
शक्ति की अधिष्ठात्री त्रिपदा गायत्री
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संसार के समस्त दुःखों के तीन प्रधान कारण हैं- (1)अज्ञान, (2) अभाव, (3) अशक्ति ।। सत्, रज, तम, की त्रिविधि प्रकृति से मनुष्य का निर्माण हुआ है। वस्तुतः सत्ता दो की है ।। सत् और तम की ।। रज की उत्पत्ति तो दोनों की सम्मिश्रण से होती है ।। दुःखों के कारणों में भी प्रधान दो ही हैं- अज्ञान और अशक्ति ।। अभाव तो उनकी परिणति है ।। गायत्री की तीन शक्ति धाराएँ हैं- ह्रीं, श्रीं और क्लीं ।। ह्रीं सद्ज्ञान की, श्रीं वैभव की और क्लीं शक्ति की बल प्रतीक है ।।
सत्- रज, तम से बनी काया को आवश्यकता तीनों ही शक्ति धाराओं की है ।। इनमें किसी का भी महत्त्व कम नहीं है ।। तीनों का सन्तुलन आवश्यक है ।। जीवन निर्वाह के लिए जितना महत्त्व ज्ञान का है उतना ही साधनों एवं शक्ति का एक भी पक्ष छोड़ा नहीं जा सकता ।। गायत्री महामन्त्र में तीनों शक्ति धाराओं का समान रूप में समावेश है ।।
ह्रीं को सत् या सरस्वती कहते हैं ।। ज्ञान की अधिष्ठात्री के रूप माँ सरस्वती की अभ्यर्थना, उपासना भारतीय संस्कृति में सदियों से होती चली आ रही है ।। तत्त्ववेत्ता ऋषि इस तथ्य से अवगत थे कि सद्ज्ञान के बिना मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं ।। इसलिए उन्होंने गायत्री मंत्र का आश्रय लिया ।। सद्ज्ञान की ओर ले चलने वाला सर्व समर्थ मंत्र घोषित किया ।।
यह ऋषियों की परम्परा रही है कि ज्ञान एवं शक्ति धाराओं को उत्पन्न करने वाली दैवी शक्तियों को 'माँ' के रूप में विभूषित किया जाता है ।। तत्व ज्ञानियों की शृंखला में आने वाले प्रत्येक महामानव ने गायत्री के ह्रीं सत् शक्ति की उपासना द्वारा असाधारण सामर्थ्य प्राप्त की है ।। चाहे वह रामकृष्ण परमहंस हो अथवा योगीराज अरविन्द ।। महर्षि दयानंद हों अथवा महर्षि रमण ।। विवेकानन्द से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक सभी के ऊपर माँ सरस्वती की वरद्हस्त रहा है ।। ज्ञान सम्पदा का अनुग्रह, आत्मज्ञान की प्राप्ति गायत्री महाशक्ति द्वारा सम्भव हो सकी है ।।
अन्यान्य सभी प्रकार की सम्पदाओं की अपेक्षा ज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है ।। इसके अभाव में जीवन यों ही अस्त- व्यस्त बना रहता और मूल्यवान मनुष्य जीवन निरर्थक चला जाता है ।। अपनी गरिमा एवं लक्ष्य का बोध न रहने से ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं का सदुपयोग नहीं हो पाता ।। उपभोग की पशु- प्रवृत्ति के कारण सदा असन्तोष ही बना रहता है ।। अज्ञान के रहते मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह की संकीर्ण परिधि से बाहर नहीं निकल पाता ।। अपनी संकीर्ण प्रवृत्तियाँ ही उलटकर हमला करती और मनुष्य को चैन से बैठने नहीं देती हैं ।। वासना, तृष्णा और अर्हता की पूर्ति के लिए असन्तुष्ट बना वह वस्तुओं के पीछे पागल के समान भागता है ।।
अज्ञान ही समस्त दुःखों की जननी है जिसके रहते मनुष्य सम्पन्नता का लाभ नहीं उठा सकता ।। सुखी तो दूर रहा, मिली सम्पदा दुःखदायी बोझ के तुल्य सिद्ध होती है ।। इस सत्य को वर्तमान में सर्वत्र देखा जा सकता है ।। सम्पन्नता साधनों की दृष्टि से आज का मनुष्य भूतकाल की तुलना में बहुत आगे है ।। सारा संसार ही सिमट कर एक छोटे घेरे में आ गया है, यह साधनों का ही चमत्कार है ।।
बुद्धि का भी असामान्य विकास हुआ है किंतु अन्तः में निवास करने वाले 'धी' तत्व में भारी कमी आयी है ।। प्रज्ञा का स्थान बुद्धि की जड़ता ने ले लिया है ।। फलतः बुद्धि भी जड़वाद की ही पक्षधर बनती चली जा रही है ।। समर्थन जब जड़ को मिली है तो चेतना की गरिमा की बात क्यों कर समझ में आये ।। साधनों के संग्रह की आपाधापी में विश्व मानस ने चेतना की महत्ता को लगभग भुला दिया है ।।
लोकमान्य तिलक कहते हैं- 'जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में मानव जाति जकड़ी हुई है उसका अन्तः राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायेगा । उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए जिससे सत् और असत् का विवेक जागे ।। कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मंत्र में यही भावना विद्यमान है ।। इस तथ्य को जानते हुए योगीजन, ब्रह्मवेत्ता, अध्यात्मवादी, तत्त्वदर्शी, जीवन साधक, दार्शनिक, परमार्थी व्यक्ति प्रकारान्तर से ह्रीं तत्व की- सरस्वती की ही आराधना- उपासना करते रहते हैं ।। इन सबका विभिन्न माध्यमों से एकमात्र लक्ष्य है- मनुष्य को असत् से सत् की ओर ले चलना ।।
गायत्री उपासना से आत्मिक आवश्यकताओं की ही मात्र पूर्ति नहीं होती ।। अपितु भौतिक साधनों की भी आपूर्ति होती है ।। गायत्री की श्रीं शक्ति धारा द्वारा भौतिक साधन सम्वर्धन की सुसम्पन्नता अर्जन की विवेक बुद्धि प्राप्त होती है ।। यह स्वाभाविक है कि प्रगति के प्रयास तो भौतिक स्तर पर ही करने पड़ेंगे ।। पर उन पर विवेक का अंकुश होने से भटकाव की गुंजाइश नहीं रहती ।। ऐसी योग्यता, प्रतिभा सृजनात्मक दिशा में ही नियोजित होती है ।। व्यक्ति एवं समाज के सामूहिक उत्थान की ही बात रचती है ।। गायत्री की श्रीं लक्ष्मी शक्ति धारा विभूतियों की अधिष्ठात्री है ।।
श्रीं तत्व के उपासक को अपना ही स्वार्थ अभीष्ट नहीं होता वरन् वह सम्पूर्ण समाज की प्रगति की बात सोचता है ।। सामूहिक विकास में ही उसे अपना सच्चा स्वार्थ दिखता है ।। उसके सारे प्रयास उसी दिशा में लगे रहते हैं ।। बुद्धिवादी, धर्म- प्रचारक, सुधारवादी, समाजसेवी श्रीं शक्ति की सुव्यवस्था में लगकर लक्ष्मी के उपार्जन में सफल हो पाते हैं ।। गायत्री की श्रीं शक्तिधारा में व्यक्ति एवं समाज के भौतिक विकास के सभी समाधान विद्यमान हैं ।। वैभव की वृद्धि ही नहीं उनका सदुपयोग सम्पूर्ण मानव जाति के लिए किस प्रकार किया जा सकता है, वह विवेक बुद्धि भी गायत्री उपासना से ही मिलती है ।।
यही कारण है कि सच्चा गायत्री उपासक साधन सम्पन्न होते हुए भी निर्लिप्त बना रहता है ।। अपने लिए कम से कम साधनों का उपयोग करता है ।। व्यापक स्तर पर विद्यमान अभाव, दरिद्रता के निवारण में ही उसे शाश्वत आनंद की अनुभूति होती है ।।
श्रीं तत्व की अवहेलना करने वाला व्यक्ति संकीर्ण बनता है ।। व्यक्तिगत उपभोग के लिए ही वह सारे ताने- बाने बुनता है ।। समाज से उपार्जित सम्पत्ति का वह संग्रह तो करता है, पर उसका उपयोग स्वयं करता है ।। इसके विपरीत श्रीं तत्व का उपासक लक्ष्मी का सच्चा साधक सम्पत्ति का मोह नहीं रखता ।। उसे उपभोग में नहीं, सम्पत्ति को सदुपयोग में आनन्द आता है ।। समाज की उन्नति के लिए वह अपनी सम्पत्ति सहर्ष समर्पित करता है ।।
गायत्री की 'क्लीं' तत्व भौतिक सामर्थ्य का प्रतीक है ।। उसे ही गायत्री की शक्ति धाराओं में 'काली' के रूप में अलंकृत किया गया है ।। ज्ञान एवं साधन हो किन्तु शक्ति न हो उनका उपयोग नहीं बन पड़ता ।। शक्ति रहित व्यक्ति के पास साधन भी अधिक दिन तक टिके नहीं रह सकते ।। कमजोर, अशक्त न तो अपनी सुरक्षा रख सकता है न ही अपनी सम्पदा का ।। शक्ति के अभाव में अर्जित ज्ञान भी लाभ नही मिल पाता ।। इसी कारण ऋषियों ने ज्ञान सम्पादन ही नहीं शक्ति संचय पर भी जोर दिया है ।।
मानवी अन्तराल में ऐसे शक्ति केन्द्र छिपे पड़े हैं जिनको जागृत किया जा सके तो मनुष्य शक्ति का पुंज बन सकता हे ।। वे सुषुप्तावस्था में पड़े हैं ।। 'क्लीं' की महाकाली की उपासना द्वारा इन शक्ति केन्द्रों को जागृत किया जा सकता है ।। कुण्डलिनी जागरण इस क्लीं शक्ति की आराधना की ही फलश्रुति है । अन्तः जागरण की इस प्रक्रिया से इतनी सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है जितनी कि परमाणु द्वारा भी नहीं हो सकी है ।।
अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति के निवारण हेतु त्रिपदा गायत्री की तीन शक्ति धाराओं ह्रीं, श्रीं और क्लीं की उपासना की जानी चाहिए ।। ज्ञान, सम्पदा एवं शक्ति के तीनों ही अनुदान आद्य शक्ति गायत्री की ही अनुकम्पा से मिलते हैं ।। इस महाशक्ति का अंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ा जा सके तो अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति की स्थिति ही समाप्त हो जाय, ज्ञान, वैभव एवं सामर्थ्य की त्रिवेणी साधक में फूट पड़े ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 1.23)
सत्- रज, तम से बनी काया को आवश्यकता तीनों ही शक्ति धाराओं की है ।। इनमें किसी का भी महत्त्व कम नहीं है ।। तीनों का सन्तुलन आवश्यक है ।। जीवन निर्वाह के लिए जितना महत्त्व ज्ञान का है उतना ही साधनों एवं शक्ति का एक भी पक्ष छोड़ा नहीं जा सकता ।। गायत्री महामन्त्र में तीनों शक्ति धाराओं का समान रूप में समावेश है ।।
ह्रीं को सत् या सरस्वती कहते हैं ।। ज्ञान की अधिष्ठात्री के रूप माँ सरस्वती की अभ्यर्थना, उपासना भारतीय संस्कृति में सदियों से होती चली आ रही है ।। तत्त्ववेत्ता ऋषि इस तथ्य से अवगत थे कि सद्ज्ञान के बिना मनुष्य का कल्याण सम्भव नहीं ।। इसलिए उन्होंने गायत्री मंत्र का आश्रय लिया ।। सद्ज्ञान की ओर ले चलने वाला सर्व समर्थ मंत्र घोषित किया ।।
यह ऋषियों की परम्परा रही है कि ज्ञान एवं शक्ति धाराओं को उत्पन्न करने वाली दैवी शक्तियों को 'माँ' के रूप में विभूषित किया जाता है ।। तत्व ज्ञानियों की शृंखला में आने वाले प्रत्येक महामानव ने गायत्री के ह्रीं सत् शक्ति की उपासना द्वारा असाधारण सामर्थ्य प्राप्त की है ।। चाहे वह रामकृष्ण परमहंस हो अथवा योगीराज अरविन्द ।। महर्षि दयानंद हों अथवा महर्षि रमण ।। विवेकानन्द से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक सभी के ऊपर माँ सरस्वती की वरद्हस्त रहा है ।। ज्ञान सम्पदा का अनुग्रह, आत्मज्ञान की प्राप्ति गायत्री महाशक्ति द्वारा सम्भव हो सकी है ।।
अन्यान्य सभी प्रकार की सम्पदाओं की अपेक्षा ज्ञान की महत्ता सर्वोपरि है ।। इसके अभाव में जीवन यों ही अस्त- व्यस्त बना रहता और मूल्यवान मनुष्य जीवन निरर्थक चला जाता है ।। अपनी गरिमा एवं लक्ष्य का बोध न रहने से ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं का सदुपयोग नहीं हो पाता ।। उपभोग की पशु- प्रवृत्ति के कारण सदा असन्तोष ही बना रहता है ।। अज्ञान के रहते मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह की संकीर्ण परिधि से बाहर नहीं निकल पाता ।। अपनी संकीर्ण प्रवृत्तियाँ ही उलटकर हमला करती और मनुष्य को चैन से बैठने नहीं देती हैं ।। वासना, तृष्णा और अर्हता की पूर्ति के लिए असन्तुष्ट बना वह वस्तुओं के पीछे पागल के समान भागता है ।।
अज्ञान ही समस्त दुःखों की जननी है जिसके रहते मनुष्य सम्पन्नता का लाभ नहीं उठा सकता ।। सुखी तो दूर रहा, मिली सम्पदा दुःखदायी बोझ के तुल्य सिद्ध होती है ।। इस सत्य को वर्तमान में सर्वत्र देखा जा सकता है ।। सम्पन्नता साधनों की दृष्टि से आज का मनुष्य भूतकाल की तुलना में बहुत आगे है ।। सारा संसार ही सिमट कर एक छोटे घेरे में आ गया है, यह साधनों का ही चमत्कार है ।।
बुद्धि का भी असामान्य विकास हुआ है किंतु अन्तः में निवास करने वाले 'धी' तत्व में भारी कमी आयी है ।। प्रज्ञा का स्थान बुद्धि की जड़ता ने ले लिया है ।। फलतः बुद्धि भी जड़वाद की ही पक्षधर बनती चली जा रही है ।। समर्थन जब जड़ को मिली है तो चेतना की गरिमा की बात क्यों कर समझ में आये ।। साधनों के संग्रह की आपाधापी में विश्व मानस ने चेतना की महत्ता को लगभग भुला दिया है ।।
लोकमान्य तिलक कहते हैं- 'जिस बहुमुखी दासता के बंधनों में मानव जाति जकड़ी हुई है उसका अन्तः राजनैतिक संघर्ष करने मात्र से न हो जायेगा । उसके लिए आत्मा के अन्दर प्रकाश उत्पन्न होना चाहिए जिससे सत् और असत् का विवेक जागे ।। कुमार्ग को छोड़कर श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले, गायत्री मंत्र में यही भावना विद्यमान है ।। इस तथ्य को जानते हुए योगीजन, ब्रह्मवेत्ता, अध्यात्मवादी, तत्त्वदर्शी, जीवन साधक, दार्शनिक, परमार्थी व्यक्ति प्रकारान्तर से ह्रीं तत्व की- सरस्वती की ही आराधना- उपासना करते रहते हैं ।। इन सबका विभिन्न माध्यमों से एकमात्र लक्ष्य है- मनुष्य को असत् से सत् की ओर ले चलना ।।
गायत्री उपासना से आत्मिक आवश्यकताओं की ही मात्र पूर्ति नहीं होती ।। अपितु भौतिक साधनों की भी आपूर्ति होती है ।। गायत्री की श्रीं शक्ति धारा द्वारा भौतिक साधन सम्वर्धन की सुसम्पन्नता अर्जन की विवेक बुद्धि प्राप्त होती है ।। यह स्वाभाविक है कि प्रगति के प्रयास तो भौतिक स्तर पर ही करने पड़ेंगे ।। पर उन पर विवेक का अंकुश होने से भटकाव की गुंजाइश नहीं रहती ।। ऐसी योग्यता, प्रतिभा सृजनात्मक दिशा में ही नियोजित होती है ।। व्यक्ति एवं समाज के सामूहिक उत्थान की ही बात रचती है ।। गायत्री की श्रीं लक्ष्मी शक्ति धारा विभूतियों की अधिष्ठात्री है ।।
श्रीं तत्व के उपासक को अपना ही स्वार्थ अभीष्ट नहीं होता वरन् वह सम्पूर्ण समाज की प्रगति की बात सोचता है ।। सामूहिक विकास में ही उसे अपना सच्चा स्वार्थ दिखता है ।। उसके सारे प्रयास उसी दिशा में लगे रहते हैं ।। बुद्धिवादी, धर्म- प्रचारक, सुधारवादी, समाजसेवी श्रीं शक्ति की सुव्यवस्था में लगकर लक्ष्मी के उपार्जन में सफल हो पाते हैं ।। गायत्री की श्रीं शक्तिधारा में व्यक्ति एवं समाज के भौतिक विकास के सभी समाधान विद्यमान हैं ।। वैभव की वृद्धि ही नहीं उनका सदुपयोग सम्पूर्ण मानव जाति के लिए किस प्रकार किया जा सकता है, वह विवेक बुद्धि भी गायत्री उपासना से ही मिलती है ।।
यही कारण है कि सच्चा गायत्री उपासक साधन सम्पन्न होते हुए भी निर्लिप्त बना रहता है ।। अपने लिए कम से कम साधनों का उपयोग करता है ।। व्यापक स्तर पर विद्यमान अभाव, दरिद्रता के निवारण में ही उसे शाश्वत आनंद की अनुभूति होती है ।।
श्रीं तत्व की अवहेलना करने वाला व्यक्ति संकीर्ण बनता है ।। व्यक्तिगत उपभोग के लिए ही वह सारे ताने- बाने बुनता है ।। समाज से उपार्जित सम्पत्ति का वह संग्रह तो करता है, पर उसका उपयोग स्वयं करता है ।। इसके विपरीत श्रीं तत्व का उपासक लक्ष्मी का सच्चा साधक सम्पत्ति का मोह नहीं रखता ।। उसे उपभोग में नहीं, सम्पत्ति को सदुपयोग में आनन्द आता है ।। समाज की उन्नति के लिए वह अपनी सम्पत्ति सहर्ष समर्पित करता है ।।
गायत्री की 'क्लीं' तत्व भौतिक सामर्थ्य का प्रतीक है ।। उसे ही गायत्री की शक्ति धाराओं में 'काली' के रूप में अलंकृत किया गया है ।। ज्ञान एवं साधन हो किन्तु शक्ति न हो उनका उपयोग नहीं बन पड़ता ।। शक्ति रहित व्यक्ति के पास साधन भी अधिक दिन तक टिके नहीं रह सकते ।। कमजोर, अशक्त न तो अपनी सुरक्षा रख सकता है न ही अपनी सम्पदा का ।। शक्ति के अभाव में अर्जित ज्ञान भी लाभ नही मिल पाता ।। इसी कारण ऋषियों ने ज्ञान सम्पादन ही नहीं शक्ति संचय पर भी जोर दिया है ।।
मानवी अन्तराल में ऐसे शक्ति केन्द्र छिपे पड़े हैं जिनको जागृत किया जा सके तो मनुष्य शक्ति का पुंज बन सकता हे ।। वे सुषुप्तावस्था में पड़े हैं ।। 'क्लीं' की महाकाली की उपासना द्वारा इन शक्ति केन्द्रों को जागृत किया जा सकता है ।। कुण्डलिनी जागरण इस क्लीं शक्ति की आराधना की ही फलश्रुति है । अन्तः जागरण की इस प्रक्रिया से इतनी सामर्थ्य प्राप्त की जा सकती है जितनी कि परमाणु द्वारा भी नहीं हो सकी है ।।
अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति के निवारण हेतु त्रिपदा गायत्री की तीन शक्ति धाराओं ह्रीं, श्रीं और क्लीं की उपासना की जानी चाहिए ।। ज्ञान, सम्पदा एवं शक्ति के तीनों ही अनुदान आद्य शक्ति गायत्री की ही अनुकम्पा से मिलते हैं ।। इस महाशक्ति का अंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ा जा सके तो अज्ञान, अभाव एवं अशक्ति की स्थिति ही समाप्त हो जाय, ज्ञान, वैभव एवं सामर्थ्य की त्रिवेणी साधक में फूट पड़े ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 1.23)