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Books - दूसरों के दोष-दुर्गुण ही न देखा करें

Media: TEXT
Language: HINDI
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रात और दिन की तरह, धूप और छांह की तरह, मिर्च और मिठाई की तरह इस संसार में दोनों ही प्रकार के कारण, पदार्थ तथा व्यक्ति मौजूद हैं। दोनों तरह के न रह कर वे एक ही प्रकार के हो जायें तो संसार की भिन्नता, विचित्रता और शोभा नष्ट हो जायेगी। भिन्नता को हटा कर एकता स्थापित करने के लिये जो प्रयत्न हमें करने पड़ते हैं फिर उनका कोई कारण न रहेगा। बाधाओं को हटा कर सुविधाएं उत्पन्न करने के लिये ही तो हमारे सारे प्रयत्न चलते हैं। यदि एक ही स्थिति निरन्तर बनी रहने वाली हो तो फिर प्रयत्नों का कोई उद्देश्य ही न रहेगा। ऐसी दशा में यहां निष्क्रियता का साम्राज्य छाया रहेगा।
संसार की रचना में दोष और ईश्वर की भूल ढूंढ़ने की अपेक्षा हमें यही सोचना चाहिये कि क्या ऐसा सम्भव है कि अप्रिय के दुष्प्रभावों से बचा रहा जा सके और प्रिय की प्राप्ति के लाभों से लाभान्वित हुआ जा सके? विचार करने पर प्रतीत होता है कि ऐसी सुविधा भी परमात्मा की इस सृष्टि में मौजूद है। यदि उस सुविधा से लाभ उठाना जान लिया जाय तो ऐसा हो सकता है कि संसार की रचना परस्पर विरोधी, प्रिय और अप्रिय तत्त्वों से हुई होने पर भी हम शान्ति, सन्तोष और आनन्द का जीवन व्यतीत कर सकें।
यदि हमें सचमुच प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय से मुक्ति अभीष्ट हो तो इसके लिये जो एकमात्र मार्ग सुनिश्चित है उसे ही अपनाना होगा। वह मार्ग है—‘प्रिय दर्शन।’ इस संसार में कोई भी व्यक्ति या पदार्थ न तो पूर्णतया बुरा है और न पूर्णतया अच्छा है। हर किसी में कुछ दोष हैं, कुछ गुण। जिस प्रकार हम उसे देखते हैं उसी तरह का वह दीखने लगता है। विभिन्न स्थानों पर खड़े होकर एक ही वस्तु को यदि देखा जाय तो वह अलग-अलग प्रकार की दिखाई देती है। एक फोटोग्राफर अपना कैमरा लेकर किसी इमारत या मनुष्य के आगे-पीछे, दांये-बांये घूमता है और विभिन्न स्थानों पर खड़े होकर फोटो खींचता है तो वे तैयार हुए चित्र एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न दीखते। यद्यपि वे एक ही व्यक्ति या वस्तु के होते हैं। सामने से फोटो खींचने नर मनुष्य जैसा दिखाई देगा पीठ की ओर से खींचा हुआ चित्र उससे पृथक् प्रकार का खिंचेगा। एक ही वस्तु अनेक प्रकार की दीखे तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। अलग-अलग कोणों से देखने पर हर वस्तु भिन्नता लिये हुए दीखती है। इसी को दृष्टिकोण कहते हैं। दृष्टिकोण की भिन्नता से इस सारे संसार का स्वरूप ही बदल जाता है।
भागवत में वर्णन आता है कि जिस समय कंस की राजसभा में श्रीकृष्णजी ने प्रवेश किया उस समय वहां के सभासदों को वे वैसे ही दिखाई पड़े जैसा कि उनके सोचने का ढंग था। किसी को वे योद्धा, किसी को काल, किसी को ब्रह्म, किसी को बालक, किसी को त्राता आदि के रूप में दीखे। इसी प्रकार रामायण में वर्णन आता है कि सीता स्वयंवर में रामचन्द्रजी ने जब प्रवेश किया तो वहां उपस्थित लोगों को वे उनके दृष्टिकोण के अनुसार परस्पर विरोधी अनेक रूपों में दीखे। इसमें आश्चर्य जैसी कुछ भी बात नहीं है। यह सारा संसार सीता स्वयंवर की तरह है। यहां का हर आदमी हर वस्तु को अपनी भावना के अनुरूप देखता है और उसी से प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता अनुभव करता है।
एक ही वस्तु या व्यक्ति को कितने ही प्रकार से देखा जा सकता है। एक मनुष्य उसकी माता की दृष्टि छोटे बालक, पत्नी दृष्टि में प्रेमावतार, बच्चों की दृष्टि में वात्सल्यपूर्ण अभिभावक, मित्र की दृष्टि में प्राणप्रिय सहयोगी, शत्रु की दृष्टि में कालनेमि, दुकानदार की दृष्टि में ग्राहक, डॉक्टर की दृष्टि में रोगी, वकील की दृष्टि में मुवक्किल, अध्यापक की दृष्टि में छात्र दिखाई पड़ता है। मच्छर, जुएं, खटमल उसे रक्त से भरी एक टंकी समझते हैं। सिंह, व्याघ्र की दृष्टि में तो वह एक अच्छा खासा स्वादिष्ट भोजन पिण्ड ही लगेगा। व्यक्ति एक ही है पर अनेकों को उनकी अपनी दृष्टि के अनुसार वह अनेक प्रकार का दीखता है। इन देखने वालों में से कोई भी भूल नहीं कर रहा है। सचमुच वह व्यक्ति इतनी विशेषताओं से युक्त है कि उसे जिस प्रकार समझा और देखा जाता है वह उन सभी दृष्टिकोणों में ‘फिट’ बैठता है।
एक बगीचे में सुगन्धित फूल भी खिले होते हैं और जहां-तहां गन्दगी भी पड़ी होती है। भौंरा सुगन्ध का आनन्द प्राप्त करता है, मधुमक्खी शहद चूसती है और गोबर में किलोल करने वाला गुबरीला कीड़ा कहीं पड़ी गन्दगी को ढूंढ़ लेता है और उसी में लोट-पीटकर अपनी इच्छित स्थिति प्राप्त करता है। लकड़हारा उसमें से सूखी लकड़ी तोड़कर अपना काम चलाता है, पक्षी उसे धर्मशाला समझते हैं, माली के लिये वह निर्वाह का उद्योग-धन्धा है, सन्तों के लिये भजन का स्थान, चोरों को छिपने का आश्रय और भी न जाने वह किसके लिये क्या-क्या है? सभी अपनी-अपनी दृष्टि से उसे देखते हैं और दुःख तथा सुख अनुभव करते हैं।
यह संसार भी ईश्वर का एक सुरम्य उद्यान है। जहां जैसी जिसकी दृष्टि हो वैसा ही मिल जाने लायक पर्याप्त पदार्थ तथा व्यक्ति मिल जाते हैं। नशेबाज जहां कहीं भी जाते हैं उन्हें अपने साथी मिल जाते हैं। चोर चोरों को और जुआरी जुआरियों को ढूंढ़ लेते हैं। व्यभिचारी और वैश्याएं एक-दूसरे को आसानी से प्राप्त कर लेते हैं। सन्त समागम और सत्संग के प्रेमी अपना प्रिय वातावरण ढूंढ़ लेते हैं। सज्जनों को सज्जन, कवियों को कवि, साहित्यकारों को साहित्यकार, कलाकारों को कलाकार के साथ सम्पर्क बनाने में देर नहीं लगती। मनुष्य में एक ऐसा चुम्बकत्व मौजूद है जिसके अनुसार उसे अपना प्रिय वातावरण तलाश करने में देर नहीं लगती। जैसी अपनी प्रवृत्ति और भावना होती है उसी के अनुरूप परिस्थितियां भी सामने आकर खड़ी हो जाती हैं।
यदि हम सज्जनता ढूंढ़ने निकलें तो सर्वत्र न्यूनाधिक मात्रा में सज्जनता दिखाई देगी। मानवता के श्रेष्ठ गुणों से रहित कोई भी व्यक्ति इस संसार में नहीं है। गुण और अच्छाइयां ढूंढ़ने निकलें तो बुरे समझे जाने वाले मनुष्यों में भी अगणित ऐसी अच्छाइयां दिखाई देंगी जिनसे अपना चित्त प्रसन्न हो सके। इसके विपरीत यदि बुराई ढूंढ़ना ही अपना उद्देश्य हो तो श्रेष्ठ, सज्जन और सम्भ्रान्त माने जाने वाले लोगों में भी अनेकों दोष दिखाई पड़ सकते हैं और उनकी निन्दा करने का अवसर मिल सकता है। सज्जनता तलाश करने की भावना मन में रहने पर जो लोग श्रेष्ठ और प्रिय दिखाई देते हैं वे ही दोषदर्शी के लिये, छिद्रान्वेषण के लिये दुर्गुणों की खान, निन्दनीय और शत्रु प्रतीत होंगे। देखने और सोचने का तरीका बदल जाने से भिन्न प्रकार की अनुभूतियां होना स्वाभाविक ही है।
हमें बाह्य व्यक्ति, पदार्थ और कारण बुरे दिखाई पड़ते हैं पर यह नहीं सूझता कि अपना दृष्टिकोण ही तो कहीं दूषित नहीं है? आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन काम है। अपने दोषों को ढूंढ़ सकना समुद्र के तल में से मोती ढूंढ़ लाने वाले गोताखोरों के कार्य से भी अधिक दुष्कर है। अपने दोषों को स्वीकार कर सकना किसी साहसी से ही बन पड़ता है और सुधारने के प्रयत्न तो कोई विरला ही शूरवीर करता है। यही कारण है कि हममें से अधिकांश व्यक्ति दोषदर्शी, छिद्रान्वेषी दृष्टिकोण अपनाये रहते हैं और हर किसी को दोषी, निन्दनीय, घृणित एवं दुर्भावनायुक्त समझते रहते हैं। परिणाम स्वरूप सर्वत्र हमें दुष्टता और शत्रुता ही दीखती है। निराशा और व्यथा ही घेरे रहती है।
सारे संसार को अपनी इच्छानुकूल बना लेना कठिन है। क्योंकि यह परमात्मा का बनाया हुआ है और अपनी इस कृति को वही बदल सकता है। पर अपनी निज की दुनिया को अपने अनुकूल बदल सकना हममें से हर एक के लिये सम्भव है। जिस प्रकार परमात्मा का बनाया हुआ एक संसार है उसी प्रकार हर मनुष्य की बनाई हुई भी उसकी अपनी एक निजी दुनिया होती है जिसे वह अपने दृष्टिकोण के अनुसार बनाता है, उसी में सन्तुष्ट-असन्तुष्ट, खिन्न-प्रसन्न बना रहता है। यदि कोई चाहे तो अपनी दुनिया को बदल सकता है। दृष्टिकोण के परिवर्तन के साथ-साथ यह परिवर्तन पूर्णतया संभव है।
अपने प्रियजनों में भी जब हम दोष निकालने खड़े होते हैं तो वे इतने भयानक दीखते हैं कि उनका तुरन्त परित्याग कर देने या खून-खच्चर करके बदला लेने की प्रतिहिंसा जागृत होती है। माता ने अमुक दिन चांटा मारा था, अपमान किया था, पिताजी ने अमुक आवश्यकता पूर्ण नहीं की थी, भाई ने उपेक्षा का व्यवहार किया था, भावज ने ताना मारा था, बहिन ने चुगली की थी, स्त्री ने आज्ञा का उल्लंघन किया था, पुत्र ने अवज्ञा की थी, नौकर ने अशिष्टता दिखाई थी। इस प्रकार की घटनाओं का स्मरण किया जाय तो वे एक के बाद एक असंख्यों सूझ पड़ेंगी। जिन्हें हम दुर्भावना गिनते हैं संभव है उन लोगों के मन में वैसा भाव बिल्कुल ही न रहा हो, पर अपनी रंगीन चश्मों वाली आंखों से तो उनका साधारण व्यवहार भी दुष्टतापूर्ण सूझ पड़ सकता है। ऐसी दशा में उन सबको शत्रु समझ लिया जाना स्वाभाविक ही है। शत्रुओं के बीच रहता हुआ मनुष्य नरक, अशान्ति और असन्तोष ही अनुभव कर सकता है। हममें से अधिकांश के पारिवारिक जीवन आज ऐसे ही उद्विग्न बने हुए हैं।
यदि यह दृष्टिकोण बदल लिया जाय तो अपनी दुनिया बिलकुल दूसरी ही तरह की बन जाती है। स्वजनों और स्नेही जनों की अच्छाइयों, सेवाओं, उपकारों, सज्जनताओं और उपयोगिताओं का यदि विचार किया जाय तो ऐसा लगेगा मानों वर्षा में पूर्व दिशा से उठते हुए बादलों की तरह उनकी श्रेष्ठताएं मस्तिष्क में उमड़ती चली आ रही हैं। कौन स्वजन ऐसा है जिसके असीम उपकार अपने ऊपर नहीं। माता का वात्सल्य, पिता का सौजन्य, भाई का सद्भाव, पत्नी का आत्मदान, मित्र का सहयोग इतनी अधिक मात्रा में अपने को मिला होता है कि उसका विस्तारपूर्वक स्मरण किया जाय तो लगेगा कि हम देवताओं के बीच रहते हैं। उपकार, करुणा, सेवा और सहायता से, प्रेम और सहयोग से भरी यह दुनिया तब इतनी सुन्दर लगती है कि उसके कण-कण के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुक जाता है और अपने आप दूसरों के उपकार भार से लदा हुआ सा प्रतीत होता है।
जीवन में हर घड़ी आनन्द और सन्तोष की मंगलमय अनुभूतियां उपलब्ध करते रहना अथवा द्वेष, विक्षेप और असन्तोष की नारकीय अग्नि में जलते रहना बिलकुल अपने निज के हाथ की बात है। इसमें न कोई दूसरा बाधक है और न सहायक। अपना दृष्टिकोण यदि दोषदर्शी हो तो उसका प्रतिफल हमें घोर अशान्ति के रूप में मिलेगा ही और यदि हमारा सोचने का तरीका प्रियदर्शी, गुणग्राही है तो संसार की विविधता और विचित्रता हमारे मार्ग में विशेष बाधक नहीं हो सकती। सन्तोष, आनन्द की अनुभूतियों का रसास्वादन करने से तब हमें कोई नहीं रोक सकता। दोनों मार्ग हमारे सामने खुले पड़े हैं जिधर भी चाहे हम प्रसन्नतापूर्वक, स्वेच्छापूर्वक खुशी-खुशी चल सकते हैं।
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