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Books - परोक्ष सत्ता एवं उसकी विधि व्यवस्था

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Language: HINDI
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युग समस्याओं के समाधान में नियन्ता की भूमिका

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इन दिनों अदृश्य वातावरण की विषाक्तता ही अनेकानेक संकटों को जन्म दे रही है। विज्ञान-वेत्ताओं के अनुसार बढ़ते प्रदूषण और तापमान ने ध्रुव पिघलने, समुद्र उफनने और हिमयुग लौट आने जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी हैं। अदृश्य-वेत्ताओं के अनुसार दुर्भावनाओं, उद्दण्डताओं और कुकर्मों ने देव जगत को रुष्ट कर दिया है और वे सामूहिक दण्ड व्यवस्था करके मनुष्य समुदाय को कड़ुआ पाठ पढ़ाने—करारी चपत लगाने के लिए आमादा हो गये हैं। प्रस्तुत समस्याओं का कारण चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये चाहे अध्यात्म दृष्टि से, उसमें अदृश्य जगत में संव्याप्त वातावरण की विषाक्तता प्रमुख कारण है। इसका समाधान भी उतने ही वजनदार पुरुषार्थ चाहता है, जिससे खोदी हुई खाई पट सके और लगी हुई कलंक कालिमा धुल सके। इतिहास साक्षी है कि मनुष्य वातावरण को बिगाड़ने में तो अनेक बार सफल हुआ है, पर जब-जब परिस्थितियां बेकाबू हुई हैं, तब-तब नियन्ता ने ही उलटे को उलटकर सीधा किया है। पर यह दैवी अनुग्रह भी अनायास ही उपलब्ध नहीं होता, उसके पीछे भी ऋषि-कल्प देवताओं का दबाव काम करता है। जल के लिए सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। आर्यावर्त-ब्रह्मवर्त, से लेकर मगध बंगाल तक का इलाका प्यास से मर रहा था। उपयोगी उपाय गंगावतरण समझा गया। इसके लिए तपस्वी की प्रार्थना ही सुनी जा सकती थी। यह कार्य भागीरथ ने अपने जिम्मे लिया। उद्देश्य की पवित्रता को देखकर शिवजी सहायक बने और जाह्नवी स्वर्गलोक से धरती पर उतरी। अभाव दूर हो गया। जिस दिव्य प्रवाह के कन्धों पर युग विभीषिकाओं को निरस्त करने एवं सतयुगी वातावरण वाले उज्ज्वल भविष्य का पथ-प्रशस्त करने की जिम्मेदारी है, उसकी समर्थता और व्यापकता द्रुतगति से बढ़नी ही चाहिए। इस सन्दर्भ में मत्स्यावतार की पौराणिक गाथा अनायास ही स्मरण हो आती है, जिसने ब्रह्मा के कमण्डलु में अवस्थित छोटे से कीड़े के रूप में जन्म लिया था, किन्तु विस्तार इतनी द्रुतगति से किया कि उसका घड़े में, तालाब सरोवर में निर्वाह न हुआ और अन्ततः पूरे समुद्र को अपने कलेवर से भर दिया। इसी सन्दर्भ में ऋषिवर अगस्त्य द्वारा तीन चुल्लू में समुद्र सोखने की गाथा सामने आ खड़ी होती है। युग विभीषिकाएं क्या समुद्र जितनी गहरी हैं और क्या उन्हें कोई अगस्त्य अभी भी सोख सकेगा? इस प्रश्न का उत्तर समय देगा। क्या समाधान के लिए अवतरित हुए प्रयास आरम्भ में अत्यन्त तुच्छ और असहाय दीखने पर भी मत्स्यावतार की तरह द्रुतगति से विश्वव्यापी बन सकेंगे? इसका उत्तर भी भविष्य के गर्भ में ही सन्निहित है। बाल्यकाल में भी कृष्ण ने बन्दी गृह के प्रहरियों को तन्द्राग्रस्त करके—वसुदेव के लिए भादों की उफनती यमुना को सहज तैरने योग्य बनाकर अपनी अलौकिकता का परिचय दिया था। छोटा बालक पूतना, अघासुर, बकासुर, कालिया जैसे दैत्यों को खेल-खेल में ही धराशायी बना सका, यह कठिन प्रतीत होता है। फिर भी ऐसा ही हुआ। दो बालकों का चाणूर, मुष्टिकासुर, कुवलिया से ही नहीं कंस, जरासंध जैसों से भिड़ जाना और परास्त करके रहना समझ से बाहर की बात है। वैसे तो यह बात भी सामान्य समझ से बाहर की है कि सामयिक विकृतियों में परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। युग प्रवाहों में—अवतारों की यही विशेषता रही है कि वे असम्भव को सम्भव बनाते रहे हैं। समुद्र पर पुल बांधना और उंगली पर गोवर्धन उठाना भी बुद्धि और तर्क का गणित सही सिद्ध नहीं कर सकता। जान बचाकर ऋष्यमूक पर छिपे हुए सुग्रीव के चरण सेवक हनुमान यदि सचमुच बजरंगबली रहे होते तो अपने स्वामी की वैसी दुर्दशा न देखते रहते। उनका निजी व्यक्तित्व इस योग्य न था कि लंका जलाते और पर्वत उठाते। पाण्डव भी निजी रूप में सामान्य थे, अन्यथा क्यों जुआ खेलते, क्यों पत्नी हारते, क्यों उसका लज्जा हरण भरी सभा में देखते और क्यों वनवास की अवधि में जिस-तिस की चाकरी करते छिपते फिरते। किसी तूफान के सहचर बनकर ही वे तनिक पत्तों की तरह आकाश में छाये और महाभारत के विजेता कहलाये। ऐसे असम्भवों को सम्भव करना ही अवतार काल की विशेषता रही है। बुद्ध की आंधी आई तो उसने देखते-देखते समूचे एशिया का आंगन बुहार दिया। अदालत में बहस करते समय कांपने वाले गांधी का वह परिवर्तन पराक्रम देखते ही बनता है, जिसमें उन्होंने कोटि-कोटि मानवों में प्राण फूंके और जिनके राज्य में कभी सूर्य अस्त न होता था, ऐसे महाबली अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिये। भगवान के चमत्कार इसी रूप में देखे जाते हैं। निराकार को साकार बनने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बाजीगर की पर्दे के पीछे उंगलियां काम करती रहती हैं और कठपुतलियों का ऐसा नाच बन पड़ता है कि देखने वालों को आश्चर्यचकित होना पड़े। युग परिवर्तन सामान्य बुद्धि के लिए अति कठिन है। 500 करोड़ मनुष्यों के शिर पर चढ़े हुए अनास्था रूपी असुर द्वारा जिस महाप्रलय का साज-संजोया गया है, उसे देखते हुए हर किसी को आतंकित पाया जाता है। अनौचित्य का आवेश महामारी की तरह समूचे वातावरण को विक्षुब्ध कर रहा है। आस्था संकट ने सुख-शान्ति और प्रगति की बुरी तरह कमर तोड़ दी है। छेड़खानी से क्रुद्ध प्रवृत्ति ने मदोन्मत्त हाथी की तरह आकाश से कहर बरसाने और सब कुछ कुचल-मसलकर रख देने वाला रौद्र रूप धारण किया है। ऐसे अवसर पर महादैत्य की दुरभिसन्धियों को निरस्त करने में किन्हीं महा वाराह या महा नृसिंह से ही आशा की जा सकती है। विकृत मस्तिष्कों को उलट देने और देव चिन्तन को स्थानापन्न करने की सामर्थ्य सामान्य साधनों में कहां हो सकती है? ऐसे महान प्रयोजन में परशुराम का फरसा ही अभीष्ट की पूर्ति कर सकता है। जलते धरातल और प्राणि समुदाय की प्यास कुछ बूंदों से बुझती न थी। उसकी परितृप्ति तभी हो सकती थी जब स्वर्ग से उतर कर गंगा धरती पर विचरे। इतने बड़े प्रयोजनों की पूर्ति में बादलों में बांस से छेद करने की कपोल कल्पना, बाल योजना काम नहीं दे सकती। इतना बड़ा कार्य भागीरथ की तप साधना ने ही सम्भव कर दिखाया। प्रस्तुत नरक जैसी विपन्नताओं को स्वर्गोपम सतयुगी सुसम्पन्नता में बदलने के लिए व्यक्ति तो अपनी विवशता भी व्यक्त कर सकते हैं पर उस सृष्टा को असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के वचन से मुकरना नहीं है। जो बात मनुष्य के वश से बाहर की होती है, उसकी अनिवार्यता देखकर भगवान और चमत्कारी परिवर्तन कर दिखाते हैं। विपन्न परिस्थितियां सृष्टि के इतिहास में पहले भी अनेक बार प्रस्तुत होती रही हैं। जब मनुष्य द्वारा प्रस्तुत किये बिगाड़ विभीषिका के रूप में प्रकट हुए हैं और सुधार ने अपने को असमर्थ पाया है तो फिर कोई दैवी शक्ति ही उलटे को उलट कर सीधा करने के लिए अन्धकार को चीर कर ऊषा काल की तरह उभरी है। एक बच्चा भी आग का खेल करके खेत खलिहानों को जला देने वाला दावानल प्रकट कर सकता है, पर जब उस अग्निकाण्ड को बुझाने के लिए साधारण प्रयत्न काम नहीं करते, तब शक्तिशाली अग्नि शामक दल—सशक्त फायर ब्रिगेड सहित अथक परिश्रम से उसे काबू में लाते हैं। जब प्रान्तीय सरकारें ठीक तरह काम नहीं करतीं, तब राष्ट्रपति शासन लागू होता है और केन्द्रीय सत्ता के अधीन नये सिरे से नये निर्धारण होते, नये कार्यक्रम चलते हैं। प्रस्तुत परिस्थितियों में दैवी उपाय-उपचार ही यह आश्वासन प्रदान करते हैं कि निराश न हुआ जाय। आशा बंधाने वाले आधार अभी भी विद्यमान हैं। अन्धकार कितना ही सघन क्यों न हो, प्रभात उससे बड़ा है। जब दिनमान उगता है तो तमिस्रा के पलायन में देर नहीं लगती है, भले ही वह कितनी ही काली, डरावनी व्यापक क्यों न हो? इस सृष्टि का नियन्ता इस भूमण्डल और मनुष्य समुदाय से कहीं बड़ा और कहीं सशक्त है। इस धरती का निर्माण उसने अपनी दृश्यमान प्रतिमा के रूप में गढ़ा है। उसे अपना युवराज और सृष्टि का मुकुट मणि भी बनाया है। यह कैसे हो सकता है कि वह धरती और मानवी सत्ता को इस प्रकार नष्ट हो जाने दे, जिस प्रकार कि वह इन दिनों होती दिखाई पड़ती है। नियन्ता को ऐसी विपन्नताओं को समय-समय पर आते रहने की जानकारी थी, इसलिए उसने सर्वसाधारण को आश्वस्त किया कि विभीषिकाओं का घटाटोप कितना ही सघन क्यों न हो उसे प्रलयंकर न बनने दिया जायेगा। सर्वनाश की घड़ी आने से पहले ही उसे रोक दिया जायेगा, यह सुनिश्चित है। ‘‘यदा-यदाहि धर्मस्य:...........’’ वाले वचनों में सृष्टा का आश्वासन अभी भी यथावत विद्यमान है कि अधर्म की बढ़ोत्तरी जब चरम सीमा पर जा पहुंचेगी और सुधार नियन्त्रण मनुष्य के काबू से बाहर प्रतीत होगा तो वे अवतार धारण करेंगे और उलटी परिस्थितियों को उलटकर सीधा करेंगे। यह मात्र वचन ही नहीं तथ्य भी है और प्रमाण भी। ऐसा समय-समय पर होता भी रहा है। भगवान के गत 9 अवतारों एवं भावी अवतार से सम्बन्धित कथाओं में इसी आश्वासन के चरितार्थ होने का सुविस्तृत वर्णन विद्यमान है। भगवान के समयानुकूल अवतरण की आशा पर ही मानवी गरिमा युग-युगान्तरों से जीवित है, अन्यथा राहु-केतु का प्रकोप अब तक सूर्य चन्द्र को कब का उदरस्थ कर चुका होता। स्पष्ट है कि निराकार परब्रह्म स्वयं साकार नहीं हो सकता। सर्वदेशी, सर्वव्यापी, एक देशी-सीमित कैसे बनकर रहे? पवन का घरौंदा किसी घोंसले पर कैसे बने? सत्य व्यापक एवं निराकार है, तो भी उसका सामयिक प्रमाण परिचय हरिश्चन्द्र जैसों के माध्यम से मिलता है। परमात्मा की इच्छा, योजना और प्रेरणा का परिवहन करने के लिए सदा जाग्रत आत्माओं को अग्रिम भूमिका निभानी पड़ती है, तो भी वे मात्र निमित्त कारण ही रहते हैं और अपने पराक्रम के अनुरूप श्रेय पाते हैं। इतने पर भी यह स्मरण रखा जा सकता है कि महान कार्यों के लिए महान स्तर का महान पुरुषार्थ करने वालों की उत्पत्ति किसी महान के सूत्र-संचालन पर होती है। वरिष्ठ और विशिष्ट आत्माएं युग चेतना के अवतरण को धारण करतीं और उसकी इच्छा योजना को कार्यान्वित करती देखी जाती हैं। भगवान अनेक दैवी घटकों का समुच्चय हैं। समुद्र अनेक लहरों से मिलकर बनता है। दैत्य भी एक नहीं वरन् एक समूह होता है। यही बात देव तत्व के सम्बन्ध में भी है। अनाचार की इस बेला में दैवी शक्तियों का एक समूचा गुच्छक कार्यक्षेत्र में उतर रहा है। उस समुदाय में एक इकाई हम भी हैं। किनका कितना परिचय लोगों को मिला। कितना न मिला इसका कोई महत्व नहीं। महत्व इतना ही है कि विनाश का दैत्य ही सब कुछ नहीं है। उससे भी बलिष्ठ देवत्व है जो समय रहते मैदान में उतरता है और बिगड़ी को बनाकर रहता है। यह समय-समय पर भूतकाल में भी होता रहा है। यही अब भी होने जा रहा है। महान परिवर्तन के लिए देव शक्तियों की एक समूची श्रृंखला कार्यक्षेत्र में उतर रही है। इसकी गतिविधियों का अनुभव हम सब अगले ही दिनों करेंगे। इन दिनों भले ही प्रत्यक्ष में तमिस्रा का व्यापक साम्राज्य संव्याप्त नजर आता हो। वह दैवी सत्ता निराकार रूप में ही देखते-देखते एक छोटा-सा सूरज उगाकर सारी परिस्थितियां उलट सकती है। हरीतिमा रहित ठूंठों पर बासन्ती बहार ला देना उसके लिए बायें हाथ का खेल है। इसके लिए ऋषि-महामानव सदा-सदा से ही अवतरित होते रहे हैं। वर्तमान क्रिया-कलापों में उस दैवी चेतना के सक्रिय क्रियान्वयन को ज्ञान-चक्षुओं द्वारा देखा जा सकता है। अन्यथा वह उमंग कैसे उठती, जिसने इस दैवी मिशन को कहां से कहां पहुंचा दिया। जो इतना समझते हैं, वे इस आश्वासन को भी सुनिश्चित समझे कि समय बदलेगा, नासमझी का स्थान विवेकशीलता लेगी और समग्र सूत्र-संचालन सोये मूर्धन्यों के हाथों से निकलकर जागृतात्माओं के हाथों में आएगा। इक्कीसवीं सदी ऐसी ही संभावनाओं को लेकर आ रही है। 
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परोक्ष सत्ता एवं उसकी विधि व्यवस्था
Type: TEXT
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