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Books - दूसरों के दोष-दुर्गुण ही न देखा करें

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


किसी से भी ईर्ष्या न किया करें

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First 2 4 Last
इस संसार में सुखोपभोग की वस्तुओं की कमी नहीं है। आहार-विहार वस्त्राभूषण, जमीन-जायदाद, मोटर-बंगले आदि तरह-तरह की वस्तुयें यहां विद्यमान हैं। पर इन्हें प्राप्त करने का एक निश्चित विधान है। हर आवश्यक वस्तु किसी कीमत पर मिलने का नियम है। कभी-कभी परिस्थिति वश कोई वस्तु किसी को बिना श्रम उत्तराधिकार में मिल जाये, ऐसे अपवाद बहुत कम देखने में आते हैं। अधिकांश साधन तो मनुष्य को स्वयं जुटाने पड़ते हैं। इसके लिए पर्याप्त योग्यता, श्रम, शक्ति और अध्यवसाय की आवश्यकता पड़ती है। सुख-साज की विभिन्न सामग्रियों की उपलब्धि इसी आधार पर होती है। अधिक परिश्रमी, योग्य और चतुर व्यक्ति आलसी, अयोग्य व्यक्तियों से अधिक सफलता प्राप्त करते ही हैं। फिर दूसरों की सम्पत्ति सुख और सफलता देखकर अकारण जलने, ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति को दुर्भावपूर्ण ही कहा जा सकता है। मनुष्य के दुःख का एक विशेष कारण यह ईर्ष्या भी होती है।
ईर्ष्या एक अनैतिक दुर्गुण है। यह व्यक्ति की हीनता व अशक्तता व्यक्त करता है। जिन लोगों को अपनी शक्ति का अनुमान नहीं होता अथवा जो आलस्य वश अपने जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद किया करते हैं, प्रायः वे ही इस रोग के शिकार पाये जाते हैं। सन्देह और भय के कारण जो अपनी प्रगति करने में संकोच करते हैं उन्हीं को ईर्ष्या के प्रकोप का भागीदार बनना पड़ता है। आत्म–हीनता का यह भाव मनुष्य का सबसे प्रबल शत्रु है, जो अनेक मानसिक शक्तियों को अकारण जलाया करता है। भगवान् ने सफलता प्राप्त के प्रमुख साधन समान रूप से प्रदान किये हैं। आवश्यक उन्नति करने लायक सामर्थ्य प्रायः सभी में होती है फिर जो स्वयं कुछ न कर सकें, उन आलसियों को औरों से ईर्ष्या करने का क्या अधिकार होना चाहिए?
हर व्यक्ति में कुछ-न-कुछ शक्ति व सामर्थ्य अवश्य होती है। इसके आधार पर लोग चाहें तो उन परिणामों को कम ज्यादा मात्रा में वे भी वैसे ही प्राप्त होते देखकर ईर्ष्या होती है।
एक विद्यार्थी है उसने अपना अधिकांश समय पढ़ने में लगाया है। हर क्षण का उपयोग विद्याध्ययन में किया है तब जाकर कहीं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का उसे सौभाग्य मिला है। इस पर उसका सहपाठी ईर्ष्या या द्वेष जताये तो यह उसी की कमजोरी मानी जायेगी। दूसरे विद्यार्थी की तरह उसकी भी पढ़ने में पर्याप्त रुचि रही होती, सिनेमा आदि व्यसनों से बचा रहता, तो वह भी जरूर अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण होता। एक ने अपनी शक्तियों का सदुपयोग किया, एक ने प्रमाद में उन्हें गंवाया। इस पर भी यदि विद्वेष की भावनायें उठें तो उसे ओछा व्यक्ति मानना पड़ेगा।
जो किसान अधिक परिश्रम करते हैं, उनकी फसल अपेक्षाकृत अच्छी होती है, इससे दूसरे को ईर्ष्या न करनी चाहिए। अपनी शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग उनने भी किया होता तो वे भी अधिक सफलता पाते। इसलिये यहां दूसरों के साथ ईर्ष्या करने का न्यायोचित नहीं कहा जायेगा।
अनियंत्रित ईर्ष्यालु प्रवृत्ति व्यक्ति की प्रतिभा और कौशल का सर्वनाश करती है। एक ही मुहल्ले में दो व्यक्ति रहते हैं एक डॉक्टर है, दूसरा मजदूर। एक के पास अस्पताल तक जाने के लिए कार है। दूसरे को फैक्ट्री तक पैदल चलना पड़ता है। यदि मजदूर डॉक्टर को देख-देखकर कुढ़ता है, उसे नीचा दिखाने के तरह-तरह के उत्पात सोचता रहता है तो इस प्रकार उसकी सम्पूर्ण मानसिक चेष्टायें डॉक्टर को हानि पहुंचाने का क्षेत्र बन गयीं। इतने में ही उसके विचार घूमा करेंगे और उसकी शारीरिक व बौद्धिक शक्तियों का शोषण करते रहेंगे। इस बात पर सोचने का उस मजदूर के लिये एक रचनात्मक पहलू भी था। वह डॉक्टर की प्रतिभा और कौशल की प्रशंसा करता, उस पर विचार करता तो सम्भव था कि वह भी अपनी शक्तियों को विकसित कर लेता। ओवर टाइम काम करता, घर में कोई कुटीर उद्योग चला लेता तो इससे मोटर न मिलती तो साइकिल प्राप्त करने में तो विशेष कठिनाई न होती। किन्तु उसने अकारण द्वेष-वश अपनी इस शक्ति का विनाश ही किया और हाथ कुछ न लगा अन्त तक पैदल ही चलता रहा।
इस संसार में हजारों यदि हमसे अच्छे हैं तो लाखों ऐसे हैं जो हमसे भी गई, गुजरी स्थिति में हैं। दूसरों के भव्य-भवनों, आलीशान बंगलों से अपने कच्चे मकान की तुलना करने की अपेक्षा यह सोचना अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण है, कि हजारों ऐसे हैं जो घास-फूस के झोपड़ों में निवास करते हैं। हम तो वर्षा और धूप से फिर भी बचाव कर लेते हैं, किन्तु सिरकियों के भीतर निवास करने वालों की हालत पर एक नजर भी नहीं डालते कि वे किस प्रकार वर्षा से भीगते, धूप सहते और शीत से ठिठुरते रहते हैं।
दूसरों की समृद्धि श्री और सफलता पर ईर्ष्या करने की अपेक्षा अपने से भी गई बीती स्थिति के लोगों से अपनी तुलना करने से आत्म–सन्तोष का भाव जागृत होता है। हमारी शक्ति, योग्यता और परिस्थितियों के अनुसार जो कुछ भी मिला है उसे ही परमात्मा का प्रसाद मानने से अपनी छोटी-सी सफलता भी महान् लगती है। उसी पर असीम आनन्द की अनुभूति होने लगती है। दरिद्र भिखारिन को किसी अमीर के सजे-सजाये लड़के के प्रति वह प्यार नहीं होता जो उसे अपने कुरूप और मैले कुचैले बेटे से होता है। हमें जो कुछ भी मिलता है उसे परमात्मा की इच्छा मानकर भोगने पर दुःखी होने से सहज ही में बचा जा सकता है। दूसरों की समृद्धि से अपनी तुलना करने से तो कुढ़न ही पैदा होती है।
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