति के दोनों पहिये गतिशील हो सकेंगे। विज्ञानी को कलाकार बनना चाहिए और कलाकार को विज्ञान के साथ अपना मेल-जोल बढ़ाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान को मिलाकर उभय-पक्षीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए। दोनों को दो धाराओं में बहते हुए भी एक लक्ष्य पर पहुंचना चाहिए। पिछली कितनी ही मान्यतायें, परम्पराएं, परिभाषाएं और आकांक्षाएं अब अवास्तविक और असामयिक ठहरा दी गई हैं। किसी समय उनका औचित्य रहा होगा पर अब उनके साथ चिपके रहना हमें केवल उपहासास्पद ही बना सकता है। ठीक इसी प्रकार यदि विज्ञानी बिना हित अनहित का विचार किये घातक आविष्कार करता रहा और विलास वृद्धि में आविष्कारों का उपयोग होता रहा तो मनुष्य अपनी कलाकारिता को अनावश्यक समझने लगेगा और उसकी सौंदर्यानुभूति समाप्त हो जायगी। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान की प्रगति सचमुच बहुत महंगी पड़ेगी।

विज्ञान के सम्पर्क में दर्शन की सत्ता को खतरा उत्पन्न हो जायेगा, इस प्रकार सोचना तभी उचित है जब वह अवास्तविक आधारों को लेकर चल रहा हो। अब बुद्धिवादी युग आ गया। क्यों और कैसे की कसौटी पर कसे बिना अगले दिनों किसी भी प्रचलन को स्वीकार न किया जा सकेगा। यथार्थता की परीक्षा से यदि दर्शन भागेगा तो उसका यह भगोड़ापन ही उसकी कच्चाई समझली जायगी और दंभी बताकर समय का प्रवाह उसका साथ छोड़ देगा तब उसे बेमौत मरना पड़ेगा। इससे अच्छा यही है कि वह समय रहते आत्म-निरीक्षण, परीक्षण करके उसे इस योग्य बनालें कि तथ्यों का सामना करने में उसे डरने की तनिक भी आवश्यकता न रहे। दर्शन का गौरव इसी में है।

भाव-संवेदनाओं का क्षेत्र उतना ही सुविस्तृत है जितना भौतिक भी जगत यह एक तथ्य है कि मनुष्य की आत्म संतुष्टि शान्ति और प्रसन्नता भावनाओं के ही स्पन्दन हैं फिर भी भावनाओं की उपेक्षा की जाती रहती है। भाव विज्ञान और धर्म एक ही सिक्के के उभय पक्ष हैं दो भिन्न वस्तुयें नहीं। इस तरह धर्म के बिना हमारा काम वैसे ही चल नहीं सकता जिस तरह अन्न और वस्त्र के बिना, इससे मानवीय व्यवहार प्रभावित होता है। धर्म का उद्देश्य उसे निरंकुश होने से बचाना है अतएव उसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। विज्ञान के साथ धर्म का समन्वय बना रहने से ही मानवीय प्रगति की शान्ति और प्रसन्नता स्थिर रह सकती है इससे कम में नहीं।
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युगगीता (भाग-४)
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अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
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भक्ति- एक दर्शन, एक विज्ञान
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स्वर्ग नरक की स्वचालित प्रक्रिया
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चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
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वाल्मीकि रामायण से प्रगतिशील प्रेरणा
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युग कि मांग प्रतिभा परिष्कार भाग-२
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जीवन देवता की साधना आराधना
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जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र
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गहना कर्मणोगतिः
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Articles of Books

  • सम्प्रदाय कलेवर है—धर्म आत्मा
  • ​​​धर्म एवं नीति की एक रूपता
  • ​​​विज्ञान की अपूर्णता और अस्थिरता
  • बुद्धि पर धर्म का अंकुश रखा जाय
  • ​​​धर्म और विज्ञान के समन्वय में ही कल्याण है
  • ​​​धर्म और दर्शन की उत्क्रांति भी आवश्यक
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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