• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
    • कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
    • आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?
    • उत्साह एवं सक्रियता चिरयौवन के मूल आधार
    • साहस का शिक्षण—संकटों की पाठशाला में
    • असम्भव को भी सम्भव बनाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ
    • जो अपनी सहायता करने को तत्पर हो, उन्हें कोई नहीं रोक सकता
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
    • कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
    • आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?
    • उत्साह एवं सक्रियता चिरयौवन के मूल आधार
    • साहस का शिक्षण—संकटों की पाठशाला में
    • असम्भव को भी सम्भव बनाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ
    • जो अपनी सहायता करने को तत्पर हो, उन्हें कोई नहीं रोक सकता
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - पराक्रम और पुरुषार्थ से ओत-प्रोत यह मानवी सत्ता

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


साहस का शिक्षण—संकटों की पाठशाला में

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
शरीर और मन की अनुकूलताएं रुचिकर लगती हैं। उन्हें जुटाने के लिए मनुष्य का समूचा पुरुषार्थ लगा रहता है। जीवन यापन के लिए आवश्यक सुविधायें जुटाई जायं, यह उचित है पर यह नहीं भूलना चाहिये कि चाहते हुए भी वह जरूरी नहीं कि सदा अभीष्ट प्रकार की परिस्थितियां बनी रहेंगी। कठिनाइयां प्रतिकूलताएं भी जीवन पथ पर प्रस्तुत होती हैं तथा मनुष्य के धैर्य एवं जीवट की परीक्षा लेती हैं। अनभ्यस्त शरीर और मन को ऐसे अवसरों पर अधिक परेशानी होती है। उपस्थित कठिनाइयों संकटों को वे व्यक्ति अभिशाप मानते हैं। जिन्होंने सतत अनुकूलताओं में ही रहना सीखा है।

प्रायः देखा यह जाता है संकटों के अवसर पर अनभ्यस्त अपना मन ही अधिक समस्या खड़ा करता है। आरम्भ से ही उसे हर तरह की परिस्थितियों में रहने के लिए प्रशिक्षित और अभ्यस्त किया गया होता तो उपस्थित होने वाली कठिनाइयां भी खेल-खिलवाड़ जैसी महसूस होतीं। पुरुषार्थ एवं जीवट को निखारने का उन्हें भी माध्यम माना जाता है तथा उतना ही उपयोगी उन्हें भी समझा जाता है जितना कि अनुकूल परिस्थितियों को।

पर बिरले होते हैं जो अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थितियों में एक जैसे निस्पृह बने रहते हैं और अपने मन को दोनों ही में सन्तुलित बनाये रखते हैं। अन्यथा अधिकांश की प्रसन्नता अप्रसन्नता परिस्थितियों पर अवलम्बित होती है। वे अभीष्ट तरह की सुख सुविधाएं उपलब्ध रहने पर मोद मनाते तथा उनके तिरोहित होते ही शोकातुर हो उठते हैं। थोड़े से व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो कठिनाइयों तथा संघर्षों को स्वयं आमन्त्रित करते हैं। सुविधाओं तथा ढर्रे का जीवन उन्हें नहीं रुचता। कठिनाइयों संकटों से जूझे बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। वे जानते हैं कि उनका सामना किये बिना आन्तरिक जीवट को उभरने और सुदृढ़ बनने का अवसर नहीं मिल सकता। ऐसे व्यक्ति शूरवीर साहसी मनस्वी बनते हैं। स्वयं धन्य होते और दूसरों का प्रेरणा प्रकाश देते हैं।

प्राचीन काल की ऋषि परम्परा के शिक्षण में ऐसी व्यवस्था रहती थी कि मनोभूमि को सबल, काया को समर्थ और सुदृढ़ बनाने के लिए वे सारे प्रयोग किये जाय जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हों। गुरुकुलों में ऐसा ही शिक्षण चलता था। तप और तितिक्षा का कठोर अभ्यास शिक्षार्थी से कराया जाता था ताकि भावी जीवन में आने वाले किसी भी संकट-चुनौती का सामना करने में वह समर्थ हो सके। गुरुकुलों में प्रवेश लेने तथा प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले छात्रों को अनुकूलताओं में नहीं, प्रतिकूलताओं में जीना सिखाया जाता था। उस शिक्षण प्रक्रिया का परिणाम यह होता था कि विद्यालय से निकलने वाला छात्र हर दृष्टि से समर्थ और सक्षम होता था। जीवन में आने वाले अवरोध उन्हें विचलित नहीं कर पाते थे।

परिस्थितियां बदली और साथ में वह शिक्षण पद्धति भी। मनुष्य के चिन्तन में भारी हेर-फेर आया। यह मान्यता बनती चली गयी कि अनुकूलताओं में ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास सम्भव है। फलतः आरम्भ से ही बालकों को अभिभावक हर प्रकार की सुविधाएं देने का प्रयास करते हैं। उन्हें तप तितीक्षामय जीवन का अभ्यास नहीं कराया जाता। यही कारण है कि जब कभी भी प्रतिकूलताएं प्रस्तुत होती हैं ऐसे बालक उनका सामना करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।

कुछ विद्यालय आज भी ऐसे हैं जो जीवट को प्रखर बनाने का व्यावहारिक प्रशिक्षण देते हैं। उदाहरणार्थ जंगल एण्ड स्नो सरवाइल स्कूल इंडियन एयर फोर्स’ की ओर से भेजे गये वायुयान चालकों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाती है, जिससे वे हर तरह के संकटों का सामना करने में सक्षम हो सकें। हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार शिक्षण की प्रणाली अत्यन्त रोमांचक होती है। सामान्यतया विमान चालकों को हर तरह के क्षेत्र से होकर उड़ान भरनी होती है। हिमालय की ऊंचाई पर स्थित सघन वनों अथवा हिमाच्छादित प्रदेशों अथवा मरुस्थलों से होकर भी चालकों को गुजरना पड़ता है। यदि इन दुर्गम प्रदेशों में कोई दुर्घटना घटती है तो किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। इसका शिक्षण एवं अभ्यास चालकों को कराया जाता है। इन स्थानों पर बिना किसी बाह्य सहायता के उसे किस तरह प्रतिकूलताओं से जूझते हुए बाहर निकलना चाहिये इसका प्रशिक्षण दिया जाता है।

पैराशूट द्वारा रंगरूट को हिमाच्छादित प्रदेश में अज्ञात शिखर पर छोड़ दिया जाता है। साथ में भोजन पानी तथा अन्य आवश्यक साधन अत्यल्प मात्रा में उसके साथ होते हैं। सर्दी, गर्मी, तूफान, हिमपात तथा वन्य प्राणियों जैसे संकटों का उसे सामना करना पड़ता है। अल्प साधनों के सहारे उसे प्रस्तुत होने वाले हर संकट से जूझना पड़ता है। प्रमुख समस्या सामने आती है प्रकृति विपदाओं से अपनी सुरक्षा किस प्रकार की जाय, आहार की व्यवस्था कैसे जुटाई जाय? थोड़ी भी असतर्कता उसे मृत्यु के मुंह में धकेल सकती है। अस्तु उसे पूरी जागरूकता का परिचय देना पड़ता है।

प्रशिक्षण में कितने ही प्रकार के अभ्यास कराये जाते हैं। अल्प आहार में अधिक से अधिक दिन तक कैसे जीवित रहा जा सकता है, यह कष्ट साध्य अभ्यास हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में करना पड़ता है। जल के अभाव में कुछ दिनों तक जीवित रहने की क्षमता के विकास के लिए चालक को भीषण ताप क्रम वाले रेगिस्तान इलाकों में छोड़ दिया जाता है। थोड़ी सी पानी की मात्रा उसके साथ होती है। उसके सहारे उसे अधिक से अधिक दिनों तक मरु प्रदेशों में गुजारा करना पड़ता है। पैदल ही उसे तपते हुए सैकड़ों मील की दूरी तय करके सेना के पड़ाव तक पहुंचना पड़ता है।

बीहड़ जंगलों में उसे प्रशिक्षण काल में छोड़ दिया जाता है, यह परखने के लिए कि अविज्ञात क्षेत्रों से वह अपनी रक्षा करते हुए किस प्रकार निकल सकता है। थोड़े से खाद्यान्न और पानी के सहारे वह बीहड़ों में कई दिनों तक भटकता हुआ सुरक्षित स्थान पर पहुंचने के लिए मार्ग ढूंढ़ता है। उसे कितनी बार शेर, बाघ तथा जंगली हाथी जैसे हिंसक जीवों का सामना करना पड़ता है। वनों की बीहड़ता से निकलने के लिए उसे अपने मनोबल एवं साहस का पूरा-पूरा परिचय देना पड़ता है। हिमाच्छादित प्रदेश में रहने का अभ्यास और भी अधिक कष्ट साध्य है। शून्य डिग्री से भी नीचे तापक्रम में शरीर को रहने के लिए अभ्यस्त करना एक कठोर परीक्षा की अवधि होती है। शारीरिक एवं मानसिक क्षमता को निखारने एवं समर्थ बनाने वाली शिक्षण की इन प्रक्रियाओं से होकर गुजारने के बाद शिक्षार्थी को उत्तीर्ण घोषित किया जाता है। इस अवधि में उसकी मनोभूमि इतनी दृढ़ बन जाती है कि हर प्रकार के संकट चुनौतियों का सामना वह कर सके।

यों तो कुछ असामान्य कर जाने की ललक अधिकांश व्यक्तियों में होती है पर विरले होते हैं जो अपनी विशिष्टता का प्रमाण दे पाते हैं। अन्यथा बहुतेरे मात्र काल्पनिक उड़ानें भरते हैं। अभीष्ट स्तर का साहस न जुटा पाने, पुरुषार्थ का परिचय न दे पाने के कारण कुछ दिखाने की मुराद उनकी कभी पूरी नहीं हो पाती। जैसे तैसे वे जीवन के दिन गुजारते और अतृप्त इच्छा लिए हुए इस दुनिया से चल देते हैं।

कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें खाने कमाने के ढर्रे का जीवन नहीं रुचता। बिना कुछ असाधारण काम किये चैन नहीं पड़ता। भीतर का जीवन विशेषकर गुजरने के लिए उछाल मारता है। साधनों की प्रतिकूलता में भी वे चल पड़ते हैं, अपने एकाकी बलबूते भी चमत्कारी स्तर की सफलताएं अर्जित कर लेती हैं। उनके प्रचण्ड पुरुषार्थ के समक्ष प्रतिकूलताओं को भी नत मस्तक होना पड़ता हे। उनका प्रयास उस मछली की तरह होता है जो नदी की प्रचण्ड धारा को उल्टी दिशा में चीरती हुई चली जाती है। रोमांचिक साहसिक अभियान ऐसे ही पुरुषार्थी पूरा कर पाने में सफल होते हैं।

जैकी टेरी नामक एक व्यक्ति ने इंग्लिश चैनल को साइकिल द्वारा पार करने का निश्चय किया। अनेकों व्यक्तियों ने तैरकर तो चैनल का पार किया था, पर साइकिल से पार करना संकटों से भरा हुआ था। थोड़ा भी सन्तुलन गड़बड़ा जाने पर मृत्यु की गोद में जा पहुंचने का खतरा था। उसने विशेष प्रकार की साइकिल बनवाई जिसके पहिये रबर टायर के थे। साइकिल के डूबने का खतरा तो नहीं था सन्तुलन बनाये रखना अत्यन्त कठिन कार्य था। टेरी को डोवर (यू.के.) नामक स्थान से कैलाइस (फ्रांस) तक पहुंचना था। साइकिल लेकर वह चल पड़ा। तीव्र प्रवाह में वह इतनी बार गिरते-गिरते बचा पर उसने हिम्मत नहीं हारी मात्र आठ घण्टे में चैनल के दूसरे किनारे पहुंचकर एक नया और अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया।

अधिकांश व्यक्ति बुढ़ापे को जीवन का अभिशाप समझते हैं। ऐसी मान्यता है कि साहस उमंग और उत्साह की विशेषतायें युवावस्था तक ही रहती हैं। शरीर भी प्रायः अशक्त हो जाता है। पर इस मान्यता को झुठलाने वाले कितने ही व्यक्ति हुए हैं। विलिम विलियस नामक व्यक्ति के जीवन का उत्तरार्ध पक्ष ऐसे अभियानों को पूरा करने में खपा जो अत्यन्त खतरनाक थे। 61 वर्ष की आयु में उनके मन में विचार आया कि कुछ नये प्रकार का कार्य किया जाय। सात लकड़ी के लट्ठों में बने अस्थायी पोत से पेरु (दक्षिण अमेरिका) से सामौआ (प्रशान्त महासागर) की यात्रा करने के लिए वह अकेला चल पड़ा। साथियों, सम्बन्धियों ने उसे इस संकट युक्त अभियान के लिए रोका, कितनों ने उसे पागल करार दिया तथा यह कहा कि ‘विलिस’ अपनी मृत्यु स्वयं आमन्त्रित कर रहा है। पर एक बार निश्चय कर लेने के बाद कोई उसे डिगा नहीं सकता। साथी के नाम पर उसने मन बहलाने के लिए एक बिल्ली और एक तोते को अपने साथ ले लिया। मार्ग में कितने ही अवरोध आये। समुद्र की तूफानी लहरों के बीच लकड़ी के गट्ठर की नाव को डूबने से बचा लेना विशेष सूझ-बूझ और हिम्मत की बात थी। हर अवरोध को चीरते हुए उसने 6 हजार सात सौ मील की लम्बी दूरी मात्र एक सौ बारह दिन में पूरी की।

प. जर्मनी का पीटर नारमैन सत्तर वर्षीय वृद्ध अपनी गोताखोरी के कमाल के लिए प्रख्यात था। खोई वस्तुओं को समुद्र से ढूंढ़ने में उसे विशेष दक्षता प्राप्त थी। इस आयु में सोने-चांदी से भरे एक अंग्रेजी पोत के समुद्र में डूब जाने पर उसने गोताखोरी के ग्रुप का नेतृत्व किया। अपने प्रयत्नों से उसने इस विपुल सम्पदा का पता लगा लिया जो समुद्र में डूब गई थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उसकी साहसिक ख्याति पूरे जर्मनी में फैल गई। समुद्र के गर्भ में समाई सम्पदा को ढूंढ़ने पर उसे एक बड़ी रकम पारितोषिक के रूप में प्राप्त हुई।

गोताखोरी के इतिहास में फ्रांसीसी गोताखोर अलेक्जैंडर लैम्बर्ड का नाम उल्लेखनीय है। उसने अकेले ही कैनरी द्वीप से कुछ दूर ध्वस्त स्टीमर ‘अल्फेन्मो’ का एक सौ बासठ फीट नीचे पानी में जाकर पता लगाया। स्टीमर में सोने की सिल्लियां भरी थीं। निरन्तर ग्यारह दिन तक वह प्रतिदिन तीन के हिसाब से गोता लगाता रहा, हर बार वह पांच मिनट से लेकर दस मिनट तक पानी के भीतर रहकर सोने की ईंटों को खोजता था। इस तरह उसने अपने दुस्साहस का परिचय देकर लगभग साढ़े तीन लाख डालर से भी अधिक कीमत का सोना प्राप्त करने में सफलता पाई।

भोजन और पानी जैसे न्यूनतम साधन तो हर व्यक्ति को जीवित रहने के लिए चाहिये। फ्रांस के एक चिकित्सक ‘डॉ. एलेन वाम्वर्ड ने अत्यन्त जोखिम भरा निर्णय लिया, अपने साथ कुछ भी खाने पीने योग्य वस्तुएं न लेकर उसने निश्चय किया कि प्रकृति के आंचल में जो कुछ भी मिल जायेगा उसके सहारे ही वह अटलांटिक महासागर पार करेगा। एक छोटी सी नौका को लेकर वह चल पड़ा गन्तव्य की ओर। उसे कैनरीज से बारवेडोस तक की लम्बी दूरी तय करनी थी। पैंसठ दिन तक वह समुद्री यात्रा पर रहा। समुद्र का खारा पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है पर वह उसी पानी का सेवन करके जीवित रहा और अन्ततः अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल रहा।

शून्य डिग्री से नीचे तापक्रम पर पानी बर्फ के रूप में जमने लगता है। ऐसे अनेकों बर्फीले प्रदेश हैं जहां वर्ष के बारहों माह बर्फ जमी रहती है। विशेष ऊंचे पहाड़ के शिखरों पर भयंकर ठण्डक पड़ती है। सामान्यतया नंगे पैर उन शिखरों पर आरोहण मुश्किल ही नहीं प्रायः असम्भव माना जाता है। इस असम्भव को सम्भव कर दिखाया जर्मनी के फ्रिट्ज सीगेल ने। सन् 1932 के जुलाई माह में उसने वह ऐतिहासिक चढ़ाई की। जर्मनी के ‘जग्स पिट्स’ शिखर की ऊंचाई नौ हजार सात सौ अट्ठाइस फीट है। शरीर को गला देने वाली ठण्ड को भी उसने अपने जीवट और मनोबल के सहारे सहन किया पैर तो जख्मी हो गये पर उसकी यात्रा रुकी नहीं। नंगे पैर उस उच्च शिखर पर पहुंच कर ‘सीगेल’ ने एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया।

घुड़सवारी का वह बेमिसाल प्रदर्शन था। माउण्ट गैम्बियर आस्ट्रेलिया के एडैलिण्ड से जॉर्डन नाम व्यक्ति को साढ़े चार फुट ऊंचाई बाड़ के ऊपर से एक पतली ऐसी कगार पर कूदना था जहां मुश्किल से खड़े होने भर की जगह थी। वह एक चट्टान का किनारा था। चट्टान से फिसलने का अर्थ था- नीचे तीन सौ फुट गहरी खाई में जा गिरना इस रोमांचक प्रदर्शन को देखने के लिए अपार भीड़ जमा थी। ऐसा लगता था कि सबकी आंखें थम गई हो। किसी को यह विश्वास ही नहीं था कि जॉर्डन को इस खतरनाक काम में सफलता मिलेगी, कमजोर मनोभूमि के दर्शकों ने सीटी बजते ही अपनी आंखें बन्द कर ली। अर्जुन के लक्ष्य बेधी बाण की तरह उसने घोड़े पर बैठकर छलांग लगा दी और ठीक उस स्थान पर गिरा जहां से मृत्यु का मार्ग आरम्भ होता था। घोड़े ने भी सन्तुलन बनाने के लिए अपने शरीर को चट्टान पर पहुंचते ही तिरछा कर लिया। दर्शकों की हर्षध्वनि वातावरण में गूंज उठी। यह अदम्य साहस ही एक अनोखी घटना थी, जिसका रिकार्ड आज भी आस्ट्रेलिया में मौजूद है।

नंगे पैर हिमाच्छादित शिखरों पर चढ़ने वाले साधारण से व्यक्ति हेनरी डूयूक का नाम भी दुस्साहसियों की श्रृंखला में आता है। ड्यूक का वह आरोही जब बर्फ से ढके आल्पस पर्वत को पार करने चलने लगा तो सत्रहवीं सदी के स्थानीय सम्राट ने उसे इस जोखिम से भरे कार्य के लिए स्पष्ट मना किया। पर उसने राजा की भी अवहेलना कर दी। अकेले ही वह हिमाच्छादित प्रदेश की यात्रा करता रहा। राजा का आदेश उल्लंघन करने के कारण वह पुनः अपनी जन्मभूमि पर नहीं लौट सका। भयंकर शीत में बर्फ पर नंगे पैर पहाड़ी इलाके से होते हुए वह पेरिस, फ्रांस से रोम और फिर इटली जा पहुंचा। थोड़े दिन विश्राम लेने के बाद उसने आल्पस पर्वत पर चढ़ाई आरम्भ की। आल्पस को लांघते हुए वह इटली से ‘रिवोली’ पहुंच गया। जीवन के अन्तिम दिनों तक वह रिवोली में ही रहा। साहसियों के इतिहास में ड्यूक का नाम आज भी लिया जाता है।

एक पारसी सन्त अबुल कासिम जोनिट ने अपने जीवन काल में मक्का की तीस बार यात्रा की। हर बार वह पैदल चला। उसने कुछ 82 हजार 6 सौ मील की दूरी तय को। अन्तिम यात्रा विशेष कष्टसाध्य थी। यह निश्चय करके वह चला कि मक्का की अन्तिम यात्रा की अन्तिम 14 सौ मील की दूरी पूर्णतया घुटनों के बल चलकर पूरी करेगा। अपने संकल्प के प्रति वह दृढ़ था। इस प्रयास में उसके घुटने जख्मों से भर गये पर अन्तिम क्षण तक उसने अपना संकल्प नहीं छोड़ा। मक्का पहुंचने में वह सफल हो गया।

गुब्बारे से उड़ान भरना आज उतना खतरनाक नहीं रहा जितना कि एक सदी पूर्व था। कारण कि तब आज जितना तकनीकी ज्ञान का विकास नहीं हुआ था सैण्टोस डुमीण्ट फ्रांस का पहला व्यक्ति था जिसने एक गुब्बारे का आविष्कार किया था। 1901 में उसने गुब्बारे के सहारे उड़ता रहा। इस अनोखे प्रदर्शन के लिए उसे इनाम की एक बड़ी राशि प्राप्त हुई। पर उसने उस सम्पत्ति को समाज सेवी संस्थाओं में वितरित कर दिया तब से उसने समाज सेवा का एक नया मार्ग ढूंढ़ निकाला। वह गुब्बारे की उड़ान का जगह-जगह प्रदर्शन करता। फलस्वरूप उसे पारितोषिक में अपार धनराशि मिलती जिसे वह मनुष्य जाति के कल्याणकारी कार्यों में मुक्त हस्त से लगा देता। उक्त सम्पत्ति से डुर्मोण्ट ने अनेकों गिरजाघरों का निर्माण कराया।

‘दैट इज इनक्रैडीबल’ पुस्तक में एक रोमांचक घटना का उल्लेख है। 6 मार्च 1980 को कोलोराडो नामक नगर में एक प्रदर्शन को देखने के लिए विशाल जन समूह एकत्रित हुआ। अर्कनास नदी से हजारों फुट ऊंचाई पर एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक मोटी रस्सी बांध दी गई। एक हजार फीट लम्बी रस्सी को हाथों से पकड़कर नदी के दूसरी ओर पहुंचना था। इस रोमांचक प्रदर्शन का हीरो था डेविड किर्क। धरातल से सौ मीटर ऊंचाई पर बंधी रस्सी को किर्क ने सीढ़ी के सहारे चढ़कर पकड़ लिया। दर्शकों की श्वांस की गति डर के मारे तेज हो गई पर किर्क के लिए जैसे वह कार्य खेल का रिहर्सल हो इस ढंग से उसने अपना प्रदर्शन आरम्भ किया। थोड़ी सी असावधानी से रस्सी छूट सकती थी। जिसके फलस्वरूप हजारों फुट गहरी नदी में जा गिरने का खतरा था इस खतरनाक प्रदर्शन में किर्क पूर्णतया सफल रहा। एक किनारे पर कुछ ही मिनटों में पहुंचकर डेविड ने यह सिद्ध कर दिया कि साहसियों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। हिम्मत हो तो वह कार्य कर दिखाया जा सकता है जो प्रायः दूसरे सामान्य व्यक्तियों के लिए असम्भव माने जाते हैं।

ध्रुव प्रदेशों को अगम्य माना जाता रहा है। अत्यधिक शीत से भरा हिमाच्छादित यह क्षेत्र निर्वाह के साधनों की दृष्टि से रहने योग्य नहीं है। इतने पर भी साहस के धनी ‘एडवेंचर’ को ही पसन्द करने वाले लोग वहां जा ही पहुंचे और वहां रहकर अपनी पृथ्वी की गतिविधियों, भौगोलिक जानकारियों सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचनायें ला सकने में सफल हुए हैं ध्रुव अभियान कितने कठिन हैं, इनकी कल्पना करने मात्र से रोमांच हो उठता है। पर मानवी दुस्साहस तो अजेय शक्ति है। वह असम्भव को सम्भव बनाती रही है। यह मनुष्य का पराक्रम ही तो है जिसने ध्रुवीय क्षेत्र में जा पहुंचने, रहने और काम करने की कठिनाइयों को भी सरल बना दिया है। और वैज्ञानिक अब वहां डेरा डालकर रह रहे हैं। जीव जन्तुओं में विद्यमान बायोलॉजिकल क्लॉक, मौसम के जीव चेतना पर प्रभाव, पृथ्वी चक्र की परिक्रमा के साथ चुम्बकीय उतार-चढ़ाव, ध्रुव स्थानों पर विद्युतीय चुम्बकीय बल आदि सम्बन्धी खोजें इन्हीं साहस के धनी संकल्पवानों के बलबूते ही पाई है।

दक्षिण ध्रुव पर सबसे पहला शोधकर्त्ता नार्वे कां रोनाल्ड एमण्डसन अपने चार साथियों सहित सन् 1917 में पहुंचा था। उसे रोवर स्कॉट के रूप में एक सहयोगी भी बाद में मिला। 8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली दस हजार फुट मोटी बर्फ की चादर से ढके, नितान्त नीरव इस स्थान पर कोई हौंसले वाला ही टिक सकता है। यह दल लगातार दस वर्ष तक वहीं पड़ा सीमित साधनों में निर्वाह कर विविध प्रकार के अनुसंधान करता रहा।

उत्तरी ध्रुव क्षेत्र का पर्यवेक्षण करने के लिए सन् 1961 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अलास्का में एक तैरती प्रयोगशाला स्थापित की। दो मील लम्बा, डेढ़ मील चौड़ा, 60 फुट मोटा एक हिमखण्ड उस क्षेत्र में इन वैज्ञानिकों ने तैरता पाया जो अलास्का से 130 मील उत्तर में था तथा ग्रीनलैण्ड की ओर तैरता जा रहा था। उस पर इन वैज्ञानिकों ने अड्डा जमाया और ऐसी झोपड़ियां खड़ी की जो 70 मील की गति से चलने वालों अन्धड़ों का दबाव बर्दाश्त कर सकें। मैक्स ब्रीवर इस शोध के संचालक थे। एक अस्थाई जेनरेटर में विद्युत की व्यवस्था बनाई गई। हिमद्वीप पर इस सवारी मण्डल ने चार वर्ष तक यात्रा की तैरते-तैरते 7500 मील का सफर पूरा कर इस द्वीप ने अपनी यात्रा ग्रीनलैण्ड और आइसलैण्ड के बीच डेनमार्क की खाड़ी में उत्तरी ध्रुव के समीप समाप्त की। यहां बर्फ गलकर धीरे-धीरे समाप्त हो गया। शोध संस्थान को भी इस पर से अपना डेरा उठना पड़ा। पर इस बीच वे जो जानकारी इस ‘तैरते द्वीप’ से लेकर आये थे, उसने भूगोल विज्ञान, परिस्थिति तथा भूगर्भ विज्ञान को नई दिशायें दी, पुरानी मान्यताओं में परिवर्तन किया। 35 वर्षीय जान्सटन को तो वह द्वीप इतना सुहावना लगा कि जब इस द्वीप को छोड़ रहे थे। वह प्रकृति की लीला जगत का हतप्रभ हो अवलोकन कर रहा था और गलते हिमखण्ड के साथ उसने भी हिम समाधि ले ली।

आज तो सुविधा साधन बहुत हैं। इन बीस वर्षों में विज्ञान ने जो प्रगति की है उससे वातानुकूलित यान, आइसस्कूटर्स व ध्रुवीय परिस्थितियों के लिये ही विशेष रूप से बनाये गये विशेष तापयुक्त मकान भी प्रयोगशालाओं को उपलब्ध हैं। कई दल वहां महीनों डेरा डाले पड़े रहते हैं। पर उनका बलिदान भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने इस खोज में साधनों के बिना अकेले पुरुषार्थ कर दिखाया और जान की बाजी लगा दी।

सर फ्रांसिस विचेस्टर को कौन नहीं जानता, जिन्होंने सारे विश्व की परिक्रमा ढलती आयु में मात्र एक शरकण्डे ही नाव से की। यह तो बहुचर्चित साहसी की बात हुई। पर कुछ ऐसे भी हैं जिनके दुस्साहसी विवरण कहीं छपे नहीं, किसी ने उन्हें जाना नहीं। एलेन गेरबा नामक एक फ्रांसिसी युवक ने किसी उपन्यास में स्लोकम नामक नाविक की छोटी-सी हाथ की बनी नाव द्वारा विश्वयात्रा के विषय में बढ़ा था। इसी से वह प्रेरित उत्साहित हुआ। उसने सोचा—जब पहले हाथ से बनी एक कमजोर नाव से स्लोकम ने यात्रा कर ली तो वह मजबूत नाव के सहारे क्या एक छोटी यात्रा अकेले नहीं कर सकता? उसने सोचा वह अपनी नाव जिब्राल्टर से न्यूयार्क तक की 4200 मील की यात्रा अकेले ही पूरी करेगा।

जिब्राल्टर भूमध्य सागर व अटलांटिक महासागर के मिलन बिन्दू पर स्थित है एवं एक ब्रिटानी उपनिवेश है। यहां से न्यूयार्क तक का मार्ग अटलांटिक पारकर बड़े जलयानों के लिए तो 3000 मील का है, पर इस महासागर में जो तूफानी हवायें चलती हैं, उनसे बचने के लिए छोटी नावों को 1200 मील का अतिरिक्त चक्कर काटकर जाना पड़ता है। इसीलिये मार्ग इतना लम्बा हो जाता है। बड़े जलयान उन दिनों तीन माह में इस मार्ग को पारकर जाते थे, पर गेरबा ने लगातार चलने के लिए चार माह लायक खाद्य सामग्री एकत्र करली और एकाकी यात्रा का ही सरंजाम जुटाया। इसके इस निश्चय पर अधिकांश ने उसे निरुत्साहित ही किया तथा इस खतरे में न पड़ने की सलाह दी। दृढ़ संकल्प के धनी इस युवक ने किसी की न सुनी और अपनी यात्रा आरम्भ कर ही दी।

वह एक सिविल इंजीनियर तो था ही। उसने अपनी नौकरी से लम्बी छुट्टी ली एवं 6 जून 1922 को अपनी लम्बी यात्रा पर निकल पड़ा यात्रा कुछ ही आगे बढ़ी होगी कि तूफानों ने नाव की पाल के चिथड़े उड़ा दिये। हिलोरें इतनी तेज थीं कि उसे अपनी खाद्य सामग्री तक बचाने में सारा श्रम नियोजित करना पड़ा। अपना स्टोव वह तीन दिनों तक जला नहीं पाया, खाना कैसे पकता? तूफान थमा 2 दिन और शान्ति के बीते कि वर्षा ने जोर मारना आरम्भ कर दिया। वर्षा के पानी से सोने-जागने की, आहार-सफाई की व्यवस्थायें पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दी। कई बार ऐसे अवसर भी आये कि नाव उलटने का खतरा पैदा हो जाता था। उसने एक बार नाव की पाल पर—बल्ली पर चढ़कर अपनी नाव बचाई। जिन्दगी और मौत के बीच घमासान लड़ाई होती रही, पर यात्रा जारी रही। समुद्री रोगों का आक्रमण हुआ, कई बार लगा—कहीं वह रास्ता भटककर टेढ़ी दिशा में तो नहीं चल पड़ा है पर सारी प्रतिकूलताओं से जूझता हुआ वह अपने लक्ष्य की ओर अनवरत गति से बढ़ता ही गया।

उसकी नाव 101 दिन बात जब न्यूयार्क के लांग आयलैण्ड बन्दरगाह पर पहुंची तो उपस्थित भीड़ ने हर्षोल्लास से उसका स्वागत किया। वह पहला व्यक्ति था जिसने इतने कम समय में मात्र कुछ साधनों के सहारे अटलांटिक पार करने का दुस्साहस कर दिखाया था। अभिनन्दन किये जाने पर प्रसन्नता से अभिभूत रुंधे गले से वह मात्र इतना ही कह पाया—‘‘मनुष्य के लिए असम्भव को सम्भव कर दिखा पाना कुछ कठिन नहीं है। मैं उत्साह और साहस के समन्वय से मानवी क्षमता और जिजीविषा की अजेय सामर्थ्य के प्रति मानव-समाज का ध्यान आकर्षित करना चाहता था। मुझे प्रसन्नता है कि मुझ जैसे छोटे अकिंचन प्राणी ने यह कर दिखाया। यह कोई बहुत बड़ा चमत्कार नहीं है, पिण्ड की सामान्य सामर्थ्य का सदुपयोग भर है।’’
First 4 6 Last


Other Version of this book



पराक्रम और पुरुषार्थ से ओत-प्रोत यह मानवी सत्ता
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

विश्व की महान नारियाँ-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

विश्व की महान नारियाँ-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
...

संत विनोबा भावे
Type: SCAN
Language: HINDI
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

युगसंधि महापुरश्चरण और संकट निवारण
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
Language: EN
...

गर पूछे कोई मुझसे तो मैं कहूँ कि स्वर्ग बस यहीं है
Type: TEXT
Language: EN
...

आध्यात्मिक कायाकल्प का विधि- विधान-२
Type: TEXT
Language: HINDI
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

भगवान को मत बहकाइए
Type: TEXT
Language: EN
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

चेतना सहज स्वभाव स्नेह-सहयोग
Type: SCAN
Language: HINDI
...

दहेज दानव से सामाजिक लड़ाई लड़ी जाय
Type: SCAN
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Articles of Books

  • प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
  • कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
  • आत्मविश्वास क्या नहीं कर सकता?
  • उत्साह एवं सक्रियता चिरयौवन के मूल आधार
  • साहस का शिक्षण—संकटों की पाठशाला में
  • असम्भव को भी सम्भव बनाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ
  • जो अपनी सहायता करने को तत्पर हो, उन्हें कोई नहीं रोक सकता
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj