
प्राणवान प्रतिभाओं एवं जागृत आत्माओं को महाकाल का आह्वान
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‘‘बीसवीं सदी का अंत और इक्कीसवीं सदी का आरंभ युग संधि का ऐसा अवसर है जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में भी इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। विज्ञान ने सुविस्तृत संसार को किसी गली-मुहल्ले की तरह निकटवर्ती बना दिया है। व्यक्ति और समाज की समस्याएं आपस में गुंथ गई हैं। साथ जीने साथ मरने जैसा माहौल बन गया है। इसलिए समस्याओं और उनके समाधानों की खोज नई किंतु व्यापक दृष्टि से करनी होगी। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा।
इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी-चेतना को ही करना पड़ेगा-उस चेतना को जिसका प्रतिनिधित्व जागृत और वरिष्ठ प्रतिभाएं करती रही हैं, ऐसी प्रतिभाएं जो प्रामाणिकता एवं सुप्रखरता से सुसंपन्न हों। उन्हीं को युग समन्वय का निर्णायक भी कहा जा सकता है।
विस्फोटक गति से बढ़ती हुई जनसंख्या, खाद्य और खनिज पदार्थों में निरंतर होती जा रही कमी, बढ़ता हुआ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, आणविक विकिरण, वनों का अत्यधिक ह्रास, धरती का क्षरण, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग, औद्योगीकरण के कारण बढ़ती बेरोजगारी, नशेबाजी, व्यभिचार जैसी दुष्प्रवृत्तियां, लोभ-मोह-विलास और प्रदर्शन से भरी पूरी संकीर्ण स्वार्थपरता, कुप्रचलनों के प्रति दुराग्रह जैसी अनेक समस्याएं इन दिनों तूफानी गति से उभर रही हैं। उनकी बढ़ती तूफानी दिशाधारा मानवी गरिमा को अपने प्रवाह में बहा ले जा सकती है और महाप्रलय के दृश्य उपस्थित कर सकती है। धरती का बढ़ता तापमान, जल प्रलय, हिम प्रलय, प्रचंड तपन, भुखमरी, सूखा, महामारी जैसे स्तर के ऐसे संकट उत्पन्न कर सकता है जिससे मानवी सत्ता और सभ्यता का अता-पता भी न चले।
एक ओर जहां ये सर्वभक्षी विभीषिकाएं इस सुंदर विश्व-उद्यान को तहस-नहस करने पर तुली हुई हैं, वहां आशा की उषाकाल जैसी एक क्षीण किरण नवोदय का, युग परिवर्तन का क्षीण संदेश भी दे रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में विनाश का दमन और विकास का अभ्युदय करने हेतु महाकाल की नियामक चेतना अवतरित होती रही है और संकटों को टालती रही है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य’ वाली उक्ति में युग युग में घटित होने वाली संभावनाओं का संकेत भी है और उनसे रक्षा का आश्वासन भी है। सृष्टि अपनी इस अनुपम कलाकृति धरित्री तथा मानवी सत्ता और उसकी महत्ता का सर्वथा विनाश न होने देने का चमत्कारी सरंजाम सदा जुटाती रही है। ‘इस बार वैसा नहीं होगा’-ऐसी निराशा किसी को भी नहीं अपनानी चाहिए। उज्ज्वल भविष्य का नाम ही इक्कीसवीं सदी से आरंभ होने वाला ‘सृजन पर्व’ है।
विनाश के दमन और विकास के, सृजन के इस संक्रमण काल में महाकाल ने प्राणवान प्रतिभाओं को, जागृत आत्माओं को सहयोगी और सहभागी बनाने के लिए आमंत्रण भेजा है। प्रमादी और कुसंस्कारी इसे अनदेखी-अनसुनी करके उपेक्षा भी बरत सकते हैं पर जिनके भीतर आदर्शों की उत्कृष्टता एवं दूरदर्शी विवेकशीलता विद्यमान है, वे समय पर चूक कर सदा पछताते रहने की भूल नहीं कर सकते। महत्वपूर्ण अवसरों की अवमानना करने वाले ही अभागे कहलाते हैं। भाग्यवान तो सहज संभावना में भागीदार बनने के लिए पांडवों जैसी साहसिक सूझ-बूझ का परिचय देते हैं।
इन दिनों ऐसे ही मणि-मुक्तकों की तलाश हो रही है जिनका संगठित हार युग चेतना की महाशक्ति के गले में पहनाया जा सके। ऐसे सुसंस्कारियों की तलाश युग निमंत्रण पहुंचाकर की जा रही है। जो जीवित होंगे, करवट बदल कर उठ खड़े होंगे और संकटकाल में शौर्य प्रदर्शित करने वाले सेनापतियों की तरह अपने को विजयश्री वरण करने के अधिकारी के रूप में प्रस्तुत करेंगे। कृपण और कायर ही कर्तव्यों की पुकार सुनकर कांपते, घबराते और कोटर में अपना मुंह छिपाने की विडंबना रचते दिखलाई पड़ेंगे। एक दिन मरेंगे तो वे भी पर खेद-पश्चाताप की कलंक कालिमा सिर पर लादे हुए।
महाविनाश की विभीषिकाएं अपनी मौत मरेंगी। अरुणोदय अगले ही क्षणों जाज्वल्यमान दिवाकर की तरह उगेगा। यह संभावना सुनिश्चित है। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका का संपादन करने के लिए श्रेय कौन पाता है, किसके कदम समय रहते श्रेय पथ पर आगे बढ़ते हैं।’’
विश्वव्यापी विभीषिकाओं का उपर्युक्त आकलन, नवयुग के आगमन की स्पष्ट एवं शंका-संदेह रहित घोषणा और इस सृजन पर्व में अपनी अपनी भूमिकाओं को निष्ठापूर्वक निर्वाह करने के लिए प्राणवान प्रतिभाओं तथा जागृत आत्माओं को खुला आमंत्रण उस युग दृष्टा एवं सृष्टा द्वारा किया गया है जिसे यदि हम अधिक कुछ न स्वीकार करें तो भी महामानव तो मानना ही पड़ेगा। उस युग ऋषि का महामानवत्व उस सर्वोच्च भावभूमि पर अधिष्ठित था जहां पहुंच कर व्यक्तिगत, जातिगत, समाजगत और राष्ट्रगत सीमाएं टूटकर बिखर जाती हैं और ‘सिया राम मय सब जग जानी’ की एकत्व दृष्टि ही शेष रह जाती है। महाप्रयाण के कुछ ही दिनों पूर्व वे हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि की भेदभाव मूलक सोच से ऊपर उठकर और अंधमान्यताओं, कुरीतियों आदि को ध्वस्त कर एक ऐसे विश्व राज्य के नव निर्माण का संदेश दे गये हैं, जिसमें ‘‘राजतंत्र और धर्मतंत्र दोनों मिलकर एक समग्र लोकतंत्र का सृजन करेंगे जिसके अंतर्गत शासन तंत्र सुरक्षा, सुव्यवस्था, प्रशासन, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, मुद्रा, अर्थव्यवस्था, न्याय आदि का संचालन करेगा पर मानसिकता, भावना, आचार संहिता, प्रथा प्रक्रिया आदि का दायित्व धर्म तंत्र को संभालना पड़ेगा। भौतिकता से मनुष्य को लाभान्वित करने का सरंजाम शासन जुटाए और आध्यात्मिकता, नीतिनिष्ठा, समाज निष्ठा, आदर्श, अनुशासन आदि को समुन्नत करने की जिम्मेदारी धर्मतंत्र के कंधे पर रहे। इतने पर भी यह आवश्यक है कि दोनों के बीच एकता भी रहे और दोनों एक-दूसरे को परिष्कृत-व्यवस्थित करने में अपनी-अपनी भूमिका निबाहें। समग्रता इसी आधार पर बन पड़ेगी। अगले दिनों ढांचा ऐसा ही खड़ा करना पड़ेगा।’’