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Books - परिवार निर्माण

Media: TEXT
Language: HINDI
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परिवार निर्माण की धुरी- नारी

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                  परिवार संस्था का आरम्भ नारी के गृह प्रवेश के साथ होता है। एकाकी पुरुष दफ्तर में काम करके और सराय में सोकर भी गुजर कर सकता है, पर घोंसला बनाने और अण्डे- बच्चों को सँभालने की बात नव- वधू के साथ ही जुड़ती है। सूक्तिकार की वह उक्ति अक्षरशः सही है जिसमें कहा गया है कि ‘न गृहं गृह मित्याहु गृहिणी गृह मुच्यते’ अर्थात् इमारत घर नहीं कहलाती वस्तुतःगृहणी, घरवाली ही घर है। गृहलक्ष्मी के प्रवेश से ही टूटे पुराने घर झोंपड़े हास- उल्लास से भर जाते हैं और सृजन के बहुमुखी प्रयत्न एक निश्चित दिशा में चल पड़ते हैं। नारी घर का आरम्भ ही नहीं करती वरन् उसका विस्तार, पोषण, विकास भी वही करती है, अब उसमें इतना और जोड़ना है कि परिवार को सुसंस्कृत, परिष्कृत और समुन्नत बनाने का ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व भी वही सँभाले। उसका भावनात्मक ढाँचा इस प्रयोजन को भली प्रकार पूरा कर सकने के लिये सर्वथा उपयुक्त बनाया गया है। वा. ४८/२.६४

          इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिये कि गृहलक्ष्मी ,, गृहसंचालिका इस योग्य बने कि वह अपनी प्रतिभा को उपयुक्त उत्तरदायित्व निबाहने में सक्षम सिद्ध कर सके। महिला जागरण का उद्देश्य ऐसे इंजीनियर तैयार करना है जो नये समाज का नया भवन बनाने में अपनी कुशलता सिद्ध कर सकें। नारी जागरण के अन्य प्रयोजन भी हैं, प्रतिफल भी, पर सबसे बड़ी उपलब्धि यही मिलनी है कि परिवार संस्था में नवजीवन भरा जा सकेगा और उस क्षेत्र में उगे हुए नर- रत्न व्यक्ति और समाज- निर्माण की समस्त समस्याओं का सहज समाधान कर सकेंगे। वा. ४८/२.६५

         स्त्री को परिवार का हृदय और प्राण कहा जा सकता है। परिवार का सम्पूर्ण अस्तित्व तथा वातावरण गृहिणी पर निर्भर करता है। यदि स्त्री न होती तो पुरुष को परिवार बनाने की आवश्यकता न रहती और न इतना क्रियाशील तथा उत्तरदायी बनने की। स्त्री का पुरुष से युग्म बनते ही परिवार की आधारशिला रख दी जाती है और उसे अच्छा या बुरा बनाने की प्रक्रिया भी आरम्भ हो जाती है। परिवार बसाने के लिए अकेला पुरुष भी असमर्थ है और अकेली स्त्री भी, पर मुख्य भूमिका किसकी है, यह तय करना हो तो स्त्री पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। क्योंकि अन्दरूनी व्यवस्था से लेकर परिवार में सुख- शान्ति और सौमनस्य के वातावरण का दायित्व प्रायः स्त्री को ही निभाना पड़ता है। इसलिए स्त्री के साथ गृहणी, सुगृहणी गृह- लक्ष्मी जैसे सम्बोधन जोड़े गये हैं। पुरुष के लिए ऐसा कोई विशेषण नहीं मिलता। यहाँ गृहिणी से तात्पर्य केवल पत्नी से ही नहीं है। स्त्री चाहे जिस रूप में हो, वह जिस परिवार में रहती है वहाँ के वातावरण को अवश्य प्रभावित करती है। माता, पत्नी, बहिन, बुआ, चाची, ताई, दादी, ननद, देवरानी, जेठानी, भाभी आदि सभी परिवार के निर्माण में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और वहाँ के वातावरण को, उस घर के सदस्यों को प्रभावित करती हैं। कारण कि पुरुष तो अधिकांशतः बाहर रहते हैं, वृद्ध या असमर्थ घर में रहते भी हों तो वे स्त्री की तरह वहाँ के वातावरण को प्रभावित नहीं करते। क्योंकि स्त्री की कोमलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता की जो हार्दिक विशेषताएँ होती हैं, वे पुरुषों में नहीं होतीं। इन विशेषताओं के कारण ही महिलाएँ घर के सदस्यों के अधिक निकट रहती और उन्हें प्रभावित करती हैं।

          पुरुष या पिता में एक बारगी कोई दुर्गुण भी हो, तो भी माँ अपनी सन्तान को उससे बचा सकती है। शिवाजी के पिता- मुसलमान राजा के दरबार में नौकरी करते थे और उनकी अधीनता को मानते थे, पर जीजाबाई अपने पुत्र को स्वतन्त्र योद्धा के रूप में ही विकसित करना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने आवश्यक सभी सतर्कताएँ बरतीं। अपने पति के प्रभाव से बचाया और शिवाजी को उसी ढाँचे में ढाला। यह आश्चर्यजनक हो सकता है कि पिता जिसके प्रति कृतज्ञ हो, जिसकी रोटी खाते हों और यह भी चाहते हों कि पुत्र भी उन्हीं की तरह निकले तथा पुत्र विपरीत दिशा में ही विकसित हो, अलग ही मनोभूमि रखने वाला बन जाय। लेकिन माँ के महत्व एवं व्यक्तित्व को देखते हुए यह अस्वाभाविक नहीं है। सामान्य जनजीवन में भी अयोग्य और दुर्व्यसनी पिता की सन्तानें योग्य तथा सच्चरित्र बन जाती हैं। इसका कारण यही है कि वहाँ माताएँ दोष- दुर्गुणों से होते रहने वाले कटु- अनुभवों की पुनरावृत्ति सन्तान में न आने देने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहती हैं।

         यह भी देखा जाता है कि ईमानदार, विश्वासपात्र और सच्चरित्र व्यक्तियों की सन्तानें कभी बेईमान, धोखेबाज और चरित्रहीन निकल जाती हैं। यह भी इसलिए कि माताएँ तथा परिवार में रहने वाली स्त्रियाँ बच्चों के प्रति विशेष रूप से सावधानियाँ नहीं रखतीं तथा कई भूलें और त्रुटियाँ कर डालती हैं, जिनका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वा. ४८/२.६१

      गृहिणी को ‘गृह- लक्ष्मी’ के सम्मानजनक विशेषण से सम्बोधित किया गया है, जिसका अर्थ है- वह नैतिक दृष्टि से सुदृढ़ और स्वभाव की दृष्टि से देवी है। मधुरता तथा सद्भाव का अमृत उसमें बहता रहता है, जिसके द्वारा वह घर के अशान्त सदस्यों को धैर्य बँधाती, दिशा बताती और प्रेरणा देती है तथा परिवार- संस्था की नींव भी मजबूत बनाती है। परिवार में सुख- शान्ति का आधार उसके सदस्यों में रहने वाला स्नेह, सहयोग और सद्भाव है। घर में इसी से स्वर्गीय वातावरण का सृजन होता है। इसलिए गृहिणी को इसके लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील रहना चाहिए। परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे की सुविधा का ध्यान रखें, परस्पर आदर- सम्मान करें, एक दूसरे का सहयोग करें और स्नेह, सद्भाव तथा आत्मीयता, उदारता भरें। इसके लिए प्रेरणायें भरने का काम भी स्त्री ही अधिक कुशलतापूर्वक कर सकती है। वा. ४८/२.६३

उत्कर्ष की दिशा में बढ़ चलें

      आमतौर से परिवार- भर के दोष- दुर्गुणों का दुःखदायी प्रभाव नारी अपने ऊपर सहती है। यह सहनशीलता तारीफ करने योग्य तो है, किन्तु इतना भर काफी नहीं। दुर्गुण और दुर्भाग्य जहाँ के तहाँ बने रहेंगे तो आपस का सहयोग बन ही नहीं पड़ेगा। स्नेह- सौजन्य का खाद- पानी पाये बिना उस छोटे बगीचे का कोई भी पौधा पूरी तरह विकास पा ही नहीं सकता। वा. ४८/२.५३

      परिवार के सदस्यों की सच्ची सेवा उन्हें सद्गुणी और स्वावलम्बी बनाने में है। बाप- दादों की छोड़ी सम्पदा से ब्याज भाड़े पर गुजारा करने वाली सन्तान भले ही आराम के साथ दिन काट ले पर उसकी प्रतिभा का स्तर लुंजपुंज ही रहेगा। जिसने कठोर कर्मक्षेत्र में उतरकर भुजबल और मनोबल को चरितार्थ करने का अवसर नहीं पाया उसे एक प्रकार से अपंग ही कहना चाहिए। पूर्वजों की कमाई पर गुजर करने वाली सन्तान को पराक्रम की कसौटी पर कसते हुए अपंग ही घोषित करना पड़ेगा। वा. ४८/२.५४

      यह सब छोटी- छोटी बातें भी परिवार और समाज की व्यवस्था पर बहुत प्रभाव डालती हैं। यह जितनी आसान लगती हैं उतनी ही कठिन भी हैं। कोई व्यक्ति किसी एक स्थान पर इन्हें बड़ी आसानी से लागू कर सकता है, लेकिन घर- घर, जन- जन के स्तर पर इन्हें लागू करना बहुत कठिन है। इन्हें इस विशाल स्तर पर लागू करने का एक ही रास्ता है और वह है कुशल गृहणियों को इसके लिये तैयार करना। वा. ४८/२.५७

शुभारम्भ इस प्रकार हो

       गृहलक्ष्मी का अर्थ होता है उदारचेत्ता और सुव्यवस्था की अभ्यस्त सुसंस्कारी महिलाएँ। वे रंग- रूप की दृष्टि से कैसी ही क्यों न हों। वस्तुतः उनके सहारे ही झोंपड़ी के आँगन में भी स्वर्ग उतरता है और वे ही साधारण परिस्थितियों को आनन्द उल्लास से भर देती हैं।

ऐसी गृहलक्ष्मियाँ कहाँ से आएँ? उन्हें कहाँ पाएँ? इसे खोजने की आवश्यकता नहीं है। हर नारी में इसके बीजांकुर जन्म- जात रूप से विद्यमान रहते हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें खाद- पानी देने की होती है। नारी को भावुकता, कोमलता, सुन्दरता और कलाकारिता के समन्वय से सृष्टा ने सृजा है। मात्र इन हीरकों को खराद पर उतारने का काम ही परिवार के लोगों को मिल- जुलकर करना होता है। इस कर्त्तव्य की उपेक्षा- अवहेलना होने पर वे छुई- मुई के पौधे की तरह कुम्हला भी जाती हैं और घुटन भरे वातावरण में व्यक्तित्व को अनुपयुक्त भी बना लेती हैं। जिन घरों में नारी समुदाय की स्थिति गयी- गुजरी रहेगी वहाँ कितना ही वैभव अथवा वर्चस्व क्यों न हो, आन्तरिक वातावरण ऐसा ही रहेगा जिसमें खिन्नता, विपन्नता किसी के हटाये हट नहीं सकेगी। जिस घर में गृहलक्ष्मी मुरझाई, कुम्हलाई, बाधित, पीड़ित और बँधी जकड़ी रहेगी, वहाँ उसकी प्रसुप्त प्रतिभा को जाग्रत होने का अवसर ही नहीं मिलेगा। उसके लिए मानवोचित जीवनयापन तक कर सकते न बन पड़ेगा।

हर किसी को विश्वास करना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी नारी वर्चस्व वाली कालावधि है। इस नवयुग को प्रकट, प्रत्यक्ष करने में नारी की बढ़ी- चढ़ी भूमिका होगी। नर ने अहमन्यता और कठोरता अपनाकर जो उद्दण्डता विकसित की है उसका परिमार्जन नारी की भावसंवेदना और सेवा- साधना वाली जन्म- जात सत्प्रवृत्ति से ही सम्भव बन पड़ेगा। परिवारों को नर- रत्नों की खदान उन्हीं की सहायता द्वारा बनाया जा सकेगा। देव- मानवों का अवतरण नई पीढ़ी में उन्हीं के द्वारा सम्भव होगा।

      नर के कृत्यों वाले इतिहास में सृजन की तुलना में ध्वंस अधिक हुआ है। स्नेह- सहयोग कम और उद्धत अनाचार का माहौल अधिक बनता रहा है। अब इस उलटे प्रवाह को नारी में सन्निहित दिव्यता ही सीधा करेगी। इस सद्भावना के अनुरूप विचारशीलों का कर्त्तव्य हो जाता है कि नारी को अगले दिनों दुहरा उत्तरदायित्व सँभालने की क्षमता विकसित करने में समुचित सहयोग प्रदान करें। नर को शिक्षित, समर्थ, स्वावलम्बी बनाने के लिए अब तक जो प्रयत्न होते रहे हैं, उन्हीं को इस समतावादी युग में नारी के लिए भी उपलब्ध कराना होगा। अलग- पिंजरों में कैद रहने के कारण उनकी संयुक्त शक्ति का संरक्षण एवं विकास न हो सका। अब उसे सम्भव बनाने के लिए न केवल घनघोर प्रयत्न करना पड़ेगा वरन् उस सामन्तवादी दृष्टिकोण को भी उलटना पड़ेगा, जिसमें नारी का स्थान दासी के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।

       इस समूचे परिवर्तन की तुलना में अधिक जीवट को सँजोये जाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही यह भी निश्चित है कि परिवर्तनकारी आन्दोलनों ने अब तक जितनी उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, उसकी तुलना में नारी जागरण अभियान के माध्यम से कम नहीं वरन् अधिक ऊँचे स्तर की अधिक प्रभावोत्पादक उपलब्धियाँ सम्भव होंगी। नारी जागरण अभियान को प्रभातकालीन अरुणोदय की तरह उभरता हुआ और मध्याह्न की प्रखरता अपनाने के लिए दौड़ता इन्हीं आँखों से देखा जा सकता है। सुनिश्चित भवितव्यता का साथ देने में ही समझदारी भी है और बहादुरी भी। इतने प्रचण्ड प्रवाह में जो रोड़े बनेंगे, जो उपेक्षा बरतेंगे, वे समय को न पहचान सकने का पश्चाताप ही करते रहेंगे।

         विज्ञजनों में से प्रत्येक को इस महाअभियान का शुभारम्भ अपने- अपने घरों से करना चाहिए। अशिक्षितों को शिक्षित, शिक्षितों को सुविज्ञ बनाने वाली शिक्षा पद्धति का कार्यान्वयन अपने घरों के छोटे दायरे से तो कोई भी कर सकता है। उनका बौद्धिक प्रशिक्षण ऐसा होना चाहिए जिससे मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों का उन्मूलन हो सके। नारी अपने कर्त्तव्य और अधिकार का परिवहन करने के लिए समर्थ एवं समुद्यत हो सके। उन्हें स्वावलम्बी बनने का अवसर दिया जाय। गृह उद्योगों के माध्यम से वे अपनी उपार्जन क्षमता और दक्षता की अभिवृद्धि कर सकें, साथ ही घर से बाहर निकलने की सुविधा पाकर पड़ौस- परिकर में एक छोटा संगठन खड़ा कर सकें। बड़े परिवर्तन संगठित प्रयासों से ही सम्भव हुए हैं। महिला मण्डल इसी प्रयोजन के लिए गठित किया जा रहा है। पुरुषों को चाहिए कि वे अपने ढंग से अपने प्रभाव क्षेत्र की नारियों को प्रगति प्रयोजन के लिए संगठित करने का प्रयास करें। अपने घरों की प्रतिभाओं को इस कार्य के लिए घर से बाहर जाने और अपने वर्ग से सम्पर्क बढ़ाने के लिए सहयोगी की भूमिका निबाहने दें। संगठन को प्रारम्भिक काम एक सौंपा गया है- साप्ताहिक सत्संग। उसमें धार्मिकता का पुट रहने से एकत्रीकरण में अड़चन नहीं आती, जितना कोई अन्य आन्दोलन खड़ा करने पर अपने ही परिवार का विरोध खड़ा होने के रूप में सामने आती है। वा. ४८/४.७१

        यह प्रारम्भिक ढाल है। इससे कम में नारी प्रगति की योजनाएँ एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकतीं। घर- परिवार तक सीमाबद्ध रहने पर वे प्रवृत्तियाँ व्यापक नहीं बन सकतीं, जिन्हें अगले ही दिनों आन्दोलन का रूप धारण करना है। सुधार एवं सृजन से सम्बन्धित अनेकानेक कार्यक्रमों को नये ढाँचे के रूप में खड़ा करना है। जो शिक्षित महिलायें घरेलू काम- काज से थोड़ा अवकाश प्राप्त करती हैं, उनका कर्त्तव्य विशेष रूप से यह बनता है कि विचारशील नारियों से सम्पर्क साधने निकलें और उनका समीपवर्ती क्षेत्र वाला संगठन तैयार करें। साप्ताहिक सत्संगों का क्रम आरम्भ करायें। साथ ही प्रौढ़ शिक्षा, कुटीर उद्योग, स्वास्थ्य रक्षा, सुधरी हुई पाक विद्या, शिशु पालन, परिवारों में प्रगतिशीलता का संस्थापन, कुरीतियों का उन्मूलन आदि काम हाथ में लें। कदम- कदम बढ़ाते हुए पहुँचना वहाँ तक है जहाँ नारी को समग्र समता का लाभ मिल सके और वह अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करते हुए नवसृजन के क्षेत्र में महती भूमिका सम्पन्न कर सके।

        प्रतियोगिताएँ- प्रतिस्पर्द्धाएँ प्रायः सभी क्षेत्रों में चलती रहती हैं। जो विजेताओं को लाभ, यश एवं गौरव प्रदान करती हैं। इन दिनों हर विचारशील को इस प्रयास के लिए कमर कसनी चाहिए कि वह अपने संपर्क के कार्यक्षेत्र में कितनी प्रतिभाएँ उतारने में समर्थ हो सका, इस कर्त्तव्य को बढ़े- चढ़े सेनापतियों और लोकनायकों के महान कर्त्तव्यों के समतुल्य ही माना जायगा, भले ही वह बीजांकुर की तरह छोटा ही दृष्टिगोचर क्यों न हो।

       नारी जागृति आन्दोलन में एक संघर्ष परक मोर्चा भी है- दहेज विरोधी आन्दोलन का। इसे गाँधी जी के नमक सत्याग्रह स्तर का श्रीगणेश माना जा सकता है, जिसके पीछे नर- नारी के बीच विद्यमान भयावह विषमता की जड़ पर कुठाराघात के समतुल्य समझा जा सकता है। धूमधाम वाली, दहेज- जेवर के भार से लदी हुई शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इस कुप्रचलन के कारण नर और नारी के बीच छोटे- बड़े की, श्रेष्ठ और निकृष्ट की परम्पराएँ चली हैं। यदि इस कुप्रचलन का पूरी तरह अन्त किया जा सके और विवाह मात्र एक घरेलू उत्सव की तरह बिना खर्च के सम्पन्न होने लगे तो समझना चाहिए कि नवयुग का शुभारम्भ हुआ। इससे अन्यान्य अनेक कुरीतियों की, अवधारणाओं की इतिश्री सम्भव हुई मानी जानी चाहिए। वा. ४८/४.७२

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