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Books - परिवार निर्माण

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


सुख का आधार सम्पन्नता नहीं आत्मीयता

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First 14 16 Last
            परिवारों में स्वर्ग की कल्पना एवं अनुभूति जिस आधार पर की जा सकी- की जा सकती है, वह उसके सदस्यों के बीच कोमल संवेदनात्मक आदान- प्रदान ही है। यों हर परिवार के सदस्यों में बातचीत, हास- परिहास से लेकर वस्तुओं के आदान- प्रदान का कुछ न कुछ क्रम चलता ही रहता है, किन्तु यह सब यदि संवेदनाहीन स्थिति में है, मात्र शिष्टाचार, लोकलाज अथवा अपने बड़प्पन के प्रदर्शन के लिये किए जाते हैं, तो उससे परिवार में स्वर्ग सृजन की कल्पना नहीं की जा सकती। धनी परिवारों में सामान्य प्रसंगों पर भी परिजन एक दूसरे को मूल्यवान् उपहार दिया करते हैं। पिकनिक, मनोरंजन जैसे कार्यक्रमों में लम्बे समय तक साथ- साथ रहते, हँसते- बोलते हैं, किन्तु गरीब परिवारों में न तो लोगों के पास भेंट आदि देने के लिए अतिरिक्त धन होता है और न मनोरंजन आदि के लिए उतना समय ही वे लगा सकते हैं, किन्तु इतने मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि अमीर घरों में स्वर्ग रहेगा- गरीब घरों में नहीं। बल्कि इसके विपरीत अमीरी की तड़क- भड़क के पीछे नारकीय यंत्रणाओं की झलक और गरीबी के पीछे से उठती स्वर्गीय सुगन्धि का अनुभव किया जा सकता है। स्थूल समय- साधन कितने जुट पाते हैं, यह बात गौण रह जाती है व आत्मिक चेतना का अपनत्व भरा प्रवाह कितना उठता है, यह बात प्रमुख हो जाती है। परिवार के सभी सदस्यों में इसी का विकास और संचार अभीष्ट है।
वा. ४८/२.४६

        विलासिता मनुष्य को स्वप्नदर्शी बनाती है। वह वर्तमान की तरह भविष्य को भी सदा सुख- सुविधाओं से भरा- पूरा रखने की आशा करता रहता है। जबकि सही बात यह है कि प्रतिकूलता की हवा बहने पर वह ताश का बना काल्पनिक महल देखते- देखते धराशायी हो जाता है। तब तक समय निकल चुका होता है और नये सिरे से सद्गुणों की सम्पदा अर्जित करना कठिन हो जाता है। वा. ४८/२.२३

        गरीबी में भी कई परिवार स्वर्ग का आनन्द उठाते हैं और कई के यहाँ प्रचुर लक्ष्मी होते हुए भी नरक का वातावरण बना रहता है। कितने ही लोग गरीब घर में जन्म लेकर प्रगति के पथ पर अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचे हैं। इसके विपरीत कितने ही व्यक्ति अमीरी में बढ़े और सब कुछ प्राप्त होने पर भी पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार की प्रचुर संपदा को गँवा बैठे हैं। उन्नति के सब साधन मिलने पर भी आगे बढ़ना तो दूर उल्टे अवनति के गर्त में गिरे हैं। इसलिए यह सोचना भूल है कि आर्थिक प्रबंध ठीक होने पर सारा प्रबंध सुखद एवं संतुष्टिदायी रह सकता है। तथ्य यह है कि शांति, प्रगति और समृद्धि मनुष्यों के स्वभाव पर निर्भर रहती है। दृष्टिकोण के गलत या सही होने के कारण ही द्वेष बढ़ता है या प्रेम पनपता है। अच्छी आदतें जहाँ होती हैं वहाँ पराये अपने बन जाते हैं। परायों को अपना बना लेने के सद्गुण जिनके पास हैं सचमुच इस संसार में वे ही अमीर हैं, वे जहाँ- कहीं भी रहेंगे वहाँ उनके मित्र और सहयोगी पर्याप्त मात्रा में पैदा होने और बढ़ने लगेंगे। गुलाब की खुशबू अपने चारों ओर भौंरे और मधुमक्खी जमा कर लेती है। अच्छी आदतें मनुष्य रूपी फूल में खुशबू का काम करती हैं, उनके कारण दूसरे असंख्य लोग मधुमक्खी और भौंरे के रूप में सहायक एवं प्रशंसक बनकर मँडराने लगते हैं। इसके विपरीत बुरी आदतें वह दुर्गन्ध है जिनसे हर किसी की नाक फटती है और हर कोई वहाँ से दूर भागता है।
वा. ४८/१.१२

       बाड़े में बन्द भेड़ों की तरह एक घर में रहने वाले मनुष्यों के समूह को परिवार कह भले ही लिया, जाये पर उनसे प्रयोजन की पूर्ति नहीं होती, जो परिवार संस्था के साथ जुड़ा हुआ है। एक- दूसरे को स्नेह, सहकार प्रदान करते हुए, उदारता एवं कृतज्ञता का रसास्वादन कराते हुए संयुक्त समाज की संरचना में अपनी- अपनी जिम्मेदारी निबाहें तभी परिवार- एक छोटे किन्तु सुव्यवस्थित राष्ट्र की भूमिका सम्पादित कर सकते हैं और उसका प्रत्येक सदस्य लाभान्वित हो सकता है।

      परिवार की प्रारम्भिक आवश्यकता तो रोटी, कपड़े और मकान की होती है। इसके बाद शिक्षा, चिकित्सा, आतिथ्य, रीति- रिवाजों के निर्वाह और आपत्तिकालीन स्थिति का सामना कर सकने वाली सामर्थ्य भी रखनी होती है। यह कार्य उपार्जन और खर्च का संतुलन बनाये रहने पर सम्भव हो सकता है। यदि जीवनयापन के लिए आवश्यक सामान्य ज्ञान और लोकव्यवहार का अनुभव हो तो मनुष्य पैसे की तंगी में न रहेगा और खर्च की सुविधा से सम्बन्धित घर परिवार की मोटी आवश्यकताएँ बहुत बड़ी अड़चनों का सामना किये बिना पूरी होती रहेंगी। कम आमदनी हो तो खर्च घटाया जा सकता है। एक उपार्जनकर्ता पर निर्भर न रहकर घर के दूसरे लोग भी थोड़ी- थोड़ी आमदनी के छोटे- मोटे गृह उद्योग अपनाकर अर्थ संतुलन में सहायक हो सकते हैं। मनुष्य को जितनी बुद्धि मिली है और कलाइयों में जो क्षमता है वह इसके लिए पर्याप्त है कि किसी सामान्य परिवार का गुजारा किसी प्रकार हँसी- खुशी के साथ होता चला जाय।
वा. ४८/१.५४

     परिवार के सदस्यों की सच्ची सेवा उन्हें सद्गुणी और स्वावलम्बी बनाने में है। बाप- दादों की छोड़ी सम्पदा से ब्याज- भाड़े पर गुजारा करने वाली सन्तान भले ही आराम के साथ दिन काट ले पर उसकी प्रतिभा का स्तर लुंज- पुंज ही रहेगा। जिसने कठोर कर्मक्षेत्र में उतरकर भुजबल और मनोबल को चरितार्थ करने का अवसर नहीं पाया उसे एक प्रकार से अपंग ही कहना चाहिए। पूर्वजों की कमाई पर गुजर करने वाली सन्तान को पराक्रम की कसौटी पर कसते हुए अपंग ही घोषित करना पड़ेगा।
वा. ४८/१.४९

      चिड़िया घोंसले में थोड़ा मजबूत होने वाले बच्चे को उड़ना सिखाने के लिए घोंसले से नीचे धकेलती है। बच्चा डरता है, हिचकता है, तो भी वह लाड़- प्यार की भावुकता भुलाकर उसे धकेल ही देती है। नीचे गिरते हुए बच्चा पंख खोलता है, अभ्यास न होने से वह लड़खड़ता है तो चिड़िया सहारा देती है। लगातार साथ रहकर उसे उड़ने का अभ्यस्त बना देती है। वह जानती है कि जन्म देना या पाल देना ही नहीं बच्चे को स्वावलम्बी बनाना भी आवश्यक है। यह दृष्टिकोण प्रत्येक अभिभावक का रहना चाहिए।
वा. ४८/१.५०

    विलासिता, आरामतलबी और फिजूलखर्ची की आदत घर में किसी को भी नहीं पड़ने देनी चाहिए। चुस्ती और स्फूर्ति स्वभाव का अंग बनती चली जाय। कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत बढ़ती जाय तो समझना चाहिए कि उत्तराधिकारी को ऐसी सम्पदा मिल गई जिसके आधार पर वे प्रगतिशील जीवन जी सकेंगे। हँसने- हँसाने हलके- फुलके रहने, स्नेह- सद्भाव, कठोर परिश्रम करने और व्यस्त रहने की आदत अपने घर के लोगों को देकर जो अभिभावक विदा हुए समझना चाहिए उन्होंने अपने पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह सही रीति से कर दिया।
वा. ४८/१.५१

               परिवार के सदस्यों को सुसंस्कृत बना देना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा है। इस तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लेना चाहिए। अधिक सुविधाओं की रिश्वत देकर परिजनों को प्रसन्न करने या अनुकूल बनाने की नीति उस स्थिति से तो बहुत ही अवांछनीय बन जाती है, जब उसके लिए अनीति अपनानी पड़ रही हो। अधिक घनिष्ट सम्बन्धियों के लिए अधिक सम्पदा छोड़ने और अधिक सुविधा देने की नीति तात्कालिक प्रसन्नता भले ही उत्पन्न कर ले, अन्ततः निश्चित रूप से दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती है। परिजनों के लिए सुसंस्कारिता के अनुदान देकर ही कोई गृहपति सच्चे अर्थों में गौरवान्वित हो सकता है। विलासिता के अनावश्यक साधन देकर प्रियजनों का हित नहीं साधा जाता, वरन् उन्हें भावी विपत्ति में धकेला जाता है। गृहपति की उपेक्षा या परोक्ष सहमति से घर में कुसंस्कारिता और अव्यवस्था बढ़ती गई, परिजन संकीर्णता और उद्दण्डता के अभ्यस्त बनते गये तो समझना चाहिए कि अनजाने ही उनका अहित सँजोया गया, जिनके हित की उथली चिन्ता सिर पर सवार रहती है। ऊँचा दृष्टिकोण, उज्जवल और सज्जनोचित स्वभाव यदि परिजनों को दिया जा सके, तो समझना चाहिए कि गृहपति ने अपने आश्रितों को लाख करोड़ की सम्पदा उत्तराधिकार में प्रदान की है।
वा. ४८/२.५८

मितव्ययी बनिये, सुखी रहिये

परिवार की आर्थिक सुव्यवस्था

वह व्यक्ति धन्य है जिसकी आवश्यकताएँ परिमित हैं और उपभोग के लिए उसे अपना अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ता। उसका अधिक समय अध्ययन, चिंतन, उच्च विषयों के ध्यान तथा दूसरों की सहायता में व्यतीत होता है।

वह गृहस्थ धन्य है जिसके यहाँ फैशन नहीं, झूठा दिखावा, थोथी टीप- टाप या फिजूलखर्ची नहीं। जहाँ प्रत्येक पैसे का उचित उपयोग होता है और पति- पत्नी, बन्धु- बान्धव सभी उसमें सहयोग प्रदान करते हैं। पति कमा कर लाता है, पत्नी घर की दैनिक वस्तुओं का संग्रह, सदुपयोग और वर्गीकरण करती है, सामान को नष्ट होने से बचाती है और पुत्र घर का हिसाब- किताब रखता है। यह हिसाब प्रत्येक मास खातों में लिखा जाता है और फिर यह मालूम किया जाता है कि किस मद में कितना रुपया व्यय हुआ? भविष्य में किसी प्रकार व्यय रोका जा सकता है? मास के अन्त में जो आर्थिक कठिनाई हुई, उससे कैसे मुक्त हो सकते है?

जिसे आर्थिक सामर्थ्य का ज्ञान है, जो अपनी चादर देखकर पाँव फैलाता है, वह अधिक काल तक जीवित रहता है और आन्तरिक शान्ति का उपभोग करता है। नियंत्रण करना सीखिये। कुछ लोग कहा करते हैं कि हमें अपने आप पर नियंत्रण नहीं होता। इसका कारण यह है कि वे कृत्रिमता या विलासिता की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगे हैं, उन्होंने अपनी शौकीनी इतनी अधिक बढ़ा ली हैं कि उस आमदनी में उनका गुजारा नहीं होता। यदि आदमी अपने विवेक को जाग्रत करे और गम्भीरता से सोचे कि मैं किन- किन खर्चों से बच सकता हूँ? कौन- कौन सी विलासिताओं में डूबा हुआ हूँ? तो वह नियंत्रण में सफल हो सकता है। नियंत्रण के प्रारम्भ में कुछ कठिनाई अवश्य होती है, किन्तु ज्यों- ज्यों विवेक- बुद्धि और दुनियादारी जाग्रत होती है, त्यों- त्यों वह शक्ति धन और जीवन, परहित साधन में लगाता है। बाह्य प्रदर्शन, मिथ्या अहंकार का त्यागता है। अपव्यय से मुक्ति पाने का अमोघ उपाय एकमात्र विवेक जनित नियंत्रण है।

         क्षणिक भोग- विलास की पूर्ति के लिए, जिह्वा की तृप्ति के लिए, मिथ्या गौरव के प्रदर्शन के लिए कभी कर्ज न लीजिए। आप भारतीय हैं, भारतीय जनता सादगी- पसन्द तथा निर्धन है। शादी, गमी- न्यौता इत्यादि में अपव्यय हमारी मूर्खता का परिचायक है। चाहे आप जितना भी बढ़- चढ़ कर विवाह कीजिए, समय के प्रवाह के साथ जनता सब कुछ विस्मृत कर देती है। विवाह में जो कर्ज लेते हैं, वह पर्वत के समान हमारे ऊपर बोझ डालता रहता है, विवाहित जोड़ा सब कुछ विस्मृत कर देता है। घर या मकान तक बिक जाता है।

आभूषणों से सावधान! गृहणी का सच्चा आभूषण है उसका स्वास्थ्य, पारिस्परिक प्रेम, सद्भावनाएँ, शिक्षा और योग्यता। वह युग गया जिसमें आभूषणों द्वारा ही बड़प्पन प्रतीत होता है।

     क्या आपके घर में जूठन छोड़ी जाती है? क्या प्रत्येक थाली में दाल- सब्जी छोड़ी जाती है? खाद्य पदार्थ चूहों के लिए खुले पड़े रहते हैं? भोज्य पदार्थ घर पर आने वाले अनेक फकीरनुमा आलसी व्यक्तियों को दिया जाता है? क्या आपके घर बासी रोटी रखने और उसे कुत्ते बिल्लियों को देने की प्रथा है? यदि ऐसा है तो तुरन्त आपको गरीबी और तंगी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। जो व्यक्ति रोटी का एक टुकड़ा भी फेंकता है, वह गरीब जनता के रक्त से अर्जित अनाज- राशि को नष्ट करता है, वह महापापी है।

      धन को गाढ़कर रखना भी एक प्रकार से अपव्यय है। यदि धन है, तो उसका उचित उपयोग कीजिए। यदि आप बैंक में रखते हैं, तो एक तो वह सार्वजनिक काम में आता है, दूसरे आपको उस पर व्याज मिलता है। आपके हाथ से रुपया दूर रहने के कारण आप पर नियंत्रण रहता है। वस्तुओं के उपभोग के सम्बन्ध में साधारणतः सरकार द्वारा नियंत्रण होना चाहिए। दाल, आटा, शक्कर, दियासलाई, मिट्टी का तेल इन सभी को प्रत्येक नागरिक को नाप- तौल कर मिलना चाहिए। इससे मनुष्य को नियंत्रण की आदत सिखाई जा सकती है। मादक वस्तुओं पर तो इतना कड़ा नियंत्रण होना चाहिए कि कोई उसे बिना लाइसेंस के खरीद ही न सके। वा. ४८/५.१४

अधिक व्यय करने की हानियाँ

         हमारे समाज में आय के अनुपात में एक हैसियत है, एक स्थिति है। यदि हम इस हैसियत के अनुसार व्यय नहीं करते हैं, आवेश या टीपटाप, मिथ्या प्रदर्शन या फिजूलखर्ची में अधिक व्यय कर डालते हैं, तो यह निश्चय है कि हमारा जीवन सदा मिथ्या भार से दबा रहेगा और विकास रुक जायगा। हम बाहर से तो लिपे- पुते, बने- ठने दिखाई देंगे, पर अन्दर हमारी आत्मा पर कर्ज का बोझ बढ़ता जायेगा। यह हमारे जीवन को घुन की तरह खा लेगा।
यदि हमारे पास रुपया है तो उसे श्रृंगार तथा दिखावे में खर्च करने के स्थान पर हमें ऐसे आवश्यक पदार्थों में व्यय करना चाहिए, जिनसे स्थायी लाभ हो। जेवर कदापि आवश्यक चीज नहीं है। आवश्यक पदार्थ ये हैं-

(१) पौष्टिक पदार्थ, अच्छे- अच्छे फल, तरकारियाँ, सूखे मेवे, दूध- दही।
(२) साफ- सुथरे वस्त्र जो चलाऊ हों, धुल सकें और मजबूत रहें।
(३) स्वच्छ मकान जिसमें वायु का प्रवेश खूब हो, आस- पास स्वच्छ हो।
(४) संतान के लिए उत्तमोत्तम शिक्षा, पत्र- पत्रिकायें, अच्छी पुस्तकें।
(५) बचत- रोग, वृद्धावस्था, विवाह, मृत्यु, मकान आदि के लिए।
(६) दान- सत् शिक्षा और दीन- दुःखियों के लिए सहायता।

यदि हमारी आमदनी थोड़ी है तो हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारी सब आवश्यकताएँ और दिल बहलाव की चीजें तो पूर्ण नहीं हो सकतीं, अतः हमें खास आवश्यकताओं को सबसे पूर्व रखना होगा। जो पूरी नहीं हो सकती उनके प्रति आत्म- संयम से काम लेना होगा, मन का दमन करना होगा। जो चीजें हम क्रय नहीं कर सकते उनके प्रति मन में इच्छाएँ करना ही अपने जीवन को दुःखमय बनाना है। अभाव की इच्छा जीवन को अस्त- व्यस्त कर देती है। जब मनुष्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो वह असत्य, अविचार, बेईमानी का पथ ग्रहण करता है, घर- घर भीख माँगता है, चोर- डाकू बनकर जाति और देश को कलंकित करता है। जो आमदनी हो उससे कम व्यय कीजिये और थोड़ा- थोड़ा भावी आवश्यकताओं के लिए अवश्य बचाते चलिये। अपनी चादर देखकर पाँव फैलाइये। ऋण बुरी बला है- यह झूठ, नीचता, कुटिलता, चिंता और मायाचार की जननी है। वा. ४८/५.४

बहुत से फैशनपरस्तों ने अपने पूर्वजों की गाढ़ी कमाई केवल इसलिए व्यय कर दी कि लोग उनकी गिरती हुई आर्थिक कमजोरी को न जान लें। सामाजिक प्रतिष्ठा कायम करने के लिए वे तबाह हो गये हैं, अन्त में असमर्थता और बेबसी में कंगाल होकर मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। आखरी वक्त में वे सब मिथ्या प्रशंसक उन्हें छोड़ बैढें जो कभी उनकी पोशाक की तारीफ के पुल बाँधा करते थें। आज तीन चौथाई लोग भ्रष्टाचार, झूठ या धोखाधड़ी के मामलों में गिरफ्तार होते हैं, महज इसलिए ही अपमानित और लज्जित होते हैं क्योंकि वे बाहरी लिफाफा खूबसूरत बनाने में ही लगे रहे, आन्तरिक मजबूती की ओर ध्यान ही नहीं दिया। समाज की क्षणिक प्रशंसा की भूख में क्या आप अपने को तबाह कर देंगे? क्या अपने परिवार को आयु भर के लिए ऋण के राक्षस को सौंप देंगे? क्या अपने बच्चों को अशिक्षित और मूर्ख बनाये रखेंगे? क्या दुनिया में बदनामी का धब्बा अपने ऊपर लगा हुआ छोड़ जायेंगे? समाज की प्रशंसा की भूख एक मृगतृष्णा है। उसे तो दूसरों की गिरावट में आनन्द आता है। वह तो उस दिन की प्रतिक्षा में है जब आपके पैसे समाप्त हो जायेंगे और आप दाने- दाने के मुहताज हो मारे- मारे फिरेंगे या दिवालिया होकर आत्म- हत्या करेंगे।
          
फैशनपरस्ती के रोग में औरतें बुरी तरह फँसी हुई हैं, वे हैसितयत की कभी परवाह नहीं करतीं। उन्हें नए- नए किस्म की साड़ियाँ, आभूषण, पाउडर, क्रीम, बनाव- श्रृंगार चाहिए, सुन्दरता बढ़ाने की सैकड़ों वस्तुएँ चाहिए। सिनेमा का मनोरंजन चाहिए। दान देने के लिए ढेर- सा रुपया चाहिए, विवाहों और दूसरे अवसरों पर दूसरों को दिखाने के लिए बहुत- सी चीजें देने को चाहिए। वे सदा अपने से अमीरों का अनुकरण करती हैं, उन्हें यह परवाह नहीं कि बेचारा पति किस मुसीबत से कमा कर लाता है, कितनी झिड़कियाँ सहता है, कितनों की खुशामद करता है। उनकी शिक्षा ऐसी है जिसमें वे बाह्य तड़क- भड़क, मिथ्या प्रदर्शन, फैशन की बाहरी श्रृंगार सज्जा में ही लगी रहती हैं। घण्टों वेशभूषा बनाने में व्यय कर देती हैं। शिक्षा का वास्तविक तात्पर्य आन्तरिक योग्यता और सद्गुणों की अभिवृद्धि है, मनुष्यत्व का विकास है। अपनी सीमाएँ और हैसितय की जान पहचान है, पर स्त्रियाँ आजकल की दिखाऊ शिक्षा प्राप्त कर यह सब ग्रहण नहीं करतीं और पति के लिए एक सिरदर्द बन जाती हैं।

वा. ४८/५.३
मिथ्या- प्रदर्शन और झूठी नामवारी

       भारत में केवल धनिक वर्ग को ही नहीं, साधारण स्थिति वालों तथा निम्र वर्ग को भी अपव्यय तथा मिथ्या प्रदर्शन की भावनाएँ हैं जो दूसरों के सम्मुख अपना अतिरंजित एवं झूठा स्वरूप रखना चाहते हैं। आज के युग में अभिशाप वे आदतें हैं जिन्होंने हमें व्यर्थ- व्यय में फँसा दिया है।

        हम देखते हैं कि मध्यमवर्ग तथा निम्र वर्ग में एक ओर घर में पत्नी और बच्चे फटेहाल रहते हैं, संतान टुकड़ों को तरसती है, मेरे- तुम्हारे आगे हाथ पसारती है, तो दूसरी ओर दिखावा पसन्द पति अपने कपड़े- लत्ते, फैशन तथा जिह्वा की तृप्ति के निमित्त आवश्यकता से अधिक व्यय करता है। पुरुष सभा- सोसाइटी में बैठता है, दूसरों को बढ़िया सूट, नेकटाई और बूट में देखता है, तो स्वयं भी उनका अनुकरण करता है। वह अपनी स्थिति, आय और जिम्मेदारियों को नहीं समझता, यदि समझता है तो समझकर भी भूलना चाहता है।

मिथ्या- प्रदर्शन के अनेक रूप हैं-

(१) चटकीली- भड़कीली पोशाक, (२) मित्रों में प्रतिष्ठा रखने के हेतु अपव्यय, (३) विवाह, उत्सव, मेले, प्रतिष्ठाओं, जन्म- मरण संस्कारों में अनावश्यक खर्च (४) दान, दहेज, रिश्वत, चन्दा इत्यादि में अपनी आय की उपेक्षा कर अमितव्यय, (५) जात- बिरादरी, भाई- बन्धुओं के बीच अपनी झूठी शान रखने के लिए अपव्यय (६) अपनी गन्दी आदतों- सिगरेट, चाय, शराब, सिनेमा, बालडासिंग, व्यभिचार इत्यादि के वश में आकर नाना प्रकार के भोग- विलासों में फिजूलखर्ची, (७)प्रतियोगिता- अमुक व्यक्ति ने अपने लड़के की शादी में २०,००० व्यय किए हैं तो हम ४०,००० व्यय करेंगे। अमुक ने अमुक काम में इतना खर्च किया है, अतः हमें भी इतना करना चाहिए। इस प्रकार पारस्परिक कम्पिटीशन में अनेक व्यक्ति बर्बाद होते हैं। मिथ्या- प्रदर्शन की भावना मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से थोथेपन, संकुचित, उथलेपन और छिछोरापन की प्रतिक्रिया है। जो व्यक्ति जितना कम जानता है, बिना पढ़ा- लिखा, अविवेकी और नासमझ है, वह उतना ही बाह्य प्रदर्शन करता है। जो स्त्रियाँ बिना पढ़ी- लिखी मूर्खा हैं, बनाव- श्रृंगार में अत्यधिक दिलचस्पी लेती हैं, वे लज्जा तक का ध्यान नहीं रखती। इसी फिजूलखर्ची का यह दुष्परिणाम है कि आज महिला- जगत में, विशेषतः पंजाबी नारी समाज में फैशन- परस्ती बुरी तरह अभिवृद्धि पर है। शाम को बड़े शहरों में ढेर- की दिखावा पसंद नारियाँ भिन्न- भिन्न प्रकार के वस्त्रों, आभूषणों तथा सौन्दर्य के अन्य प्रसाधनों से विभूषित होकर निकलती हैं। इन्हें देखकर कौन कह सकता है कि भारत निर्धन देश है।
वा. ४८/५.३

कभी उधार न लीजिये

उधार एक ऐसी बला है, जो मनुष्य की सब शक्तियों को क्षीण कर डालती है। उसे सबके सामने नीचा देखना पड़ता है, हाथ तंग रहता है। उधार लेने की आदत बहुत बुरी है। उधार लेते समय तो चाहे वह रुपया हो या और कोई चीज कुछ पता नहीं चलता, परन्तु देते समय दशा बिगड़ जाती है। ऐसा लगता है, जैसे पैसे फेंक रहे हैं। धीरे- धीरे यह आदत इतनी जोर पकड़ती है कि उधार की चीज या पैसा लौटाने को मन नहीं होता और फल यह होता है- मित्रों से कन्नी काटना, समाज में निरादर, बदनामी आदि। फिर वह ‘भेड़िया आया’ वाली बात होती है। यदि कभी वास्तविक आवश्यकता पड़ी भी तो पैसा नहीं मिलता। इसलिए निश्चय करना चाहिए कि कभी कोई चीज या रुपया उधार नहीं लेंगे। वा. ४८/५.६

दूरदर्शी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और खर्चों का पहले से ही बजट तैयार करता है। उसकी आय वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यय नहीं होती, प्रत्युत् वह भविष्य के लिए, बच्चों की शिक्षा, विवाह, बुढ़ापे के लिए धन एकत्रित रखता है, अपनी परिस्थिति के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य बचाता है। किसी कवि ने कहा है-
कौड़ी- कौड़ी जोड़ि के, निर्धन होत धनवान।

अक्षर- अक्षर के पढ़े, मूरख होत सुजान॥ वा. ४८/५.८

इन बातों को स्मरण रखिये

पारिवारिक व्यय करते समय सभी खर्चों का खूब अनुमान लगा लीजिए। जो स्थायी व्यय हैं, उन्हें महीने के प्रारम्भ ही में कर डालिये। भोजन और स्थायी खर्च प्रारम्भ में कर लेने से महीने के अन्त तक आनन्द रहता है। यदि आप प्रतिदिन दूध खरीदते हैं तो दूध वाले को रुपया अग्रिम ही दे देना उचित है, अन्यथा इस महीने का भार दूसरे महीने पर पड़ेगा। अर्थात् यह रुपया एक प्रकार का कर्ज- सा बना रहेगा। चीजें नगद लेने की आदत डालिये, क्योंकि उधार आप भूल जायेंगे और फिर माँगने वाले किसी ऐसे समय आकर आपको तंग करेंगे, जब आप का हाथ तंग होगा। उधार या कर्ज ऐसी नंगी तलवार है जो आप पर सदैव लटकती रहती है। प्रायः दुकानदार उधार वाले को चीजें भी मँहगी देते हैं। त्यौहार, उत्सव और धर्म कार्यों में फिजूलखर्ची से बचना चाहिए। प्रायः मुसलमान तथा हिन्दू निर्धन व्यक्ति कर्ज लेकर त्यौहार मनाते हैं। कर्ज का एक पैसा खाना भी पाप है। उधार की एक कौड़ी भी भार स्वरूप है। जो स्थिति परमेश्वर ने आपको दी है, उसी के अनुकूल त्यौहार और उत्सव मनाइये। आत्मनिग्रह और संयम आपकी सहायता करेंगे। विवाह तक में जमाने की परवाह न कर अपनी हैसियत के अनुकूल व्यय करना चाहिए। तीर्थयात्रा, ब्राह्मण भोजन, रूढ़ियों, बिरादरी को प्रसन्न करने में व्यय करना छोड़ दीजिये। इसी प्रकार अतिथि सेवा आपका धर्म है, पर कर्ज लेकर मेहमानदारी करना मूर्खता है। वा. ४८/५.९ कर्ज वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। गरीबी कष्टकर है, किन्तु ऋण भयावह है। एक लेखक तो यहाँ तक कहते हैं कि कर्ज, मनुष्य के लिए ऐसा है जैसे चिड़िया के लिए साँप।
वा. ४८/५.१५

टॉल्सटाय कहा करते थे, कर्ज देना मानो किसी भारी चीज को पहाड़ की चोटी से नीचे ढकेलना है, मगर उसका वसूल करना उस चीज को नीचे से चोटी तक चढ़ाना है। कर्ज सब से बुरी गरीबी है।

ऋण लेकर जीना अथवा प्रतिमास पूरी की पूरी आय व्यय कर देना एक भारी मूर्खता है। अर्थ एक प्रकार की संचित शक्ति है, उस एकत्रित शक्ति को साधारण या अल्प- संतोष देने वाली क्षणिक, आवेशपूर्ण, जिह्वा या कामेन्द्रियों के स्वाद के लिए अविवेक से खर्च देना, अपने आपको कमजोर बना देना है। वेद में अपनी सीमित आय में ही निर्वाह करने का बार- बार आदेश दिया गया है- ‘‘अवृणो भवामि’’ -अथर्व. ६/११७/१
वा. ४८/५.१

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