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Books - प्राणवान प्रतिभाओं एवं जागृत आत्माओं को महाकाल का आह्वान

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


युग पुरुष पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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परम पूज्य गुरुदेव का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी संवत 1968 (20 सितंबर 1911) को ग्राम आंवलखेड़ा जनपद आगरा (उ.प्र.) के एक जमींदार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही उनकी अध्यात्म साधना व चर्चा में गहरी रुचि थी। जब वे दस वर्ष के थे तभी महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। मात्र पंद्रह वर्ष की आयु में ही उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु स्वामी सर्वेश्वरानंद का प्रकाश पुज के रूप में साक्षात्कार हुआ और उनके निर्देश पर उन्होंने अखंड ज्योति दीपक प्रज्ज्वलित कर चौबीस वर्ष तक चलने वाले चौबीस-चौबीस लाख के चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों की श्रृंखला को आरंभ किया। साधना काल में वे केवल गाय को खिलाए और गोबर से छानकर निकाले गए संस्कारित जौ की रोटी व छाछ ही लेते रहे। इस कठोर साधना के फलस्वरूप इसी मध्य उनकी कुंडलिनी तथा पंचाग्नि विद्या की सिद्ध-साधना पूर्ण हुई।
किशोरावस्था से ही वे स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लेते रहे और इस निमित्त उन्हें तीन बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी। जब वे आसनसोल जेल में कैद थे तभी वे महामना मालवीय जी, रफी अहमद किदवई, श्रीमती स्वरूप रानी नेहरू और देवदास गांधी प्रभृति नेताओं के अति सन्निकट आये। सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के कारण सरकार द्वारा उत्पीड़ित किए जाने और घर की कुर्की होने के बाद भी उनकी आजादी की लगन बढ़ती ही गई थी। उन्होंने महात्मा गांधी को अपना राजनीतिक गुरु स्वीकार करते हुए उनसे मिलने एवं मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए कई बार साबरमती आश्रम की यात्रा भी की थी।
अध्यात्म तत्वदर्शन का शास्त्रोक्त एवं विज्ञान सम्मत प्रतिपादन तथा प्रचार-प्रसार करने के निमित्त उन्होंने फ्रीगंज आगरा से ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन सन 1940 से वसंत पंचमी से प्रारंभ किया। कालांतर में जब वे मथुरा आ गए तब से इस पत्रिका का प्रकाशन भी यहीं से होने लगा। आजकल यह पत्रिका ‘अखंड ज्योति संस्थान’ मथुरा द्वारा प्रकाशित हो रही है। इस पत्रिका ने अब तक लाखों लोगों के जीवन की दिशाधारा बदलने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
प. पू. गुरुदेव ने अपने गुरु सर्वेश्वरानंद जी के निर्देश पर चार बार हिमालय की यात्रा की और 6 महीने से लेकर एक वर्ष तक अज्ञातवास में रहते हुए कठोर तप साधना में निरत रहे। उन दिनों की स्मृति में लिखी पुस्तक ‘सुनसान के सहचर’ एक पठनीय पुस्तक है।
उन्होंने चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति पर सन 1953 में महर्षि दुर्वासा की तपस्थली में मथुरा-वृंदावन मार्ग पर गायत्री तपोभूमि की स्थापना की और अखंड अग्नि प्रज्ज्वलित की जो आज भी विद्यमान है और आगे भी रहेगी। इसी समय उन्होंने 108 कुंडी गायत्री महायज्ञ किया और तभी से गुरु दीक्षा देने का क्रम भी प्रारंभ हुआ।
मथुरा में ही उन्होंने सन् 1958 में सहस्र कुंडी यज्ञ संपन्न किया जिसमें लगभग पांच लाख गायत्री साधकों ने भाग लिया। इस अभूतपूर्व सफल यज्ञ आयोजन के बाद ही उन्होंने गायत्री परिवार के संगठन की स्थापना की।
20 जून 1971 को वे संकल्पपूर्वक मथुरा को सदा-सर्वदा के लिए छोड़ कर हरिद्वार चले गये और वहां ‘शांतिकुंज’ की स्थापना की। शीघ्र ही वे पुनः अज्ञातवास हेतु हिमालय चले गए। उनकी अनुपस्थिति में उनकी धर्मपत्नी वंदनीया माताजी नव स्थापित शक्ति केंद्र का संचालन करती रहीं। सन 1972 की गायत्री जयंती के बाद उन्होंने ‘शांतिकुंज’ में दुर्गम हिमालय में कार्यरत ऋषियों की परंपरा का बीजारोपण कर उसे एक सिद्धपीठ के रूप में विकसित किया। यहां पर उन्होंने जाग्रत आत्माओं के लिए प्राण प्रत्यावर्तन, चांद्रायण कल्प, संजीवनी साधना और जीवन साधना के सत्रों का आयोजन करना आरंभ किया जो परंपरा आज भी पहले से अधिक प्रखर रूप में चल रही है।
उन्होंने संपूर्ण भारतवर्ष में 2400 शक्तिपीठों की स्थापना की। मंदिर का शिलान्यास व मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हेतु वे स्वयं प्रत्येक स्थान पर गए थे। ये सभी शक्तिपीठ आज भी जाग्रत-जीवंत तीर्थ के रूप में सक्रिय हैं।
उन्होंने विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय एवं गायत्री महाशक्ति व यज्ञ विद्या पर अनुसंधान हेतु सुविज्ञ चिकित्सकों-वैज्ञानिकों का स्वयं मार्गदर्शन कर ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान का गठन किया। सन् 1979 में परिपूर्ण सुसज्जित आधुनिकतम प्रयोगशाला की भी स्थापना की।
सन् 1984 में सूक्ष्मीकरण पंचकोषी साधना में प्रवेश किया। अब तक उनके शिष्यों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी थी। उनके आज्ञानुयायी समर्पित शिष्यों ने उनकी हीरक जयंती मनाने का निश्चय किया। फलतः देश भर में 108 कुंडीय गायत्री महायज्ञों व राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों की धूम मच गई।
सन् 1990 में बसंत पर्व पर उन्होंने महाकाल के संदेश के रूप में भविष्य की रीतिनीति एवं छह माह पश्चात अपने महाप्रयाण की घोषणा कर दी थी। अंततः वह दिन आ पहुंचा और प. पू. गुरुदेव ने 2 जून 1990 को अपना कार्य भार व शक्ति वंदनीया माता जी को हस्तांतरित करके गायत्री जयंती के शुभ अवसर पर मां गायत्री का नामोच्चारण करते हुए स्वेच्छा से अपने जर्जर शरीर का परित्याग किया।
आज वे स्थूल रूप में अवश्य हमारे बीच में नहीं है, परंतु अंतिम समय में अपने दिए गए आश्वासन के अनुसार वे अब भी सूक्ष्म रूप में हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं।


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