
आदमी आदमी को
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आदमी आदमी को
आदमी आदमी को सुहाता नहीं,
आदमी से अरे डर रहा आदमी।
हाल इतना बुरा है कि विश्वास भी,
आदमी पर नहीं कर रहा आदमी॥
पालतू पशु बने पात्र विश्वास के,
संग साथी बने वे रुदन हास के।
आज विश्वास पशु पर भले हम करें,
पर पड़ोसी न विश्वस्त हैं पास के॥
है न विश्वास घाती मनुज से अधिक,
बस इसी भाव से भर रहा आदमी॥
इस पतन का ही देखो ये परिणाम है,
इस तरह आदमी आज बदनाम है।
अस्मतें तक चुराने लगा यह अरे,
हाय! नैतिक पतन का यह अंजाम है॥
आदमी- आदमी से बिचकने लगा,
कर्म ऐसे अरे कर रहा आदमी॥
ऐ मनुज! किस पतन गर्त में खो गया,
आज देवत्व तेरा कहाँ सो गया।
देवता भी तरसते थे जिस देह को,
उस मनुज देह को आज क्या हो गया॥
जो मनुज था चढ़ा देव की दृष्टि में,
क्यों मनुज दृष्टि से गिर रहा आदमी॥
हम मनुज हैं मनुज का सहारा बनें,
डूबतों के लिए हम किनारा बनें।
क्यों न पाने हमें लोग बेचैन हों,
हम अगर स्नेह की पुण्य धारा बनें॥
लोग कहने लगें फिर हमें देखकर,
धन्य इतिहास को कर रहा आदमी।
आदमी आदमी को सुहाता नहीं,
आदमी से अरे डर रहा आदमी॥
मुक्तक-
आदमी को खल रहा है आदमी,
मरुस्थल सा जल रहा है आदमी।
दूसरे का कौर मुँह से छीनकर,
आजकल में पल रहा है आदमी॥
आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी,
आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी।
आदमी को लूटकर घर भर रहा है आदमी,
समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी॥
आदमी आदमी को सुहाता नहीं,
आदमी से अरे डर रहा आदमी।
हाल इतना बुरा है कि विश्वास भी,
आदमी पर नहीं कर रहा आदमी॥
पालतू पशु बने पात्र विश्वास के,
संग साथी बने वे रुदन हास के।
आज विश्वास पशु पर भले हम करें,
पर पड़ोसी न विश्वस्त हैं पास के॥
है न विश्वास घाती मनुज से अधिक,
बस इसी भाव से भर रहा आदमी॥
इस पतन का ही देखो ये परिणाम है,
इस तरह आदमी आज बदनाम है।
अस्मतें तक चुराने लगा यह अरे,
हाय! नैतिक पतन का यह अंजाम है॥
आदमी- आदमी से बिचकने लगा,
कर्म ऐसे अरे कर रहा आदमी॥
ऐ मनुज! किस पतन गर्त में खो गया,
आज देवत्व तेरा कहाँ सो गया।
देवता भी तरसते थे जिस देह को,
उस मनुज देह को आज क्या हो गया॥
जो मनुज था चढ़ा देव की दृष्टि में,
क्यों मनुज दृष्टि से गिर रहा आदमी॥
हम मनुज हैं मनुज का सहारा बनें,
डूबतों के लिए हम किनारा बनें।
क्यों न पाने हमें लोग बेचैन हों,
हम अगर स्नेह की पुण्य धारा बनें॥
लोग कहने लगें फिर हमें देखकर,
धन्य इतिहास को कर रहा आदमी।
आदमी आदमी को सुहाता नहीं,
आदमी से अरे डर रहा आदमी॥
मुक्तक-
आदमी को खल रहा है आदमी,
मरुस्थल सा जल रहा है आदमी।
दूसरे का कौर मुँह से छीनकर,
आजकल में पल रहा है आदमी॥
आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी,
आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी।
आदमी को लूटकर घर भर रहा है आदमी,
समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी॥