
आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?
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अमेरिका का हार्टफोर्ड कनेक्टिकल हॉल दर्शकों से खचाखच भरा था। 19 नवम्बर 1901 के दिन घूंसेबाज़ी का एक अनोखा मैच था। प्रसिद्ध अमेरिकी घूंसेबाज टेरी मेकगवर्न का एक नये प्रतिस्पर्धी के साथ मुकाबला था अब तक 6 खिलाड़ी उसे हराने के प्रयत्न में स्वयं ही मात खा चुके थे। टेरी के प्रशंसक आज पुनः उसकी विजय की आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास लेकर आये थे। यह स्वाभाविक भी था—घूंसेबाज़ी में उसकी कुशलता और निपुणता देखते ही बनती थी। प्रतिस्पर्धी पर वह बड़ी फुर्ती एवं निर्ममता के साथ घूंसे चलता इसलिए ‘टेरिबल टेरी’ के नाम से वह जनता में विख्यात था। 1889 टेरी की उम्र जब केवल 19 वर्ष की थी तत्कालीन लाइटवेट चैम्पियन ‘पेडलरपामर’ को केवल 75 सेकेंडों में धराशायी कर दिया। उसके बाद 1900 में जॉर्ज डिक्सन को हराकर विश्व फेदरवेट चैम्पियन का पद भी हासिल कर लिया। तब से इस पद से हटाने के लिए प्रतिस्पर्धी निरन्तर प्रयत्नशील थे।
लम्बी प्रतिक्षा के बाद रिंग में मदमस्त हाथी के सामने खड़े एक दुबले पतले अनजान व्यक्ति कार्बेट को देख दर्शकों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। कई सहृदय व्यक्ति कार्बेट के प्रति सहानुभूति दर्शाने लगे कि ‘क्यों बेकार में यह अभागा अपनी जान देने आ गया।’ ऐसे कितने ही उद्गार चारों ओर सुने जा सकते थे। इन सब बातों से अनभिज्ञ कार्बेट के चेहरे पर दृढ़ विश्वास झलक रहा था।
मैच शुरू हुआ। टेरी ने अपनी आदत के अनुसार प्रारम्भ में घूंसों की बौछार शुरू कर दी। उत्साह-उमंग और चुस्ती-स्फूर्ति से भरा हुआ कार्बेट टेरी का हर वार बचाये जा रहा था। एक ओर टेरी की अन्धाधुन्ध घूंसों की बौछार और दूसरी ओर कार्बेट की गजब की स्फूर्ति। स्थिति यह थी कि कोई नया दर्शक यही समझता कि कार्बेट चैम्पियन है और टेरी नौसिखिया। ऐसी स्थिति में टेरी जैसे मंजे खिलाड़ी का आत्मविश्वास डगमगा गया वह बौखला उठा। अब टेरी इस प्रयास में था कि किसी भी तरह कार्बेट को एक घूंसा लगाकर अपना खोया विश्वास पुनः प्राप्त कर ले। लेकिन यह सम्भव न हो सका इसी बीच पहला राउण्ड समाप्त हो गया। दूसरे राउण्ड के शुरू होते ही कार्बेट की दाहिनी मुट्ठी का जबर्दस्त घूंसा टेरी के जबड़े पर पड़ा। वह ऐसा गिरा कि फिर वह उठ नहीं सका। रेफरी की गिनती समाप्त हो गई।
यह तो एक उदाहरण मात्र है जिसमें एक ने अपने आत्मविश्वास के कारण शरीर क्षमता में असमर्थ होते हुए भी दूसरे समर्थ और बलिष्ठ व्यक्ति पर विजय पाई जबकि दूसरा सक्षम और समर्थ होते हुए भी आत्मविश्वास खो देने से असफल रहा। आत्मविश्वास को जीवन और निराशा को मृत्यु कहा गया है। आत्मविश्वासी कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी अपनी इस विशेषता के कारण उनसे जूझने एवं अनुकूल बनाने में समर्थ होते हैं। उनकी सफलता में परिस्थितियों का शरीर बल एवं बुद्धिबल का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि स्वयं के मनोबल का।
सामान्यतः समझा यह जाता है कि साधनों के अभावों, गई-गुजरी परिस्थितियों और प्रतिकूलताओं के कारण ही मनुष्य असफल होता है। परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। अपनी क्षीण निस्तेज अनुत्साही मनोवृत्ति के कारण ही लोग पग-पग पर ठोकरें खाते और असफलताओं का मुंह देखते हैं। कठिनाइयां प्रतिकूलतायें उन व्यक्तियों के लिए बाधक हैं जिन्हें अपने आप पर विश्वास नहीं। कुछ करने के लिए एक कदम बढ़ाने से पूर्व उनका मन अनिष्ट की आशंका से डरने लगता है। सफलता मिलेगी भी कि नहीं। इसके विपरीत आत्मविश्वास और मनोबल के धनी व्यक्ति पहाड़ जैसी विपदाओं को भी पैरों तले रौंदने की हिम्मत रखते हैं। प्रतिकूलताओं से प्रगति क्रम में विलम्ब तो हो सकता है पर यह कहना गलत है कि सफलता ही नहीं मिलेगी। यदि प्रचण्ड इच्छा शक्ति, तत्परता और साहसिकता बनी रहे तो अभीष्ट लक्ष्य तक अवश्य पहुंचा जा सकता है।
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं जिसमें प्रतिकूलताओं के ऊपर आत्म-विश्वास ने विजय पाई। आत्मविश्वास के अभाव के कारण कितने ही व्यक्ति सामान्यतः पिछड़ेपन से ग्रस्त रहते और अवनति के गर्त में पड़े रहते हैं। कितने ही ऐसे भी होते हैं जो कठिनाइयों को चुनौती देते संघर्षों का आलिंगन करते अन्ततः अभीष्ट तक पहुंचते हैं। अन्तराल में छिपी क्षमतायें उन्हें किसी के आगे हाथ पसारने, गिड़गिड़ाने, दीन-हीन बने रहने के लिए बाध्य नहीं करती। सोया आत्मविश्वास जब जागता है छिपी क्षमतायें जब उभरती हैं— उत्साह जब उमड़ता है तो वह बाहरी सहयोग को भी अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा खींच लेता है। तब वह हवाओं का रूप बदलने, दिशाओं को पलट देने, प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदल देने की सामर्थ्य रखता है। सीमित सामर्थ्यों के होते हुए भी आत्मविश्वास के बल पर कितने ही व्यक्ति सफलता के शिखर पर पहुंचे, इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं।
नेलसन ब्रिटेन का प्रसिद्ध राष्ट्रपति था। उसने अनेक युद्धों में विजय पाई। प्रचण्ड साहस और अटूट आत्मविश्वास ही उसकी विजय के आधार थे। नील नदी के युद्ध के लिए नेलसन ने पूर्व योजना बनाई और अपनी अधीनस्थ सैनिकों के सामने वह योजना रखी। इसी बीच कर्नल वेरी ने सन्देह प्रकट किया—‘‘यदि हमारी विजय नहीं हुई तो संसार का क्या कहेगा?’’ नेलसन ने रोषपूर्ण मुद्रा से तमककर उत्तर दिया—‘‘यदि के लिए नेलसन के पास कोई स्थान नहीं। मैंने जो कुछ निर्णय लिया है उसके अनुसार सभी जुट जायें। निश्चित रूप से विजय हमारी ही होगी यह बात अलग है कि हमारी विजय की कहानी कहने वाले हमसे से थोड़े ही रह जायें।’’
मोर्चे पर जाने से पूर्व नेलसन ने कप्तान से कहा, ‘‘कल इस समय से पूर्व या तो हमें विजय प्राप्त होगी या मेरे लिए वेस्टमिन्स्टर के गिरजे में कब्र तैयार हो जायेगी, जहां में शान्तिपूर्वक विश्राम करूंगा।’’ कैसे आत्मबल और आत्मविश्वास से भरे शब्द थे। जो अन्त में सत्य सिद्ध हुए। विजय नेलसन के हाथ लगी।
नेपोलियन का जीवन भी ऐसे दृढ़ संकल्प और मनोबल से भरा था। आल्पस पर्वत की सेण्ट वरनार्ड घाटी का निरीक्षण करके लौटे हुए इंजीनियरों से नेपोलियन ने पूछा ‘क्या रास्ता पार कर सकना संभव है?’ इंजीनियरों ने आशंका व्यक्त करते हुए कहा— ‘‘शायद, पार कर सकें।’’ नेपोलियन ने आगे की बात नहीं सुनी तुरन्त सिपाहियों को आदेश दिया ‘‘आगे बढ़ो!’’ इस दुस्साहसिक निर्णय पर इंग्लैण्ड और आस्ट्रेलिया के लोग आश्चर्य करने लगे कि यह नाटे कद का सामान्य सा व्यक्ति साठ हजार सैनिकों और हजारों मन युद्धास्त्र के साथ इतने ऊंचे आल्पस पर्वत को भला कैसे पार कर सकेगा?
दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्मविश्वास के आधार पर वह आल्पस को भेदकर गन्तव्य तक पहुंचने में सफल हुआ, अन्य कई सेनानायकों के पास समर्थ सेना थी, हथियार वह अन्य उपयोगी साधन थे, पर उनमें वह आत्मविश्वास नहीं था जिसके कारण नेपोलियन का कलेजा कठिनाइयों को देखकर वज्र बन जाता था। वह स्वयं कहा करता था— ‘‘मेरे शब्दकोष में ‘असम्भव’ नामक कोई शब्द नहीं।’’
जापान के एक छोटे से राज्य पर समीपवर्ती एक बड़े राज्य ने हमला कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित विशाल सेना देखकर जापान का सेनापति हिम्मत हार बैठा। उसने राजा से कहा—‘‘हमारी साधनहीन छोटी-सी सैन्य टुकड़ी इसका सामना कदाचित ही कर पायेगी। नाहक सैनिकों को खत्म करने के बजाय युद्ध न करना ही ठीक है। पर राजा बिना प्रयास के हार मानने के पक्ष में नहीं था। सोचने लगा कि क्या किया जाये? अचानक याद आया कि गांव में एक सिद्ध फकीर है शायद वही कुछ समाधान बता सके यही सोचकर राजा स्वयं फकीर से मिलने चल पड़ा। फकीर तम्बूरा बजाने में मस्त था। राजा ने फकीर की मस्ती तोड़ते हुए कहा कि हमारा राज्य मुसीबत में फंस गया है। दुश्मन ने देश पर आक्रमण कर दिया है और ऐसी विकट स्थिति में सेनापति भी निराश हो चुका है— उसने बताया कि जीत असम्भव है।
फकीर ने बिना विलम्ब किये उत्तर दिया कि ‘‘सबसे पहले तो आप सेनापति को पद से हटा दीजिये क्योंकि जिसने युद्ध से पहले ही हार की आशंका बता दी वह भला क्या जीत पायेगा? जो स्वयं निराशावादी है वह अपने अधीनस्थ सैनिकों में कैसे उत्साह उमंग का संचार कर सकेगा।’’ राजा ने समर्थन करते हुए कहा, बात तो ठीक है। लेकिन अब उसका स्थान कौन सम्भलेगा। यदि उसे हटा भी दिया जाता है तो इतने कम समय में दूसरा सेनापति कहां मिलेगा? उसी सेनापति से काम चलाने के अतिरिक्त कोई विकल्प दिखाई नहीं देता।’’
इस पर फकीर ने उन्मुक्त हंसी हंसते हुए कहा—‘‘आप चिन्ता नहीं करें, सेनापति का स्थान मैं सम्भालूंगा।’’ राजा विस्मय में पड़ गया लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी तो नहीं था।
दूसरे दिन सेना ने कूच कर दिया, सेना का नेतृत्व युद्ध अनुभवों से सर्वथा अपरिचित फकीर कर रहा था। थोड़ी ही दूर वे चले होंगे कि फकीर ने रुकने का संकेत किया, इस नये सेनापति के आदेश पर सेना रुक गई। सेनापति चाहे जो निर्णय ले, सभी सैनिक उसका अनुकरण करने पर मजबूर थे। युद्ध क्षेत्र अभी दूर था। बीच में अकारण रुककर समय बर्बाद करने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा था। सैनिक असमंजस में पड़ गये। इसी बीच सामने के मन्दिर की ओर इशारा करते हुए कहा— ‘‘युद्ध से पूर्व इस मन्दिर के देवता से पूछ लेते हैं कि जीत होगी या हार। यदि देवता जीत के लिए कह देते हैं तो फिर किसी का डर नहीं। दुश्मन की सेना कितनी ही विकट क्यों न हो जीत निश्चित ही हमारी होगी। यदि नहीं तो फिर चलने से क्या लाभ!’’
सैनिकों ने कहा कि आप तो एकान्त में देवता से पूछेंगे। देवता क्या उत्तर देते हैं यह हमें कैसे पता चलेगा?’’ ‘‘नहीं! अकेले में नहीं पूछूंगा। तुम सबके सामने ही देवता के सामने मैं प्रश्न करूंगा।’’ यह कहते हुए फकीर ने झोली से एक चमकता हुआ सिक्का निकाला और बताया कि अगर यह सिक्का चित्त गिरता है तो जीत हमारी ही होगी, यदि पट गिरेगा तो हम वापिस लौट जायेंगे। फकीर ने सिक्का ऊपर उछाला— सिक्के के गिरने के साथ ही उनके भाग्य का निर्णय होना था। सब विस्फारित नेत्रों से एक टक सिक्के को देख रहे थे। सिक्के के गिरते ही सबकी आंखें चमक गयीं। सिक्का चित्त गिरा था—जीत सुनिश्चित थी फकीर ने सबको उत्साहित करते हुए कहा— ‘‘अब डरने की कोई बात नहीं, देवता का आश्वासन हमें मिल गया है।’’
दोनों पक्षों की भयंकर लड़ाई के बाद जीत जापान के पक्ष में हुई। युद्धोपरान्त सैनिकों ने मन्दिर के पास पहुंचकर कहा कि देवता को धन्यवाद दे दें जिसने हमें जिताया, फकीर ने कहा देवता को धन्यवाद देने की आवश्यकता नहीं बल्कि अपने आपको धन्यवाद दो। तुम स्वयं ही अपनी जीत के आधार हो।’
‘‘जीत का देवता से कोई सम्बन्ध नहीं।’’ यह कहते हुए फकीर ने सिक्का पुनः झोली से निकालकर सैनिकों के हाथ पर रख दिया। सैनिकों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि सिक्के के दोनों और चित्त के निशान थे। यह और कुछ नहीं सैनिकों के सोये आत्मविश्वास को जगाने की एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भर थी जो अन्ततः जीत का कारण बनी।
संसार की महत्वपूर्ण सफलताओं का इतिहास आत्मविश्वास की गौरव गाथा से भरा पड़ा है। उत्कर्ष व्यक्ति का करना हो— समाज का अथवा राष्ट्र का, सर्वप्रथम आवश्यकता है अपने अन्दर सोये आत्मविश्वास रूपी देवता को जगाया जाये। अनुदान-वरदान सहज ही बरसते चले आयेंगे।