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Books - हम सब एक दूसरे पर निर्भर

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उपयोगिता नहीं परमार्थ परायणता

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अलबर्ट का मनोविज्ञान वस्तुतः मानवीय चेतना का मनोविज्ञान न होकर पाशविक वृत्तियों का तोड़ा-मरोड़ा इतिहास मात्र है। वह कहता है—‘‘मनुष्य श्रेष्ठ पशु है (मैन इज दि सुपर एनिमल) अर्थात् मनुष्यों में जो पाशविक वृत्तियां हैं वह कोई दोष-दुर्गुण नहीं वरन् प्राकृतिक हैं।’’ और इस दृष्टि से उसकी जो भी स्वाभाविक आकांक्षायें हैं वह अनुचित नहीं हैं भले ही उसे उसके लिये अन्य प्राणियों का भी शोषण और उत्पीड़न करना पड़ता है। जो जितना उपयोगी है वह उतने ही अधिक अधिकारों का पात्र है भले ही इस स्वायत्तता का उपयोग वह अपने निजी सुख और स्वार्थों के लिये करता हो। उपयोगितावाद की तरह संक्षिप्त व्याख्या हुई। आज योरोप ही नहीं संसार के प्रायः सभी देशों के पढ़े-लिखे लोग इसी मान्यता का आचरण व्यवहार कर रहे हैं, भले ही कहने-सुनने को उनके सिद्धांत चाहे कितने ही आदर्शवादी क्यों न हों।

उपयोगिता का समर्थन भी जिस ढंग से किया गया है वह कम हास्यास्पद नहीं। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है इसलिये कम शक्ति वालों का शोषण कोई पाप नहीं, एक प्राकृतिक प्रक्रिया हुई। जीव-हिंसा, पशु-उत्पीड़न और बढ़ता हुआ मांसाहार इसी दुष्ट सिद्धान्त की देन है। उस मान्यता का प्रतिपादन है कि—‘‘जो अधिक ताकतवर होता है वही बन्दर अपने समूह का मुखिया होता है।’’ खरगोश, हिरन, भेड़ और बकरियों की शक्ति न्यूनतम है उन्हें भेड़िये, बाघ, शेर और चीते आदि शक्तिशाली जन्तु खा जाते हैं। यदि सहयोग, सादगी, सहानुभूति और सदाचार ईश्वरीय आदेश हुए होते तो शाकाहारी भेड़ें और बकरियां कमजोर न होती और न ही वह हिंसक जन्तुओं द्वारा भक्षण कर ली जातीं। बड़ा वृक्ष अपने घेरे में दूसरे वृक्ष को पनपने नहीं देता। हर शक्तिशाली कम शक्ति वाले को खा जाता है। यदि इन प्राकृतिक सिद्धान्तों को मनुष्य भी अपने व्यवहार में आचरण में लाता है तो यह कोई दोष नहीं।

उपयोगितावाद सच पूजा जाये तो शक्तिवाद—‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ और सामंतवाद का ही दूसरा नाम है। इस सिद्धान्त ने ही संसार को नास्तिक और स्वच्छंदतावादी बनाया है। भावनाओं का अन्त इस सिद्धान्त ने ही किया है। ठीक भी है जहां केवल शक्ति और उपयोगिता को ही महत्त्व देना हुआ वहां परस्पर प्रेम, उदारता, सहयोग, सौजन्य, स्नेह, सामूहिकता का क्या मूल्य रहा? जहां उत्कृष्टता की भावनायें न होंगी वहां क्यों तो व्यवस्था रहेगी और क्यों विश्व-शांति जिन्दा रहेगी। आज उपर्युक्त प्रकार की मान्यताओं के कारण ही सारा विश्व अशान्ति-असन्तोष, कलह-क्लेश और शोषण के जाल में उलझता चला जा रहा।

इस जड़वादी मान्यता का जो भी परिपोषण करते हों उन्हें मनुष्य शरीर की आन्तरिक स्थिति पर एक बार भावनापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। हमारे शरीर का प्रत्येक कोष एक स्वतन्त्र मानव बीज है उसमें मनुष्य की सारी स्थूल और चेतन क्रियायें विद्यमान हैं। ‘कोष’ सांस लेता है, खाता है, पीता है, चलता है, डरता है, बचाव करता है, मल विसर्जन करता है। ‘अमीबा’ एक कोषीय जीव है। उसका नाभिक जब दो भागों में बंट जाता है तो वह दो अमीबा बन जाते हैं और दोनों अपनी-अपनी तरह से उक्त क्रियायें और अनुभूति करने लगते हैं। दो विभाज्य अमीबा, दो अलग गुणों वाले अमीबा आत्मा (न्यूक्लियस) की दृष्टि से एक ही हैं। और उदाहरण के लिये जब दो अमीबा अपनी शक्ति में ह्रास अनुभव करते हैं तो वह एक दूसरे में मिलकर दो नाभिक (न्यूक्लियस) से एक नाभिक (न्यूक्लियस) वाला एक अमीबा बन जाते हैं उस स्थिति में वह नवजात अमीबा की-सी शक्ति अनुभव करता है। इससे सिद्ध हो जाता है कि शरीर के अनेक कोषों (सेल्स) में बंट जाने पर भी उनकी आत्मिक चेतना एक ही है। मनुष्य इस बात का ध्यान रखे या न रखे वह उपयोगितावाद जैसे खण्डनात्मक तथ्य को माने तो मानता रहे पर लघु कोषीय जीव यह भूल करने को तैयार नहीं।

मनुष्य शरीर के विचित्र अवयव एक ही कोष ‘‘स्पर्म’’ से पैदा होते हैं। स्थान की आवश्यकता के अनुरूप वे अपना आकार बदल कर मस्तिष्क, हृदय, जिगर, तिल्ली, नसें, मांसपेशियां आदि बनाते हैं पर उन्हें पता है कि विभिन्न स्थिति में काम की जिम्मेदारियां उठाते हुए भी वह सब एक ही पिता की सन्तान, भाई-भाई हैं और इसीलिये वे बराबर प्रेम, दया, सहयोग, सहानुभूति, श्रम, सामूहिकता आदि का व्यवहार करते रहते हैं इसी कारण शरीर स्थिर है।

जिस प्रकार बहुत से कोषों (लगभग 2 अरब) से मिलकर शरीर बना उसी प्रकार बहुत से समाज, देश और विश्व बना। स्थान की स्थिति और जलवायु की भिन्नता के कारण वर्ण-भेद, स्वभाव-भेद होते हुए भी सब एक ही आत्मा के अंग हैं यह मानकर जो शरीर का पालन करते हैं वह विश्व-शान्ति बढ़ाने और ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करने का पुण्य करते हैं जो उससे विपरीत जड़ वादी आचरण करते हैं प्रकृति उन्हें दण्ड देती है। इसी सूक्ष्म न्याय प्रणाली पर सृष्टि की व्यवस्था अब तक विद्यमान है। यदि प्रेम, दया, उदारता, करुणा आदि सद्गुणों का अन्त हो गया होता तो सृष्टि का भी अन्त हो गया होता।

मनुष्य-शरीर मानवीय सद्गुणों का जिस रीति से परिपालन करता है उसका वक्तव्य बड़ा ही रोचक है। आन्तरिक क्रिया-शास्त्र (फिजियोलॉजी) का गहन अध्ययन किया जाये तो पता चलेगा कि व्यक्ति और समाज को सुखी-सन्तुलित और सुव्यवस्थित बनाने वाले जो भी गुण हैं वह दूध से नवनीत काढ़ने की तरह शरीर से ही निकाले गये हैं। उदाहरण के लिये सहयोग और सहानुभूति को ही ले लें। मनुष्य इतना कठोर हृदय हो सकता है कि अपने भाई, अपने पड़ोसी को कष्ट और पीड़ित अवस्था में देखकर भी चुप रह जाय पर हमारे शरीर के सदस्य ऐसे हृदयहीन नहीं। परस्पर सहयोग और दूसरे के दुःख में हाथ बटाना ही उनका जीवन है। उदाहरणार्थ यदि एक गुर्दा खराब हो जाये जैसा कि पथरी की बीमारी के समय होता है, तो अच्छा गुर्दा दूसरे पीड़ित गुर्दे का सारा कार्य भार स्वयं संभाल लेता है जब तक वह ठीक न हो जाये स्वं कष्ट सहेगा किन्तु शरीर की साधारण क्रिया में कोई अन्तर न आने देगा।

धमनियां (आर्ट्रीज) शरीर को रक्त पहुंचाती हैं। बड़ों के साथ छोटे-छोटे लोग भी रहते हैं और तब उनका कोई विशेष महत्त्व जान नहीं पड़ता जैसा कि बड़ी धमनियों के साथ कुछ पतली धमनियां भी बनी रहती हैं। मनुष्य अपने से छोटों को कष्ट दे सकता है, उनका शोषण और उत्पीड़न कर सकता है पर धमनियों को पता है कि छोटे जीव का भी कितना महत्त्व है इसलिये वह पतली धमनियों को भी पोषण देती रहती हैं। कभी कोई धमनी (आर्ट्रीज) कट जाये तो उस स्थिति में पतली धमनियां (एनास्टोमोसेस) रक्त प्रवाह के किनारे फूल कर आगे जोड़ देती हैं और रक्त परिभ्रमण क्रिया को तब तक साधे रहती हैं जब तक घाव अच्छा न हो जावे। इससे आगे वाला हिस्सा काम करता रहता है। यदि ऐसा न भी पतली हो पतली धमनियां (एनास्टोमोसेस) आजीवन काम करती हैं।

‘नेमोनेक्टामी’ के अनुसार यदि एक फेफड़ा काटकर निकाल देना पड़े तो दूसरा फेफड़ा साधारण स्थिति के सारे काम संभाल लेता है। यह सहयोग और सहानुभूति क्रियायें बताती हैं कि हम जिस समाज में रहते हैं उसमें आये दिन दुर्घटनायें घटती हैं उनसे कुछ लोग पीड़ित होते हैं उनके प्रति भी हमारे कर्तव्य वैसे ही हैं जैसे स्वयं अपने प्रति व्यवस्था, विश्व-शान्ति और मानवता ऐसे ही अक्षुण्ण रहती है।

आज लोगों ने इन बातों को भुला दिया। स्वार्थ और प्रवंचनायें प्रबल हो उठी हैं। सारा समाज उन प्रवंचनाओं में धू-धू कर जल रहा है। सर्वत्र शोषण, लूट-पाट बेईमानी, छल-कपट, कलह के बाहरी शत्रु आक्रमण कर समाज की भलाई को धराशायी करते जा रहे हैं पर हममें मुकाबले की शक्ति भी जागृत नहीं होती। शरीर के छोटे-छोटे कोषों को पता है कि जब बुराइयों, बीमारियों की तीव्रता बढ़ जाती है तो शरीर सम्बन्धित अंग ही नहीं सारा शरीर बेचैन हो उठता है। इसलिये वे सब के सब एक जुट प्रयत्न करते हुए बुराइयों के उन्मूलन में लग जाते हैं।

कई बार चमड़ी खुल जाने या चोट लग जाने के कारण कोई कीटाणु बाहर से आकर शरीर में घुस जाते हैं और लोगों को सताना, काटना, जुटना, भक्षण करना प्रारम्भ कर देते हैं तब शुद्ध रक्ताणु दौड़ पड़ते हैं। (1) सूजन, (2) उस स्थान की चमड़ी का लाल हो जाना, (3) उस हिस्से का गर्म हो जाना, (4) तनाव बढ़ने से नस पर दबाव पड़ता है और दर्द बढ़ता है। इससे पता चलता है कि अच्छे कोषों की सेना एकत्रित हो गई और बुराइयों का निष्कासन प्रारम्भ हो गया। दरअसल जिस मनुष्य समाज में बुराई के प्रति इतनी सजगता और तत्परता नहीं बरतती जाती वह समाज उसी तरह सड़ जाते, निकम्मे हो जाते हैं जैसे शरीर का कोई हिस्सा जहां कीटाणु हमला कर देते हैं। ऐसे विषाक्त वातावरण को जितनी जल्दी साफ कर दिया जाता है शरीर की तरह समाज उतनी ही शीघ्र चैन अनुभव करता है।

कई बार बुराई की मात्रा काफी बढ़ जाती है। रक्त में हानिकारक कीटाणु (इनफैक्टिव बैसिलाई) पैदा हो जाते हैं उससे रोग और विकृति पैदा होती है उसके मुकाबले के लिए रक्त के श्वेत अणु (ह्वाइट ब्लड कारपेसल्स) पहुंचते हैं और शरीर रक्षा का पूर्ण प्रयत्न करते हैं पर बेचारों की शक्ति बुराई के मुकाबले हुई कम तो हार जाते हैं और मार दिये जाते हैं किन्तु त्याग और बलिदान की उपयोगिता समझने वाले ये अणु मरते-मरते भी कुछ न कुछ उपकार कर जाते हैं। मरे हुए श्वेत अणु प्रोटियोलाइटिक एन्जाइम बन जाते हैं और (1) शरीर के मरे हुए कोष (बैक्टीरिया) (2) एवं नष्ट हुए श्वेत अणु को घोल कर पींव बना देते हैं और उन्हें बाहर निकाल देते हैं इससे दर्द कम हो जाता है। आजकल बुराइयां अधिक बढ़ गई हैं इसलिये असामान्य परिस्थितियां की जा रही हैं। यह परिस्थितियां असामान्य इसलिये कही जायेंगी कि इनमें समाज के सभी विचारशील लोग अपना श्यान निजी हितों से हटा कर पूरी तरह समाज सुधार और दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में लगाते हुए चले जायेंगे तब समाज शरीर उसी तरह अच्छा हो जाएगा जिस तरह शरीर के बुरे तत्त्व नष्ट कर देने पर। टी.बी. के जीवाणु (बैक्टीरिया) जब एसिड फास्ट बैसिलाई बन जाते हैं अर्थात् एसिड्स भी उसका मुकाबला नहीं कर पाते उस समय श्वेत अणुओं के 5 प्रकार के कोष (सेल्स) (1) पोलियोमोपर्स 70 से 75% (2) लिम्फोसाइड्स 20 से 30 प्रतिशत, (3) मोनोसाइड्स 5 से 6 प्रतिशत और (5) वेसोपिफल्स आधा प्रतिशत तैयार होते हैं। लड़ाई के दिनों में जिस तरह सेनापति परस्पर ऐसी योजनायें बनाते हैं कि दुश्मन को हर तरह से मात भी दी जाये उसी तरह शारीरिक बुराई के प्रति यह संघर्ष भी बड़ा प्रेरक होता है सर्व प्रथम पोलियोमोपर्स आते हैं यदि वे अपने आपका मुकाबला करने में असमर्थ पाते हैं तब लिम्फोसाइड्स की टुकड़ी आगे बढ़कर दुश्मन को ललकारती है यदि तब भी टी.बी. के हुए और लिम्फोसाइड्स हार गये तो कई-कई इपिथेलाइड्स कोष मिलकर दैत्याकार कोष (जाइन्ट सेल्स) बनाकर टी.बी. के कीटाणुओं को खाते हैं। शरीर की यह सुरक्षा-शक्ति आह्वान करती है कि जब कभी सामाजिक बुराइयां, पाप, अपराध, अनैतिकता का कुछ ऐसा बाहुल्य हो जाये कि अग्रगण्य लोग भी उन्हें दूर न कर पायें तब संगठित प्रयत्नों द्वारा उन्हें नष्ट करने के लिये अपनी सारी शक्ति जुटा देनी चाहिये।

गुर्दे के ऊपर एक सुप्रारीनल ग्रन्थि (ग्लैण्ड) होती है वह एड्रिनलीक एवं कार्ठिको स्टराइड्स निकालती है जो शरीर को उसी प्रकार विषम स्थिति में कार्य करने की शक्ति देती है जैसे महापुरुष अपने अनुयायियों को देकर बुराइयों का अन्त कराते हैं। उदाहरण के लिए सामने कोई जंगली जानवर आ जाये तो एड्रिनिलीन रक्त चाप बढ़ाकर पैरों को अधिक कार्य करने के लिये अधिक शक्ति दे देती है। उतनी ही शक्ति मस्तिष्क को मिलती है जिससे वह तुरन्त कोई निर्णय ले सके। दौड़ते समय फेफड़े मांसपेशियों (मसल्स) को ऑक्सीजन की हुत मात्रा अनुदान दें देते हैं दौड़कर आने के बाद काफी देर तक तेज हांफी चलती रहती है इस तरह फेफड़े अपनी खोई शक्ति पुनः अर्जित कर लेते हैं। सम्भवतः यह व्यवस्था भगवान् ने इसलिये की कि मनुष्य यह जान ले औरों की भलाई में उत्सर्ग की हुई शक्ति और क्षमतायें नष्ट नहीं होती वरन् एक नई चेतना लेकर भगवान् के वरदान की तरह पुनः मिलती हैं। मनुष्य अपने उपकार का पुण्य फल उसी प्रकार प्राप्त करता है जिस तरह स्वतन्त्रता संग्राम के सिपाही अपने महत्त्वपूर्ण पदों का आनन्द ले रहे हैं।

वस्तुतः शरीर रचना की आधारभूत शिक्षायें यदि सम्पूर्ण रूप से मनुष्य समाज में ढाल दी जायें तो विश्वशान्ति के लिये बाह्य साधनों की खोज ही न करनी पड़े। हम समता के सिद्धान्त पर धरती में जीवित हैं और एक दूसरे के प्रति त्याग भावना से सुरक्षित हैं। केवल स्वार्थ ही स्वार्थ और अहंमन्यता मात्र रहे होते तो मानवीय संस्कृति का जीवित बने रहना कठिन हो जाता है। पहले यह परिस्थितियां नहीं थीं पर अब उनकी मात्रा बढ़ रही है, अब हर व्यक्ति स्वार्थी होता जा रहा है। खुदगर्जी के कारण ही लोभ-लालच, बेईमानी और संग्रहवृत्ति पनप रही है। इससे सामाजिक विषमता पैदा होती है और लोगों में अविश्वास की भावनाएं भड़कती हैं। इस स्थिति का मुकाबला त्याग और उदारता के बल पर ही किया जा सकता है।

हमारे शरीर की व्यवस्था ऐसी ही है जिसके संग्रह तो हैं पर एक अच्छे सहयोग के लिये, त्याग और उदारतापूर्वक औरों की सुविधायें बढ़ाने के लिये हैं। (1) हर हड्डी के पोले भाग में, (2) ष्लीहा (सप्लीन), (3) जिगर (लिवर) में रक्त की मात्रा संग्रहीत रहती है। कभी चोट या घाव हो जाने पर यह संस्थान अविलम्ब रक्त पहुंचा कर उस स्थान को ठीक रखने और कमजोर न होने देने का प्रयत्न करते हैं। सामूहिकता की इसी भावना पर समाज की सुख-शान्ति अवलम्बित है।

रक्त ही नहीं शरीर में चर्बी का भी स्टोर रहता है। चमड़ी और मांस के बीच चर्बी सुरक्षित रहती है। कई दिन तक भोजन न मिले तो भी सब अंग काम करते रहते हैं चमड़ी पीली पड़ जाती है तो भी किसी की मृत्यु नहीं होने दी जाती। मृत्यु तो हृदय और मस्तिष्क को पोषण न मिलने से होती है पर शरीर-संस्कृति जानती है कि भावनाशील और चरित्रवान् लोगों के मिट जाने से समाज की सुख-शान्ति मिट जाती है इसलिये यह अपनी सुरक्षित शक्ति उनके लिये खुशी-खुशी दान कर देती है।

यह भलाई की शक्तियां ही मनुष्य को जीवन दान देती हैं। डॉक्टर जानते हैं कि शरीर में क्षति ग्लूकोस के टूटने से प्रसारित होती है। जब कोई मांसपेशी या कोष (तेल) काम करता है तो ग्लूकोज लैक्टिन एसिड में परिवर्तित होकर शक्ति प्रदान करता है। जिगर का ग्लाइकोजन ग्लूकोस में परिवर्तित होता है। यह मांसपेशियों में ए.टी.पी. (एडिनो ट्राइ फास्फेट) टूट कर ए.डी.पी. (एडिनो ट्राइ फास्फेट) एवं फास्फोरस में बदलता है यह फास्फोरस क्रियेटिंग फास्फेट से मिलता है जो अपनी शक्ति ग्लाइकोजन से लेता है। विश्राम के समय यही ग्लाइकोजन फिर जिगर में संग्रहीत हो जाता है। सामान्य स्थिति में वह रक्त में संचारित होता रहता है। हमारे साधन, सत्कार्यों में निरन्तर लगते रहें और आवश्यकता पड़ने पर तो दूसरी बातों को गौण मानकर भी अपनी तमाम शक्तियां, प्रतिभाएं और योग्यताएं सामाजिक भलाई के कार्यों में लग जायें यह प्रेरणा हमें उक्त क्रिया से मिलती है।

मनुष्य शरीर एक समाज है। इस समाज में अनेक कोष होते हैं, हमारे समाज में अनेक मनुष्य हैं। हम मनुष्य समाज को किस तरह सुखी-शान्त और समृद्ध रखें, किस तरह उसकी सुरक्षा रखें, इस सबकी जानकारी हमें शरीर क्रिया प्रणाली (फिजियोलॉजी) से सीखनी पड़ेगी। हम उन नियमों पर चलकर ही मानवीय संस्कृति को जीवित रख सकते हैं।

बुद्धिवाद से भी अधिक गरिमामय—

बुद्धिवाद कितना ही उपयोगी क्यों न हो उसकी गरिमा हृदयवाद से ऊंची नहीं हो सकती। मानवी चेतना का जहां तक हृदयवाद को प्रधानता देकर ही चलना पड़ेगा। जहां विशुद्ध जड़ प्रयोजनों की बात है, वहां एकाकी बुद्धि को भी मान्यता दी जा सकती है पर जब प्रश्न जीवित चेतना मनुष्यों, प्राणियों की समस्या पर विचार करना हो, तब हृदयवाद को मान्यता देने से ही काम चलेगा। मनुष्य को जड़ पदार्थ मानकर ही एकाकी बुद्धिवाद के सहारे उसकी समस्याओं का हल सोचा जा सकता है। यदि जीव धारियों की चेतना को भी महत्व देना है तो उसके उत्कर्ष का प्रयोजन हृदयवाद का—परिष्कृत भाव, आदर्श को साथ लेकर ही चलना पड़ेगा।

कृषि, शिल्प, रसायन, उद्योग जैसी भौतिक प्रक्रियाएं बुद्धिवादी शोध प्रयोग को ध्यान में रखते हुए सुलझाई जायं, यहां तक दो मत नहीं हो सके, पर जब यह प्रश्न सामने आये कि जीवधारियों के स्तर को कैसे ऊंचा उठाया जाय तो उसका समाधान हृदय को प्रधानता देकर ही खोजना पड़ेगा। अन्यथा ग्रन्थियों को सुलझाने की दृष्टि से किये गये प्रयत्न उलटे और अधिक उलझन पैदा करेंगे।

पशु प्रवृत्तियां स्वार्थपरता को आधार लेकर ही चलती है अस्तु उन्हें अविकसित और अभाव-ग्रस्त स्थिति में ही रहना पड़ता है। शरीर की दृष्टि से अधिक मजबूत होते हुए भी वे प्रकृति प्रकोप का ग्रास अधिक रहते हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में उनकी शारीरिक, मानसिक क्षमता कोई कारगर सुरक्षा व्यवस्था नहीं हो पाती और न किसी प्रकार की प्रगति ही सम्भव होती है। आदिमकाल में वे जिस स्थिति में थे लगभग उसी स्थिति में रह रहे हैं। प्रकृति के दबाव से शरीर रचना और अभिरुचि में थोड़ा अन्तर भले ही आया हो, उनकी परिस्थितियों में कोई विशेष सुधार नहीं हो सका, इसका कारण उनकी चेतना का स्वार्थ चिन्तन तक सीमित रहना ही है। मनुष्य ने प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए सृष्टि का मुकुट मणि बनने की जो अद्भुत सफलता पाई है, उसका मूल कारण उसकी बुद्धिमत्ता नहीं—सहृदयता है। परस्पर स्नेह सहयोग की प्रवृत्ति ने एक दूसरे के साथ घनिष्ठता पूर्वक रह सकने की स्थिति उत्पन्न की और एक ने दूसरे के अनुभव से लाभ उठाकर अपनी ज्ञान सम्पदा को आगे बढ़ाया है। बुद्धि प्रधानता ने सहयोग बढ़ाया, यह कथन अवास्तविक है। तथ्य यह है कि मनुष्य की सहृदयता क्रमशः आगे बढ़ती गई और स्नेह सहयोग की प्रकृति ने मिलजुल कर एक दूसरे को अपने अनुभव अनुदानों से लाभान्वित करने का कदम बढ़ाया। भाषा, लिपि, अग्नि, कृषि, पशुपालन, औजार, उपकरण, अन्न, वस्त्र, निवास जैसी प्रगति के मूल-भूत आधारों का आविष्कार परस्पर सहयोग के आधार पर ही संभव हो सका है। बुद्धिमत्ता वस्तुतः सहृदयता की बेटी मात्र है।

वनमानुषों की आकृति-प्रकृति मनुष्यों से मिलती-जुलती है पर वे सघन सहयोग के क्षेत्र में आगे न बढ़ सके और पिछड़ी स्थिति में पड़े रहे। चिंपैंजी, गोरिल्ला वानरों को मनुष्य का पूर्वज कहा जाता है उनकी शरीर रचना और मन संस्थान मानव प्राणी से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। फिर भी उन्हें वनवास का दण्ड मिला, इसका कारण सहृदयता की पुण्य प्रवृत्ति से वंचित रहने का पाप ही कहा जा सकता है। कुछ नर बालक—जहां तहां वन्य पशुओं द्वारा पालित किये गये पाये गए है, उनमें पूरी तरह उन पालन कर्त्ता पशुओं जैसी ही प्रवृत्ति और बुद्धि मिली है। इससे स्पष्ट है कि बुद्धि कोई स्वतंत्र तत्व नहीं सहयोग, सम्पर्क की प्रतिध्वनि मात्र है। बच्चे अपने अभिभावकों की भाषा में ही बोलना आरम्भ करते हैं, इससे स्पष्ट है। उच्चारण स्वतन्त्र नहीं वरन् पूर्णतया परावलम्बी है। जो बच्चे बहरे होते हैं उन्हें गूंगा भी रहना पड़ता है। शब्दों को वे सुन नहीं सकते तो फिर नकल बना कर बोलना आरम्भ कैसे करें।

मनुष्य समाज की एक अविच्छिन्न इकाई है, परिस्थितियों का दास—वातावरण ही उसे उठाता गिराता है आदि प्रतिपादन विभिन्न प्रकार से किये जाते रहते हैं। उन्हें तथ्य ही मानना चाहिए। मान्यताएं, अभिरुचियां, आस्थायें, आकांक्षायें, प्रवृत्तियां किसी के मन में अनायास ही नहीं उठ पड़तीं, वे समीपवर्ती वातावरण से ग्रहण की जाती हैं। मनुष्य के भले-बुरे होने का श्रेय अथवा दोष सम्बद्ध परिस्थितियों को दिया जाता है। स्वाध्याय और सत्संग की महिमा इसी आधार पर गाई गई है कि उन माध्यमों से आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने की प्रेरणा मिलती है। कुसंग से पतन वाला तथ्य भी सर्वमान्य है। अपवाद तो किसी भी क्षेत्र में पाये जा सकते हैं पर सर्वमान्य प्रक्रिया यही है कि उत्कर्ष और अपकर्ष का—स्वभाव और रुझान का बहुत बड़ा आधार सम्बद्ध जन समूह से मिलने वाली प्रेरणा ही रहती है। इन तथ्यों पर जितनी अधिक गम्भीरता से विचार किया जाय उतनी ही अच्छी तरह यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य की प्रगति मनःस्थिति और गति विधि का निर्माण पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही विनिर्मित होता है।

यह सहयोग कहां से? कैसे? क्या? उत्पन्न हुआ, इस तथ्य पर किया गया गहनतम चिन्तन हमें इसी निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि सहृदयता ही उदार सहयोग के लिए प्रेरित कर सकती है। आदर्शवादी प्रवृत्ति ही दूसरों के साथ सेवा, सहयोग, स्नेह एवं अनुदान भरा उदार व्यवहार करने की प्रेरणा देती है। शुद्ध स्वार्थ ही यदि मूल प्रकृति रही तो उस संघर्ष में हर किसी को अपने ही लाभ को प्रधानता देनी पड़ेगी, ऐसी दशा में संघर्ष प्रधान रहेगा और सहयोग कभी नहीं पनपेगा। मत्स्यन्याय से एक दूसरे को खाते तो रहेंगे पर कोई किसी के सुख-दुख में भाग न लेगा। समुद्र में रहने वाली बहुसंख्यक और विशालकाय मछलियों में यदि सहयोग रहा होता—वे एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल रहने की आवश्यकता समझ गई होती तो मनुष्य को समुद्र में पैर धरने को भी हिम्मत न पड़ती। मछलियां सहज ही छक्के छुड़ा देतीं। शहद की मक्खियों का उदाहरण सामने है, उनके छत्ते में हाथ डालने का साहस बड़ी कठिनाई से ही किया जाता है। जिन पशुओं में आपत्ति के समय एक होने जितनी भी भावनाएं हैं उन्हें छेड़ना किसी भी आक्रमणकारी के लिये महंगा पड़ता है।

यों सहयोग का एक सामयिक आधार, पारस्परिक आदान-प्रदान भी होता है पर उसकी कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं होती। दोनों पक्ष काम चलाऊ समझौते के आधार पर अपना श्रम अथवा धन एक दूसरे को देते रहते हैं फलतः सुविधाओं का परिवर्तन चल पड़ता है, अर्थशास्त्र की धुरी यही है। किन्तु अधिक सघन सहयोग जिसके आधार पर अपनी सुविधाओं का त्याग कर दूसरों को लाभान्वित करने की आकांक्षा रहती है, वही मनोभाव है जिसे स्नेह अथवा सहृदयता के नाम से पुकारा जाता है। माता अपनी सन्तान को इसी भाव से पालती है। मित्र मित्र के लिये इसी वृत्ति से प्राण निछावर करते हैं। सन्त, सुधारक, सैनिक और शहीद इसी भावना से प्रेरित होकर स्वयं कष्ट उठाते हुये समाज की सुख-शान्ति के लिये बढ़े चढ़े त्याग-बलिदान प्रस्तुत करते हैं। महामानवों में यही प्रवृत्ति समुन्नत स्तर पर होती है। सेवाभावी और दानवीरों द्वारा जो लोकमंगल के लिये सराहनीय सत्साहस प्रदर्शित किये जाते हैं, उसमें आदर्शों के लिये लोकमंगल के प्रति पीड़ित मानवता के प्रति उदार सहृदयता ही उल्लास भरी भूमिका प्रस्तुत करती है।

मानव जाति की भूतकालीन प्रगति इसी प्रवृत्ति का सहारा पाकर आज की स्थिति तक बढ़ती आई है। उसमें जब कभी जितना भी व्यवधान पड़ा है वह संकीर्ण स्वार्थ द्वारा ही डाला गया है। उदार चेता महामानव ही इस विश्व की सच्ची विभूतियां हैं। क्यों कि उन्हीं के उत्कर्ष ने समाज को अनुकरणीय और प्रभावोत्पादक प्रेरणाएं दी होती हैं। क्षमता को स्वार्थ में खर्च कर डालते हैं कोई व्यक्ति या परिवार सुख-साधनों का उपयोग कर सकता है पर जब वह उन्हें अपने लिए खर्च करने का तप संयम एवं अपरिग्रह का साहस करके परमार्थ में अपनी विभूतियों का समर्पण करता है तो समस्त समाज में आशा भरा नव-जीवन संचार होता है। उस अनुदान से लोकमंगल के कितने ही महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरे होते हैं। सबसे बड़ी बात यह होती है कि उस आदर्शवादी अनुकरण की लहरें उमड़ती हैं और अन्य असंख्यों को उसी मार्ग पर चलने की उमंग उत्पन्न करती हैं। यही वह प्रचलन है जिसके आधार व्यक्ति, समाज एवं युग को समुन्नत ही नहीं धन्य बनने का भी अवसर मिलता है।

इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे सहृदयता की ही प्रतिक्रिया समझा जाना चाहिए। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की आस्था विकसित हुए बिना कोई मनुष्य न तो आत्म-संयम के लिये तैयार होगा और न अपनी उपलब्धियों को सेवा प्रयोजनों में प्रयुक्त करने के लिये सहमत होगा। आपाधापी ही ऐसी दिशा में एकमात्र नीति बन जायगी। तब स्वार्थों का संघर्ष दिन-दिन विकट होता जायगा। स्वार्थवादी बुद्धिमत्ता विकसित होते-होते एक दूसरे को फाड़ खाने की स्थिति उत्पन्न करेगी। सर्वत्र आशंका और अविश्वास का वातावरण छाया रहेगा। छल और आक्रमण की सम्भावना हर दिशा में छाई हुई दृष्टिगोचर होगी तो कोई चैन और आनन्द का अनुभव कहां से कर सकेगा। हिंस्र पशुओं के बीज घिरे हुये छोटे वन-जीव निरन्तर आतंकित रहते हैं, उसी स्थिति में स्वार्थी समाज के हर सदस्य को रहना पड़ेगा। बुद्धिवाद का परिणाम स्वार्थ साधन के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रत्यक्ष लाभ उसी में है। परमार्थ में तो भौतिक दृष्टि से अपनी हानि ही होती है। उदारता बरतने से अपने को तो घाटा ही पड़ता है। ऐसी दिशा में उसे कोई क्यों अंगीकार करेगा। परमार्थ की विडम्बनाएं भी यश पाने और उस आधार पर दूसरों को प्रभावित करने परोक्ष लाभ उठाने की वृत्ति से होती रहती है। पर उस छद्म कौतुक से कोई ठोस प्रयोजन सिद्ध नहीं होते।

आदर्शवादी परम्पराओं के प्रचलन का आधार एकमात्र सहृदयता ही हो सकती है। बुद्धि से भी समाज हित की दुहाई देकर परमार्थ प्रयोजनों का समर्थन तो किया कराया जा सकता है पर वैसा करने की प्रेरणा उत्पन्न करना असम्भव है। विशुद्धि बुद्धिवादी को विशुद्ध स्वार्थी ही बनना पड़ता है और विशुद्ध स्वार्थ साधन की मनोवृत्ति का पतन और समाज का स्तर गिराने में कितनी भयंकर सिद्ध हो सकती है, इसे आज सर्वत्र छाई हुई अगणित विभीषिकाओं के रूप में हम सहज ही जान सकते हैं। यदि यही क्रम चलता रहे तो हमें पिशाच बनकर सामूहिक आत्म-हत्या के लिये अग्रसर होना होगा अथवा पशु-प्रवृत्ति अपना कर आदिमकाल की अविकसित स्थिति में पहुंच कर वन-मानुषों की तरह रहना पड़ेगा।

सहृदयता का महत्व बुद्धिमत्ता से घट कर नहीं बढ़ कर ही माना जाना चाहिए और यह अनुभव किया जाना चाहिए कि मानवी आदर्शों को, प्रगति के चिरस्थायी आधारों को, सुख-शान्ति को, सन्तोष और आनन्द को एक मात्र इसी आधार पर जीवित रखा जा सकता है कि सहृदयता की महान प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करने के लिए उससे भी कहीं अधिक प्रयास किया जाय जैसा कि बुद्धिमत्ता को विकसित करने के लिए किया जा रहा है। बुद्धि के लिए स्थापित शिक्षा संस्थानों की तुलना भाव सम्वर्धन के चेतना केन्द्रों को, धर्म संस्थानों को, अध्यात्म के प्रयोग प्रयत्नों को अधिक ही बढ़ावा दिया जाय—कम नहीं। विश्वास, सहानुभूति, सहिष्णुता, सहकारिता, चरित्र निष्ठा, नम्रता, सज्जनता, उदारता एवं सेवा साधना जैसी सत्प्रवृत्तियां, सद्भाव, संवर्धन के साथ ही जुड़ी हुई हैं। कहना न होगा कि मानव चेतना भौतिक पदार्थों से नहीं सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का खाद पानी पा कर ही जीवित रह सकती है, विकसित हो सकती है। इसी विश्व-मंगल का सारा आधार टिका हुआ है।

गांधीजी कहते थे—‘‘हृदय बुद्धि और श्रम तीनों के समन्वय में ही मानव जाति का हित है।’’ अकेले बुद्धिवाद की प्रतिष्ठा अवांछनीय है। सहृदयता का, भावनात्मक है। बुद्धि और हृदय का समन्वय इतना सघन होना चाहिए कि उसे सत्कर्म के सत्प्रवृत्तियों के रूप में सर्वत्र बिखरा हुआ देखा जा सके। इस समन्वय पर ही सर्वजनीन, सार्वभौम कल्याण निर्भर है।
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