
मानवेत्तर प्राणियों का संसार पारिवारिक जीवन
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काम, प्रेम, गृहस्थ और दाम्पत्य आदि के लिये इन तीन जीवों का जगत् बड़ा विचित्र है, कई जीवों में जोड़ों की घनिष्ठता ऐसी प्रगाढ़ होती है कि एक के न रहने पर दूसरे का दुःख शरीरान्त से ही छूटता है। कबूतर के बारे में यजुर्वेद तक का उद्धरण देते हुए बताया है—‘‘मित्रवरुणाभ्यां कपोतान्’’ मित्रता, प्रेम और दाम्पत्य-निष्ठा हममें कपोतों जैसी हो। सारस भी ऐसा ही पक्षी है, जोड़े में कोई एक बिछुड़ जाये तो दूसरा बहुत दुःखी हो जाता है। पंडुक नर मर जाता है तो उसकी मादा उसके शव में शरीर कूट-कूटकर विलाप करती है। उसका वह आर्तनाद देखकर मनुष्य के भी आंसू आ जाते हैं और ऐसा लगता है कि मनुष्य में भी ऐसी निष्ठा होती तो उसका जीवन कितना सुखमय होता।
थोड़ी-सी बात में गाल फुला लेना और सप्ताहों मन में क्रोध भरे रहने की बेवकूफी केवल मनुष्य ही करता है। अन्य जीव नहीं। सृष्टि के प्रायः सभी जीव प्रबल प्रतिरोध या आक्रमण की स्थिति में ही क्रोध व्यक्त करते हैं, अन्यथा उनका जीवन बड़ा हल्का-फुल्का और विनोद प्रिय होता है। मनुष्येत्तर जीवों का यह मनोविनोदी स्वभाव देखते ही बनता है। पेन्गुइन पक्षी अपनी पत्नी से मनोविनोद के लिये अपनी चोंच उसकी चोंच में डालकर बड़ी देर तक विचित्र क्रियायें करके उसका मन प्रसन्न रखता है। कछुआ अपनी मादा की आंख को खुजलाता और पीठ पर हल्की चपत-सी लगाकर खेल करता है। मैडम अब्रू नामक क्यूबा की एक महिला के पास एक चिंपैंजी था, वह बड़ा ही मजाकिया स्वभाव का था। नर जाति के इस चिंपैंजी की विशेषता यह थी कि वह हमेशा अपनी मादा के साथ ही रहता, कोई स्त्री पास आ जाये तो कोई बात नहीं पर किसी आदमी के पास पहुंचते ही वह अपनी पत्नी को छिपा लिया करता था। ऐसा करते समय वह मुस्कराता भी था। लोग इसके इस विनोद का घन्टों आनन्द लिया करते थे पर वह मानो खेल-खेल में ही मनुष्य के प्रति अविश्वास और व्यंग व्यक्त किया करता था। पराई इज्जत पर हाथ साफ करने की मानवीय दुष्प्रवृत्ति के नाम पर चिंपैंजी का यह व्यंग अयुक्त संगत नहीं कहा जा सकता।
बया का खेल-कूद और मनोविनोद की जिन्दगी विशेष प्रिय है, वह इधर-उधर से, कहीं से रुई या डोरा ढूंढ़ लाता है, फिर उससे झूला बनाकर स्वयं भी झूलता है, पड़ौसियों और बच्चों को भी झुलाता है, बीच-बीच में बया उनको सिखाती और समझाती भी है। नृत्य का भी आनन्द लेती है। पेन्गुइन पक्षी बर्फ में फिसलने का विशेष खेल खेलता है। बत्तखों की जल-क्रीड़ा देखते ही बनती है। कोयल का गाना और मैनाओं की मनुष्य की भाषा की नकल करना भी कम मनोरंजक नहीं। आश्चर्य की बात यह है कि नृत्य आदि उत्सवों में अधिकांश विनोदी कार्य नर को ही करने पड़ते हैं। गौरैया दिन में कई बार खेल-खेल में नकली युद्धाभ्यास करती है। कई चिड़ियायें नटों जैसे करतब दिखाकर अपने अन्य साथियों को हंसाती हैं।
और तो और आतिथ्य और मैत्री भाव के लिये भी पशु पक्षियों का संसार मानवीय क्षेत्र से अधिक सुन्दर और विश्वस्त है। सजातीयों से प्रेम तो सभी कर लेते हैं, अपने परिवार का आदर-सत्कार कर लेना बड़ी बात नहीं हृदय की विशालता और सौजन्य की रक्षा तब होती है, जब मनुष्य अपने परिश्रम से उत्पन्न किये धन और वस्तुओं को केवल आत्मीयता और मैत्री के सुख के लिये दूर से आये अतिथियों को खिलापिलाकर अथवा देकर प्रसन्न होता है। यह सत्प्रवृत्ति ही मनुष्य को संकीर्णता से निकालकर विराट् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता करती है पर आज का मनुष्य तो इन सद्गुणों को भी भूलता जा रहा है।
शुतुरमुर्ग अपने लम्बे डीलडौल और लम्बी दौड़ान के लिये तो प्रसिद्ध है ही सहृदयता और मित्रभाव के लिये भी लोग उसका उदाहरण देते हैं, उसकी मैत्री प्रायः जेबराओं के साथ होती है। अन्य चौपाये भी यदि उसके निवास स्थान के आस-पास आ जायें तो यह उनसे भी बड़ी जल्दी घनिष्ठता स्थापित कर लेता है, उसमें न तो उसका कोई स्वार्थ है, न भय। आत्म-सन्तुष्टि के लिये ही वह मित्रता करता है और जिसके साथ मैत्री करता है, उसको अन्त तक निबाहता भी है। मनुष्यों की मित्रता अधिकांश स्वार्थ और मतलब गर्जी की होती है, मित्र के लिये आत्मोत्सर्ग वाली दृढ़ता एकाध मनुष्य में ही होगी पर शुतुरमुर्ग जिसके साथ दोस्ती करता है, उसे न केवल उसकी असहाय अवस्था में उसके भोजन, पानी का प्रबन्ध करता है वरन् वैसे भी उसे कुछ न कुछ खिलाता रहता है। जेबराओं से विशेष मैत्री का कारण यह है कि जेबरा स्वयं भी अच्छी-अच्छी वस्तुयें खाने को देते हैं और उनके प्रत्युपकार के लिये, वह अपनी ऊंची गर्दन से आस-पास के क्षेत्र की चौकसी रखता है, कोई शिकारी या आक्रमणकारी हिंसक जीव दिखाई दे जाये तो जेबरा अपने मित्रों को तुरन्त आगाह करेगा और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचायेगा।
कई प्राणी बुद्धि, भावना और कुशलता तीनों ही दृष्टि से काफी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं। कई बार तो वे मनुष्य को चुनौती देते हैं। उनकी बुद्धिमत्ता, व्यवस्था और सृजनात्मक शक्ति देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। इस स्तर के प्राणियों में ‘वीवर’ प्रख्यात है।
‘वीवर’ एक प्रकार का जल और थल निवासी—एक प्रकार का बड़ा चूहा है जो पहले केवल उत्तरी अमेरिका में पाया जाता था पर अब उसकी नसल प्रायः सभी ठंडे मुल्कों में फैल गई है। उसकी लम्बाई पूंछ समेत 3 से 4 फुट और वजन में 50 से 60 पौण्ड तक होते हैं। उनकी आयुष्य 15-20 वर्ष तक होती है। शरीर पर बहुत ही मुलायम और चमकीली ऊन होती है।
वीवर की समाज भावना और गृह निर्माण कला अद्भुत है। वे अपना या अपने परिवार का ही ध्यान नहीं रखते वरन् सुख-दुःख में अपने क्षेत्र वासियों की भी पूरी सहायता करते हैं। रोगी, दुर्बल, आपत्ति ग्रस्त या भोजन कमाने में असमर्थ साथियों को वे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते। अपनी सुविधाओं के साधनों में ही व्यस्त नहीं रहते वरन् यह भी तलाश करते हैं कि किसी साथी को कोई कष्ट तो नहीं है। प्रसव काल आने पर मादा वीवर की सहायता करने अनेक सहेलियां आ जाती हैं और उस समय की आवश्यकताओं को देखते हुए जच्चा की समुचित सहायता करती है। अपने बच्चों की तरह पड़ोसिन के बच्चों का भी यह मादायें ध्यान रखती हैं और उन्हें न कुछ असुविधा होने देती हैं और न उच्छृंखलता बरतने देती हैं।
किसी शत्रु के आक्रमण होने अथवा प्राकृतिक विपत्ति आने पर सूचना पाते ही साथियों को सावधान कर देते हैं और भाग निकलने में पहले कमजोरों को अवसर देते हैं।
आत्म निर्भरता के प्रति—
ब्राजील में एक ऐसी चींटी पाई जाती है, जो कृषि पर निर्भर रहती हैं। सामान्य चींटियों की तरह दूसरों की कमाई पर निर्भर नहीं रहती। यह कुछ पेड़ों से गिरी पर टूटी हुई पत्तियां ले आती हैं और उन्हें अपने बिल में रखती हैं। किसान जिस तरह अपने को अच्छी तरह जोतता, घास-फूस निकाल कर बीज बोता है, उसी प्रकार यह चींटियां भी इन पत्तों का भली प्रकार निरीक्षण करती हैं, कहीं कोई कीड़ा या रोगाणु तो नहीं हैं। यदि पत्ता अच्छा हुआ तो वे इसमें एक विशेष प्रकार की फफूंद बोती हैं। पैदा की हुई फफूंद से ही उनका आहार चलता है। चींटी में स्वावलम्बन के साथ गुण-दोष विवेचन की क्षमता आश्चर्यजनक है।
यदि कोई बंटवारा करना चाहे तो जिम्मेदार चींटियां उसके लिये नया बिल ढूंढ़ देती हैं। उसे विदा करते समय उन्हें यह ध्यान रहता है कि कहीं इसे आहार के अभाव में भूखों न मरना पड़े इसलिए ये फफूंद का एक कण भी उसे देती हैं। इस कण को लेकर चींटी दूसरे बिल में जाती है और वहां अपनी कृषि जमाकर सुखपूर्वक रहने लगती है। तुच्छ जीव में मनुष्य से बढ़कर विवेक भी कम विस्मय बोधक नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रिस के शिष्य डा. लिंडावर ने मधुमक्खियों का बहुत दिन तक अध्ययन किया और बताया कि उनकी प्रवृत्तियां मानव-जीवन की गतिविधियों से विलक्षण साम्य रखती हैं। जिस प्रकार घर के मुखिया के आदेश पर घर के सब काम व्यवस्थापूर्वक चलते हैं, उसी प्रकार मधु-मक्खियों में एक रानी मक्खी होती है, छत्ते की सारी व्यवस्था का भार उस पर ही होता है। छत्ते के सब निवासी उसके निर्देशों का अच्छी प्रकार पालन करते हैं। इन मक्खियों में विभाग बंटे हुए होते हैं, कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना, टूट-फूट जोड़ना, छत्ते में कोई मर जाये, उसे वहां से ले जाकर श्मशान तक पहुंचाना यह सब काम मजदूर करते हैं। कुछ सैनिक मक्खियां होती है, इनका काम है रानी मक्खी और छत्ते की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा। मनुष्यों की फोज में कुछ सिपाही कायर और डरपोक हो सकते हैं, किन्तु यह दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करतीं। ये उनसे मृत्यु पर्यन्त लड़ती हैं। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता है। इस तरह जिसको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्तचित्त करती रहती है।
छत्ते में दूसरी रानी मक्खी पैदा हो जाती है तो उसके लिए परिवार न्यारा कर दिया जाता है। रानी मक्खी अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में चलती है पर वह एक दिन में नहीं मिल जाता। रानी मूर्ख नहीं होती, वह यद्यपि नन्हा–सा कीट ही है। कुछ समय के लिये वह किसी पेड़ पर बसेरा डाल लेती है और अपने सभासदों को आदेश देती है कि वे ऐसा स्थान ढूंढ़ें जहां जल की समुचित मात्रा उपलब्ध हो, पराग के लिये फूल और घना जंगल हो तथा स्थान ऐसा हो जहां की नींव जमाने में दिक्कत न हो। आमतौर पर यह जहां पहले छत्ते लगे होते हैं, उस स्थानों पर ही नया छत्ता बनाते हैं, उससे मोम की दीवार वृक्ष से चिपकाने में सुविधा रहती है।
स्थान के चुनाव में कई बार इनमें मतभेद हो जाता है। यदि दो-चार मक्खियों में ही विरोध रहे तब तो वे स्वयं अपनी भूल मानकर छत्ते में मिल जाती हैं पर यदि मतभेद इतना हो कि दो दलों में विभक्त होने की स्थिति आ जाये तो रानी मक्खी अपनी समझदारी से काम लेती है, वह जिस पक्ष को उचित मानती है, उसे लेकर नये स्थान में चली जाती हैं और बाद में अपने विशेष दूत भेजकर अपने बिछुड़े साथियों को भी वहां बुला लेती हैं। इस स्थिति में विरोधी पक्ष चुपचाप चला आता है और अपने दल में सम्मिलित होकर काम करने लगता है। डॉक्टर लिण्डावर के अनुसार मक्खियों में इससे भी विलक्षण मानसिक गतिविधियां चलती हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह दो उदाहरण इसलिये दिये गये हैं कि मनुष्य यह न मान ले कि न्याय, नीति, ईमानदारी, विकास, आदि की बौद्धिक क्षमतायें केवल उसे ही मिली हैं, जीवों में कई जीव अति सभ्य संसार में रहने का दावा कर बैठे तो उनकी बात को असत्य सिद्ध करना कठिन हो सकता है। यह उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि संसार के सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त आत्म-चेतना एक ही है। सबमें एक ही प्रकार की न्यूनाधिक नई-नई प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। मनुष्य केवल इसलिये अपवाद है कि उसमें प्रत्येक जीवन की सम्भावनायें विलक्षण रूप से भरी गई हैं। वह अपने आपमें एक स्वतन्त्र सत्ता है, इसलिये उसे यह सोचने, समझने का अवसर मिलता है कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है उस उद्देश्य को कैसे सार्थक किया जा सकता है।
प्रो. जे.बी.एस. हाल्डेन का कथन है—‘‘एक लाख वर्ष पूर्व कोई ऐसा एकाकी मनुष्य का जोड़ा था, जो अकेला एक ही था, उसी से आज के सम्पूर्ण मनुष्यों का आविर्भाव हुआ है। हम सब मनुष्य दूर के रिश्ते में सगे भाई हैं और सगे भाइयों जैसा व्यवहार ही हमें करना चाहिये।’’ और आगे तत्व-दर्शन की ओर बढ़ें तो डा. हाल्डेन के ही मतानुसार आज से लगभग 7000 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी में कोई एक प्राणी था, चाहे तो वह प्रोटोजोआ (एक कोषीय जन्तु) था या फिर कोई आत्म-चेतना सम्पन्न प्राणी, उसी से सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इस तरह हमें मात्र मनुष्यों में ही भाई चारे का सम्बन्ध नहीं देखना चाहिए वरन् सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्म-चेतना का परिष्कार देखना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और आत्म-भाव तत्व-दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो हमें शीघ्र ही ईश्वर से मिला देता है, जब सब अपने ही भाई बन्धु, नाती-पोते, पिता-बाबा, मां-बहिन, बुआ-भतीजे हैं तो किसके साथ छल-कपट, अनीति और अन्याय किया जाये।
सारा संसार एक परिवार
अपने परिवार के लिये हम अपनी आजीविका का 99 प्रतिशत भाग लगाते हैं और थोड़ा-सा अपने लिये रखते हैं, क्योंकि हमें अपने प्रियजनों की सेवा से सुख, सन्तोष मिलता है। यदि इस दायरे को बढ़ाकर हम प्राणिमात्र के प्रति आत्म-भावना और समता का विस्तार कर लें और उसे समिष्ट भाव से निष्ठापूर्वक पूरा करते रहें तो यह निश्चय है कि हमारे सुख-सन्तोष और आनन्द की सीमा भी बढ़ी हुई होगी। प्रेम का पूरा आनन्द एक दो के साथ प्रेम-भाव से ही नहीं मिल सकता, उसका जितना अधिक विस्तार कर सकते हैं, अर्थात् घृणास्पद से भी यदि प्रेम करने का स्वभाव विकसित कर पायें तो अपने जीवन में बहुत अधिक आनन्द और आह्लाद की अनुभूति कर सकते हैं।
इस विचारणा का आधार यह है कि सम्पूर्ण जीव जगत एक ब्रह्म से स्फुरित हुआ है। इसी का नाम तत्वदर्शन है। सनातन धर्म और संस्कृति का विकास इस तत्वदर्शन से होने के कारण ही वह अकाट्य है। हमारे भारतीय धर्म ग्रन्थ कहते हैं—‘‘प्रारम्भ में एक ही ब्रह्म था उसकी एक इच्छा हुई—‘एकोऽहं बहुस्यामः’ मैं एक से बहुत हो जाऊं। उसकी इच्छा शक्ति ही का विस्तार अनेका-नेक ब्रह्माण्ड और अनेक जीव-जन्तुओं में दिखाई देता है। सम्पूर्ण विविधता में भी वह एक ही अविनाशी अक्षर तत्व समाया हुआ—‘बहुनामह एक मैव’ संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उस सबमें एक मैं ही चेतन रूप में व्याप्त हूं। जब हम इस बात को समझ लेते हैं, तब हमें प्राणियों के साथ व्यवहार के लिये ही एक नया दृष्टिकोण नहीं मिलता वरन् मनुष्य जीवन की वर्तमान गतिविधियों को भी हम दोष पूर्ण देखने लगते हैं और यह मानने को विवश होते हैं कि हमारे जीवन में जो अभाव अशक्ति और अज्ञान है, उसे भौतिक पदार्थों से दूर किया जा सकता वरन् आत्मा को विराट् परमात्मा बना कर ही हम कष्टों से मुक्ति और सच्चे आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं।
योगवशिष्ठ, गीता आदि ग्रन्थों में सम्पूर्ण जीवों में एक ही शक्ति और चेतन सत्ता के विद्यमान होने के वैज्ञानिक रहस्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पैंगलोपनिषत् में ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना पर बड़ा सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि एक ही तत्व किस प्रकार विभिन्न जीव पदार्थों आस्तित्व धारण करता चला गया। पैंगल ऋषि महर्षि याज्ञवल्क्य के पास जाते हैं और तप करते हैं। 12 वर्ष तक तप करने से जब उनकी आत्मा शुद्ध हो जाती है, तब वे महर्षि से कहते हैं—‘परम रहस्य कैवल्य मनुब्रूहीतिहीति प्रपच्छ’ भगवन् आप मुझे परम रहस्यकारी ‘कैवल्य’ का उपदेश करें। महर्षि याज्ञवलक्य ने उन्हें बताया कि सृष्टि के आदि में केवल सत् ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनन्द से पूर्ण सनातन एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म है, उसी से लाल, श्वेत, कृष्ण, गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई और यह चराचर जगत बन गया।
शेर बहुत हिंसक जन्तु है, किन्तु समझ, सौन्दर्य और वात्सल्य जैसे गुण उसमें भी विद्यमान हैं। वे अपने पारिवारिक जीवन में बहुत निष्ठावान होते हैं। आजन्म गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और सभी पत्नियां एक बार प्रणय सूत्र में आबद्ध होने के पश्चात् अपने पति के साथ सम्बद्ध बनी रहती है। शेर और शेरनी का कदाचित ही कभी तलाक होता है। बच्चों को वे दोनों मिल-जुलकर बड़े लाड़-चाव से पालते हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री श्री सलीम आलिम ने अनेक जीवों के अध्ययन के बाद बताया कि ब्रिटेन में पाये जाने वाले अधिकांश छोटे पक्षी एक पत्नी व्रत जीवन-यापन करते हैं। योरुप में पाया जाने वाला स्टारलिंग जो एक प्रकार से मैना की आकृति का पक्षी है, दिसम्बर के महीने में इसके विनाश के दिन होते हैं, कई बार तो आधे स्टारलिंग तक मर जाते हैं, उनमें से कइयों के जोड़े बिछुड़ चुके होते हैं। इस आघात को सहन करना और प्रेम विहीन जीवन-यापन करना स्टारलिंग के लिये कठिन पड़ता है, इन दिनों उनका बिलखना देखकर भावुक मनुष्यों से भी ऊंची इनकी मनःस्थिति प्रतीत होती है। हमारे देश में पाये जाने वाला बया पक्षी दाम्पत्य-जीवन में निष्ठावान् नहीं रहता और इस भूल का दण्ड भुगतता है। वह कई-कई विवाह करके अपने घोंसले में बहुधा कई-कई धर्म-पत्नियां ले आता है और फिर उसकी पत्नियों में परस्पर द्वेष-भाव, मार-पीट, काट-कलह होती है, उस मार-धाड़ में उसकी भी काफी मरम्मत होती रहती है और बया अपनी भूल पर पछताता रहता है।
यह उदाहरण जहां यह बताते हैं कि मनुष्य जैसी बुद्धिशीलता, चतुरता संसार के सब प्राणियों में होने से वे सब एक ही जाति के जीव हैं, सब आत्मा के अंश हैं और उन्हें एक ही सार्वभौम नियम का पालन कर सुखी रहने और तोड़ने पर दुःख पाने को बाध्य होना पड़ता है।
डा. जे.बी. हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे। एक विलायती पक्षी क्रमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा—‘‘यह चिड़िया बसनत आगमन पर विवाह की तैयारी करती है। नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता है। वह पेड़ों की टहनियां आदि एकत्रित करके रखता है और यह दिखाने का प्रयत्न करता है मानो उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ-निर्माण की कला की समुचित सामर्थ्य उपलब्ध हैं। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिये, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो तो विवाह की जिम्मेदारी वहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिये।
मनुष्य मादा क्रीयटी नर के पास से गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती है। कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं दिये जा रहे हैं। जब पूरा विश्वास हो जाता है, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाने की तैयारी करते हैं। अण्डे सेने का काम भी दोनों मिल-जुलकर कर बारी-बारी से करते हैं।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि संसार में जो भी शरीर और प्रकृति की है। चेतना सबमें एक है, मनुष्य की यदि कुछ विशेषता है तो यही कि वह उसमें विवेक भी है और वह अपनी चेतना को समझने और उसे सम्पूर्ण प्राणियों की आत्म-चेतना के साथ जोड़ते हुए, विश्व-विराट् की अनुभूति की क्षमता से सम्पन्न है, यदि वह इस उद्देश्य को पूरा कर लेता है तो इसी नर शरीर से नारायण जैसी पूर्णता में परिणित हो सकता है।
बया का खेल-कूद और मनोविनोद की जिन्दगी विशेष प्रिय है, वह इधर-उधर से, कहीं से रुई या डोरा ढूंढ़ लाता है, फिर उससे झूला बनाकर स्वयं भी झूलता है, पड़ौसियों और बच्चों को भी झुलाता है, बीच-बीच में बया उनको सिखाती और समझाती भी है। नृत्य का भी आनन्द लेती है। पेन्गुइन पक्षी बर्फ में फिसलने का विशेष खेल खेलता है। बत्तखों की जल-क्रीड़ा देखते ही बनती है। कोयल का गाना और मैनाओं की मनुष्य की भाषा की नकल करना भी कम मनोरंजक नहीं। आश्चर्य की बात यह है कि नृत्य आदि उत्सवों में अधिकांश विनोदी कार्य नर को ही करने पड़ते हैं। गौरैया दिन में कई बार खेल-खेल में नकली युद्धाभ्यास करती है। कई चिड़ियायें नटों जैसे करतब दिखाकर अपने अन्य साथियों को हंसाती हैं।
और तो और आतिथ्य और मैत्री भाव के लिये भी पशु पक्षियों का संसार मानवीय क्षेत्र से अधिक सुन्दर और विश्वस्त है। सजातीयों से प्रेम तो सभी कर लेते हैं, अपने परिवार का आदर-सत्कार कर लेना बड़ी बात नहीं हृदय की विशालता और सौजन्य की रक्षा तब होती है, जब मनुष्य अपने परिश्रम से उत्पन्न किये धन और वस्तुओं को केवल आत्मीयता और मैत्री के सुख के लिये दूर से आये अतिथियों को खिलापिलाकर अथवा देकर प्रसन्न होता है। यह सत्प्रवृत्ति ही मनुष्य को संकीर्णता से निकालकर विराट् के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता करती है पर आज का मनुष्य तो इन सद्गुणों को भी भूलता जा रहा है।
शुतुरमुर्ग अपने लम्बे डीलडौल और लम्बी दौड़ान के लिये तो प्रसिद्ध है ही सहृदयता और मित्रभाव के लिये भी लोग उसका उदाहरण देते हैं, उसकी मैत्री प्रायः जेबराओं के साथ होती है। अन्य चौपाये भी यदि उसके निवास स्थान के आस-पास आ जायें तो यह उनसे भी बड़ी जल्दी घनिष्ठता स्थापित कर लेता है, उसमें न तो उसका कोई स्वार्थ है, न भय। आत्म-सन्तुष्टि के लिये ही वह मित्रता करता है और जिसके साथ मैत्री करता है, उसको अन्त तक निबाहता भी है। मनुष्यों की मित्रता अधिकांश स्वार्थ और मतलब गर्जी की होती है, मित्र के लिये आत्मोत्सर्ग वाली दृढ़ता एकाध मनुष्य में ही होगी पर शुतुरमुर्ग जिसके साथ दोस्ती करता है, उसे न केवल उसकी असहाय अवस्था में उसके भोजन, पानी का प्रबन्ध करता है वरन् वैसे भी उसे कुछ न कुछ खिलाता रहता है। जेबराओं से विशेष मैत्री का कारण यह है कि जेबरा स्वयं भी अच्छी-अच्छी वस्तुयें खाने को देते हैं और उनके प्रत्युपकार के लिये, वह अपनी ऊंची गर्दन से आस-पास के क्षेत्र की चौकसी रखता है, कोई शिकारी या आक्रमणकारी हिंसक जीव दिखाई दे जाये तो जेबरा अपने मित्रों को तुरन्त आगाह करेगा और उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचायेगा।
कई प्राणी बुद्धि, भावना और कुशलता तीनों ही दृष्टि से काफी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं। कई बार तो वे मनुष्य को चुनौती देते हैं। उनकी बुद्धिमत्ता, व्यवस्था और सृजनात्मक शक्ति देखकर दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। इस स्तर के प्राणियों में ‘वीवर’ प्रख्यात है।
‘वीवर’ एक प्रकार का जल और थल निवासी—एक प्रकार का बड़ा चूहा है जो पहले केवल उत्तरी अमेरिका में पाया जाता था पर अब उसकी नसल प्रायः सभी ठंडे मुल्कों में फैल गई है। उसकी लम्बाई पूंछ समेत 3 से 4 फुट और वजन में 50 से 60 पौण्ड तक होते हैं। उनकी आयुष्य 15-20 वर्ष तक होती है। शरीर पर बहुत ही मुलायम और चमकीली ऊन होती है।
वीवर की समाज भावना और गृह निर्माण कला अद्भुत है। वे अपना या अपने परिवार का ही ध्यान नहीं रखते वरन् सुख-दुःख में अपने क्षेत्र वासियों की भी पूरी सहायता करते हैं। रोगी, दुर्बल, आपत्ति ग्रस्त या भोजन कमाने में असमर्थ साथियों को वे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते। अपनी सुविधाओं के साधनों में ही व्यस्त नहीं रहते वरन् यह भी तलाश करते हैं कि किसी साथी को कोई कष्ट तो नहीं है। प्रसव काल आने पर मादा वीवर की सहायता करने अनेक सहेलियां आ जाती हैं और उस समय की आवश्यकताओं को देखते हुए जच्चा की समुचित सहायता करती है। अपने बच्चों की तरह पड़ोसिन के बच्चों का भी यह मादायें ध्यान रखती हैं और उन्हें न कुछ असुविधा होने देती हैं और न उच्छृंखलता बरतने देती हैं।
किसी शत्रु के आक्रमण होने अथवा प्राकृतिक विपत्ति आने पर सूचना पाते ही साथियों को सावधान कर देते हैं और भाग निकलने में पहले कमजोरों को अवसर देते हैं।
आत्म निर्भरता के प्रति—
ब्राजील में एक ऐसी चींटी पाई जाती है, जो कृषि पर निर्भर रहती हैं। सामान्य चींटियों की तरह दूसरों की कमाई पर निर्भर नहीं रहती। यह कुछ पेड़ों से गिरी पर टूटी हुई पत्तियां ले आती हैं और उन्हें अपने बिल में रखती हैं। किसान जिस तरह अपने को अच्छी तरह जोतता, घास-फूस निकाल कर बीज बोता है, उसी प्रकार यह चींटियां भी इन पत्तों का भली प्रकार निरीक्षण करती हैं, कहीं कोई कीड़ा या रोगाणु तो नहीं हैं। यदि पत्ता अच्छा हुआ तो वे इसमें एक विशेष प्रकार की फफूंद बोती हैं। पैदा की हुई फफूंद से ही उनका आहार चलता है। चींटी में स्वावलम्बन के साथ गुण-दोष विवेचन की क्षमता आश्चर्यजनक है।
यदि कोई बंटवारा करना चाहे तो जिम्मेदार चींटियां उसके लिये नया बिल ढूंढ़ देती हैं। उसे विदा करते समय उन्हें यह ध्यान रहता है कि कहीं इसे आहार के अभाव में भूखों न मरना पड़े इसलिए ये फफूंद का एक कण भी उसे देती हैं। इस कण को लेकर चींटी दूसरे बिल में जाती है और वहां अपनी कृषि जमाकर सुखपूर्वक रहने लगती है। तुच्छ जीव में मनुष्य से बढ़कर विवेक भी कम विस्मय बोधक नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रिस के शिष्य डा. लिंडावर ने मधुमक्खियों का बहुत दिन तक अध्ययन किया और बताया कि उनकी प्रवृत्तियां मानव-जीवन की गतिविधियों से विलक्षण साम्य रखती हैं। जिस प्रकार घर के मुखिया के आदेश पर घर के सब काम व्यवस्थापूर्वक चलते हैं, उसी प्रकार मधु-मक्खियों में एक रानी मक्खी होती है, छत्ते की सारी व्यवस्था का भार उस पर ही होता है। छत्ते के सब निवासी उसके निर्देशों का अच्छी प्रकार पालन करते हैं। इन मक्खियों में विभाग बंटे हुए होते हैं, कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना, टूट-फूट जोड़ना, छत्ते में कोई मर जाये, उसे वहां से ले जाकर श्मशान तक पहुंचाना यह सब काम मजदूर करते हैं। कुछ सैनिक मक्खियां होती है, इनका काम है रानी मक्खी और छत्ते की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा। मनुष्यों की फोज में कुछ सिपाही कायर और डरपोक हो सकते हैं, किन्तु यह दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करतीं। ये उनसे मृत्यु पर्यन्त लड़ती हैं। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता है। इस तरह जिसको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्तचित्त करती रहती है।
छत्ते में दूसरी रानी मक्खी पैदा हो जाती है तो उसके लिए परिवार न्यारा कर दिया जाता है। रानी मक्खी अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में चलती है पर वह एक दिन में नहीं मिल जाता। रानी मूर्ख नहीं होती, वह यद्यपि नन्हा–सा कीट ही है। कुछ समय के लिये वह किसी पेड़ पर बसेरा डाल लेती है और अपने सभासदों को आदेश देती है कि वे ऐसा स्थान ढूंढ़ें जहां जल की समुचित मात्रा उपलब्ध हो, पराग के लिये फूल और घना जंगल हो तथा स्थान ऐसा हो जहां की नींव जमाने में दिक्कत न हो। आमतौर पर यह जहां पहले छत्ते लगे होते हैं, उस स्थानों पर ही नया छत्ता बनाते हैं, उससे मोम की दीवार वृक्ष से चिपकाने में सुविधा रहती है।
स्थान के चुनाव में कई बार इनमें मतभेद हो जाता है। यदि दो-चार मक्खियों में ही विरोध रहे तब तो वे स्वयं अपनी भूल मानकर छत्ते में मिल जाती हैं पर यदि मतभेद इतना हो कि दो दलों में विभक्त होने की स्थिति आ जाये तो रानी मक्खी अपनी समझदारी से काम लेती है, वह जिस पक्ष को उचित मानती है, उसे लेकर नये स्थान में चली जाती हैं और बाद में अपने विशेष दूत भेजकर अपने बिछुड़े साथियों को भी वहां बुला लेती हैं। इस स्थिति में विरोधी पक्ष चुपचाप चला आता है और अपने दल में सम्मिलित होकर काम करने लगता है। डॉक्टर लिण्डावर के अनुसार मक्खियों में इससे भी विलक्षण मानसिक गतिविधियां चलती हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह दो उदाहरण इसलिये दिये गये हैं कि मनुष्य यह न मान ले कि न्याय, नीति, ईमानदारी, विकास, आदि की बौद्धिक क्षमतायें केवल उसे ही मिली हैं, जीवों में कई जीव अति सभ्य संसार में रहने का दावा कर बैठे तो उनकी बात को असत्य सिद्ध करना कठिन हो सकता है। यह उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि संसार के सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त आत्म-चेतना एक ही है। सबमें एक ही प्रकार की न्यूनाधिक नई-नई प्रवृत्तियां पाई जाती हैं। मनुष्य केवल इसलिये अपवाद है कि उसमें प्रत्येक जीवन की सम्भावनायें विलक्षण रूप से भरी गई हैं। वह अपने आपमें एक स्वतन्त्र सत्ता है, इसलिये उसे यह सोचने, समझने का अवसर मिलता है कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या है उस उद्देश्य को कैसे सार्थक किया जा सकता है।
प्रो. जे.बी.एस. हाल्डेन का कथन है—‘‘एक लाख वर्ष पूर्व कोई ऐसा एकाकी मनुष्य का जोड़ा था, जो अकेला एक ही था, उसी से आज के सम्पूर्ण मनुष्यों का आविर्भाव हुआ है। हम सब मनुष्य दूर के रिश्ते में सगे भाई हैं और सगे भाइयों जैसा व्यवहार ही हमें करना चाहिये।’’ और आगे तत्व-दर्शन की ओर बढ़ें तो डा. हाल्डेन के ही मतानुसार आज से लगभग 7000 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी में कोई एक प्राणी था, चाहे तो वह प्रोटोजोआ (एक कोषीय जन्तु) था या फिर कोई आत्म-चेतना सम्पन्न प्राणी, उसी से सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इस तरह हमें मात्र मनुष्यों में ही भाई चारे का सम्बन्ध नहीं देखना चाहिए वरन् सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्म-चेतना का परिष्कार देखना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और आत्म-भाव तत्व-दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो हमें शीघ्र ही ईश्वर से मिला देता है, जब सब अपने ही भाई बन्धु, नाती-पोते, पिता-बाबा, मां-बहिन, बुआ-भतीजे हैं तो किसके साथ छल-कपट, अनीति और अन्याय किया जाये।
सारा संसार एक परिवार
अपने परिवार के लिये हम अपनी आजीविका का 99 प्रतिशत भाग लगाते हैं और थोड़ा-सा अपने लिये रखते हैं, क्योंकि हमें अपने प्रियजनों की सेवा से सुख, सन्तोष मिलता है। यदि इस दायरे को बढ़ाकर हम प्राणिमात्र के प्रति आत्म-भावना और समता का विस्तार कर लें और उसे समिष्ट भाव से निष्ठापूर्वक पूरा करते रहें तो यह निश्चय है कि हमारे सुख-सन्तोष और आनन्द की सीमा भी बढ़ी हुई होगी। प्रेम का पूरा आनन्द एक दो के साथ प्रेम-भाव से ही नहीं मिल सकता, उसका जितना अधिक विस्तार कर सकते हैं, अर्थात् घृणास्पद से भी यदि प्रेम करने का स्वभाव विकसित कर पायें तो अपने जीवन में बहुत अधिक आनन्द और आह्लाद की अनुभूति कर सकते हैं।
इस विचारणा का आधार यह है कि सम्पूर्ण जीव जगत एक ब्रह्म से स्फुरित हुआ है। इसी का नाम तत्वदर्शन है। सनातन धर्म और संस्कृति का विकास इस तत्वदर्शन से होने के कारण ही वह अकाट्य है। हमारे भारतीय धर्म ग्रन्थ कहते हैं—‘‘प्रारम्भ में एक ही ब्रह्म था उसकी एक इच्छा हुई—‘एकोऽहं बहुस्यामः’ मैं एक से बहुत हो जाऊं। उसकी इच्छा शक्ति ही का विस्तार अनेका-नेक ब्रह्माण्ड और अनेक जीव-जन्तुओं में दिखाई देता है। सम्पूर्ण विविधता में भी वह एक ही अविनाशी अक्षर तत्व समाया हुआ—‘बहुनामह एक मैव’ संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उस सबमें एक मैं ही चेतन रूप में व्याप्त हूं। जब हम इस बात को समझ लेते हैं, तब हमें प्राणियों के साथ व्यवहार के लिये ही एक नया दृष्टिकोण नहीं मिलता वरन् मनुष्य जीवन की वर्तमान गतिविधियों को भी हम दोष पूर्ण देखने लगते हैं और यह मानने को विवश होते हैं कि हमारे जीवन में जो अभाव अशक्ति और अज्ञान है, उसे भौतिक पदार्थों से दूर किया जा सकता वरन् आत्मा को विराट् परमात्मा बना कर ही हम कष्टों से मुक्ति और सच्चे आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं।
योगवशिष्ठ, गीता आदि ग्रन्थों में सम्पूर्ण जीवों में एक ही शक्ति और चेतन सत्ता के विद्यमान होने के वैज्ञानिक रहस्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पैंगलोपनिषत् में ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना पर बड़ा सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि एक ही तत्व किस प्रकार विभिन्न जीव पदार्थों आस्तित्व धारण करता चला गया। पैंगल ऋषि महर्षि याज्ञवल्क्य के पास जाते हैं और तप करते हैं। 12 वर्ष तक तप करने से जब उनकी आत्मा शुद्ध हो जाती है, तब वे महर्षि से कहते हैं—‘परम रहस्य कैवल्य मनुब्रूहीतिहीति प्रपच्छ’ भगवन् आप मुझे परम रहस्यकारी ‘कैवल्य’ का उपदेश करें। महर्षि याज्ञवलक्य ने उन्हें बताया कि सृष्टि के आदि में केवल सत् ही था। वही नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनन्द से पूर्ण सनातन एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म है, उसी से लाल, श्वेत, कृष्ण, गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई और यह चराचर जगत बन गया।
शेर बहुत हिंसक जन्तु है, किन्तु समझ, सौन्दर्य और वात्सल्य जैसे गुण उसमें भी विद्यमान हैं। वे अपने पारिवारिक जीवन में बहुत निष्ठावान होते हैं। आजन्म गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और सभी पत्नियां एक बार प्रणय सूत्र में आबद्ध होने के पश्चात् अपने पति के साथ सम्बद्ध बनी रहती है। शेर और शेरनी का कदाचित ही कभी तलाक होता है। बच्चों को वे दोनों मिल-जुलकर बड़े लाड़-चाव से पालते हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री श्री सलीम आलिम ने अनेक जीवों के अध्ययन के बाद बताया कि ब्रिटेन में पाये जाने वाले अधिकांश छोटे पक्षी एक पत्नी व्रत जीवन-यापन करते हैं। योरुप में पाया जाने वाला स्टारलिंग जो एक प्रकार से मैना की आकृति का पक्षी है, दिसम्बर के महीने में इसके विनाश के दिन होते हैं, कई बार तो आधे स्टारलिंग तक मर जाते हैं, उनमें से कइयों के जोड़े बिछुड़ चुके होते हैं। इस आघात को सहन करना और प्रेम विहीन जीवन-यापन करना स्टारलिंग के लिये कठिन पड़ता है, इन दिनों उनका बिलखना देखकर भावुक मनुष्यों से भी ऊंची इनकी मनःस्थिति प्रतीत होती है। हमारे देश में पाये जाने वाला बया पक्षी दाम्पत्य-जीवन में निष्ठावान् नहीं रहता और इस भूल का दण्ड भुगतता है। वह कई-कई विवाह करके अपने घोंसले में बहुधा कई-कई धर्म-पत्नियां ले आता है और फिर उसकी पत्नियों में परस्पर द्वेष-भाव, मार-पीट, काट-कलह होती है, उस मार-धाड़ में उसकी भी काफी मरम्मत होती रहती है और बया अपनी भूल पर पछताता रहता है।
यह उदाहरण जहां यह बताते हैं कि मनुष्य जैसी बुद्धिशीलता, चतुरता संसार के सब प्राणियों में होने से वे सब एक ही जाति के जीव हैं, सब आत्मा के अंश हैं और उन्हें एक ही सार्वभौम नियम का पालन कर सुखी रहने और तोड़ने पर दुःख पाने को बाध्य होना पड़ता है।
डा. जे.बी. हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे। एक विलायती पक्षी क्रमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा—‘‘यह चिड़िया बसनत आगमन पर विवाह की तैयारी करती है। नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता है। वह पेड़ों की टहनियां आदि एकत्रित करके रखता है और यह दिखाने का प्रयत्न करता है मानो उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ-निर्माण की कला की समुचित सामर्थ्य उपलब्ध हैं। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिये, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो तो विवाह की जिम्मेदारी वहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिये।
मनुष्य मादा क्रीयटी नर के पास से गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती है। कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं दिये जा रहे हैं। जब पूरा विश्वास हो जाता है, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाने की तैयारी करते हैं। अण्डे सेने का काम भी दोनों मिल-जुलकर कर बारी-बारी से करते हैं।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि संसार में जो भी शरीर और प्रकृति की है। चेतना सबमें एक है, मनुष्य की यदि कुछ विशेषता है तो यही कि वह उसमें विवेक भी है और वह अपनी चेतना को समझने और उसे सम्पूर्ण प्राणियों की आत्म-चेतना के साथ जोड़ते हुए, विश्व-विराट् की अनुभूति की क्षमता से सम्पन्न है, यदि वह इस उद्देश्य को पूरा कर लेता है तो इसी नर शरीर से नारायण जैसी पूर्णता में परिणित हो सकता है।