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Books - कर्मकांड में छिपा व्यक्तित्व निर्माण का शिक्षण

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


कर्मकाण्ड में छिपा व्यक्तित्व निर्माण का शिक्षण

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

मित्रो! अभी आपको पंचकोश की बात बता रहे थे। उसके प्रारंभिक चरण षट्कर्मों के अंतर्गत पवित्रीकरण और आचमन की बात हो गई। अगर आप इन्हें भावनात्मक दृष्टि से करेंगे तो आपको लाभ मिलेगा, अन्यथा नहीं। आचमन के बाद आता है-शिखावंदन। शिखा क्या है? शिखा के पीछे तीन चीजें छिपी पड़ी हैं। हिंदू समाज में शिखा की शिक्षाएँ तीन बताई जाती हैं। इसके पीछे तीन कारण हैं, तीन उद्देश्य हैं। शिखा का एक उद्देश्य है-जिस तरह हाथी के कंधे के ऊपर कान के पास अंकुश लगा दिया जाता है। अगर यह अंकुश न हो तो वह कितना खूँखार हो सकता है और कितना भयंकर काम कर सकता है। वह पेड़ों को उखाड़ सकता है, बच्चों को कुचल सकता है। वह कहीं भी जा सकता है और किसी की भी फसल उजाड़ सकता है। बिना अंकुश का हाथी पेड़ को भी तोड़ सकता है और किसी भी दिशा में जा सकता है। हाथी के सिर पर अंकुश होता है तो उसे सही राह पर चलना पड़ता है। हम अपने सिर पर भगवान का, आदर्शवादिता का, आध्यात्मिकता का अंकुश स्थापित कर दें, ताकि जो हमारे सिर का सबसे ऊँचा वाला भाग है, वह हमको हमेशा याद दिलाता रहेगा कि हमको बिना अंकुश के, निरंकुश नहीं होना है। हमको उच्छृंखल नहीं होना है; मर्यादारहित नहीं होना है; अनुशासनरहित नहीं होना है; इसलिए हमारे सिर पर अंकुश लगा हुआ है। यह हुआ शिखा का उद्देश्य नंबर एक।

एक झंडे के समान

मित्रो! शिखा का उद्देश्य नंबर दो यह है कि यह हमारा किला है। यह हमारा दिल्ली का लाल किला है। दिल्ली के लाल किले के ऊपर हमने झंडा फहरा दिया है। जिस दिन हिंदुस्तान को स्वराज मिला था, उस दिन लाल किले के ऊपर, पार्लियामेण्ट भवन के ऊपर, राष्ट्रपति भवन के ऊपर और दूसरी महत्त्वपूर्ण जगहों पर तिरंगा फहरा दिया गया था और यूनियन जैक उतार लिया गया था। उसी दिन अँगरेजी सरकार की हुकूमत चली गई थी और कांग्रेस सरकार की हुकूमत कायम हो गई थी। तिरंगा झंडा-राष्ट्रीय ध्वज सब जगह फहरा दिया गया। बेटे! हमने सबसे ऊँचे स्थान पर राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया है। विवेकशीलता का झंडा, आदर्शवादिता का झंडा, सिद्धान्तवादिता का झंडा, राष्ट्रीयता का झंडा हम अपने सिर के सर्वोच्च शिखर पर फहराते हैं। निरंकुशता का नहीं, पशुता का नहीं, यूनियन जैक का नहीं, वरन आदर्शवादिता का झंडा हमारे किले के ऊपर फहरा रहा है। अब हमारे दिमाग के ऊपर किसकी हुकूमत है? अब हमारे जीवन के ऊपर किसकी हुकूमत है? अब हमारे ऊपर गायत्री माता की हुकूमत है; विवेकशीलता की हुकूमत है; आदर्शवादिता की हुकूमत है। विवेकशीलता की देवी गायत्री माता-धियो यो न: प्रचोदयात् की देवी, सहकारिता की देवी, ''न:'' माने हम सब, ''धियो'' माने बुद्धि, प्रज्ञा की देवी गायत्री माता का झंडा अब हमारे ऊपर फहराता है। अब हमारे शरीर के ऊपर, दिमाग के ऊपर उसी की हुकूमत है। उसी की हुकूमत के मुताबिक़ हमारी अक्ल काम करती है। अब उसी की हुकूमत के मुताबिक़ हमारी इच्छाएँ काम करेंगी, हमारी क्रियाएँ काम करेंगी। सारी मिनिस्टरी उसी की हुकूमत मानेगी। हमारे शरीर की जितनी भी मिनिस्टरियाँ हैं, उन सबको उसी का हुक्म मानना पड़ेगा। इस झंडे के लिए वफादार होना पड़ेगा। यह विवेकशीलता का झंडा है, गायत्री माता का झंडा है, जो हमारे मस्तिष्क पर फहरा दिया गया है।

गायत्री की मूर्ति, उनका स्थान

मित्रो! शिखावंदन क्या है? इसके पीछे एक और बात छिपी हुई है। क्या छिपी हुई है? इसके पीछे भगवान की मूर्ति छिपी हुई है। शंकर जी की जब मूर्ति स्थापित की जाती है तो उसमें यह विशेषता है कि आपको मंदिर बनाने की आवश्यकता नहीं है। आप एक चबूतरा बनाइए और चबूतरे के ऊपर एक गोल-मटोल पिंड स्थापित कर दीजिए और खुले में पड़े रहने दीजिए। वर्षा होगी? हाँ साहब! शंकर भगवान जी को कोई एतराज नहीं। धूप पड़ेगी? तो भी भगवान जी को कोई एतराज नहीं है। वे धूप में पड़े रह सकते हैं; छाया में पड़े रह सकते हैं; वर्षा में पड़े रह सकते हैं; ठंडक में पड़े रह सकते हैं। आप चबूतरे पर शंकर भगवान को स्थापित कर दें। बस, शंकर भगवान जी की पूजा हो गई और शंकर भगवान जी का मंदिर बन गया। हर जगह ऐसे मंदिर बनाए जा सकते हैं और उसे बनाने में कोई एतराज नहीं। बेटे! यह क्या है? साहब! यह चबूतरा है। किसका चबूतरा है? पिताजी का बना रखा है। कहाँ बना रखा है? खुले में बना रखा है। छाया में क्यों नहीं बनाया? अरे साहब! एक बार हमारे पिताजी सपने में दिखाई पड़े थे और उन्होंने कहा था कि हमारा स्थान बना दे। बस, हम गए थे और एक छोटी सी चबूतरी बनाकर उस पर उनके चरणों के निशान बनाकर आ गए थे। अब हर साल हम वहीं पर जाते हैं और पूजा कर देते हैं और इसी से वो, जो उनका भूत था, चला गया। बेटा! अब हमको शांति मिल गई है। अब हम ठीक हैं।

मंदिर जैसा पवित्र हो अंतस्

साथियो! किसका स्थान बना दिया गया है? गायत्री माता का। यह गायत्री माता का चबूतरा है। अच्छा साहब! इस चबूतरे पर किसकी मूर्ति रख लूँ? बेटे! तुझे क्या बताऊँ, किसी की रख ले; भले से लोहे की रख ले। महाराज जी! मैं तो रात को सोऊँगा, तो यह मेरे ऊपर गिर पड़ेगी। हाँ बेटे! लोहे की होगी तो गिर पड़ेगी। किसकी रखेगा इस पर? महाराज जी! पत्थर की रख लूँ? नहीं बेटे! अगर टोपी पहनेगा, तो दिक्कत आएगी। तो किसकी रखूँ? चल मैं तुझे ऐसी चीज बता देता हूँ जो कि मूर्ति भी बनी रहे, गिरे भी नहीं और तुझे रखवाली भी नहीं करनी पड़े और बनी बनाई रखी भी रहे। तो गुरुजी! किसकी मूर्ति बना दूँ? बेटे! तू बालों की गायत्री की मूर्ति बना दे। बस, यह बालों की शिखा रूप में जो गायत्री माता की मूर्ति है, उस स्थान पर स्थापित हो गई। अब यह भगवान का स्थान हो गया और यह सारा का सारा शरीर मंदिर हो गया और इसमें गायत्री माता की मूर्ति स्थापित हो गई। इसको मंदिर के तरीके से पवित्र और दिव्य रहना चाहिए। इसके अंदर जो वातावरण बनना चाहिए मंदिर जैसा बनना चाहिए। मंदिर में अनाचार नहीं किए जाते।

सतत यही भाव

मंदिर में कोई शेर-चीता आता है? मंदिर में कोई सिगरेट पीता है? मंदिर में कोई सिगरेट मत पीना। साहब! हमको सिगरेट पीने की आदत है। आदत है, तो बेटे! मंदिर के बाहर पीना। ऐसा भी क्या गंदा लड़का है, जो मंदिर में भगवान जी के ऊपर धुआँ फेंक देता है। वहाँ मत पीना ठाकुर जी के सामने, नहीं तो ठाकुर जी नाराज हो जाएँगे। अच्छा गुरुजी! वहाँ नहीं पीऊँगा। यह क्या है? यह बेटे! मंदिर है। मंदिर में धुआँ मत फूँकना, गंदे काम मत करना, बुराई मत पैदा करना। हर समय यह मानकर चलना कि यह मंदिर है। मंदिर की भावना लेकर के चलेगा तो यह भावना तेरे मन में चौबीसों घंटे छाई हुई रह सकती है और जब भी तू बुरे काम करने के लिए चलेगा, तभी यह मंदिर तुझे याद दिलाता रह सकता है कि अरे अभागे! यह मंदिर है। इसे क्यों खराब करता है!

शिखापूजन इसीलिए

मित्रो! यह अंकुश आपको याद दिला सकता है कि अच्छा, तू गलत रास्ते पर जाएगा, तो पिटेगा। हाथी ने गलत काम किया तो महावत ने उसे एक अंकुश चुभो दिया और हाथी सही रास्ते पर चलने लगा। आपके सिर पर यह गायत्री माता का अंकुश लगा हुआ है और यह झंडा फहरा रहा है। झंडे की लाज, झंडे की शान न जाने पाए चाहे जान भले ही जाए। इसलिए मित्रो! इसकी शान मत जाने देना। इस किले पर झंडा फहरा रहा है। यह शान और यह आदर्शवादिता आपके भीतर बनी रहे और आप इसका ध्यान बनाए रखें। इसको आप बार-बार भूल जाते हैं। इसलिए आपको शिखावंदन, शिखापूजन हम पहले कराते हैं। इन भावनाओं की कीमत समझिए इन भावनाओं की वकत को समझिए इन भावनाओं की इज्जत को समझिए। अगर आप इन भावनाओं की इज्जत को नहीं समझेंगे तो मैं कहूँगा कि आप अध्यात्म को ही नहीं समझते।

कर्मकाण्ड मात्र सिंबल

अगर आप कर्मकाण्डों को ही अध्यात्म मानते हैं तो गलती करते हैं। कर्मकाण्ड अध्यात्म नहीं हो सकते। कर्मकाण्ड आध्यात्मिकता की राह पर चलने के लिए हमारे लिए सिंबल हो सकते हैं। हमारे सहायक हो सकते हैं, मददगार हो सकते हैं। हमारे आधार हो सकते हैं। ये कर्मकाण्ड हमारे लिए मीडियम हो सकते हैं। लेकिन ये लक्ष्य नहीं हैं, साधन हैं। कर्मकाण्ड साध्य नहीं हैं, साधन हैं। साध्य है हमारी जीवात्मा का दिव्यत्व और देवत्व। जीवात्मा को दिव्यत्व और देवत्व प्राप्त करने के लिए हमारे कर्मकाण्ड मददगार हों तो अच्छा है, उन्हें होना चाहिए। इन सारी की सारी चीजों को हमने इसीलिए बनाकर रखा है।

अच्छाई को खींचिए प्राणायाम द्वारा

मित्रो! इसके बाद चौथे नंबर की क्रिया, जो आपको हम बताते और सिखाते रहते हैं षट्कर्म के अंतर्गत, वह है प्राणायाम। प्राणायाम में क्या बात होती है? प्राणायाम में दो प्रक्रियाएँ होती हैं-एक हम साँस को अंदर खींचते हैं और दूसरी बाहर फेंकते रहते हैं। एक ओर माँस निकालते रहते हैं। यह क्या कर रहे हैं साहब? बेटे! हम रेचक प्राणायाम कर रहे हैं और यह दूसरा? पूरक प्राणायाम कर रहे हैं। यह क्या है? साँस खींचने की प्रक्रिया और बाहर निकालने की प्रक्रिया है। साँस खींचने की प्रक्रिया और फेंकने की प्रक्रिया का हमको बराबर ध्यान रखना चाहिए। एक दिन मैं आपको वृक्षों का हवाला दे रहा था, आप लोग भूले नहीं होंगे। वृक्ष अपने मैग्नेट के द्वारा पानी को खींचते रहते हैं, बादलों को खींचते रहते हैं। मैं आपको खदानों का भी उदाहरण दे रहा था। खदानें भी अपनी बिरादरी के छोटे-छोटे कणों को अपनी ओर चारों ओर से खींचती रहती हैं और वे खदानें बड़ी होती रहती हैं। आपको भी चारों ओर से खींचना चाहिए। चारों ओर से संकलन करना चाहिए। इस दुनिया में भलाई भी है कि नहीं? हाँ साहब! है। अच्छे विचार भी हैं? हाँ साहब! हैं। अच्छे लोग भी हैं? हों साहब! हैं। दुनिया अच्छे विचारों से, अच्छे लोगों से और अच्छी क्रियाओं से खाली नहीं है। प्राणायाम का अर्थ यह है कि आप खींचिए। जो भी श्रेष्ठता है, उसको समझिए, देखिए, ग्रहण, कीजिए, अंगीकार कीजिए और अपने भीतर भरने की कोशिश कीजिए।

क्षुद्रताएँ छोड़िए

मित्रो! यह प्राणायाम का वह पहलू है, जिसको हम रेचक कहते हैं। रेचक का अर्थ है कि जो चीजें हमको हैरान करती हैं, जो चीजें हमको आंतरिक कमजोरियों के रूप में परेशान करती हैं, उनको आप हटाइए और उनको आप फेंकिए। भगवान ने अर्जुन को यही उपदेश दिया था-क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप। अर्थात हे अर्जुन! अपने हृदय की दुर्बलताओं को, चारित्रिक कमजोरियों को, भावनात्मक निकृष्टताओं को छोड़ और ऊपर उठ। इससे पहले नहीं उठ सकता।

भगवान के दर्शन की आस

मित्रो! मुझे प्राणायाम के सिलसिले में एक कहानी याद आ गई। एक था चोर। वह एक बाबाजी के पास जाया करता था और बाबाजी से यह पूछा करता था कि स्वामी जी! आपने भगवान को देखा है? हाँ साहब! हमने देखा है। अच्छा तो आप फिर हमको दिखाइए। बस, पहले तो बाबाजी शेखी मारते रहे, लेकिन जब उसने कहा कि हमको दिखाइए तो फिर बाबाजी की हवा बिगड़ी। उन्होंने कहा कि हम नहीं दिखा सकते। तो फिर समझ लीजिए कि आपके कमंडल की खैर नहीं है; आपकी कुटिया की खैर नहीं है; आपके कंबल की खैर नहीं है, आपकी चप्पलों की खैर नहीं है; आपकी खड़ाऊँ की खैर नहीं है। मैं आपकी सब चीजें गायब कर दूँगा और आपको तंग करूँगा और जब भी मौका मिल जाएगा, आपकी पिटाई करूँगा। आप समझ लीजिए। या तो भगवान का हमें दर्शन करा दीजिए नहीं तो फिर आपका ठिकाना नहीं है।

यों कराएँ दर्शन

महाराज जी ने सोचा कि क्या करना चाहिए-यह तो बहुत बड़ी आफत आ गई! बाबाजी समझदार थे। उन्होंने कहा कि बेटे! यह जो दूर पर पहाड़ दिखाई देता है न? हाँ महाराज जी! बेटे! उस पहाड़ की चोटी पर भगवान दिखाई पड़ेगा। चलिए मैं तो तैयार हूँ। चोर तैयार हो गया। क्या करना चाहिए? बाबाजी ने कहा कि अच्छा तो बेटा! तू ऐसा कर कि चार भारी भारी पत्थर ले और उन्हें सिर पर रखकर चल। कहाँ चलूँ महाराज जी? उस पहाड़ की चोटी पर चल, वहाँ से मैं तुझे भगवान जी को दिखा दूँगा। ये जो चार पत्थर हैं, तुझे उनकी सेव पूजा करनी पड़ेगी और वहाँ भजन पूजन करना पड़ेगा। तब ये जो चार पत्थर हैं, वे तुझे भगवान दिखा देंगे। अच्छा महाराज जी! चलिए। चार पत्थर सिर पर रखकर के चोर थोड़ी दूर गया फिर उसने कहा कि महाराज जी! ये तो बड़ा कष्ट देते हैं। इनसे तो हमारी गरदन टूट गई। तब महाराज जी ने कहा कि बेटे! इनमें से एक पत्थर फेंक दे। उसने एक पत्थर फेंक दिया।

तरीका भगवान को पाने का

फिर और आगे चला चोर। उसने कहा कि महाराज जी! एक पत्थर फेंक दिया, फिर भी देखिए हमारी गरदन में दरद होने लगा। ये तीनों पत्थर भी कितने भारी हैं? आपको दिखाई नहीं पड़ते? ठीक है बेटे! एक पत्थर और फेंक दे। उसने एक और फेंक दिया। दो और रह गए। उसने कहा कि महाराज जी! एक को और फिंकवा दें, अच्छा तो एक और फेंक दे। एक और फिंकवा दिया। महाराज जी! अब तो थक गया। अब और नहीं चला जाता और हम तो वहाँ तक नहीं पहुँच सकते, चोटी तक नहीं पहुँच सकते। बेटे! तूने अभी भी सिर पर पत्थर रख रखा है। हाँ महाराज जी! आपने यह जाल-जंजाल काहे को लदवा दिए हैं? ये हमको चलने नहीं देते। बेटे! इसको भी गिरा दे। चौथा पत्थर भी गिरा दिया। चारों पत्थर गिराने के बाद में बाबाजी और वह चोर खटखट वहाँ पहुँच गए। चोर ने कहा कि साहब! अब दिखाइए भगवान? बेटे! तेरे लिए भगवान तक पहुँचने का तरीका बता तो दिया। तेरे लिए शिक्षा दे तो दी। तेरे सिर पर जब तक पत्थर रखे हुए थे, तब तक तू चोटी तक नहीं पहुँच सका और थक गया, गिर गया और बैठ गया। आपने अपने आध्यात्मिक जीवन पर जो पत्थर रखे हुए हैं, उनको गिरा दीजिए। उनको गिरा देंगे, तो ही भगवान तक पहुँच सकते हैं। भगवान को पा सकते हैं।

चार पत्थर हमारे सिर पर

मित्रो! कौन-कौन से ये चार पत्थर हैं, जो आपके सिर पर सवार हैं? ये चारों हैं-काम, क्रोध, लोभ और मोह। इन्हें गिरा दें, फिर भगवान को देखें। बेटे! प्राणायाम के द्वारा हम अपनी मलीनताएँ, अपने कषाय और कल्मष, अपने पाप और ताप को फेंकने के लिए कोशिश करते हैं और जो श्रेष्ठताएँ हैं, उनको अपने भीतर धारण करने की कोशिश करते हैं। प्राणायाम का यही उद्देश्य है। यह आध्यात्मिक उद्देश्य है। क्रिया तो आपको मालूम है। भीतर साँस खींचिए दूसरी ओर से साँस बाहर निकालिए, फिर बाहर रोकिए। यही बताते हैं न? हाँ महाराज जी! यह तो बड़ी सरल विधि है। हमको एक सेकेंड में आ गई थी। बेटे! यह एक सेकेंड में सरल तो है, लेकिन सहज राम को नाम है, कठिन राम को काम। करत राम को काम जब, परत राम से काम। राम का काम तो नहीं महाराज जी! पर राम का नाम लूँगा। राम का काम करने से कोई फायदा नहीं, फर्क नहीं, राम का नाम लेने में फर्क है। बेटे! राम का काम करने में बड़ा फायदा है। प्राणायाम करने के पीछे जो निष्ठाएँ दबी पड़ी हैं, छिपी पड़ी हैं, उनको आपको जानना चाहिए और समझने की कोशिश करनी चाहिए।

न्यास किसलिए?

मित्रो! प्राणायाम के पश्चात फिर आप ''न्यास'' पर आते हैं। ''न्यास'' किसे कहते हैं? बेटे! न्यास को यह समझ ले कि जैसे छुरे पर धार रखी जाती है और उसे तेज किया जाता है, उसी तरह यह धार रखी जाती है। इसे न्यास कहते हैं। न्यास में पानी हथेली पर रखा और उसमें पाँचों उँगलियाँ डुबोईं और मुँह पर लगा दिया, नाक पर लगा दिया और कान पर लगा दिया। ये जो हमारी इंद्रियाँ हैं, इनको वास्तव में हम शिक्षण देते हैं। इनको सिखाते हैं, इनको परिष्कृत करते हैं, इनको डुबकी लगवाते हैं कि आपको क्या करना है? वाड्मे आस्येऽस्तु-मुँह को लगाइए। अच्छा साहब! मुँह को लगा लिया। जल को मुँह से लगाने का क्या मतलब है? सीधे जाकर कुल्ला कीजिए न! ऐसा कर कि बाल्टी भरकर पानी ला और सारे शरीर को धो डाल। नहीं साहब! मुँह धोना है। तो कुल्ला कर, यह क्या करता है? हथेली पर जरा सा पानी और उसमें पाँचों उँगलियाँ? इससे क्या हो जाएगा? इससे तो होठ भी नहीं साफ होंगे। इससे तो अच्छा है कि होठ पर क्रीम लगा ले, वैसलीन लगा ले। नहीं महाराज जी! यह तो पानी है। इससे क्या हो जाएगा। बेटे! इसके भीतर गुप्त चीजें हैं। मुँह से हम दो बार पानी लगवाते हैं। मुँह के भीतर शक्तियों के स्रोत भरे पड़े हैं। जीभ तो एक है; लेकिन यह साँपिन है। साँप के तरीके से इस जिह्वा को दो इंद्रिय माना गया है। जिह्वा-एक कर्मेंद्रिय है और एक ज्ञानेन्द्रिय है। इसे हम दो इंद्रियों में गिनते हैं

रसना और वाणी पर नियंत्रण

हमारी जिह्वा एक रसना है और एक वाणी है। रसना को नियंत्रित कीजिए और अस्वाद व्रत रखिए। वे चीजें जो जायके के लिए खाई जाती हैं और पेट खराब करती हैं, उनको रोकिए। जीभ पर काबू रखिए। जो व्यक्ति अस्वाद व्रत का पालन कर सकता है और जीभ पर संयम रख सकता है, वही कामेन्द्रिय पर संयम रख सकता है और उसके लिए ब्रह्मचर्य रखना संभव हो सकता है। जिसका जीभ पर नियंत्रण नहीं है, वह आदमी कभी ब्रह्मचारी नहीं हो सकता और उसका विचारों पर नियंत्रण भी नहीं हो सकता। गाँधी जी ने अस्वाद व्रत को प्रमुख माना है। सबसे पहले जीभ को रोकिए जीभ पर कंट्रोल कीजिए। जीभ के द्वारा अपने मरने के लिए कब्र मत खोदिए। हकीम लुकमान कहते थे कि आदमी दफन होने के लिए अपनी जीभ से अपनी कब्र खोदता है। बेटे! हमने जायके की वजह से और अनावश्यक चीजों की वजह से और न खाने वाली चीजों को खाने की वजह से अपने पेट का सत्यानाश कर लिया। अपनी सेहत को खराब कर लिया। अगर आपको सेहत ठीक रखनी है, मानसिक स्तर ठीक रखना है, तो आप संयम कीजिए। वाड्मे आस्येऽस्तु-मुख के ऊपर काबू पाए।

अहं पर नियंत्रण करें, कड़ुए वचन न बोलें

मित्रो ! मुख के अंदर एक और चीज रहती है, जिसका नाम है-वाणी। जिसको वाक् कहते हैं, सरस्वती कहते हैं। सरस्वती इसके भीतर रहती है। ''कौआ काको धन हरे, कोयल काको देत, मीठे वचन सुनायके जग अपनो कर लेत'' ''वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।'' आपकी वाणी हर वक्त बिच्छू के डंक के तरीके से अपने अहंकार का विज्ञापन करती रहती है और दूसरों का असम्मान करती रहती है। साहब! आप कड़ुए वचन बोलते हैं तो हमको बड़ा गुस्सा आता है। हाँ बड़ा गुस्सा आता है, घमंडी कहीं का! जो आदमी दूसरों को छोटा समझता है, वही कड़ुए वचन बोल सकता है। जो आदमी घमंड से भरा हुआ है, वही कड़ुए वचन बोल सकता है। मित्रो! हम तो सही बात कहते हैं, इसलिए गुस्सा आ जाता है और कड़ुए वचन कहते हैं। बेटे! सत्य का कड़ुएपन से कोई ताल्लुक नहीं। कड़ुएपन का जो ताल्लुक है, वह आदमी के अहंकार से है। आदमी घमंड से चूर होकर के रावण के तरीके से चाहे जो बोलने लगता है, चाहे जो करने लगता है और सामने वाले व्यक्ति का सम्मान जब गिरा देता है, पटक देता है, तब कड़ुए वचन बोलने लगता है। आप सामने वाले की इज्जत कीजिए। अगर सामने वाले से शिकायत है तो उसे प्यार से समझाइए। जिनकी शिकायत आप दूर करना चाहते हैं, उनको समझाने की कोशिश कीजिए। अपने दिमाग का संतुलन रखकर के मुहब्बत के साथ उन्हें बुरी से बुरी बात समझाई जा सकती है।

वाड्मे आस्येऽस्तु इसीलिए

मित्रो! बारह घंटे का बुखार और आधे घंटे का क्रोध, दोनों से समान नुकसान होता है। आप सभी करके देख लेना। जलाने वाला वह वचन, जिसको हम क्रोध कहते हैं, जिसको हम मिथ्या भाषण कह सकते हैं, गलत सलाह कह सकते हैं। इस तरह गलत सलाह-एक, कड़ुए वचन-दो; असत्य भाषण-तीन :: बुरी चीजें खाना-अभक्ष्य खाना-चार; ये वाणी के असंयम हैं। अगर आप जीभ पर संयम रख सकें तो मित्रो! आपको आध्यात्मिकता के वे लाभ मिल सकते हैं, जिनसे आपको शाप देने और वरदान देने की शक्ति मिल सकती है। अगर आप वाड्मे आस्येऽस्तु-मुख का संयम करना सीखें, मुख के ऊपर धार लगाना सीखें। अभी यह जीभ भोंथरी हो गई है। इस पर आप धार लगाइए ताकि यह पैनी तलवार के तरीके से काम कर सके। नहीं साहब! हम तो मुख में पानी लगाएँगे। बेटे! पानी लगाने से कोई फायदा नहीं है। लगा ले तो तेरी मरजी, नहीं लगाए तो तेरी मरजी।

स्वाभिमानी बनें

मित्रो! वाड्मे आस्येऽस्तु के बाद आता है-नसोर्मे प्राणोऽस्तु। नाक से क्या होता है? गंध लेना, सूँघना, पता लगाना। कुत्ते सूँघकर पता लगाते हैं, चोरी का माल कहाँ गया? सी.आई.डी. के कुत्ते आते हैं और सूँघकर पता लगा लेते हैं। कहाँ गया माल? उनकी नाक कुछ ऐसी तेज बनाई गई है, जैसे गणेश जी की थी। गणेश जी की नाक बड़ी लंबी थी, सब कुछ पता लगा लेती थी। क्या चक्कर है? वह शंकर सब पता लगा लेते थे। खोज करने के अर्थ में सूँघना आता है। यह गंध के अर्थ में नहीं आता। नसोर्मे प्राणोऽस्तु अर्थात नाक में पानी लगाते हैं। अरे! तेरी नाक कट जाएगी। अरे साहब! हमारी नाक बहुत बड़ी है। नाक को प्रेस्टीज प्वाइंट, इज्जत, आबरू और स्वाभिमान से जोड़कर रखा गया है। नाक कटने से सब समझ में आता है। अपनी नाक को कटने मत देना, गिरने मत देना। नाक को ऊँचा रखना। बेटे! नसोर्मे प्राणोऽस्तु के अंतर्गत यह भी आता है।

दिव्यता का दर्शन करें

इसके बाद आता है-अक्ष्णोर्मे चक्षरस्तु। हमारी आँखें दिव्य बनें। दिव्यं ददामि ते चक्षु:-अर्जुन को भगवान ने दिव्यचक्षु दिए थे। अर्जुन ने तब इसी संसार में घट-घटवासी भगवान को देखा था। दिव्यचक्षु भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माता यशोदा को दिए थे। उससे उन्होंने घट-घट में समाए हुए भगवान को देखा। रामचंद्र जी ने अपनी माँ को दिए थे। कौशल्या माता ने भी भगवान के विराट रूप को देखा। भगवान राम ने काकभुशुण्डि जी को दिव्यचक्षु दिए थे, जिससे उन्होंने सारे के सारे विश्व में भगवान को देखा। हमारी वे आँखें जिंदा रहें और प्रत्येक चीज में सौंदर्य को देख सके श्रेष्ठ देख सके शालीनता को तलाश सकें और जो कुछ भी इस संसार में दिव्य है, उस दिव्यता को देख सकने में सक्षम हों। हम दिव्यता को तो देख नहीं पाते, केवल छिद्रान्वेषण कर पाते हैं। हमारी आँखें ऐसी गंदी हैं कि सिवाय बुराई के कुछ नहीं देख पातीं। स्त्री के भीतर की देवी हमको दिखाई नहीं देती। स्त्री के भीतर का शैतान हमको दिखाई पड़ता है। पाप हमको दिखाई पड़ता है। स्त्री का अनाचार हमको दिखाई पड़ता है। स्त्री का देवत्व हमको दिखाई नहीं पड़ता। उसकी शालीनता हमको दिखाई नहीं पड़ती। उसका प्रेम हमको दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए बेटे! हमको चाहिए दिव्यं ददामि ते चक्षु:-जो दिव्यता को देख सके। जो दूरदर्शी हो। जो टेलिस्कोप के तरीके से हो। शंकर जी ने जिस दिव्य आँख को खोलकर कामदेव को जला दिया था, वह विचारशीलता की हमारी आँख, विवेकशीलता की हमारी आँख खुलनी चाहिए जो अवांछनीयता को जला करके खाक कर सके और समाप्त कर सके।

कान व बाँहों को जल का स्पर्श क्यों?

अगली क्रिया है-कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। कान हमारे ऐसे होने चाहिए जो रेडियोएक्टिविटी के तरीके से फिल्टर का काम कर सकें। आपका जो रेडियो या ट्रांजिस्टर होता है, उसमें एक फिल्टर लगा होता है। एक साथ उसमें बहुत सारी आवाजें आती हैं और एक साथ चलती हैं। सब हवा में पहुँचती हैं, लेकिन जिस फ्रीक्वेंसी की आवाज हमको पकड़नी है, उसे पकड़ लेता है। उनमें वे भी ध्वनियाँ होती हैं, जो मित्र और दोस्त हो सकती हैं, जिनको फ्रेंड कहते हैं। इनमें से केवल आप वही आवाज सुनिए जो आपको भगवान के और अपनी आत्मा के सम्मत सुनाई देती है। कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु के बाद बाह्वोर्मे बलमस्तु-बेटे! हम अपनी भुजाओं को किसलिए स्पर्श करते हैं? हम इसलिए स्पर्श करते हैं कि हमारी भुजाएँ हमेशा परिश्रमी बनी रहें। श्रमशील बनी रहें; कर्तव्यपरायण बनी रहें। हमारे हाथ पसारने के लिए नहीं हैं। किसी के भी आगे हाथ न पसारना, भगवान के सामने भी मत पसारना, देवताओं के आगे भी मत पसारना। देवी के सामने भी मत पसारना और गुरुजी के सामने भी मत पसारना। ये हाथ इसके लिए नहीं हैं। ये बड़े सौभाग्यशाली हाथ हैं। बेटे! ये पसारने के लिए नहीं हैं, ये माँगने के लिए नहीं हैं, ये देने के लिए हैं, इसलिए देवत्व हमारे हाथ में भरा हुआ पड़ा है। हम लोगों की मदद करें, लोगों की सहायता करें, लोगों की सेवा करें और इन हाथों को धन्य बनाएँ। हम माँगें नहीं, कर्ज नहीं उठाएँ लोगों का ऋण नहीं लें और अपने ऊपर वजन नहीं लादे। इसकी जरूरत नहीं है कि हम अपने आप को गँवाएँ। इसलिए बेटे! यह हाथ श्रम करने के लिए हैं, पुरुषार्थ करने के लिए हैं और देने के लिए हैं, इसलिए हम दोनों हाथों को बाह्वोर्मे बलमस्तु करते हैं।

चरैवेति से अनिष्ट-निवारण तक

अब आता है-ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु। मित्रो! हमारी ये जँघाएँ संयमशीलता की ओर, ब्रह्मचर्य-परायणता की ओर इशारा करती हैं। ऊरु माने जँघा। यह इशारा करती हैं कि हमारी टाँगों को चलने के लिए ''चरैवेति-चरैवेति'' के लिए बनाया गया है। लोगो! चलते चले जाओ, रुको मत। प्रगति की ओर, उत्थान की ओर, शांति की ओर, महानता की ओर, गरिमा की ओर, भगवान की ओर चलते चले जाओ। रुको मत। हम पैरों को ऐसा बना दें कि वे रुके नहीं, उठें और चलते रहें। मित्रो! अंतिम है-अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु। हमारे भीतर जो अरिष्ट भरे हुए हैं। जो संसार में दुःख और कष्ट देने वाले अनिष्ट हैं, वे दूर हों। अनिष्ट का अर्थ है-मन:स्थिति और कष्ट का अर्थ है-परिस्थिति। ये अनिष्ट हमारे भौतिक जीवन में कष्ट बनकर के आते हैं-यह एक सत्य है कि जितनी भी मुसीबतें हैं, उनको न्यौत बुलाने की जिम्मेदारी हमारी खुद की है। हमने अपनी मुसीबतों को जान-बूझकर मोल लिया हुआ है और हमने स्वयं विष के बीज बोए हैं, जब काँटे हमारे सामने आते हैं तो हम कहते हैं कि साहब काँटे हमें कष्ट देते हैं। बेटे! बोए किसने हैं? स्वयं खुद ने बोए हैं तो निराकरण भी स्वयं ही करना होगा। मन स्थिति बदलने से परिस्थितियों बदल जाएँगी। इसलिए अपने आप को भीतर-बाहर से स्वच्छ, पवित्र और संयमी बनाते हुए हम देवपूजन के लिए देवता बनने के लिए आगे बढ़ते हैं। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥

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