
तीन चरणों की अनंत सार्मथ्य
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गायत्री को त्रिपदा कहा गया है, उसके तीन चरण हैं ।। इनमें से प्रत्येक चरण तीन लोकान्तरों तक फैला हुआ है ।। उसके माध्यम से आत्मा की गति केवल इसी लोक तक सीमित नहीं रहती वरन् वह अन्य लोकों तक अपना क्षेत्र विस्तृत कर सकता है और वहाँ उपलब्ध साधनों से लाभान्वित हो सकता है ।।
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टा व क्षराण्यष्टाक्षर हवा एवं गायत्र्यै पद मेतदुहैवास्या एतत्सयाबेदतेषु लोकेषु तायद्धि जयति योऽस्याएतदेवं पदं वेद ।। (बृहदारण्यक 5/14/1)
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं ।। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है सो तीनों लोकों को जीत लेता है ।।
जिस प्रकार वाह्य जगत में अनेकों लोक हैं उसी प्रकार इस शरीर के भीतर भी सप्त प्राण, षटचक्र ग्रन्थियाँ, उपत्यिकाएँ मौजूद हैं ।। यह साधारण मनुष्यों में प्रसुप्त अवस्था में अज्ञात पड़े रहते हैं, पर जब गायत्री उपासना द्वारा जागृत आत्मा इन अविज्ञात शक्ति केन्द्रों को को झकझोरता है तो वे भी जागृत हो जाते हैं और उनके भीतर जो आश्चर्य- जनक तत्व भी भरे पड़े हैं वे स्पष्ट हो जाते हैं ।।
जिस प्रकार वैज्ञानिक लोग, इस ब्रह्माण्ड में बाह्य जगत में व्याप्त अनेक शक्तियों को ढूँढ़ते और उनका उपयोग करते हैं उसी प्रकार आत्म विज्ञानी साधक पिण्ड में, देह में- अन्तर्जगत् में सन्निहित तत्वों का साक्षात्कार करके उनकी दिव्य शक्तियों से लाभान्वित होते हैं ।। आत्म- दर्शन ब्रह्म साक्षात्कार एवं स्वर्ग लोक की प्राप्ति उनके लिए सरल हो जाती है ।। इस मार्ग में सफलता प्राप्त करने वाली अपनी परम्परा को आगे जारी रखने वाले कोई तेजस्वी उत्तराधिकारी भी अपने पीछे के लिए छोड़ जाते हैं ।।
तेवाएते पञ्च ब्रह्म पुरुषा स्वर्ग लोकस्य द्वारपालस्य एतानेकं पञ्च ब्रह्म पुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपालस्य वेदास्रू कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्ग लोकम् ।। (छान्दोग्य 3/13/6)
हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं ।। इनको वश में करे ।। जिससे हृदयस्थ गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो ।। इस प्रकार उपासना करने वाला स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 1.35)
भूमिरन्तरिक्षं द्यौरित्यष्टा व क्षराण्यष्टाक्षर हवा एवं गायत्र्यै पद मेतदुहैवास्या एतत्सयाबेदतेषु लोकेषु तायद्धि जयति योऽस्याएतदेवं पदं वेद ।। (बृहदारण्यक 5/14/1)
भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ ये तीनों गायत्री के प्रथम पाद के आठ अक्षरों के बराबर हैं ।। जो गायत्री के इस प्रथम पाद को जान लेता है सो तीनों लोकों को जीत लेता है ।।
जिस प्रकार वाह्य जगत में अनेकों लोक हैं उसी प्रकार इस शरीर के भीतर भी सप्त प्राण, षटचक्र ग्रन्थियाँ, उपत्यिकाएँ मौजूद हैं ।। यह साधारण मनुष्यों में प्रसुप्त अवस्था में अज्ञात पड़े रहते हैं, पर जब गायत्री उपासना द्वारा जागृत आत्मा इन अविज्ञात शक्ति केन्द्रों को को झकझोरता है तो वे भी जागृत हो जाते हैं और उनके भीतर जो आश्चर्य- जनक तत्व भी भरे पड़े हैं वे स्पष्ट हो जाते हैं ।।
जिस प्रकार वैज्ञानिक लोग, इस ब्रह्माण्ड में बाह्य जगत में व्याप्त अनेक शक्तियों को ढूँढ़ते और उनका उपयोग करते हैं उसी प्रकार आत्म विज्ञानी साधक पिण्ड में, देह में- अन्तर्जगत् में सन्निहित तत्वों का साक्षात्कार करके उनकी दिव्य शक्तियों से लाभान्वित होते हैं ।। आत्म- दर्शन ब्रह्म साक्षात्कार एवं स्वर्ग लोक की प्राप्ति उनके लिए सरल हो जाती है ।। इस मार्ग में सफलता प्राप्त करने वाली अपनी परम्परा को आगे जारी रखने वाले कोई तेजस्वी उत्तराधिकारी भी अपने पीछे के लिए छोड़ जाते हैं ।।
तेवाएते पञ्च ब्रह्म पुरुषा स्वर्ग लोकस्य द्वारपालस्य एतानेकं पञ्च ब्रह्म पुरुषान् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपालस्य वेदास्रू कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्ग लोकम् ।। (छान्दोग्य 3/13/6)
हृदय चैतन्य ज्योति गायत्री रूप ब्रह्म के प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच द्वारपाल हैं ।। इनको वश में करे ।। जिससे हृदयस्थ गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति हो ।। इस प्रकार उपासना करने वाला स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है और उसके कुल में वीर पुत्र या शिष्य उत्पन्न होता है ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ. 1.35)