
प्रतिशोध की भावना छोड़िये
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अच्छे-बुरे जैसे भी परिणाम मनुष्य को इस जीवन में मिलते हैं उनमें इस जन्म के कर्मफल के साथ पूर्वजन्मों के प्रारब्ध भी संयुक्त होते हैं। देखने में लगता है कि यह दण्ड हमें अकारण मिल रहा हैं, अतः बिगाड़ पैदा करने वाले के प्रति बदले की भावना आती है। असफलता या बुरे परिणाम का दोष किसी न किसी के मत्थे मढ़ देते हैं और उसका बदला लेने के लिये क्रुद्ध सर्प की तरह इधर-उधर फन पटकते घूमते हैं। इसमें प्रतिद्वन्द्वी की कितनी हानि होती है यह तो दूसरी बात है, पर प्रतिशोध की भावना अपने आपको ही मलिन, दुष्ट और दुराचारी बना देती है। अतः इसका परित्याग ही किया जाना अच्छा है।
अभी तक किसी महापुरुष के जीवन से ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जहां घृणा, द्वेष, परदोष-दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी मंगल कार्य की सिद्धि हुई हो। प्रतिशोध से मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है। विवेक चला जाता है। जीवन की सारी शांति और आनन्द नष्ट हो जाता है। इस तरह के दोषपूर्ण विचार मानवीय प्रगति को रोक देते हैं। मनुष्य न तो सांसारिक उन्नति कर पाता है और न ही आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा कर पाता है। इससे मानसिक जड़ता आती है और सारी क्रिया-शक्ति बर्बाद हो जाती है।
प्रतिशोध की भावना तब आती है जब किसी से शत्रुता होती है, किन्तु यदि सचमुच देखा जाय तो इस संसार में न कोई किसी का शत्रु है न मित्र। स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण ही यह विरोधाभास दिखाई देता है। अपने मन और इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखा जा सके तो यहां कोई भी शत्रु दिखाई नहीं देगा। सभी परमात्मा के अंश हैं। एक ही आत्मा के गठबन्धन में सब बंधे हुए हैं। जो यह समझ लेता है वह अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के फल तो इस जीवन में भोगता है किन्तु आगे के लिये इस अनिष्टकारी मनोविकारों को अपने मस्तिष्क में नहीं आने देता।
हिरण्यकशिपु के दुष्ट पुरोहित षण्डामर्क ने प्रहलाद को जीवित जला डालने के लिये प्रचण्ड अग्नि ‘कृत्या’ को जलाया। प्रहलाद को अग्नि में फेंक दिया गया। पर परमात्मा की कृपा से अग्नि प्रहलाद का कुछ न कर सकी। उल्टे पुरोहित उसमें जलने लगे। गुरु-पुत्रों को जलते देख कर प्रहलाद का सन्त हृदय चीत्कार कर उठा। उसने करुणा हृदय से परमात्मा से पुकार की और उन पुरोहितों को मृत्यु से त्राण दिलाया। जिसके हृदय में शत्रु के प्रति भी शत्रुता का भाव न हो वही तो परमात्मा का सच्चा सेवक है। यह स्थिति अभिमान रहित होती है। जब तक अभिमान शेष रहता है तब तक बदले की भावनायें जरूर उठती हैं। श्रेय-पथ की यह एक बहुत बड़ी बाधा है। इसे दूर करने से ही शाश्वत सत्य की अनुभूति सम्भव है।
मनुष्य की शोभा तो परोपकार और पर-सेवा से होती है। अपने हित और स्वार्थ के लिये झगड़ते रहने की अपेक्षा अपने हितों को निरहंकारिता पूर्वक त्याग देना ही मनुष्य के बड़प्पन की कसौटी है। बैर-भावना तो पशु-पक्षियों तक में होती है। मनुष्य भी इससे ग्रसित हों तो इसमें विशेषता भी क्या हुई? सब को गले लगाने, आत्मीयता विकसित करने, सहानुभूति प्रदर्शित करने तथा सहयोग देने से ही मनुष्य का जीवन धन्य होता है।
इसी प्रकार मनुष्य को नरक में ढकेलने वाला कोई व्यक्ति नहीं होता, दैव भी किसी को ऐसी प्रेरणा नहीं देता। यह सोचना भ्रमपूर्ण है कि बुराइयों की ओर ले जाने वाला परमात्मा ही होता है। अच्छे बुरे कर्मों का संकलनकर्ता मनुष्य स्वयं है और इन्हीं के अनुसार उसे दण्ड या वरदान प्राप्त होते हैं। दुष्कर्मों का फल ही नरक है और इसकी प्रेरणा पर दोष-दर्शन, घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, बैर तथा हिंसावृत्तियों से आती है। बुरे विचार मनुष्य की शान्ति को नष्ट कर देते हैं, भारी अनर्थ खड़ा कर देते हैं, व्यक्ति समाज और राष्ट्र तक का सर्वनाश कर देते हैं।
इतिहास बताता है कि द्रौपदी के आठ अक्षरों ‘‘अन्धों के अन्धे होते हैं’’ ने दुर्योधन के हृदय में जो प्रतिशोध की ज्वाला उत्पन्न की थी, उसी के परिणाम स्वरूप महाभारत के मैदान में अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ था। परोक्ष रूप में इस युद्ध से प्रभावित होने वालों की संख्या की जानी भी असम्भव है। कहते हैं इस युद्ध के पश्चात् ही अधर्माचार का सूत्रपात इस देश में हुआ है। प्रतिशोध की भावना इतना असन्तुलन मस्तिष्क में पैदा कर देती है कि यह भी ध्यान नहीं रहता कि अमुक व्यक्ति अपना कितना हितैषी है? लोग क्रोध में पागल होकर दूसरों का अहित तो करते ही हैं अपना सर्वनाश पहले कर डालते हैं। प्रतिशोध प्रतिद्वन्द्वी को ही नहीं जन्मदाता को भी खाकर ही छोड़ता है। विद्वान् बेकन का कथन सत्य ही है—‘‘प्रतिशोध लेने से मनुष्य अपने शत्रु के समान हो जाता है, परन्तु न लेने से उससे श्रेष्ठ बनता है।’’
लोग समझते हैं दुश्मन से बदला चुकाना शान की बात है। इसे वे साहस का कार्य भी समझते हैं। परन्तु प्रतिशोध साहस नहीं है, साहस तो तब है जब आप इसे सहन कर जायें।
इस तरह की सहनशीलता मनुष्य की अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों को विकसित करती है। मनुष्य को विचारशील बनाती है। उसे कष्टों से बचाती है। उन्नति की ओर अग्रसर करती है। उसके लिये संसार में से शत्रुता नाम ही मिट जाता है जिसने कड़ुवाहट को भी उदारतापूर्वक पी जाना सीख लिया।
महापुरुष ईसा क्रूस पर चढ़ा दिये गये थे। अत्याचारी राजा ने उनके हाथ, पांव तथा सारे शरीर को कीलों से गड़वा दिया था। फिर भी वे परमात्मा से बार-बार यही प्रार्थना करते रहे—‘‘हे प्रभु, ये नासमझ हैं, तू इन्हें क्षमा कर देना।’’ विशाल हृदय होगा उस सन्त का, जो अपने दुश्मनों के प्रति भी कभी अपने मन में दुर्भावनायें न लाता हो। महानता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को द्वेष तथा दुर्भावना का परित्याग सर्वप्रथम करना पड़ता है। इसके बिना अन्तःकरण प्रकाशित नहीं हो पाता।
अन्य दूषणों की अपेक्षा प्रतिशोध इसलिये अधिक हानिकारक है क्योंकि वह मनुष्य के साथ बहुत दूर तक जाता है। दूसरे जन्मों में भी वह साथ नहीं छोड़ता। वह तरह-तरह के पाप मनुष्य से कराता रहता है। इसलिये यह न समझिये कि यदि अपना क्रोध शान्त कर लेंगे तो लोग आपको कायर, शक्तिहीन तथा छोटा समझेंगे। इसमें आपका बहुत बड़ा हित छिपा है। अतः जब कभी बदले की भावना उगती दिखाई दे उसे प्रेम-पूर्ण विचारों से तुरन्त नष्ट कर डालिये। इतना ही नहीं अवकाश मिले तो आपके प्रति अभद्रता प्रकट करने वालों की भी आप यथाशक्ति भलाई कीजिये। उन्हें सहायता दीजिये, दुःख में हाथ बंटाइये। ऐसा करने से वह व्यक्ति आपके प्रति विनीत ही नहीं होगा वरन् उसके अन्तःकरण में भी सद्भावनाओं की तीव्र जागृति होगी।
विरोधी बातों को कभी मस्तिष्क में टिकने न दिया कीजिये, यह न जाने कब विद्रोह पैदा कर दें। परदोष-दर्शन, घृणा तथा द्वेष करके भी मन में प्रतिशोध न रहने दीजिये। प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई ढूंढ़ा कीजिये। गुण-ग्राहकता से आपके सद्गुण बढ़ेंगे। घृणा के बदले प्रेम किया कीजिये। किसी का अहित न सोचिये, बन पड़े तो उपकार कीजिये, हित करिये। कोई अपराध भी करता है तो उसे क्षमा कर दीजिये। यह मत सोचिये कि इससे आपको हानि होगी। सद्गुणों और सद्विचारों की कीमत कई गुना अधिक होकर लौटती है और मनुष्य के अंतःकरण को शीतल बना देती है।
यह सारा संसार परमात्मा से ही ओत-प्रोत है। जिस तरह एक ही सूरज पानी के कई घड़ों में एक ही तरह से दिखाई देता है उसी तरह शरीर की विविधता होते हुए भी प्राणिमात्र उस अव्यय परमात्मा के ही प्रतिबिम्ब है। इनसे दुराव करने का तात्पर्य यह है कि आप परमात्मा को दोष लगाते हैं। किसी के प्रति बैर भाव का अर्थ परमात्मा से विद्रोह पैदा करना है। आप इन भावनाओं को मन से निकाल कर सदैव मंगल ही सोचा करें। सद्भाव सारे वातावरण में फैल कर आपके हृदय में पवित्रता, शान्ति तथा मैत्री का विस्तार करेंगे। इस तरह के मंगल कर्म करने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती। वह चिरकाल तक धरती के सुखों का उपभोग करता रहता है।
अभी तक किसी महापुरुष के जीवन से ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिला जहां घृणा, द्वेष, परदोष-दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी मंगल कार्य की सिद्धि हुई हो। प्रतिशोध से मनुष्य की बुद्धि नष्ट होती है। विवेक चला जाता है। जीवन की सारी शांति और आनन्द नष्ट हो जाता है। इस तरह के दोषपूर्ण विचार मानवीय प्रगति को रोक देते हैं। मनुष्य न तो सांसारिक उन्नति कर पाता है और न ही आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा कर पाता है। इससे मानसिक जड़ता आती है और सारी क्रिया-शक्ति बर्बाद हो जाती है।
प्रतिशोध की भावना तब आती है जब किसी से शत्रुता होती है, किन्तु यदि सचमुच देखा जाय तो इस संसार में न कोई किसी का शत्रु है न मित्र। स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों के कारण ही यह विरोधाभास दिखाई देता है। अपने मन और इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखा जा सके तो यहां कोई भी शत्रु दिखाई नहीं देगा। सभी परमात्मा के अंश हैं। एक ही आत्मा के गठबन्धन में सब बंधे हुए हैं। जो यह समझ लेता है वह अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के फल तो इस जीवन में भोगता है किन्तु आगे के लिये इस अनिष्टकारी मनोविकारों को अपने मस्तिष्क में नहीं आने देता।
हिरण्यकशिपु के दुष्ट पुरोहित षण्डामर्क ने प्रहलाद को जीवित जला डालने के लिये प्रचण्ड अग्नि ‘कृत्या’ को जलाया। प्रहलाद को अग्नि में फेंक दिया गया। पर परमात्मा की कृपा से अग्नि प्रहलाद का कुछ न कर सकी। उल्टे पुरोहित उसमें जलने लगे। गुरु-पुत्रों को जलते देख कर प्रहलाद का सन्त हृदय चीत्कार कर उठा। उसने करुणा हृदय से परमात्मा से पुकार की और उन पुरोहितों को मृत्यु से त्राण दिलाया। जिसके हृदय में शत्रु के प्रति भी शत्रुता का भाव न हो वही तो परमात्मा का सच्चा सेवक है। यह स्थिति अभिमान रहित होती है। जब तक अभिमान शेष रहता है तब तक बदले की भावनायें जरूर उठती हैं। श्रेय-पथ की यह एक बहुत बड़ी बाधा है। इसे दूर करने से ही शाश्वत सत्य की अनुभूति सम्भव है।
मनुष्य की शोभा तो परोपकार और पर-सेवा से होती है। अपने हित और स्वार्थ के लिये झगड़ते रहने की अपेक्षा अपने हितों को निरहंकारिता पूर्वक त्याग देना ही मनुष्य के बड़प्पन की कसौटी है। बैर-भावना तो पशु-पक्षियों तक में होती है। मनुष्य भी इससे ग्रसित हों तो इसमें विशेषता भी क्या हुई? सब को गले लगाने, आत्मीयता विकसित करने, सहानुभूति प्रदर्शित करने तथा सहयोग देने से ही मनुष्य का जीवन धन्य होता है।
इसी प्रकार मनुष्य को नरक में ढकेलने वाला कोई व्यक्ति नहीं होता, दैव भी किसी को ऐसी प्रेरणा नहीं देता। यह सोचना भ्रमपूर्ण है कि बुराइयों की ओर ले जाने वाला परमात्मा ही होता है। अच्छे बुरे कर्मों का संकलनकर्ता मनुष्य स्वयं है और इन्हीं के अनुसार उसे दण्ड या वरदान प्राप्त होते हैं। दुष्कर्मों का फल ही नरक है और इसकी प्रेरणा पर दोष-दर्शन, घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, बैर तथा हिंसावृत्तियों से आती है। बुरे विचार मनुष्य की शान्ति को नष्ट कर देते हैं, भारी अनर्थ खड़ा कर देते हैं, व्यक्ति समाज और राष्ट्र तक का सर्वनाश कर देते हैं।
इतिहास बताता है कि द्रौपदी के आठ अक्षरों ‘‘अन्धों के अन्धे होते हैं’’ ने दुर्योधन के हृदय में जो प्रतिशोध की ज्वाला उत्पन्न की थी, उसी के परिणाम स्वरूप महाभारत के मैदान में अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ था। परोक्ष रूप में इस युद्ध से प्रभावित होने वालों की संख्या की जानी भी असम्भव है। कहते हैं इस युद्ध के पश्चात् ही अधर्माचार का सूत्रपात इस देश में हुआ है। प्रतिशोध की भावना इतना असन्तुलन मस्तिष्क में पैदा कर देती है कि यह भी ध्यान नहीं रहता कि अमुक व्यक्ति अपना कितना हितैषी है? लोग क्रोध में पागल होकर दूसरों का अहित तो करते ही हैं अपना सर्वनाश पहले कर डालते हैं। प्रतिशोध प्रतिद्वन्द्वी को ही नहीं जन्मदाता को भी खाकर ही छोड़ता है। विद्वान् बेकन का कथन सत्य ही है—‘‘प्रतिशोध लेने से मनुष्य अपने शत्रु के समान हो जाता है, परन्तु न लेने से उससे श्रेष्ठ बनता है।’’
लोग समझते हैं दुश्मन से बदला चुकाना शान की बात है। इसे वे साहस का कार्य भी समझते हैं। परन्तु प्रतिशोध साहस नहीं है, साहस तो तब है जब आप इसे सहन कर जायें।
इस तरह की सहनशीलता मनुष्य की अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों को विकसित करती है। मनुष्य को विचारशील बनाती है। उसे कष्टों से बचाती है। उन्नति की ओर अग्रसर करती है। उसके लिये संसार में से शत्रुता नाम ही मिट जाता है जिसने कड़ुवाहट को भी उदारतापूर्वक पी जाना सीख लिया।
महापुरुष ईसा क्रूस पर चढ़ा दिये गये थे। अत्याचारी राजा ने उनके हाथ, पांव तथा सारे शरीर को कीलों से गड़वा दिया था। फिर भी वे परमात्मा से बार-बार यही प्रार्थना करते रहे—‘‘हे प्रभु, ये नासमझ हैं, तू इन्हें क्षमा कर देना।’’ विशाल हृदय होगा उस सन्त का, जो अपने दुश्मनों के प्रति भी कभी अपने मन में दुर्भावनायें न लाता हो। महानता प्राप्त करने के लिये मनुष्य को द्वेष तथा दुर्भावना का परित्याग सर्वप्रथम करना पड़ता है। इसके बिना अन्तःकरण प्रकाशित नहीं हो पाता।
अन्य दूषणों की अपेक्षा प्रतिशोध इसलिये अधिक हानिकारक है क्योंकि वह मनुष्य के साथ बहुत दूर तक जाता है। दूसरे जन्मों में भी वह साथ नहीं छोड़ता। वह तरह-तरह के पाप मनुष्य से कराता रहता है। इसलिये यह न समझिये कि यदि अपना क्रोध शान्त कर लेंगे तो लोग आपको कायर, शक्तिहीन तथा छोटा समझेंगे। इसमें आपका बहुत बड़ा हित छिपा है। अतः जब कभी बदले की भावना उगती दिखाई दे उसे प्रेम-पूर्ण विचारों से तुरन्त नष्ट कर डालिये। इतना ही नहीं अवकाश मिले तो आपके प्रति अभद्रता प्रकट करने वालों की भी आप यथाशक्ति भलाई कीजिये। उन्हें सहायता दीजिये, दुःख में हाथ बंटाइये। ऐसा करने से वह व्यक्ति आपके प्रति विनीत ही नहीं होगा वरन् उसके अन्तःकरण में भी सद्भावनाओं की तीव्र जागृति होगी।
विरोधी बातों को कभी मस्तिष्क में टिकने न दिया कीजिये, यह न जाने कब विद्रोह पैदा कर दें। परदोष-दर्शन, घृणा तथा द्वेष करके भी मन में प्रतिशोध न रहने दीजिये। प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई ढूंढ़ा कीजिये। गुण-ग्राहकता से आपके सद्गुण बढ़ेंगे। घृणा के बदले प्रेम किया कीजिये। किसी का अहित न सोचिये, बन पड़े तो उपकार कीजिये, हित करिये। कोई अपराध भी करता है तो उसे क्षमा कर दीजिये। यह मत सोचिये कि इससे आपको हानि होगी। सद्गुणों और सद्विचारों की कीमत कई गुना अधिक होकर लौटती है और मनुष्य के अंतःकरण को शीतल बना देती है।
यह सारा संसार परमात्मा से ही ओत-प्रोत है। जिस तरह एक ही सूरज पानी के कई घड़ों में एक ही तरह से दिखाई देता है उसी तरह शरीर की विविधता होते हुए भी प्राणिमात्र उस अव्यय परमात्मा के ही प्रतिबिम्ब है। इनसे दुराव करने का तात्पर्य यह है कि आप परमात्मा को दोष लगाते हैं। किसी के प्रति बैर भाव का अर्थ परमात्मा से विद्रोह पैदा करना है। आप इन भावनाओं को मन से निकाल कर सदैव मंगल ही सोचा करें। सद्भाव सारे वातावरण में फैल कर आपके हृदय में पवित्रता, शान्ति तथा मैत्री का विस्तार करेंगे। इस तरह के मंगल कर्म करने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती। वह चिरकाल तक धरती के सुखों का उपभोग करता रहता है।