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Books - दूसरों के दोष-दुर्गुण ही न देखा करें

Media: TEXT
Language: HINDI
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नम्रता ही सभ्यता का चिन्ह है

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First 5 7 Last
दूसरों के दोषों को ही निरन्तर न देख कर हमें उनके गुणों को भी देखना चाहिये। हर मनुष्य के भीतर परमात्मा का निवास है इसलिये स्वभावतः वह सद्व्यवहार का अधिकारी है। हमें हर किसी के साथ नम्रता एवं सज्जनता का व्यवहार करना चाहिये।
नम्रता नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में स्थित शाश्वत सत्य से, ईश्वर से सम्बन्ध कराती है। इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है। जगत् में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है, वह आत्मविभोर हो कह उठता है—
‘‘सिया राम मय सब जग जानी ।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ।।’’
घट-घट वासी राम, परम सत्य के दर्शन कर, सन्तों, ऋषियों ने उसे मस्तक नवाया। नम्रता का अर्थ ही है सर्वत्र आसीन शाश्वत ईश्वर की अनुभूति करना और उसे स्वीकार करना, महत्त्व देना।
आत्मविश्वास शक्ति, सद्भावना, साहस, गम्भीरता, विनम्रता का ही दूसरा रूप है। जहां अनन्त शक्ति की उपस्थिति होती है वहां शाश्वत सत्य की अनुभूति होती है।
विनोबा भावे ने कहा है—‘‘संसार में दो तरह के पाप हैं। एक की गर्दन जरूरत से ज्यादा तनी हुई है, घमण्ड के कारण, अभिमान के कारण और दूसरे की जरूरत से ज्यादा झुकी हुई है। दीनता से, दुर्बलता से। ये दोनों ही पाप हैं। एक उन्मत्त है, दूसरा दुर्बल है। गर्दन सीधी भी हो और लचीली भी। लेकिन न तनी हुई हो और न झुकी हुई।’’
यह स्थिति नम्रता में निहित है। अभिमान के लिये तो वहां कोई गुंजायश ही नहीं है। नम्रता में दुर्बल होने का भाव इसलिये नहीं कि उसमें शाश्वत सत्य, ईश्वर की उपस्थिति का भाव रहता है। जिसकी सामर्थ्य के बल पर गर्दन सीधी रहती है और लचीली भी। क्योंकि वह सर्वत्र ईश्वर के दर्शन कर उसे स्वीकार करती है, उसकी सामर्थ्य के समक्ष नतमस्तक है। लेकिन वह दीनता से झुकी हुई नहीं होती वरन् सबमें स्थित ईश्वर के प्रति आदर, सम्मान विनय के लिये झुकी होती है।
सबमें ईश्वर की उपस्थिति देखकर उसे नमन करने के साथ-साथ ही मनुष्य सबकी सेवा के लिये कटिबद्ध होता है। नम्रता मानसिक भाव है। उसका बाह्य, सक्रिय रूप सेवा है। सबकी सेवा आध्यात्मिक एकता और समता का मूलाधार है। जहां-जहां आध्यात्मिक अनुभूति—ईश्वरीय तत्त्व के दर्शन होंगे, मनुष्य वहीं सेवा के लिये अपने आपको प्रस्तुत करेगा। सेवा का मूलाधार है—किसी व्यक्ति, पदार्थ में उत्कृष्टता, शाश्वत तत्त्व अथवा किसी तरह की विशेषता के दर्शन करना और साथ ही उसे जीवन में स्वीकार करना।
आत्म सुधार की पहली आवश्यकता है अपने दोषों को स्वीकार करना, जो नम्रता से ही सम्भव है। अभिमानी आदमी अपने दोषों को कभी स्वीकार नहीं करता। फलतः उसके दोषों की जटिलता बढ़ती ही जाती है। नम्रता मनुष्य को उसकी सही स्थिति का ज्ञान कराती है। अपनी स्थिति का ज्ञान, अपने दोषों की स्वीकृति मनुष्य को आत्म-सुधार के लिये पर्याप्त सामर्थ्य प्रदान करती है। महात्मा गांधी ने जो नम्रता के एक बड़े उपासक थे, लिखा है—
ऊंचे से ऊंचे वृक्ष भी आकाश को नहीं छू पाते। महानतम मनुष्य भी जब तक वे शरीर के बन्धन में हैं, दोषपूर्ण ही हैं। निर्दोष कोई मनुष्य नहीं, ईश्वर भक्त भी नहीं। पर इस कारण कि वे अपने दोषों को जानते हैं और अपने आपको सुधारने के लिये सदैव तैयार रहते हैं, वे ईश्वर के भक्त और महान् पुरुष कहलाने के, निर्दोष होने के अधिकारी हैं।’’
इतना ही नहीं गांधीजी ने फिर आगे सबके साथ अपनी समानता करते हुए लिखा है कि ‘‘मैं उसी तरह दूषित हो जाने वाला शरीर का जामा पहने हूं जैसा कि मेरे साथी मनुष्यों में दुर्बलतम पहने हुए हैं और मैं उसी प्रकार भूलें कर सकता हूं जैसे कि कोई और।’’
नम्रता मनुष्य को उसके निज स्वरूप का, दोषों का, स्थिति का ज्ञान कराती है, उन्हें स्वीकार करने और सुधारने की प्रेरणा भी देती है। मनुष्य के सुधार का, उन्नति का यही मूलाधार है। जहां अभिमान के कारण अपने दोषों की स्वीकृति नहीं, अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं, वहां सुधार के लिये कोई रास्ता नहीं सिवाय इसके कि मनुष्य अपने दोषों को और भी जटिल बनाये।
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