
युग विधात्री वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा
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20 सितंबर 1926 के शुभ दिन सावलिया बौहरे धारा के जसवन्तरायजी के यहां आपका आविर्भाव हुआ था। जन्मते ही भविष्य दृष्टाओं ने घोषणा कर दी थी कि परा दैवीशक्ति इस शिशु के रूप में लोकमंगल के लिए अवतरित हुई हैं। बाल्यकाल की अनेक घटनाएं इसकी प्रमाण हैं।
1943 में विवाह हुआ। विवाह के उपरांत पहिले आंवलखेड़ा, फिर मथुरा और बाद के चौबीस वर्षों में वे हरिद्वार के सप्तसरोवर स्थित शांतिकुंज में रहीं। प्रारंभिक 45 वर्ष ब्रजभूमि में व अंतिम 24 वर्ष सप्त ऋषियों की तपःस्थली में बीते। उनका हर पल समर्पण-साधना में, जनहित के लिए तिल-तिल कर गलने में तथा स्नेह व ममत्व को लुटाने में ही नियोजित हुए। विवाह के बाद वे उस जमींदार घराने में बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों में रहती रहीं, जहां आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे। जैसा पति का जीवन, वैसा ही अपना जीवन, जहां उनका समर्पण उसी के प्रति अपना भी समर्पण-यही संकल्प लेकर वे जुट गयी थीं कंधे से कंधा मिलाकर पूर्व जन्मों के अपने आराध्य इष्ट के साथ। उन दिनों चौबीस वर्ष के चौबीस महापुरश्चरणों का उत्तरार्ध चल रहा था। उस समय वे हविष्यान्न से बनीं रोटी व छाछ पूज्य गुरुदेव को खिलातीं तथा उनके अखण्ड दीप की रक्षा करती रहीं। हर आने वाले अभ्यागत का आतिथ्य कर घर में जो भी था, उसी से उसकी व्यवस्था की। बच्चों के लिए आए दूध में पानी पड़ता जाता व उसी से चाय बनाकर दुखी-पीड़ितों की सेवा की जाती। कष्ट सुने जाते और घावों पर मलहम लगाए जाते। मात्र 200 रुपये की आय में दो बच्चे, एक मां, स्वयं दो इस प्रकार पांच व्यक्तियों की व्यवस्था उन सौ डेढ़ सौ व्यक्तियों के अतिरिक्त करना, जिनका अखण्ड ज्योति संस्थान आना-जाना नित्य होता ही रहता था, मात्र उन्हीं के बस की बात थी। हाथ से कागज कूटकर बनाना, उसे सुखाना व फिर उससे पैर से चलने वाली हैण्डल प्रेस द्वारा छोटे-छोटे ट्रैक्ट व ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका छापना, उन पर पते लिखकर डिस्पैच करना, बच्चों की पढ़ाई की देखभाल की व्यवस्था करना-यह सब अकेले ही उनने किया।
जब गायत्री तपोभूमि की स्थापना का समय आया, तब पूज्य गुरुदेव 108 कुण्डीय यज्ञ कर 24 वर्षीय अनुष्ठान की समाप्ति करना चाह रहे थे। उस समय स्वयं अपनी ओर से पहल करके उनने अपने सारे जेवर अपने आराध्य के कार्य को सफल बनाने के लिए दे दिए। उन्हें बेचकर गायत्री तपोभूमि की जमीन खरीदी गई, जमींदारी के बॉण्ड्स बेचकर भवन खड़ा हुआ। निजी उदाहरण प्रस्तुत हुआ तो अगणित अनुदान देने वाले आगे आते चले गये व गायत्री परिवार के बीजांकुर को फलित-पल्लवित होने का अवसर मिला।
1958 का सहस्रकुण्डीय महायज्ञ अपने आप में एक ऐतिहासिक धर्मानुष्ठान था, जिसने गायत्री के सद्ज्ञान व यज्ञ के सत्कर्म की दिशाधारा को घर-घर पहुंचा दिया। उस समय गायत्री परिवार की संरक्षिका और दुलार बांटने वाली मातृसत्ता के रूप में उनका आविर्भाव हुआ। सत्य यह है कि 1951 से 1990 की अवधि उनके लिए कड़ी कसौटी का समय था। यह समय परम वंदनीया माताजी के एक संगठक के रूप में, आन्दोलन का संचालन करने वाली मातृ शक्ति के रूप में कार्य करने वाला समय था। इस अवधि में उनने ‘‘नारी जागरण अभियान’’ का शंखनाद करने वाली भारत की संभवतः पहली व एकमात्र पत्रिका का संपादन किया, चौबीस देव कन्याओं को कई गुना कर अगणित टोलियां क्षेत्रों में भेजीं जिसके फलस्वरूप अनेकों नारी जागरण मंडल अथवा शाखाएं सक्रिय रूप से कार्य करने लगीं। विभिन्न सत्रों का संचालन करते हुए शिविरार्थियों को अपने हाथ से बना हविष्यान्न का बना भोजन कराके, उनने लाखों परिजनों को अपने अन्तःकरण की प्यार की गंगा में स्नान कराया। पूज्यवर बौद्धिक उद्बोधन देते, स्थूल व्यवस्था संबंधी निर्देश देते, कभी-कभी कार्यकर्ताओं को डांट भी लगा देते, पर प्यार का मलहम माता जी द्वारा ही लगाया जाता था। सभी इसी प्यार की धुरी पर टिके रहे। क्रमशः परिवार बढ़ते-बढ़ते तीन करोड़ की संख्या पार कर गया।
2 जून को अपने आराध्य के महाप्रयाण के बाद करोड़ों बच्चों को हिम्मत बंधाकर उनने 1,2,3,4 अक्टूबर 1990 शरदपूर्णिमा के श्रद्धांजलि समारोह में उपस्थित 25 लाख परिजनों के माध्यम से जन-जन को आश्वस्त कर दिया कि दैवी शक्ति द्वारा संचालित यह मिशन आगे ही आगे बढ़ता चला जायेगा, कोई भी झंझावात इसे हिला न पाएगा। इसके बाद संपन्न विराट शपथ समारोह एवं 18 अश्वमेध यज्ञ गीता के 28 अध्यायों की तरह हैं और उनके महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व के परिचायक हैं।
परम वंदनीया माताजी की 69 वर्षीय यात्रा का समापन पूज्यवर की सूक्ष्म जगत से अंतर्वेदना भरी पुकार के रूप में गायत्री जयंती से ही प्रारंभ हो चुका था। चार वर्ष की आराध्य से दूरी का सीमा बंधन वाली परिधि टूट चुकी थी। लगता था, कभी भी वे अपने आराध्य से जा मिलेंगी। पूज्यवर जिस समाज यज्ञ में समिधा की तरह जले, उसमें अपनी अंतिम हविष्य की आहुति देती हुई परम वंदनीया माताजी भाद्रपद पूर्णिमा 19 सितम्बर को अपने जन्मदिवस से 4 दिवस तथा पूज्यवर के काया जन्मदिवस से 13 दिवस पूर्व महालय श्राद्धारंभ की वेला में महाप्रयाण कर उस विराट ज्योति से एकाकार हो गयीं। उस महाशक्ति को हम सब शिष्यों का शत्-शत् नमन, शत्-शत् नमन।
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